ज्ञानार्णव - श्लोक 1661: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
नरकायु:प्रकोपेन नरकेऽचिंत्यवेदने।
निपतंत्यंगिनस्तूर्ण कृतार्तिकरुणस्वना:।।1661।।
नरक आयु कर्मों के उदय से ऐसे वेदना वाले नरकों के बिलों में जन्म होता है कि शरीर क्षीण करना पड़ता है, जिसकी वेदना कहने में नहीं आ सकती। यहाँ तिर्यंचों की मनुष्यों की वेदना तो फिर भी कहीं जा सकती है। वहाँ की भूमि ऐसी हे कि उनके छूने मात्र से हजारों बिच्छुवों के डसने बराबर वेदना होती है। आप अंदाज लगा सकते कि वह कितनी बड़ी वेदना होगी। जब एक बिच्छू के डस लेने से दो तीन दिन तक बेहोशी सी छाई रहती है, वेदना सही नहीं जाती है तो हजार बिच्छुवों की वेदना को कैसे बताया जाय? तो जमीन के छूने मात्र से जब हजारों बिच्छुवों के डसने बराबर वेदना है तो फिर वहाँ बसने वाले नारकियों को कितनी वेदना होती होगी, इसकी कहानी कौन कहे? वही पर कुछ देवता लोग अपने परिचितों से मिलने-जुलने के लिए जाते हैं तो उनको कुछ भी नहीं होता, वे तीसरे चौथे नरक तक चले जाते हैं घूमते-घामते पर उनको किसी भी प्रकार की वेदना नहीं होती। यही देख लो परिवार में कुछ लोग बड़े चिंतातुर रहा करते हैं और कुछ लोग बड़े मौजमें रहते हैं ऐसे ही नारकियों को तो वहाँ पर घोर विपत्तियाँहैं, पर उन देवों को वहाँ पर किसी भी प्रकार की विपत्ति नहीं होती। जैसे कभी देखा होगा कि जब कोई बिजली की करेन्ट खुली रह जाती तो वह करेन्ट भींट में अथवा भूमि में भर जाती है तो लोग झट उसे छोडकर भागते हैं ऐसे ही उन नरकों की जमीन दु:खरूपी करेन्ट से भरी हुई है जिसके छूने मात्र से हजारों बिच्छुवों के डंक मारने बराबर वेदना उत्पन्न होती है। यद्यपि वैक्रियक शरीर देवों का भी है और उन नारकियों का भी है, पर देवों के शरीर में उन नरकों में भी कुछ असर नहीं होता। वे नारकी जीव दूसरे नारकी जीव को देखकर उस पर आक्रमण कर देते हैं और उनके खंड-खंड कर देते हैं, वे खंड-खंड फिर पारे की तरह मिलकर शरीररूप बन जाते हैं। इस तरह के घोर दु:ख वे नारकी जीव सहन करते हैं। वहाँ ठंड गर्मी की वेदना भी बहुत प्रबल है। वहाँ गर्मी इतनी तेज बतायी है कि मेरु पर्वत के समान लोहा हो तो वह भी गल जाय।ऊपर के नरकों में तो गर्मी की वेदनाहै और नीचे के नरकों में ठंडी की वेदना है। बैसाख जेठ में जब तेज गरमी पड़ती है तब की वेदना देख लो और पूस के महीने में जब खूब ठंड पड़ती है तब की वेदना देख लो। शीत की वेदना भी गर्मी की वेदना से कम नहीं है। तो वहाँ नरकों में नारकी जीव अतिशय गर्मी व सर्दी के दु:ख भोगते हैं।और अपने आप जो कुछ दु:ख देते हैं एक दूसरे नारकियों को सो तो देते ही हैं। उनके शरीर वैक्रियक है। वे इच्छा करते हैं कि मैं इसे तलवार से मारूँ तो उन्हें कहीं बाहर से तलवार नहीं लानी पड़ती। उनके हाथ ही स्वयं तलवार बन जाते हैं। तो कितनी तीव्र यातनाएँहैं उन नारकियों के, सो आप अंदाजा लगा सकते हैं। ये तो उनके खुद के दु:खहैं लेकिन वहाँ देवता लोग उन्हें भड़काने के लिए, फोड़ने के लिए, परस्पर भिड़ाने के लिए पहुँच जाते हैं―वे कहते देखो यह तुम्हारा पूर्वभव का बैरी है, इसने तुम्हारी आँखों में सींक घुसेड़कर आँखें फोड़ना चाहा था। अरे चाहे वह उसकी पूर्व भव की माँहो, आँखों में सींक से अंजन लगाया हो पर वे देव नारकियों को इस तरह से फोड़ते हैं कि वे उसे अपना विरोधी समझकर उस पर आक्रमण कर देते हैं। जैसे यही पर तीतर को तीतर से लड़ाकर अथवा मुर्गे को मुर्गे से लड़ाकर खुशी मानते हैं। ऐसे ही एक नारकी दूसरे नारकी पर प्रहार करके, मार करके खुशी मानते हैं। तो वहाँ है कहाँ सुख? नरक आयु के उदय से यह जीव नरकों में जन्म लेता है। जन्म लेते ही देख लो तुरंत ही दु:खस्वरूप है। ये नारकी जीव किसी माता-पिता के द्वारा पैदा नहीं होते।ऊपर जो पृथ्वी है सो पृथ्वी में जो विमान हैं, घंटा वगैरह हैं उनसे चीत्कार शब्द करते हुए नीचे गिरते हैं और नीचे गिरकर सैकड़ों बार गेंद की तरह उछलते हैं। तो पैदा होते ही दु:ख उत्पन्न हो जाते हैं, ऐसे सैकड़ों वेदनावों से भरपूर नरक गति में नरक आयुकर्म से यह जीव जन्म लेता है।