ज्ञानार्णव - श्लोक 1753: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
द्विगुणा द्विगुणा भोगा प्रावर्त्यान्योन्यमास्थिता: ।
सर्वे ते शुभनामानो वलयाकारधारिण: ।।1753।।
अगले-अगले द्वीपसमुद्रों के परिमाण की द्विगुणद्विगुणता―मध्य लोक में जो द्वीपसमुद्र बताये गए हैं वे दूने-दूने विस्तार वाले हैं और एक दूसरे को घेरे हुए हैं, गोल आकार के हैं, उनके नाम भी बहुत शुभ हैं । जैसे जंबूद्वीप, धातकीद्वीप, पुस्करद्वीप, कालौदधि, लवणसमुद्र आदिक सभी शुभ नाम वाले हैं । ये द्वीप समुद्र हैं असंख्यात, गिनती से बाहर और ऐसी गिनती से बाहर जो अनेक कल्पनाएँ कर के भी गिनती मानी जा सकती है, उससे भी परे इतने असंख्यात द्वीप समुद्र हैं । उन सबके नाम तो बताये जा सकते हैं क्योंकि भगवान के ज्ञान से बाहर नहीं है । गणधरदेव अवधिज्ञानी और मन:पर्ययज्ञानी होते हैं, लेकिन उन नामों को लिखने के लिए इतने कागज कहाँ मिलेंगे? असंख्याते द्वीप समुद्रों के नाम लिखे नहीं जा सकते, बताये नहीं जा सकते । उनको पढ़ेंगे तो कितने जीवन तक पढ़ेंगे? इतने द्वीप समुद्र हैं और वे मध्यलोक में समाये हुए हैं । एक कवि ने कल्पना की कि देखो यह मनुष्य कितनी अच्छी सुरक्षित जगह में उत्पन्न होता है कि जो दुष्ट नारकी थे उन्हें तो नीचे ढकेल दिया ताकि ये मनुष्यों को बाधा न पहुंचाये । वे नरक में पड़े हैं और जो देव हैं वे ऊपर बसाये गए कि उनकी छाया में यह मनुष्य लोक रहें और मनुष्यलोक के चारों तरफ अनेक द्वीप अनेक समुद्र हैं, असंख्याते कोट की रचनाएं हैं, असंख्याते खाइयाँ हैं तिस पर भी यह मनुष्य रक्षित नहीं है, जब चाहे मरण को प्राप्त हो जाता है ।