ज्ञानार्णव - श्लोक 1719: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
न कलत्राणि मित्राणि न पापप्रेर को जन: ।
पदमप्येकमायातो मया सार्द्धं गतत्रप: ।।1719।।
जिनके लिये पाप किये उनके यहाँ न आ सकने पर व्यर्थ कृत पाप का विषाद―वे स्त्री पुत्र मित्रादिक पाप की प्रेरणा करने वाले ये मनुष्यादिक ये एक भी कदम मेरे साथ नहीं आये जिनके लिये मैंने नाना पापकर्म किया । वे ऐसे निर्लज्ज हो गए कि एक कदम भी मेरे साथ नहीं आये । जिनके लिए मैंने नाना पापकर्म किया, जिन्होंने मुझे पाप में प्रेरणा दी, जिनके बहकावे में आकर मैंने पाप किया तो उस समय तो वे बहुत हृदय मिले चल रहे थे लेकिन अब वे ऐसा निर्लज्ज हो गए हैं कि एक कदम भी मेरे साथ नहीं आये, पश्चाताप करता है, चिंतन करता है । जब कोई बात बीतती है खुद पर उस समय जो भाव आता है जो विचार उठता है वह विचार उसी के खुद के विचार हैं, दूसरे के नहीं । मनुष्यभव में भी जब कोई वेदना होती है, हर तरह से बरबाद हो जाता है, कोई पूछने वाला नहीं होता है अथवा कोई उस दुःख दर्द को बाँट सकने वाला नहीं होता है तो उस समय वह भी अपने आपको असहाय निरखता है । मेरा कोई साथी नहीं, मेरा कोई सहाय नहीं, इस प्रकार वह नारकी जीव भी उस कठिन वेदना में रहकर अपने को निरंतर असहाय निरखता है । ओह! जिनके पीछे मैंने अनेक पाप किए वे कोई सहाय नहीं हो' रहे हैं ऐसी उसके एक झुंझलाहटसी होती है, और उसे खेद होता है कि यदि मैं उस समय ऐसे पापकर्मों में न पड़ता तो मैं कितना स्वरक्षित रहता ।