ज्ञानार्णव - श्लोक 1586: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
मत्तोन्मत्तादिचेष्टासु यथाज्ञस्य स्वविभ्रम:।
तथा सर्वास्वस्थासु न क्वचित्तदर्शिन:।।1586।।
ज्ञानी जीव को सभी अवस्थावों में आत्मा की बेसुधी नहीं रहती। जैसे कितने ही लोग ऐसी शंका रखते हैं कि जब मरणकाल आता है तो इंद्रियाँ काम नहीं करती, बेसुधी हो जाती है तो वहाँ आत्मा का इसे चेत न हो सकता होगा, लेकिन ऐसी बात नहीं है। जैसा संस्कार है, जैसी भीतर में ज्ञानप्रकाश है, बेसुधी इंद्रिय की हो गई, ऊपर से अचेत लग रहा है, लेकिन भीतर में वही वासनाहै, वही ज्ञानप्रकाश है। ज्ञानी पुरुष के मरण के समय बेसुधी हो जाय तो भी ज्ञान का काम बराबर रहता है। तो यहाँ एक दृष्टांत विरुद्ध में दे रहे हैं कि जैसे अज्ञानी पुरुष को आत्मा का भ्रम आत्मा की अचेत तब होती है जब कोई पागल हो जाय या मदिरा पीकर बेहोश हो जाय तो लोग समझते हैं कि यह अचेत हो गया और जब जग जाता है तो लोग समझते हैं कि इसके चेत हो गया, लेकिन तत्त्वज्ञानी पुरुष की बात सब अवस्थावों में अचेत की रहती है। उसने अपनेआपमें अपना ज्ञान, अपना अनंत आनंद पाया है। उस पुरुष के ऐसा चेत हुआ हे कि कुछ भी अवस्थायें गुजर जायें पर उसे चेत रहता है। जैसे जिसके परिजनों का संस्कार रहता है तो वह स्वप्न में भी इन परिजनों को ही अपने चित्त में बसाये रहता है। गुरुजी सुनाते थे कि एक दफे स्वप्न में हम गंगानदी में गिर गए और फिर ऐसे किनारे बहकर लगे जहाँपर एक रागी देवता का मंदिर था। वहाँ पहुँचने पर उस मंदिर के माली ने मुझे उस देवता का नमस्कार करने के लिए जोर दिया। उसने बहुत कहा पर हमने नमस्कार नहीं किया। यह स्वप्न की बात है। तो ज्ञानी पुरुष सभी अवस्थावों में जागरूक रहता है। जैसा जिसका संस्कार होता है स्वप्न में भी वही बात चलती है। और तो क्या, स्वप्न में भी आत्मानुभव हो जाता है। जैसे स्वप्न में जंगल, शेर, हाथी, घोड़ा, तालाब आदि नहोने पर भी दिख जाते हैं ऐसे ही आत्मस्वरूप के दर्शनाभिलाषी को स्वप्न में भी आत्मस्वरूप के दर्शन हो सकते हैं और जो आनंद जगने में पाता था वही आनंद वह स्वप्न में भी पाता है। तत्त्वज्ञानी पुरुष का ऐसा दृढ़श्रद्धान रहता है कि सोती हुई अवस्था में भी जागरूक रहता है। जैसे स्वप्न में अनेक चीजें सभी लोग प्राय: देखा करते हैं ऐसे ही ज्ञानी पुरुष अपने आपके ही जानने का काम करे यह बात असंभव नहीं। जैसे स्वप्न में देवदर्शन करते, मंदिर देखते, मूर्ति देखते ऐसे ही आत्मज्ञानी पुरुष आत्मा की बात जानने लगे तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं है। और इस बात में उसका ऐसा दृढ़निश्चय की स्वप्न में भी दु:ख का अनुभव हो सकता है। तो तत्त्ववेदी पुरुष के सभी अवस्थावों में आत्मा का विभ्रम नहीं होता। इसके फल में सभी अवस्थावों में कर्मनिर्जरा चलती है। कभी कोई डाकू चार उस तत्त्ववेदी पुरुष को सताये भी, हथियारों से बेहोश भी कर दें तो भी उसे अपने आपका प्रकाश मिलता है और उस बेहोशी में भी उसके कर्म निर्जराहै।