नियमसार - गाथा 26: Difference between revisions
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< | <div class="PravachanText"><p><strong>अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं णेव इंदियग्रोज्झं।</strong></p> | ||
< | <p><strong>अविभागी जं दव्वं परमाणू तं वियाणाहि।।26।।</strong></p> | ||
<p | <p> <strong>परमाणु का लक्षण</strong>―आत्मा ही जिसका आदि है, आत्मा का अर्थ है अपन स्वयं। परमाणु का परमाणु ही स्वयं आत्मा है और वही स्वयं मध्य और वही जिसका अंत है। जो इंद्रियों के द्वारा ग्रहण में नहीं आता―ऐसा जो एक अविनाशीद्रव्य है; रूप, रस, गंध, स्पर्शगुणमय है, उसको तुम परमाणु जानो। बहुत पतली निब से एक छोटा बिंदु बना दो, जिससे और छोटा बिंदु हो ही न सके―ऐसा कल्पना में समझो तो उस बिंदु का आदि व अंत अगर जुदा-जुदा है तो वह बिंदु छोटा नहीं है, बड़ा है। छोटा बिंदु वह होता है, जिसका आदि भी वही है, अंत भी वही है और मध्य भी वही है।</p> | ||
<p | <p> परमाणुद्रव्य एकप्रदेशी होता है। उस एकप्रदेशी परमाणु में यह विभाग कहां से किया जाये कि छोर तो यह है तथा ओर यह है। वह तो एक अद्वैत प्रदेशमात्र है, इसलिये स्वयं ही आदि है, स्वयं ही मध्य है और स्वयं ही अंत है। वह इंद्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है। इंद्रियों के द्वारा ग्राह्य तो कितने ही स्कंध भी नहीं होते हैं। परमाणु तो इंद्रिय ग्राह्य है ही नहीं। ऐसा जो अविभागी मूर्तिक द्रव्य है वह परमाणु है। एक चीज उतनी कहलाती है जिसका कोई दूसरा विभाग न हो। कोई विभाग हो जाये तो समझना चाहिये कि वह एक चीज न थी, अनेक चीजें मिली हुई थीं और वे बिखर गयीं। जैसे दिखने में आने वाली चौकी, भींतादिक ये सब बिखर जाते हैं, टूट जाते हैं, ये एक चीज नहीं कहलाते हैं। इंद्रियों के द्वारा वे ग्राह्य नहीं हैं वरन् अविभागी हैं। एक का टुकड़ा नहीं होता यह पूर्ण नियम है और हो गया टुकड़ा तो समझ लो कि वह एक चीज न थी।</p> | ||
<p | <p> <strong>जीव और पुद्गल की सन्मात्रता</strong>―जैसे सभी जीव निगोद से लेकर सिद्धपर्यंत अपने स्वरूप से कभी च्युत नहीं होते। उन्हें सहज परमपारिणामिक भाव की विवक्षा का आश्रय लेकर देखें तो इस निश्चयनय के द्वारा कोई कभी अपने स्वरूप से च्युत नहीं होता, यह दृष्ट होगा। आत्मा का स्वरूप है शुद्ध ज्ञानस्वभाव, ज्ञानज्योति, प्रतिभासमात्र। यह प्रतिभासात्मकता किसी भी जीव से अलग नहीं होती है और परमपारिणामिक भाव का लक्ष्य कराने वाले सहज निश्चयनय से देखा जाये तो वह चूंकि स्वरूपमात्र दिखता है, अत: उस दृष्टि में जीव-जीव के कहने में भी अंतर नहीं है। वह अपने स्वभाव से कभी च्युत नहीं होता। कोई जीव चैतन्यात्मकता को छोड़कर अचेतन बन जाये―ऐसा कभी नहीं होगा। अब जरा इस सीमा से भी बढ़कर सामान्य गुण पर आयें तो वह सन्मात्र है। इस ही प्रकार इस परमाणुद्रव्य को उसी सहजनिश्चयनय के द्वार से देखा जाये तो उसमें भी पारिणामिक भाव हैं। परमस्वभाव है, उस दृष्टि से देखें तो यह भी सन्मात्र है।</p> | ||
<p | <p> <strong>परमाणु का अभिन्न आदिमध्यांतपना</strong>―यह परमाणु स्वयं ही खुद आदि है। खुद का अर्थ संस्कृत में आत्मा है। आत्मा का अर्थ चेतनपदार्थ भी है और आत्मा का अर्थ जिस पदार्थ से कहो वही पदार्थ है। जैसे बोलते हैं अजीव पदार्थ के विषय में कि यह चौकी अपने आप नहीं गिरी, अत: वहाँ अपने आपका अर्थ चौकी है, जीव नहीं है। चूंकि आप शब्द का प्रयोग अचेतन में भी हुआ करता है। आत्मा शब्द का प्रयोग सभी पदार्थों के लिये है, जिसका अपन खुद ही आदि है जिसका अपन खुद ही अंत है और वही मध्य है। एक प्रदेशमात्र कोई वस्तु है, उसका आदि और अंत अलग-अलग नहीं है। उस ही का स्वरूप आदि है, उसही की स्वतंत्र परिणति मध्य है और उसही का स्वतंत्र परिणाम अंत है।</p> | ||
<p | <p><strong> परमाणु की इंद्रियगोचरता व अविभागिता</strong>―आदिमध्यांतरहितता के कारण वह इंद्रिय द्वारा गोचर नहीं है। वह न जल से डूब सकता है, न अग्नि से जल सकता है, यह स्कंध जल में गल जाय और अग्नि में जल जाय पर परमाणु नहीं जलता है और न भीगता है। वह तो एक प्रदेश मात्र अंतर के व्याघात से रहित एक अविभागी अमूर्त द्रव्य हैं, उसे हे शिष्य ! तुम परमाणु समझो। परमाणु का लक्ष्य अनेक प्रकार से कहा गया है। उन सब लक्षणों से वह परमाणु में ही उपयोग वासित होता है। जो आकाश के एक प्रदेश से अधिक प्रदेश पर न रह सके उसे परमाणु कहते हैं, पर एक प्रदेश पर अनेक परमाणु ठहर सकते हैं मायने एक परमाणु अनेक प्रदेशों पर नहीं ठहर सकता।</p> | ||
<p | <p> <strong>स्वरूपच्युति का खेद</strong>―देखो भैया ! ये सब परमाणु अपने स्वरूप में कैसे निर्बाध हैं, त्रिकाल अपना स्वरूप नहीं छोड़ते, कितने भी स्कंधों में मिल जायें, एक बंधन को प्राप्त हो जायें तो भी कोई परमाणु अपने स्वरूप का परित्याग नहीं कर पाते हैं। तो ये परमाणु तो अपनी ईमानदारी में बने रहें और जानदार समझने वाला तीनों लोक में सर्वश्रेष्ठ पदार्थ यह आत्मा अपने स्वरूप में नहीं ठहर सकता तो इसे कितना अज्ञान कहा जाय?</p> | ||
<p | <p> <strong>सिद्धात्मा व शुद्धाणु की श्रेष्ठता</strong>―सिद्ध भगवान तो ध्रुव रूप से अपने स्वरूप में ठहरे रहा करते हैं, परमाणु एक शुद्ध पदार्थ है और सिद्ध भगवान भी एक शुद्ध पदार्थ है। जैसा सिद्ध अपना अनंत चमत्कार लिए हुए हैं इस ही प्रकार परमाणु भी अपना चमत्कार लिए हुए हैं। अपन हैं सिद्ध भगवान की जाति के इसलिए सिद्ध का गुणगान करते हैं। अगर कोई परमाणु और सिद्ध हममें से किसी बिरादरी का न हो, कोई तीसरा हो तो वह तुलना में दोनों को समान तौलेगा, पर है नहीं कोई तीसरा ऐसा जो तौल सके। तौल सके तो वह जीव आ गया तो जैसे सिद्ध भगवान चैतन्यात्मक निज स्वरूप में ठहरे रहा करते हैं इसी तरह शुद्ध परमाणु अपने स्वरूप में अवस्थित रहते हैं।</p> | ||
<p | <p><strong> कारणसमय व कार्यसमय की भांति कारणपरमाणु व कार्यपरमाणु में स्रोत व उद्गम</strong>―जैसे कारण समयसार का आश्रय करके समय नामक पदार्थ कार्य समयसाररूप होता है इस ही प्रकार कारणपरमाणु के आश्रय में ही परमाणु व्यक्तरूप अपना परिणमन किया करते हैं। जैसा आत्मा का समस्त परिणमनों का स्रोतभूत प्रयोजनभूत सहज शाश्वत चैतन्य प्रभु है जिसे पारिणामिक भाव कहते हैं इस ही प्रकार पुद्गल परमाणु के समस्त परिणमनों का स्रोतभूत उसका भी पारिणामिक भाव है, पारिणामिक भावणव है, उसका प्रयोजन परिणाम है। परिणाम अध्रुव है, उसका प्रयोजन पारिणामिक भाव है, यह समस्त विश्व अर्थात् छहों जाति के पदार्थ व्यक्तिगत रूप से अनंत जीव, अनंत पुद्गल, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्यात कालद्रव्य, ये प्रत्येक पदार्थ अनेक अन्य पदार्थों के साथ एकक्षेत्रावगाह होकर संकर बन रहे हैं, फिर भी अपना स्वरूप नहीं तजते।</p> | ||
<p | <p> <strong>सत् की स्वयं सुरक्षा</strong>―पदार्थ का स्वरूप है उत्पाद व्यय ध्रौव्य। प्रत्येक पदार्थ बनता है, बिगड़ता है फिर भी सदा बना रहता है। ये तीन बातें प्रत्येक पदार्थ में हैं। हम आप लोग किसलिए घबड़ाते हैं? अरे हम भी निरंतर बनते हैं, बिगड़ते हैं और बने रहते हैं। यदि इन समागमों का लोभ करके उनके छूटने का ख्याल आने पर विषाद होता है तो अपनी बुद्धि को संभालें। आज यहाँ मनुष्य बने हैं तो पहिले कहीं और बने थे, अब आगे और बनेंगे। जहां जायेंगे वहीं पुद्गलों का कूड़ा तुरंत मिल जायेगा। फिर इस ही एक विशिष्ट कूड़े से क्यों मोह है? आगे मिल जायेगा। जायेगा कहा? मिलेगा शरीर न्यारे-न्यारे ढंग का। पर आपको तो मोह की पड़ी है। सो इस प्रयोजन में बाधा न आयेगी। जो होगा उसमें ही मोह करके आज की चतुराई को निर्वाध बना सकेंगे और फिर दूसरी बात यह है कि अपना विनाश कहां है, सदा बने रहने वाले पदार्थ है। सब हैं सो अपन भी सदा बने रहने वाले हैं। बनना, बिगड़ना, बने रहना जब हमारा स्वरूप है तब फिर भय किस बात का? अपने स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान हो, यथार्थ ज्ञान हो और उसही में रमण करें तो फिर वह खेद की बात नहीं रहती है।</p> | ||
<p | <p> <strong>जैनसिद्धांत में मुख्य दो प्ररूपणा</strong>―जैनसिद्धांत आधाररूप स्वरूप और कर्तव्यरूप स्वरूप दो सूत्रों में बता दिया है। ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्’―यह तो वस्तु का स्वरूप बताया है जिसका परिज्ञान करके हम अपने कर्तव्य में सफल हो सकेंगे। तथा कर्तव्य बताया है―‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों का सद्भाव एकत्व मोक्ष का मार्ग है। दो ही बातें प्रधान हैं जिनके विस्तार में फिर समस्त दर्शन आ जाता है। वस्तुस्वरूप और मोक्षमार्ग।</p> | ||
<p | <p> <strong>राष्ट्रीयध्वज में वस्तुस्वरूप का दर्शन</strong>―आज का जो राष्ट्रीय ध्वज है सबको मालूम है तिरंगा है―हरा, पीला और सफेद। और तिरंगा ही वस्तु स्वरूप है, तिरंगा ही मोक्षमार्ग है। वस्तुस्वरूप में उत्पाद व्यय ध्रौव्य बताया है। साहित्य में उत्पाद का वर्णन हरे रंग से किया जाता है। उत्पाद होना मायने हरा भरा होना। अभी कोई बुढ़िया से पूछे कि कहो बुढ़िया जी मजे में हो? तो वह बुढ़िया कहती है कि बहुत मजे में हैं, हम खूब हरी भरी हैं―नाती हैं, पोते हैं, खूब धन भरा है। तो उत्पन्न होने को लोग हरा कहते हैं। कहते हैं कि यह तो बहुत हरया रहा है। तो उत्पाद व्यय जो है वह हरे रंग से वर्णित होता है और व्यय का वर्णन होता है लाल रंग से। लाल, पीला, केसरिया ये सब एक जाति के ही रंग हैं कुछ तारतम्य के साथ। जहां विनाश का वर्णन आता है, वहाँ लाल रंग का वर्णन किया जाता है खून खच्चर हो गया, लाल ही लाल जमीन हो गयी बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। इस कारण सर्वसंहार हो गया। तो विलय का वर्णन लाल रंग से होता है जो ध्रुव है, स्थिर है, स्वच्छ है, शाश्वत है। तो तिरंगे में हरा रंग उत्पाद का सूचक है, लाल, पीला रंग व्यय का सूचक है और श्वेत रंग ध्रौव्य का सूचक हैं। और भी देखो कि इन रंगों में बीच में कौनसा रंग है, राष्ट्रीय पताका में सफेद है और नीचे ऊपर लाल और हरा है। सफेद रंग बीच में यह सूचना देता है कि जिस रंग पर हरा, लाल चढ़ता है वह सफेद पर ही चढ़ता है। उत्पाद व्यय जो हुआ करते हैं वे ध्रौव्य तत्त्व पर ही हुआ करते हैं। ध्रुव वस्तु न हो तो उत्पाद और व्यय कहां से हो?</p> | ||
<p | <p> <strong>वस्तुस्वरूप के बारे में चौबीस आरेका मर्म</strong>―और भी देख लो, 24 आरे का एक चक्र बना हुआ है जो यह सूचित करता है कि प्रत्येक वस्तु में षड्गुण, षड्भाग हानि व भागवृद्धि है तथा परिणमन दो क्षणों के पर्यायों से कहलाता है सो चढ़ाव उतार सब चौबीस है। सिद्धांतवेत्ता जानते हैं, अनंतभाग वृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि असंख्यातगुणवृद्धि और अनंतगुणवृद्धि, ये 6 वृद्धियां होती हैं और 6 हुई हानियां ये 12 हुई ना, और परिणमन एक समय के वर्तना का नाम नहीं है, केवल एक ही षड्भाग वृद्धि हानि हो जाना, इतने से परिणमन व्यक्त नहीं होता है किंतु अगले क्षण में भी इसी प्रकार का परिणमन हो तब वहाँ परिणमन मिल जाता है। यों 24 आरे का चक्र वस्तु के प्रतिसमय की परिणमनशीलता को जाहिर कर रहा है। यह झंडा फहर कर यह बताता है कि उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त सत्।</p> | ||
<p | <p> <strong>राष्ट्रीय ध्वज में परमकर्तव्य का संकेत</strong>―इस प्रकार वस्तुज्ञान का परिचय करके आत्मा का श्रद्धान करना, ज्ञान करना और आचरण करना कर्तव्य है। आत्मश्रद्धान् आत्मरुचि को कहते हैं और रुचि का रंग साहित्य में पीला बताया गया है। सम्यक्चारित्र कहो, आचरण कहो, जिसमें आत्मा का विकास बढ़ता जाता है वह हरा रंग है। सम्यग्ज्ञान का श्वेत रंग है, वह स्वच्छ है। इस ज्ञान को ही सम्यग्दर्शन कहते हैं। ज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान कहते हैं, स्थिर ज्ञान को ही सम्यक्चारित्र कहते हैं। अत: ये दो रंग भी ज्ञान पर ही चढ़ते हैं। 24 आरे का चक्र यह बतला रहा है कि आज 24वें तीर्थंकर का यह तीर्थ है। यह ध्वज फहराकर बतलाता है कि ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्ग:’। अब पुद्गल के संबंध में स्वभावगुण और विभावगुण का वर्णन करते हैं।</p> | ||
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं णेव इंदियग्रोज्झं।
अविभागी जं दव्वं परमाणू तं वियाणाहि।।26।।
परमाणु का लक्षण―आत्मा ही जिसका आदि है, आत्मा का अर्थ है अपन स्वयं। परमाणु का परमाणु ही स्वयं आत्मा है और वही स्वयं मध्य और वही जिसका अंत है। जो इंद्रियों के द्वारा ग्रहण में नहीं आता―ऐसा जो एक अविनाशीद्रव्य है; रूप, रस, गंध, स्पर्शगुणमय है, उसको तुम परमाणु जानो। बहुत पतली निब से एक छोटा बिंदु बना दो, जिससे और छोटा बिंदु हो ही न सके―ऐसा कल्पना में समझो तो उस बिंदु का आदि व अंत अगर जुदा-जुदा है तो वह बिंदु छोटा नहीं है, बड़ा है। छोटा बिंदु वह होता है, जिसका आदि भी वही है, अंत भी वही है और मध्य भी वही है।
परमाणुद्रव्य एकप्रदेशी होता है। उस एकप्रदेशी परमाणु में यह विभाग कहां से किया जाये कि छोर तो यह है तथा ओर यह है। वह तो एक अद्वैत प्रदेशमात्र है, इसलिये स्वयं ही आदि है, स्वयं ही मध्य है और स्वयं ही अंत है। वह इंद्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है। इंद्रियों के द्वारा ग्राह्य तो कितने ही स्कंध भी नहीं होते हैं। परमाणु तो इंद्रिय ग्राह्य है ही नहीं। ऐसा जो अविभागी मूर्तिक द्रव्य है वह परमाणु है। एक चीज उतनी कहलाती है जिसका कोई दूसरा विभाग न हो। कोई विभाग हो जाये तो समझना चाहिये कि वह एक चीज न थी, अनेक चीजें मिली हुई थीं और वे बिखर गयीं। जैसे दिखने में आने वाली चौकी, भींतादिक ये सब बिखर जाते हैं, टूट जाते हैं, ये एक चीज नहीं कहलाते हैं। इंद्रियों के द्वारा वे ग्राह्य नहीं हैं वरन् अविभागी हैं। एक का टुकड़ा नहीं होता यह पूर्ण नियम है और हो गया टुकड़ा तो समझ लो कि वह एक चीज न थी।
जीव और पुद्गल की सन्मात्रता―जैसे सभी जीव निगोद से लेकर सिद्धपर्यंत अपने स्वरूप से कभी च्युत नहीं होते। उन्हें सहज परमपारिणामिक भाव की विवक्षा का आश्रय लेकर देखें तो इस निश्चयनय के द्वारा कोई कभी अपने स्वरूप से च्युत नहीं होता, यह दृष्ट होगा। आत्मा का स्वरूप है शुद्ध ज्ञानस्वभाव, ज्ञानज्योति, प्रतिभासमात्र। यह प्रतिभासात्मकता किसी भी जीव से अलग नहीं होती है और परमपारिणामिक भाव का लक्ष्य कराने वाले सहज निश्चयनय से देखा जाये तो वह चूंकि स्वरूपमात्र दिखता है, अत: उस दृष्टि में जीव-जीव के कहने में भी अंतर नहीं है। वह अपने स्वभाव से कभी च्युत नहीं होता। कोई जीव चैतन्यात्मकता को छोड़कर अचेतन बन जाये―ऐसा कभी नहीं होगा। अब जरा इस सीमा से भी बढ़कर सामान्य गुण पर आयें तो वह सन्मात्र है। इस ही प्रकार इस परमाणुद्रव्य को उसी सहजनिश्चयनय के द्वार से देखा जाये तो उसमें भी पारिणामिक भाव हैं। परमस्वभाव है, उस दृष्टि से देखें तो यह भी सन्मात्र है।
परमाणु का अभिन्न आदिमध्यांतपना―यह परमाणु स्वयं ही खुद आदि है। खुद का अर्थ संस्कृत में आत्मा है। आत्मा का अर्थ चेतनपदार्थ भी है और आत्मा का अर्थ जिस पदार्थ से कहो वही पदार्थ है। जैसे बोलते हैं अजीव पदार्थ के विषय में कि यह चौकी अपने आप नहीं गिरी, अत: वहाँ अपने आपका अर्थ चौकी है, जीव नहीं है। चूंकि आप शब्द का प्रयोग अचेतन में भी हुआ करता है। आत्मा शब्द का प्रयोग सभी पदार्थों के लिये है, जिसका अपन खुद ही आदि है जिसका अपन खुद ही अंत है और वही मध्य है। एक प्रदेशमात्र कोई वस्तु है, उसका आदि और अंत अलग-अलग नहीं है। उस ही का स्वरूप आदि है, उसही की स्वतंत्र परिणति मध्य है और उसही का स्वतंत्र परिणाम अंत है।
परमाणु की इंद्रियगोचरता व अविभागिता―आदिमध्यांतरहितता के कारण वह इंद्रिय द्वारा गोचर नहीं है। वह न जल से डूब सकता है, न अग्नि से जल सकता है, यह स्कंध जल में गल जाय और अग्नि में जल जाय पर परमाणु नहीं जलता है और न भीगता है। वह तो एक प्रदेश मात्र अंतर के व्याघात से रहित एक अविभागी अमूर्त द्रव्य हैं, उसे हे शिष्य ! तुम परमाणु समझो। परमाणु का लक्ष्य अनेक प्रकार से कहा गया है। उन सब लक्षणों से वह परमाणु में ही उपयोग वासित होता है। जो आकाश के एक प्रदेश से अधिक प्रदेश पर न रह सके उसे परमाणु कहते हैं, पर एक प्रदेश पर अनेक परमाणु ठहर सकते हैं मायने एक परमाणु अनेक प्रदेशों पर नहीं ठहर सकता।
स्वरूपच्युति का खेद―देखो भैया ! ये सब परमाणु अपने स्वरूप में कैसे निर्बाध हैं, त्रिकाल अपना स्वरूप नहीं छोड़ते, कितने भी स्कंधों में मिल जायें, एक बंधन को प्राप्त हो जायें तो भी कोई परमाणु अपने स्वरूप का परित्याग नहीं कर पाते हैं। तो ये परमाणु तो अपनी ईमानदारी में बने रहें और जानदार समझने वाला तीनों लोक में सर्वश्रेष्ठ पदार्थ यह आत्मा अपने स्वरूप में नहीं ठहर सकता तो इसे कितना अज्ञान कहा जाय?
सिद्धात्मा व शुद्धाणु की श्रेष्ठता―सिद्ध भगवान तो ध्रुव रूप से अपने स्वरूप में ठहरे रहा करते हैं, परमाणु एक शुद्ध पदार्थ है और सिद्ध भगवान भी एक शुद्ध पदार्थ है। जैसा सिद्ध अपना अनंत चमत्कार लिए हुए हैं इस ही प्रकार परमाणु भी अपना चमत्कार लिए हुए हैं। अपन हैं सिद्ध भगवान की जाति के इसलिए सिद्ध का गुणगान करते हैं। अगर कोई परमाणु और सिद्ध हममें से किसी बिरादरी का न हो, कोई तीसरा हो तो वह तुलना में दोनों को समान तौलेगा, पर है नहीं कोई तीसरा ऐसा जो तौल सके। तौल सके तो वह जीव आ गया तो जैसे सिद्ध भगवान चैतन्यात्मक निज स्वरूप में ठहरे रहा करते हैं इसी तरह शुद्ध परमाणु अपने स्वरूप में अवस्थित रहते हैं।
कारणसमय व कार्यसमय की भांति कारणपरमाणु व कार्यपरमाणु में स्रोत व उद्गम―जैसे कारण समयसार का आश्रय करके समय नामक पदार्थ कार्य समयसाररूप होता है इस ही प्रकार कारणपरमाणु के आश्रय में ही परमाणु व्यक्तरूप अपना परिणमन किया करते हैं। जैसा आत्मा का समस्त परिणमनों का स्रोतभूत प्रयोजनभूत सहज शाश्वत चैतन्य प्रभु है जिसे पारिणामिक भाव कहते हैं इस ही प्रकार पुद्गल परमाणु के समस्त परिणमनों का स्रोतभूत उसका भी पारिणामिक भाव है, पारिणामिक भावणव है, उसका प्रयोजन परिणाम है। परिणाम अध्रुव है, उसका प्रयोजन पारिणामिक भाव है, यह समस्त विश्व अर्थात् छहों जाति के पदार्थ व्यक्तिगत रूप से अनंत जीव, अनंत पुद्गल, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्यात कालद्रव्य, ये प्रत्येक पदार्थ अनेक अन्य पदार्थों के साथ एकक्षेत्रावगाह होकर संकर बन रहे हैं, फिर भी अपना स्वरूप नहीं तजते।
सत् की स्वयं सुरक्षा―पदार्थ का स्वरूप है उत्पाद व्यय ध्रौव्य। प्रत्येक पदार्थ बनता है, बिगड़ता है फिर भी सदा बना रहता है। ये तीन बातें प्रत्येक पदार्थ में हैं। हम आप लोग किसलिए घबड़ाते हैं? अरे हम भी निरंतर बनते हैं, बिगड़ते हैं और बने रहते हैं। यदि इन समागमों का लोभ करके उनके छूटने का ख्याल आने पर विषाद होता है तो अपनी बुद्धि को संभालें। आज यहाँ मनुष्य बने हैं तो पहिले कहीं और बने थे, अब आगे और बनेंगे। जहां जायेंगे वहीं पुद्गलों का कूड़ा तुरंत मिल जायेगा। फिर इस ही एक विशिष्ट कूड़े से क्यों मोह है? आगे मिल जायेगा। जायेगा कहा? मिलेगा शरीर न्यारे-न्यारे ढंग का। पर आपको तो मोह की पड़ी है। सो इस प्रयोजन में बाधा न आयेगी। जो होगा उसमें ही मोह करके आज की चतुराई को निर्वाध बना सकेंगे और फिर दूसरी बात यह है कि अपना विनाश कहां है, सदा बने रहने वाले पदार्थ है। सब हैं सो अपन भी सदा बने रहने वाले हैं। बनना, बिगड़ना, बने रहना जब हमारा स्वरूप है तब फिर भय किस बात का? अपने स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान हो, यथार्थ ज्ञान हो और उसही में रमण करें तो फिर वह खेद की बात नहीं रहती है।
जैनसिद्धांत में मुख्य दो प्ररूपणा―जैनसिद्धांत आधाररूप स्वरूप और कर्तव्यरूप स्वरूप दो सूत्रों में बता दिया है। ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्’―यह तो वस्तु का स्वरूप बताया है जिसका परिज्ञान करके हम अपने कर्तव्य में सफल हो सकेंगे। तथा कर्तव्य बताया है―‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों का सद्भाव एकत्व मोक्ष का मार्ग है। दो ही बातें प्रधान हैं जिनके विस्तार में फिर समस्त दर्शन आ जाता है। वस्तुस्वरूप और मोक्षमार्ग।
राष्ट्रीयध्वज में वस्तुस्वरूप का दर्शन―आज का जो राष्ट्रीय ध्वज है सबको मालूम है तिरंगा है―हरा, पीला और सफेद। और तिरंगा ही वस्तु स्वरूप है, तिरंगा ही मोक्षमार्ग है। वस्तुस्वरूप में उत्पाद व्यय ध्रौव्य बताया है। साहित्य में उत्पाद का वर्णन हरे रंग से किया जाता है। उत्पाद होना मायने हरा भरा होना। अभी कोई बुढ़िया से पूछे कि कहो बुढ़िया जी मजे में हो? तो वह बुढ़िया कहती है कि बहुत मजे में हैं, हम खूब हरी भरी हैं―नाती हैं, पोते हैं, खूब धन भरा है। तो उत्पन्न होने को लोग हरा कहते हैं। कहते हैं कि यह तो बहुत हरया रहा है। तो उत्पाद व्यय जो है वह हरे रंग से वर्णित होता है और व्यय का वर्णन होता है लाल रंग से। लाल, पीला, केसरिया ये सब एक जाति के ही रंग हैं कुछ तारतम्य के साथ। जहां विनाश का वर्णन आता है, वहाँ लाल रंग का वर्णन किया जाता है खून खच्चर हो गया, लाल ही लाल जमीन हो गयी बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। इस कारण सर्वसंहार हो गया। तो विलय का वर्णन लाल रंग से होता है जो ध्रुव है, स्थिर है, स्वच्छ है, शाश्वत है। तो तिरंगे में हरा रंग उत्पाद का सूचक है, लाल, पीला रंग व्यय का सूचक है और श्वेत रंग ध्रौव्य का सूचक हैं। और भी देखो कि इन रंगों में बीच में कौनसा रंग है, राष्ट्रीय पताका में सफेद है और नीचे ऊपर लाल और हरा है। सफेद रंग बीच में यह सूचना देता है कि जिस रंग पर हरा, लाल चढ़ता है वह सफेद पर ही चढ़ता है। उत्पाद व्यय जो हुआ करते हैं वे ध्रौव्य तत्त्व पर ही हुआ करते हैं। ध्रुव वस्तु न हो तो उत्पाद और व्यय कहां से हो?
वस्तुस्वरूप के बारे में चौबीस आरेका मर्म―और भी देख लो, 24 आरे का एक चक्र बना हुआ है जो यह सूचित करता है कि प्रत्येक वस्तु में षड्गुण, षड्भाग हानि व भागवृद्धि है तथा परिणमन दो क्षणों के पर्यायों से कहलाता है सो चढ़ाव उतार सब चौबीस है। सिद्धांतवेत्ता जानते हैं, अनंतभाग वृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि असंख्यातगुणवृद्धि और अनंतगुणवृद्धि, ये 6 वृद्धियां होती हैं और 6 हुई हानियां ये 12 हुई ना, और परिणमन एक समय के वर्तना का नाम नहीं है, केवल एक ही षड्भाग वृद्धि हानि हो जाना, इतने से परिणमन व्यक्त नहीं होता है किंतु अगले क्षण में भी इसी प्रकार का परिणमन हो तब वहाँ परिणमन मिल जाता है। यों 24 आरे का चक्र वस्तु के प्रतिसमय की परिणमनशीलता को जाहिर कर रहा है। यह झंडा फहर कर यह बताता है कि उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त सत्।
राष्ट्रीय ध्वज में परमकर्तव्य का संकेत―इस प्रकार वस्तुज्ञान का परिचय करके आत्मा का श्रद्धान करना, ज्ञान करना और आचरण करना कर्तव्य है। आत्मश्रद्धान् आत्मरुचि को कहते हैं और रुचि का रंग साहित्य में पीला बताया गया है। सम्यक्चारित्र कहो, आचरण कहो, जिसमें आत्मा का विकास बढ़ता जाता है वह हरा रंग है। सम्यग्ज्ञान का श्वेत रंग है, वह स्वच्छ है। इस ज्ञान को ही सम्यग्दर्शन कहते हैं। ज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान कहते हैं, स्थिर ज्ञान को ही सम्यक्चारित्र कहते हैं। अत: ये दो रंग भी ज्ञान पर ही चढ़ते हैं। 24 आरे का चक्र यह बतला रहा है कि आज 24वें तीर्थंकर का यह तीर्थ है। यह ध्वज फहराकर बतलाता है कि ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्ग:’। अब पुद्गल के संबंध में स्वभावगुण और विभावगुण का वर्णन करते हैं।