ज्ञानार्णव - श्लोक 965: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
सम्यग्ज्ञानविवेकशून्यमनस: सिद्धांतसूत्रद्विषो।
निस्त्रिंशा: परलोकनष्टमतयो मोहानलोद्दीपिता:।
दौर्जन्यदिकलंकिता यदि नरा न स्युर्जगत्यां तदा,कस्मातीब्रतपोभिरुन्नतधिय: कांग्क्षंतिमोक्षश्रियम्।।965।।
इस जगत में मोह कलंक से कलंकित और क्लिष्ट रहने वाले जीवों की बहुलता है और बहुलता क्या इने गिने बिरलों को ही छोड़कर सारे संसार के सर्व जीव मोह कलंक से कलंकित हैं। तो इस जगत में सम्यग्ज्ञान और विवेक से शून्य मन वाले अधिक जीव पाये जा रहे हैं, और मनुष्यों में देखो तो सिद्धांतशास्त्र के द्वेषी कितने मनुष्य पड़े हुए हैं। जिनको सिद्धांतशास्त्रों से प्रीति नहीं है, वे ही तो द्वेषी कहलाते हैं। जिन्हें ज्ञान प्रिय नहीं है वे अपने आपमें सम्यग्ज्ञान और विवेक से रहित पुरुष निर्दय हैं। अपने आप पर ही दया नहीं कर रहे हैं। वे स्वयं क्लेश में झुलसे जा रहे हैं। अपने आपको प्रसन्न नहीं कर सकते। निर्मल नहीं बना सकते, सुख दु:ख के क्षोभ से व्याकुल बने हुए हैं, वे पुरुष तो निर्दय कहे जायेंगे। जो ज्ञान विवेक से शून्य पुरुष हैं वे परलोक को नहीं मानते, उन्हें कहते हैं नास्तिक। नास्तिक का अर्थ क्याहै? कि जो पदार्थ जैसा है उस पदार्थ को वैसा न मानना। उसके विरुद्ध कल्पना करना, इसका नाम है नास्तिक।नास्तिक का यह अर्थ नहीं कि जो जिस मत का मानने वाला है वह यह समझे कि जो मेरे मत को नहीं मानता सो नास्तिक। नास्तिक शब्द में यह अर्थ नहीं पडा है किंतु न और अस्ति ये दो शब्द पड़े हैं, क प्रत्यय लग गया है। इसका अर्थ है कि पदार्थ जैसा है वैसा न माने उसे कहते हैं नास्तिक। जीव शाश्वत है और शाश्वत है तो इस देह के छूटने के बाद जीव को दूसरा देह धारण करना होगा, उसी का नाम है परलोक। तो जो परलोक को नहीं मानता उसे कहते हैं नास्तिक। तो जो ज्ञान विवेक से शून्य मन वाले हैं वे परलोक को नहीं मानते हैं अतएव नास्तिक हैं और मोहरूपी भट्टी में जलने वाले हैं। इसके विरुद्ध ज्ञान की रंच भी बात प्रवेश नहीं कर पाती। और, एक दो बार माननी तो पडती है ज्ञानकी बात, लेकिन वह मानना इस तरह होता है कि जैसे कहावत है कि पंचों की आज्ञा सिर माथे मगर पनाला यही से निकलेगा। जो मोह से कलंकित हृदय वाले हैं वे कुछ सम्यग्ज्ञान की बात स्वीकार भी कर लेंगे तो भी अंदर से स्वीकार नहीं कर सकते, अपना न सकेंगे उस बात को। ऐसे दुर्जन पुरुष कर्म कलंक से कलंकित हैं। जो मुनिजन दीर्घकाल तक तपश्चरण करते हैं उनमें ही इन संसार के सर्व दु:खों से मुक्ति प्राप्त करने की बात आ पायगी। यह सारा संसार दु:ख से भरा हुआ है इसी कारण इस संसार से हटने की बात उस बुद्धिमान पुरुषों के चित्त में आयी और ऐसी विधि बनी कि जिससे वे संसार से पार हो गए।
वस्तुस्वरूप जानकर उपसर्ग में भी शांति का अनुभव करने की शिक्षा― इस श्लोक में यह बात बतायी हे कि दुष्ट पुरुष अनेक होते ही हैं और प्राय: करके उनसे कुछ न कुछ बाधायें आती हैं। वे उपसर्ग करें तो करें। उनका काम उनके हाथ है। हमारी बात हमारे आधीन है। देखिये हम जो कुछ विह्वल हो जाते हैं, कष्ट नहीं सह सकते, उपसर्ग नहीं जीत सकते, तो समझिये कि हमें भेदविज्ञान की दृढ़ता नहीं है। आत्म स्वरूप का परिचय नहीं है। भेदविज्ञान दृढ़ हो तो अनेक कष्ट सहज ही जीते जा सकते हैं। जब आपके शरीर में कोई फोड़ा होता है और वह कुछ पक सा गया है, उसे कोई फोड़ रहा है तो फोड़े को फोड़ने पर कुछ क्लेश होता कि नहीं? उस समय यदि यह अपना चित्त भेदविज्ञान की ओर रखे कि यह तो शरीर है। होने दो, मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, ज्ञान में रहूँगा, ऐसा करके देखो तो कष्ट कम हो जायगा। अथवा जैसे लोक में कहते हैं कि अरे कड़ा जी कर लो, फिर तकलीफ न होगी। तो कड़ा जी करने के मायने क्या है? जो बात मोहियों को कठिन लगती है ऐसे ज्ञान स्वभाव में आने की बात।कड़ा जी करने वाला भी कुछ न कुछ सोचता ही है कि करने दो इसे जो करता हो, फोड़े को फोड़ता है तो फोड़ने दो। कुछ भीतर ही भीतर संकुचित होकर रुक सा जाना, उसे कहते हैं कड़ा जी करना। उसमें भेदविज्ञान की जैसी ही बात आ रही है। भेदविज्ञान हमारा दृढ़ बने फिर हमारे लिए कोई कष्ट नहीं। जितने भी कष्ट भोगने पड़रहे हैं वे भेदविज्ञान के अभाव में भोगने पड़रहे हैं। तो दुष्ट पुरुष अनेक हैं। वे उपसर्ग करते हैं तो करें। हम समता से उपसर्ग को जीतेंगे और तब ही हमें आत्मशांति होगी। ऐसा चिंतन करके मुनिजन मोक्ष के अर्थ ऐसा आनंद भरा तीव्र तपश्चरण करते हैं।