ज्ञानार्णव - श्लोक 83: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
अत्र जन्मनि निवृत्तं यै: शरीरं तवाणुभि:।
प्राक्तनान्यत्र तैरेव खंडितानि सहस्रश:।।83।।
वर्तमान देहाणुवों की पूर्व में असकृद् बाधकता― हे आत्मन् ! इस संसार में इस समय जिन परमाणुवों से तेरा यह शरीर बना है उन्हीं परमाणुवों ने इस शरीर से पहिले पूर्व भवों में तेरे हजारों बार शरीर के खंड-खंड किए हैं। आज इस पाये हुये शरीर में इतना अनुराग बनाये हैं। जिन शरीर परमाणुवों से, स्कंधों से तू इतना अनुराग कर रहा है ये स्कंध किसी अन्य जीव के शरीर बन-बनकर तेरा हजारों बार घात कर चुके हैं अथवा ये ही परमाणु शरीर तेरे ही शरीर के घातक अंग बन-बनकर तेरा हजारों बार घात कर चुके हैं। ये शरीर स्कंध भी, शरीर के अंग भी राग करने योग्य नहीं है। यह तो एक शरीर की बात कही। सभी चीजों में यही बात घटा लो।
धन परिजन आदि समागमों की बाधकता― जिस धन, वैभव के लिए तू इतना अनुराग बनाये है यह धन, वैभव तेरे घात का अनेक बार कारण बन चुका है। ये परिजन मित्रजन जिनको तू अपना सुखकारी जानकर जिनसे तू प्रेम कर रहा है ये ही जीव अनेक भवों में तेरे शरीर के प्राणों के घातक हुये हैं। कौनसा समाज यहाँ स्नेह किये जाने के योग्य है और यों भी देखिये― पुराने परमाणु तो इस शरीर में से खिर जाते हैं और नये परमाणु वहाँ उस बंधन में आ जाते हैं। इस कारण वे ही परमाणु तो शरीर को रचते हैं और वे ही परमाणु इस शरीर को बिगाड़ते हैं। शरीर की यह दशा है और पुराने भव की बात देखो, इसी ही भव में अपने ही शरीर के अंग अपना ही घात करने के कारण बनते हैं। शरीर का ही तो अंग है। कोई फोड़ा हो जाय या अन्य कोई कठिन रोग हो जाय तो अपना ही अंग अपने इस आत्मा का ही घात कर देने वाला हो जाता है। तुम किसमें विश्वास करते हो? किसी परवस्तु का कुछ विश्वास भी किया जा सकता है क्या? अरे स्वयं ही स्वयं के विश्वास में आये तो यह विश्वास हितकर होगा। परपदार्थ चाहे हमें कितना ही अच्छा हो, पर उसका उपयोग होना या उसके प्रतिकूल बनना यह तो हमारे आधीन नहीं है। परममित्र से भी मित्र का घात हो जाता है जब भाग्य प्रतिकूल होता है। तुम किस परपदार्थ का विश्वास करते हो? एक निज सहजस्वरूप के श्रद्धान् में ही स्वहित का विश्वास करें। इस अनित्य समागमों में मोह और प्रीति न करें।