ज्ञानार्णव - श्लोक 198: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:33, 2 July 2021
तपस्तावद्वाह्यं चरति सुकृति पुण्यचरित-स्ततश्चात्माधीनं नियतिविषयं ध्यानमपरम्।
क्षपत्यंतर्लीनं चिरतरचितं कर्मपटलम्।। ततो ज्ञानांभोधिं विशति परमानंदनिलयम्।।198।।
शांति का ज्ञान से संबंध―मुक्ति का उपाय रचने वाला भव्य जीव क्या-क्या करता है जिससे उसकी निर्मलता बढ़ती और उस निर्मलता के कारण मुक्ति प्राप्त की जाती है। क्या करते हैं ज्ञानीजन? सबसे पहिली बात तो ज्ञान की है। जिसके अज्ञान दशा है उसके जगह-जगह विपदायें हैं, ठोकरें हैं और जिसके ज्ञान है उसके किसी कारण दरिद्रता भी आ जाय, अन्य संकट भी आ जायें तो भी वह अपने अंतरंग में व्याकुल न होगा। सुख का संबंध ज्ञान से है। बाहरी वैभव से सुख शांति का संबंध नहीं है। इन समस्त विडंबनाओं का फर्क इससे ही हो आया कि लोग बाह्य आडंबर और वैभव से सुख शांति मानते हैं पर सुख शांति है ज्ञान से। तो सर्वप्रथम ज्ञान तो होना ही चाहिए, जिसके बिना हम मोक्षमार्ग में प्रगति नहीं कर सकते। इतना ज्ञान होने के बाद अब इसका आचरण कैसा होना चाहिए? इस आचरण का वर्णन इस छंद में किया गया है।
करणीय आचार और ध्यान―पहिले तो यह ज्ञानी जीव बाह्य तपश्चरण का आचरण करे, उपवास करना, कम खाना आदिक बाह्य तपश्चरणों का आचरण करे, पश्चात् फिर वह आभ्यंतर तप का आचरण करे, जैसे अपने दोषों का निरखना, उन दोषों का प्रायश्चित्त लेना, स्वाध्याय में प्रवृत्ति रखना आदि जो आभ्यंतर तप हैं उन तपों का आचरण करें और फिर उन आभ्यंतर तपों में जो उत्कृष्ट तप है ध्यान, जिसके बिना कोई मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता इसकी पूर्ण साधना करें। इन 12 तपों में से अन्य तप चाहे कम भी रह जायें तो भी जीव को मुक्ति हो सकती है, किंतु ध्यान नाम का तप ऐसा है कि जिसके बिना कोई मुक्त नहीं हो सकता। पुराणों में कथानक आया है कि भरत जी को कपड़ा उतारते-उतारते ही केवलज्ञान उत्पन्न हो गया तो यह लोगों को दिखता है, सुना है, पर आत्मध्यान तो उनके भी हुआ था जिसके प्रसाद से शीघ्र केवलज्ञान प्राप्त किया। तो इन अंतरंग तप में प्रधान तप है ध्यान, ध्यान के प्रसाद से कर्म नष्ट होते हैं।
कल्याण का स्वाधीन उपाय―देखो भैया ! कितनी सुगम बात बतायी गई है? केवल ध्यान बदलना है कि लो सब कुछ प्राप्त कर लिया। कुछ इसमें कष्ट की बात भी नहीं कही गयी, कोई बड़ी तपस्या की बात नहीं है केवल एक ध्यान बदल लें, देह से न्यारा ज्ञानमात्र मैं हूँ ऐसा अपना निर्णय कर लें और फिर उस ज्ञानस्वरूप में ही अपनी दृष्टि बनाये रहें, सिद्धि होगी। तो पहिले तो ज्ञानीपुरुष ज्ञानार्जन करे, फिर बाह्य तप भी करे, आभ्यंतर का आचरण करे, इसके पश्चात् अंतरंग तप का आचरण करे, इसके बाद स्वाधीन नियम विषय वाले उत्कृष्ट आत्मध्यान को बनाये। अन्य पदार्थों पर ध्यान जायेगा तो सैकड़ों तरह के विकल्प बनेंगे। उस ध्यान का रूप भी सैकड़ों प्रकार का बनेगा और एक आत्मा के ध्यान में लगे तो एक ही प्रकार का ध्यान होगा। जितने साधु संतजन हुए हैं उन सबका एक ही ध्यान जब आत्मध्यान चल रहा होगा तो ठीक सबका एक ही प्रकार का अपना ध्यान चल रहा होगा। ध्यान के भेद बाह्यध्यानों में तो हैं पर आत्मध्यानों में ध्यान का भेद नहीं है। वह तो सबका एक ही प्रकार का है। तो कर्तव्य यह हो कि हम ध्यान नामक तत्त्व को महत्त्व दें और यथाशक्ति उस तपश्चरण में लगें, इस तप से चिरकाल से इकट्ठा किए हुए कर्मपटल नष्ट हो जाया करते हैं। जब कर्म दूर हो गये तो यह आत्मा उत्कृष्ट आनंद के घर में प्रवेश करेगा अथवा निज ज्ञानरूपी समुद्र में प्रवेश करेगा। यों यह आत्मा सम्यग्दर्शन करे, सम्यग्ज्ञान करे, सम्यक्आचरण करे तो इस रत्नत्रय के प्रसाद से यह उन्नति करता करता मुक्ति को प्राप्त करता है।
प्रभुभक्ति की पद्धति―अच्छा, अब जरा एक मोटी सी बात सुनो―आप जिस भगवान के दर्शन करते हैं, जिस भगवान की मूर्ति की स्थापना करके आप पूजन करते हैं, क्या चित्त में कभी यह बात भी उठाई कि स्वरूप तो यह है, आनंदमय स्थिति तो यही है, हमें भी ऐसा ही होना चाहिए तब सुख शांति मिलेगी। ऐसी अपने अंतरंग की आवाज मन में प्रभुमूर्ति के दर्शन करते समय उठाई गई क्या? भगवान के दर्शन तो करते जा रहे पर बढ़िया मानते जा रहे अपने को ही तो भगवान का क्या दर्शन किया? अभिमान तो ज्यों का त्यों बना रहे, मानो उसने दर्शन भी एक अभिमान की बात को करने के लिए किया है, तो वहाँ भी यदि शुद्ध ध्यान रहे तो दर्शन का लाभ है, पूजन का लाभ है और केवल अपनी स्वार्थपूर्ति की आशा से ही प्रभुभक्ति की तो वह प्रभुभक्ति नहीं है।
संवरपूर्वक निर्जरा से श्रेयोलाभ―यह निर्जरा तत्त्व का प्रकरण है। इसमें यह बात दिखायी है कि देखो जीव का और कर्म का संबंध अनादि काल से लगा है। जब कभी काललब्धि आये तो जिस काल में इस जीव को सम्यक्त्व प्रकट होगा वह काल आये और यह अपने स्वरूप को संभाले, तपश्चरण करके ध्यान में तल्लीन हो तो इस जीव के कर्मबंधन रुक जाता है और जब नवीन कर्म न आये और तपश्चरण सही जारी चल रहा है तो पूर्वबद्ध हुए पुराने कर्मों की निर्जरा कर लेते हैं तो संवर हुआ अर्थात् नवीन कर्मों का आना रुक जाय और अपने परिणामों से पूर्व में बांधे गए कर्मों का क्षय कर दिया जाय तो इसमें ही मुक्ति की अवस्था प्रकट होती है। हमें यदि मोक्ष चाहिए, निराकुलता चाहिए तो हमारा यह कर्तव्य है कि हम अपने स्वरूप को सही रूप में जाने और इस ही रूप में मग्न होने का उपाय रचे, यही एक सही काम करने को पड़ा हुआ है। मोह ममता में, रागद्वेष में, क्षोभ में, झगड़े में इन बातों को करके ऊबते रहने में कोई तत्त्व की बात न मिलेगी, कोई सार की बात न होगी। यह दुर्लभ नर-जीवन खोया हुआ समझिये। इस रत्नत्रय की आराधना हो, रागद्वेष मोह दूर हों तो हम आनंद की स्थिति पा सकते हैं।
-ज्ञानार्णव प्रवचन तृतीय भाग समाप्त-