ज्ञानार्णव - श्लोक 69: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
रिपुत्वेन समापन्ना: प्राक्तनास्तेऽत्र जन्मनि।
बांधवा: क्रोधरुद्धाक्ष दृश्यंते हंतुमुद्यता:।।69।।
बंधुता की व्यर्थकल्पना― पूर्व श्लोक में जो बात कही गई है उस ही के प्रतिपक्ष रूप बात इसमें कह रहे हैं। हे आत्मन् ! जो तेरे पूर्वजन्म में बड़े बांधव थे वे ही इस जन्म में शत्रुता को प्राप्त हो गये। क्रोध से जिनके लालनेत्र हो गये अथवा क्रोध से जिनकी आँखें रुद्ध हो गई, इस तरह होते हुए तुझे मारने के लिये ये उद्यत हुए हैं। जो हो रहा है, ठीक है, जिसमें जैसी योग्यता है वह वैसा परिणमन कर रहा है, पर कोई भी जीव परमार्थत: न तेरा इष्ट है, न बंधु है और न कोई तेरा द्वेषी है। सब जीव अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार, वासना के अनुसार परिणमन किया करते हैं। तुझे किसी विषय में राग है और उस विषय की पूर्ति न हो सके, जिस किसी पुरुष के कर्तव्य से तुझे अपने विषयों में बाधा जंचे उसे तू विरोधी मान लेता है। वस्तुत: कोई विरोधी नहीं है, न कोई बंधु है।
इष्ट अनिष्ट बुद्धि के नाश के लिये किसी दार्शनिक की कल्पना― जो लोग एक ही आत्मा की सत्ता मानते हैं उनका यह कहना है कि तुम्हारा कौनसा द्वेषी है? जो तू है सो ये सब हैं। जब एक ही आत्मा है तो यह भी मैं, यह भी मैं, जितने जीव हैं वे सब मैं हूँ। तो ऐसा मानकर उनको यह प्रयत्न करना चाहिये कि मेरा किसी भी परजीव पर क्रोध भाव न जगे। अरे तुम किस पर क्रोध करते हो? वह भी तो मैं ही हूँ। विरोधभाव उत्पन्न न हो इसके लिये यह मानने का उन्होंने यत्न किया है। साधारणतया समझ में यह बात बड़ी अच्छी लग रही है कि क्रोध न आये, विरोधभाव न जगे, इसके लिये यह भावना ठीक है। किस पर क्रोध करते हो? वह भी तो मैं ही हूँ, लेकिन वस्तुस्वरूप ऐसा नहीं है। इस कल्पना में क्षणिक कुछ संतोष कर लोगे, मगर सदा के लिये कोई शांति का मार्ग नहीं मिल पाता।
जीव और आत्मा की मान्यता का आधार― अब इस ही तत्त्व को वस्तुस्वरूप की दृष्टि से अब देखो तो यों मानना होगा कि जगत् में जितने भी जीव हैं वे सब स्वत: ऐसे ही हैं जैसा कि मैं हूँ और इस पूर्ण सदृश्यता के कारण किसी भी प्राणी के प्रति यह गुंजाइश नहीं निकाली जा सकती कि यह जीव मेरा बंधु है या यह जीव मेरा शत्रु है। फिर व्यवहारिक क्रियावों में यह देखा जाता है कि कोई पुरुष एकदम लाल आँखें करके मेरे को गाली देता हुआ मेरे से सीधा मुकाबला कर रहा है, ऐसी स्थिति में तो वह विरोधी समझा जायेगा ना? तो यह सिद्धांत यह समाधान देता है कि वह कैसे ही लाल आँखें करके आये और कितना ही गाली देता हो, कितना ही मुकाबला करे, इतने पर भी उस जीव ने अपने आपकी योग्यता के अनुसार अपने आपमें परिणमन किया है। यों ही कोई किसी का बैरी नहीं है।
मोक्षपथ में भावना का स्थान― यहाँ बात चल रही है मोक्षमार्ग के प्रसंग की। कैसे इस आत्मा को देह से, कर्म से, विभावों से मुक्ति प्राप्त हो उसकी यह बात चल रही है। हे आत्मन् ! पूर्वजन्म में जो तेरे बंधुरूप से थे वे ही आज क्रोध के वशीभूत होकर बैरी बनकर तेरे प्राण हरने के लिये भी उद्यमी हुए हैं। इससे तू जगत् की अनित्यता जान। यहाँ कुछ भी पदार्थ एक बात पर कायम नहीं है। कोई भी विकृत पदार्थ किसी एक निर्णय पर नहीं है। क्षण-क्षण में अपना रूप आकार परिणति बदलते रहते हैं। तू इन समागमों में न तो प्रीति कर और न विरोध कर। ये तो सब मायाजालरूप हैं।