ज्ञानार्णव - श्लोक 1817: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
सभाभवनमैतत्ते नतामरशतार्चितम् ।
रत्नदीपकृतालोकं पुष्पप्रकरशोभितम् ।। 1817।।
सभाभवन का निर्देशन―हे नाथ ! यह सभा भवन है । जब यहाँ ही विधान सभा आदिक ऐसे उत्कृष्ट स्थान, बहुत मनोहर और विशाल बनाये जाते हैं तो समझिये कि सौधर्म स्वर्ग में जो सौधर्म इंद्र का मुख्य सभाभवन होगा वह कितना विचित्र और रत्नादिक की कांति से जगमगाने वाला और विशाल होगा? उसकी ओर इशारा कर के मंत्री जन कह रहे हैं कि हे नाथ ! यह सभाभवन है जो समस्त देवों के द्वारा सेवने योग्य है जहाँ सभासद् अपनी धर्मं वाती करते हैं, धर्मश्रवण करते हैं और नई-नई समस्यावों पर विचार करते हैं, समाधान करते हैं । यह सब कुछ रत्नमयी दीपकों से प्रकाश भूत हो रहा है, यह जीवन का एक उत्तम स्थान है । स्वर्गों में सूर्य और चंद्र नहीं होते हैं । वहाँ दिव्य रत्नों का, कल्पवृक्षों का अद्भुत प्रकाश है जिसके कारण वहाँ सदा दिनसा ही बना रहता है । दिन रात का वहाँ कोई विभाजन नहीं होता है, लेकिन समय नामक पर्याय काल द्रव्य में परिणमती है, उसे कोई नहीं टाल सकता । कहीं सूर्य का उदय होने से समय बनता हो यह बात नहीं है, समय तो अपने आप बन रहा है, पर यह समय की सूचना देने वाला है । जैसे घड़ी चलती है तो घड़ी की सूई समय की सूचना देती है कि अब इतने मिनट हो गए, लेकिन घड़ी समय नहीं बनाती है । समय तो कालद्रव्य के परिणमन से बनता रहता है । इसी प्रकार यह सूर्य चलकर समय की सूचना देता है । घड़ी की छोटी सूई जब एक पूरा चक्कर लगाती है तो 12 घंटा कहलाते हैं तो सूर्य का भी देखने में आया हुआ यह चक्कर पूरा लग जाय तो वे 12 घंटे कहलाते हैं, और भी अनेक संकेतों से समय का ज्ञान होता है । तो ये सब समय का ज्ञान कराने के साधन हैं, पर समय नहीं बनाते, समय तो स्वयं ही बराबर व्यतीत होता रहता है और वह समय जाना भी नहीं जाता कि कितना समय बीत गया? समय वहाँ है परंतु दिन रात का भेद नहीं है । वहाँ रत्नछटा का इतना अद्भुत प्रकाश है कि जहाँ सदा ही वह प्रकाश बना रहता है ।