ज्ञानार्णव - श्लोक 926: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
कुर्वंति यतयोऽप्यत्र क्रुद्धास्तत्कर्म निंदितम्।
हत्वा लोकद्वयं येन विशंति धरणीतलम्।।926।।
क्रुद्ध यतियों द्वारा भी लोकवद्वयविघातक निंदित कार्य का आपादान― क्रोधित हुआ मुनि भी इस जगत में ऐसा निंदनीय क्रोध कर डालता हे जिससे वह अपने लौकिक और पारलौकिक ‘प्रगति को’ नष्ट करके नरक में चला जाता है फिर सामान्यजनों की तो बात ही क्या कही जाय। अनेक संत पुरुषों के ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं कि जिनकी विद्या बड़ी ऊँची थी, बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ भी प्राप्त हुई थीं, पर क्रोध कषाय जग गयी तो उनका सारा संयम नष्ट हो गया। क्रोध एक ऐसा दुष्प्रभाव है कि क्रोधी पुरुष का यह क्रोध बड़ा अनर्थ कर डालता है। इतना तो तत्काल असर सब लोग अनुभव करेंगे कि बुद्धि व्यवस्थित नहीं रह पाती, धीरता नहीं रह पाती।