नियमसार - गाथा 28: Difference between revisions
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< | <div class="PravachanText"><p><strong>अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जाओ।</strong></p> | ||
< | <p><strong>खंधसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जाओ।।28।।</strong></p> | ||
<p | <p> <strong>पुद्गल का निरपेक्ष परिणमन</strong>―परमाणुरूप पर्याय पुद्गल की शुद्ध पर्याय है और वह परम पारिणामिक भावस्वरूप है। जैसे सभी पदार्थों में वस्तुगत षट् प्रकार की हानि गुणवृद्धिरूप परिणमन होता है जो कि अत्यंत सूक्ष्म है और अर्थ पर्यायरूप है ऐसा अर्थपरिणमन इस पुद्गल के भी होता है। यह परिणमन पुद्गल में द्रव्यत्व गुण के कारण स्वयमेव हो रहा है कि किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा से नहीं परिणमता। यह वस्तु का स्वभाव है वस्तु है तो निरंतर परिणमता रहता है ऐसा कोई पदार्थ नहीं होता जो है तो जरूर किंतु परिणमे नहीं। परिणमन बिना है कि सिद्ध नहीं होती है और है के बिना परिणमन की सिद्धि नहीं है। परद्रव्य की अपेक्षा न रखकर जो परिणमन होता है वह स्वभाव पर्याय है।</p> | ||
<p | <p> <strong>स्वभावपरिणमन</strong>―स्वभाव पर्याय यद्यपि आदि अंतकर सहित है और ऐसा ही आदि अंत करि सहित निरंतर उसमें परिणमन होता रहता है फिर भी स्वभावपर्याय परद्रव्य की अपेक्षा न करके होता है, अत: वह शुद्ध सद्भूत व्यवहारनयात्मक पर्याय है अथवा एक समय में उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक होने से सूक्ष्म परिणमन जो निरंतर चलता रहता है वह इसकी शुद्धपर्याय है। जैसे आत्मा के साथ अन्य द्रव्य का संबंध नहीं होता, उपाधि का संयोग नहीं होता तो वह आत्मा अपने स्वभाव के अनुकूल समपरिणमन कर रहा है। इस ही प्रकार परमाणु जब अन्य परमाणु का संबंध नहीं पाता अथवा जीव का भी संयोग नहीं पाता तो वह परमाणु अगुरुलघुत्व गुणकृत षड्गुण वृद्धिरूप से हानिरूप से निरंतर परिणमता रहता है।</p> | ||
<p | <p><strong> व्यंजन पर्याय</strong>―दिखने वाले स्कंधों में कल्पना से टुकड़े कर-करके ऐसा आखिरी टुकड़ा ध्यान में लावो कि जिसका दूसरा अंश हो ही न सके ऐसा ज्ञान में आया हुआ निरंश अणु देखो और उसमें परिणमन विचारो तो वह परिणमन एक न की तरह ज्ञात होगा। जैसे अशुद्ध आत्मा के परिणमन व्यक्त विदित होते हैं किंतु शुद्ध आत्मा का परिणमन व्यक्त विदित नहीं होता, इसी कारण यावन्मात्र अशुद्ध परिणमन हैं ये चाहे अशुद्ध गुणपर्याय हों अथवा द्रव्यपर्याय हों उन सबको व्यंजन पर्याय कहा गया है।</p> | ||
<p | <p> <strong>परमाणु में एकत्व परिणमन</strong>―तो जैसे सभी द्रव्यों में जो कि शुद्ध हैं उनमें द्रव्यत्व गुण के कारण परिणमन चलता रहता है, इसी तरह शुद्ध परमाणु में भी रूप, रस, गंध, स्पर्श का स्वतंत्र एकरूप परिणमन चला करता है अर्थात् जैसे स्कंधों में कई रंगों के मेल का रंग भी दिखता है, जैसे-जैसे नीला, सुवापंखी, गुलाबी―ये सब रंग जो कि स्वतंत्र नहीं हैं किंतु रंगों के मेल से बने हुए हैं, परमाणु में रंगों के मेल का बना हुआ यह सब रंग नहीं हुआ करता है क्योंकि वहाँ मेल कहां से आया? एक परमाणु एक रंग रूप है, दूसरा परमाणु भी एक रंग रूप है। यदि दो छोटे स्कंध जो विभिन्न रंग के हों और मिलकर पिंड बन जायें तो ऐसे स्कंध में तो संभावना की जा सकती है अर्थात् एक परमाणु में अपना ही शुद्ध एक रूप होता है। इसी तरह रस आदि गुणों के परिणमनों की भी बात शुद्ध पायी जाती है।</p> | ||
<p | <p> <strong>जीव द्रव्य को ही उपदेशे जाने का कारण</strong>―6 जाति के द्रव्य होते हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, इनमें से जीव और पुद्गल ये दो ही द्रव्य विभावरूप परिणम सकते हैं। शेष द्रव्य तो शाश्वत शुद्ध रहा करते हैं, इसलिए अन्य द्रव्यों को शुद्ध होने का उपदेश नहीं है। इन दो द्रव्यों में से पुद्गल को भी शुद्ध होने का उपदेश नहीं है। पुद्गल शुद्ध हो जाए तो क्या, अशुद्ध रहे तो क्या? किसी भी अवस्था से पुद्गल में बिगाड़ नहीं है। यदि एक चौकी को काट छेद करके बिगाड़ दिया तो हम आप लोग अपनी कल्पना से मानते हैं कि चौकी बिगड़ गयी। पर वहाँ क्या बिगड़ा? चौकी तो जड़ पदार्थ है। प्रत्येक परमाणु अपने आपमें अपना परिपूर्ण अस्तित्व लिए है। क्या बिगड़ा? यहाँ पर तो पुद्गल का कुछ बिगाड़ नहीं है। किसी भी रूप परिणमे, उनमें खेद नहीं होता है। एक जीवद्रव्य ही ऐसा है कि विकृतावस्था में यह आकुलित रहता है और जन्म-मरण की परंपराओं में क्लेश पाता रहता है। उसे उपदेश है कि अय जीव, अपने सहजस्वरूप की संभाल तो कर, तभी ये कर्मबंधन, नोकर्मसंयोग, विभावों के संकट समाप्त होंगे।</p> | ||
<p | <p><strong> वीतराग विज्ञानस्वरूप</strong>―छहढाला हिंदी भाषा की एक बहुत ऊँची पुस्तक है, जिसमें सब उपयोगी बातें दी गयी हैं। मंगलाचरण में यह बताया है कि तीन लोक में सार जो वीतरागविज्ञान है; वह शिवस्वरूप है, कल्याणमय है और आनंद का देने वाला है; उसे तीन योग संभालकर मैं नमस्कार करता हूं। कितने संक्षिप्त शब्द हैं और बड़े अर्थ मर्म से भरे हुए हैं। तीन लोक में सार क्या है? रागद्वेष रहित ज्ञानस्वभाव। यह ज्ञायकभाव स्वरसत: रागद्वेषादि विकारों से रहित है। यह वीतरागविज्ञान सब जीवों में पाया जाता है। हममें आपमें सबमें जो इसे नहीं जानते, वे दीन भिखारी से बने रहते हैं और परपदार्थ की आशा किया करते हैं, पर को अपना, अपने को पर का मालिक मानकर दु:खी हुआ करते हैं।</p> | ||
<p | <p><strong> लोक की सर्वस्थितियों में क्लेश</strong>―भैया ! लोक में हुक्म मानने का ही दु:ख है? अरे, जितना दु:ख हुक्म मानने वाले को होता है, उससे भी कहीं अधिक दु:ख हुक्म देने वाले को है। जितने क्लेश दूसरे के समक्ष छोटा बनने से रहता है, उससे अधिक दु:ख दूसरे के समक्ष बड़ा बनकर रहने में होता है। लोग कह भी देते हैं कि उदय जिसका खराब हो तो बड़ा भाई या और कुछ बड़ा बनता है। अत: इस लोक में किस चीज में सुख मान लिया जाए? यदि किसी के पुत्र न हो तो मैं पुत्ररहित हूं, मेरे कुल को चलाने वाला कोई नहीं है, यों सोचकर दु:खी रहता है। जिसके पुत्र हों, वह भी तो दु:खी रहता है; नहीं तो बार-बार लड़कों को क्यों मारता, क्यों दाँत किटकिटाता? यदि पुत्र कुपूत हो गया तो उसका क्लेश होगा, व्यसनी हो गया, कुमार्गी भी हो गया, लड़ने-भिड़ने वाला हो गया, इस प्रकार के बड़े दु:ख हैं। यदि कोई पुत्र सपूत बन जाए तो उस कुपूत से भी ज्यादा दु:खदायी हो जाता है, क्योंकि यदि कुपूत लड़के से बाप का मन नहीं मिलता तो एक बार स्पष्ट कर दिया कि यह मेरा कोई नहीं है या अखबारों में छपा दिया कि अब मैं इसका जिम्मेदार नहीं; अगर पुत्र सपूत है तो यह ध्यान बना रहेगा कि मैं इसे समर्थ बना दूं, सुखी बना दूं, बड़ा आज्ञाकारी है, बड़ा विनयशील है; अत: उसको सुखी करने के लिए रात-दिन परिश्रम करना पड़ता है।</p> | ||
<p | <p> <strong>सर्वस्थितियों के क्लेश का कारण स्वयं का अज्ञानभाव</strong>―भैया ! सभी बातों को ऐसा ही लगा लो, हो तो दु:ख और न हो तो दु:ख। प्रयोजन यह है कि जब स्वयं में कोई ऐब है, वासना अज्ञान की बनी हुई है, तो दु:ख देने वाली तो अज्ञान वासना है, उसके कारण दु:खी रहा करता है। अत: लोक में कहीं आनंद नहीं है। शांति का स्रोत है आनंद का उपाय। एक वीतराग ज्ञानस्वभाव की दृष्टि करना, यही आनंद का उपाय है। खूब खोज लो कि जो सुखाभास होता है, उसमें भी पीछे पछतावा आता है, पर लोग सुख भोगने के काल में पछतावा महसूस नहीं करते। अत: तीनों लोकों में देवगति हो या नीचे का पाताल लोक हो अथवा मध्यलोक हो; उसमें रहने वाले जितने जीव, उनके भोगसाधन, वैभव, इज्जत आदि समस्त बातों पर निगाह डाल लो। सुखदायी कुछ नहीं है, सारभूत कुछ नहीं है, यह मर्म की बात, धर्म की बात थोड़ासा बुद्धि का प्रयोग करें तो अनुभव में उतर सकती है।</p> | ||
<p | <p> <strong>धर्म, अधर्म के फल की प्रयोगसिद्धता</strong>―पर को असार जानकर, विकल्प छोड़कर निर्विकल्पभाव से क्षणभर ठहर जाए तो अनुभूत हो जाएगा कि आत्मा का स्वरूप अनादि, अनंत है। जैसे कोई चीज बनाते हैं तो प्रयोग करते हुए देखते हुए देखते जाते हैं। जैसे चाकू की धार लगाते हैं तो बीच-बीच में थोड़ी अंगुली फेर कर देखते जाते हैं और वहाँ ज्ञान होता जाता है कि अभी धार में थोड़ी कमी रह गयी, अब ठीक हो गयी अथवा रोटी सेंकते जाते हैं और देखते जाते हैं कि इस तरफ की सिक गयी, उस तरफ की सिक गयी, अब फूल गयी, अभी इतनी कसर रह गयी, घुमाते जाते हैं, प्रयोग करते जाते हैं और समझते जाते हैं। इसी प्रकार धर्म और अधर्म की बात प्रयोग करते जावो और समझते जावो, कोई कठिन बात नहीं है। विकल्पभाव दूर करो और धर्म का प्रयोग करके समझ लो कि सार और शांति यहाँ ही है या नहीं। अधर्म की बात का प्रयोग तो किए ही हुए हैं अनादि से और समझ रहे हैं। तीन लोक में सार रागद्वेष रहित, विकाररहित जो शुद्ध ज्ञानस्वभाव है, वह स्वयं कल्याणरूप है और आनंद को देने वाला है। अत: तीनों योग संभाल करके उस वीतरागविज्ञान को नमस्कार हो।</p> | ||
<p | <p> <strong>पुद्गल में स्वभावपरिणमन व विभावपरिणमन</strong>―शुद्ध ज्ञायकस्वभावमय आत्मा को उस द्रव्य में ही केवल अकेले में देखा जाए तो उसका परिणमन ऐसा रमा रहता है कि प्रतिक्षण परिणमन होता हुआ भी परिवर्तन समझ में नहीं आता। इस परमाणु में भी परमाणुद्रव्यत्व के कारण उसमें प्रतिक्षण परिणमन होता रहता है। पतिक्षण परिणमन होता हुआ भी परिणमन में परिवर्तन नहीं हो पाता। वह ऐसे ही एकत्व को लिए हुए है। यह उसका स्वभावपर्याय है और पुद्गल का विभावपर्याय है। स्कंधरूप से परिणमन हो जाना पुद्गल का स्वजातीय बंधन है। परमाणु परमाणु मिलकर स्कंध बनता है, इसे सजातीय द्रव्यपर्याय कहते हैं। यह है पुद्गलद्रव्य की विभावपर्याय, अकेला अणु रह गया वह तो है स्वभावपर्याय और अनेक अणु मिलकर स्कंध बन गए तो यह है विभावपर्याय।</p> | ||
<p | <p> <strong>परमाणु में शब्दरहितता</strong>―इन परमाणुओं में, शुद्ध पुद्गलद्रव्य में जो कि परपरिणति से दूर हैं, शुद्ध पर्यायरूप हैं, शब्द नहीं होते हैं। जैसे कि परपरिणति से परे शुद्ध पर्यायात्मक परमात्मपदार्थ में कामादिक विकार नहीं होते हैं। शब्द एक विकारपर्याय है। अत: शब्दपर्याय भी शुद्ध पर्याय में नहीं होती। भाषावर्गणा जाति के स्कंध पड़े हुए हैं जगत् में, सर्वत्र पड़े हैं। बोलते हैं तो तुरंत इतने शब्दों का विस्तार बन जाता है। भाषावर्गणा के उपादान में परिणत ये सब शब्द पुद्गलद्रव्य हैं। पुद्गल को संदूक में बंद कर सकते हैं, पुद्गल को उठाकर बहुत दूर तक फेंक सकते हैं। ऐसे ही ये शब्द भी पुद्गल हैं। उन शब्दों को अपन रोक सकते हैं, टेप में तो थाम लेते हैं, रिकार्ड में भी थाम लेते हैं और शब्द छिड़ जायें। भींत बीच में हो या किवाड़ बंद हों, बाहर से कोई चिल्लाए तो शब्द सुनने में नहीं आते। ये शब्द पुद्गलद्रव्य हैं, विकारीपर्याय हैं। ये शब्द पर्याय शुद्ध पर्यायरूप परमाणु में नहीं है, क्योंकि परमाणु स्वतंत्र अपने एकत्व को लिए हुआ पदार्थ है, वह परपरिणति से दूर है। स्कंधों में से स्वतंत्रपरमाणु का जो कार्य है, वह नहीं हो सकता। वहाँ परपरिणति का रंग सर्वपरमाणुवों पर पड़ा है, स्कंधावस्था में पड़ा है। केवल एक जो शुद्ध परमाणु है, उस परमाणु में परपरिणति का रंग नहीं होता, इस कारण उसमें स्कंधपर्याय जो शब्दनामक है, वह नहीं हुआ करता है। </p> | ||
<p | <p><strong>शुद्ध पदार्थों के कैवल्य की समानता</strong>―भैया ! अपन चेतन हैं इस कारण चैतन्य शुद्ध चैतन्यतत्त्व की महिमा अधिक गाते हैं, पर जितने भी शुद्ध द्रव्य हैं उन सबमें शुद्धता की महिमा पायी जाती है। इस प्रकार निष्पक्ष दृष्टि से देखें तो जैसे परमाणु शुद्ध विलसित होता है इसी प्रकार सिद्ध जीव भी शुद्ध विलसित है। आकाशद्रव्य निरंतर शुद्ध रहता है, जिसमें समस्त विश्व के पर्याय भी लोट रहे हैं, फिर भी आकाश में विकार नहीं होता। ऐसे ही शुद्ध आत्मा के स्थान पर अनेक विश्व के पदार्थ लोट रहे हैं, फिर भी उनमें विकार नहीं होता। और जब तक पुद्गल शुद्ध पुद्गल है वहाँ भी समस्त पदार्थ लोट रहे हैं फिर भी तो पुद्गल में विकार नहीं होता है।</p> | ||
<p | <p><strong> जीव व पुद्गल की शुद्धता में भविष्यत्का अंतर</strong>―आत्मा की शुद्धता और पुद्गल की शुद्धता में यह अंतर है कि आत्मा तो शुद्ध होकर फिर कभी अशुद्ध नहीं हो सकता है क्योंकि आत्मा के अशुद्ध होने का कारण है रागद्वेष विभाव। रागद्वेष विभाव मूलत: एक बार नष्ट होने पर फिर उसका कार्यरूप कर्म नहीं आते और जब कर्म नहीं रहते तो कोई कार्यरूप रागद्वेष की संभावना नहीं रहती, किंतु पुद्गल परमाणुओं में परस्पर का जो द्रव्यबंधन है वह परमाणु के स्निग्ध रूक्षत्व गुण के कारण हैं। स्निग्ध रूक्षत्व गुण परमाणु में शाश्वत रहता है और उनका अविभागप्रतिच्छेद भी स्वयं कर्मवश हो रहा है परिणमनशीलता के कारण। तो जब बंधन की योग्यता होती है व दो गुण अधिक उनका योग मिलता है तो भी परमाणु आपस में बंधन को प्राप्त हो जाता है तब यह अशुद्ध कहलाने लगता है, पर जब तक परमाणु शुद्ध है तब तक उसके परपरिणति नहीं है, शब्द भी नहीं है। ऐसे पुद्गल द्रव्य पर्यायों के प्रकरण में यहाँ स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय रूप से दो प्रकार की पर्यायें बतायी गयी हैं।</p> | ||
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
अण्णणिरावेक्खो जो परिणामो सो सहावपज्जाओ।
खंधसरूवेण पुणो परिणामो सो विहावपज्जाओ।।28।।
पुद्गल का निरपेक्ष परिणमन―परमाणुरूप पर्याय पुद्गल की शुद्ध पर्याय है और वह परम पारिणामिक भावस्वरूप है। जैसे सभी पदार्थों में वस्तुगत षट् प्रकार की हानि गुणवृद्धिरूप परिणमन होता है जो कि अत्यंत सूक्ष्म है और अर्थ पर्यायरूप है ऐसा अर्थपरिणमन इस पुद्गल के भी होता है। यह परिणमन पुद्गल में द्रव्यत्व गुण के कारण स्वयमेव हो रहा है कि किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा से नहीं परिणमता। यह वस्तु का स्वभाव है वस्तु है तो निरंतर परिणमता रहता है ऐसा कोई पदार्थ नहीं होता जो है तो जरूर किंतु परिणमे नहीं। परिणमन बिना है कि सिद्ध नहीं होती है और है के बिना परिणमन की सिद्धि नहीं है। परद्रव्य की अपेक्षा न रखकर जो परिणमन होता है वह स्वभाव पर्याय है।
स्वभावपरिणमन―स्वभाव पर्याय यद्यपि आदि अंतकर सहित है और ऐसा ही आदि अंत करि सहित निरंतर उसमें परिणमन होता रहता है फिर भी स्वभावपर्याय परद्रव्य की अपेक्षा न करके होता है, अत: वह शुद्ध सद्भूत व्यवहारनयात्मक पर्याय है अथवा एक समय में उत्पाद व्यय ध्रौव्यात्मक होने से सूक्ष्म परिणमन जो निरंतर चलता रहता है वह इसकी शुद्धपर्याय है। जैसे आत्मा के साथ अन्य द्रव्य का संबंध नहीं होता, उपाधि का संयोग नहीं होता तो वह आत्मा अपने स्वभाव के अनुकूल समपरिणमन कर रहा है। इस ही प्रकार परमाणु जब अन्य परमाणु का संबंध नहीं पाता अथवा जीव का भी संयोग नहीं पाता तो वह परमाणु अगुरुलघुत्व गुणकृत षड्गुण वृद्धिरूप से हानिरूप से निरंतर परिणमता रहता है।
व्यंजन पर्याय―दिखने वाले स्कंधों में कल्पना से टुकड़े कर-करके ऐसा आखिरी टुकड़ा ध्यान में लावो कि जिसका दूसरा अंश हो ही न सके ऐसा ज्ञान में आया हुआ निरंश अणु देखो और उसमें परिणमन विचारो तो वह परिणमन एक न की तरह ज्ञात होगा। जैसे अशुद्ध आत्मा के परिणमन व्यक्त विदित होते हैं किंतु शुद्ध आत्मा का परिणमन व्यक्त विदित नहीं होता, इसी कारण यावन्मात्र अशुद्ध परिणमन हैं ये चाहे अशुद्ध गुणपर्याय हों अथवा द्रव्यपर्याय हों उन सबको व्यंजन पर्याय कहा गया है।
परमाणु में एकत्व परिणमन―तो जैसे सभी द्रव्यों में जो कि शुद्ध हैं उनमें द्रव्यत्व गुण के कारण परिणमन चलता रहता है, इसी तरह शुद्ध परमाणु में भी रूप, रस, गंध, स्पर्श का स्वतंत्र एकरूप परिणमन चला करता है अर्थात् जैसे स्कंधों में कई रंगों के मेल का रंग भी दिखता है, जैसे-जैसे नीला, सुवापंखी, गुलाबी―ये सब रंग जो कि स्वतंत्र नहीं हैं किंतु रंगों के मेल से बने हुए हैं, परमाणु में रंगों के मेल का बना हुआ यह सब रंग नहीं हुआ करता है क्योंकि वहाँ मेल कहां से आया? एक परमाणु एक रंग रूप है, दूसरा परमाणु भी एक रंग रूप है। यदि दो छोटे स्कंध जो विभिन्न रंग के हों और मिलकर पिंड बन जायें तो ऐसे स्कंध में तो संभावना की जा सकती है अर्थात् एक परमाणु में अपना ही शुद्ध एक रूप होता है। इसी तरह रस आदि गुणों के परिणमनों की भी बात शुद्ध पायी जाती है।
जीव द्रव्य को ही उपदेशे जाने का कारण―6 जाति के द्रव्य होते हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, इनमें से जीव और पुद्गल ये दो ही द्रव्य विभावरूप परिणम सकते हैं। शेष द्रव्य तो शाश्वत शुद्ध रहा करते हैं, इसलिए अन्य द्रव्यों को शुद्ध होने का उपदेश नहीं है। इन दो द्रव्यों में से पुद्गल को भी शुद्ध होने का उपदेश नहीं है। पुद्गल शुद्ध हो जाए तो क्या, अशुद्ध रहे तो क्या? किसी भी अवस्था से पुद्गल में बिगाड़ नहीं है। यदि एक चौकी को काट छेद करके बिगाड़ दिया तो हम आप लोग अपनी कल्पना से मानते हैं कि चौकी बिगड़ गयी। पर वहाँ क्या बिगड़ा? चौकी तो जड़ पदार्थ है। प्रत्येक परमाणु अपने आपमें अपना परिपूर्ण अस्तित्व लिए है। क्या बिगड़ा? यहाँ पर तो पुद्गल का कुछ बिगाड़ नहीं है। किसी भी रूप परिणमे, उनमें खेद नहीं होता है। एक जीवद्रव्य ही ऐसा है कि विकृतावस्था में यह आकुलित रहता है और जन्म-मरण की परंपराओं में क्लेश पाता रहता है। उसे उपदेश है कि अय जीव, अपने सहजस्वरूप की संभाल तो कर, तभी ये कर्मबंधन, नोकर्मसंयोग, विभावों के संकट समाप्त होंगे।
वीतराग विज्ञानस्वरूप―छहढाला हिंदी भाषा की एक बहुत ऊँची पुस्तक है, जिसमें सब उपयोगी बातें दी गयी हैं। मंगलाचरण में यह बताया है कि तीन लोक में सार जो वीतरागविज्ञान है; वह शिवस्वरूप है, कल्याणमय है और आनंद का देने वाला है; उसे तीन योग संभालकर मैं नमस्कार करता हूं। कितने संक्षिप्त शब्द हैं और बड़े अर्थ मर्म से भरे हुए हैं। तीन लोक में सार क्या है? रागद्वेष रहित ज्ञानस्वभाव। यह ज्ञायकभाव स्वरसत: रागद्वेषादि विकारों से रहित है। यह वीतरागविज्ञान सब जीवों में पाया जाता है। हममें आपमें सबमें जो इसे नहीं जानते, वे दीन भिखारी से बने रहते हैं और परपदार्थ की आशा किया करते हैं, पर को अपना, अपने को पर का मालिक मानकर दु:खी हुआ करते हैं।
लोक की सर्वस्थितियों में क्लेश―भैया ! लोक में हुक्म मानने का ही दु:ख है? अरे, जितना दु:ख हुक्म मानने वाले को होता है, उससे भी कहीं अधिक दु:ख हुक्म देने वाले को है। जितने क्लेश दूसरे के समक्ष छोटा बनने से रहता है, उससे अधिक दु:ख दूसरे के समक्ष बड़ा बनकर रहने में होता है। लोग कह भी देते हैं कि उदय जिसका खराब हो तो बड़ा भाई या और कुछ बड़ा बनता है। अत: इस लोक में किस चीज में सुख मान लिया जाए? यदि किसी के पुत्र न हो तो मैं पुत्ररहित हूं, मेरे कुल को चलाने वाला कोई नहीं है, यों सोचकर दु:खी रहता है। जिसके पुत्र हों, वह भी तो दु:खी रहता है; नहीं तो बार-बार लड़कों को क्यों मारता, क्यों दाँत किटकिटाता? यदि पुत्र कुपूत हो गया तो उसका क्लेश होगा, व्यसनी हो गया, कुमार्गी भी हो गया, लड़ने-भिड़ने वाला हो गया, इस प्रकार के बड़े दु:ख हैं। यदि कोई पुत्र सपूत बन जाए तो उस कुपूत से भी ज्यादा दु:खदायी हो जाता है, क्योंकि यदि कुपूत लड़के से बाप का मन नहीं मिलता तो एक बार स्पष्ट कर दिया कि यह मेरा कोई नहीं है या अखबारों में छपा दिया कि अब मैं इसका जिम्मेदार नहीं; अगर पुत्र सपूत है तो यह ध्यान बना रहेगा कि मैं इसे समर्थ बना दूं, सुखी बना दूं, बड़ा आज्ञाकारी है, बड़ा विनयशील है; अत: उसको सुखी करने के लिए रात-दिन परिश्रम करना पड़ता है।
सर्वस्थितियों के क्लेश का कारण स्वयं का अज्ञानभाव―भैया ! सभी बातों को ऐसा ही लगा लो, हो तो दु:ख और न हो तो दु:ख। प्रयोजन यह है कि जब स्वयं में कोई ऐब है, वासना अज्ञान की बनी हुई है, तो दु:ख देने वाली तो अज्ञान वासना है, उसके कारण दु:खी रहा करता है। अत: लोक में कहीं आनंद नहीं है। शांति का स्रोत है आनंद का उपाय। एक वीतराग ज्ञानस्वभाव की दृष्टि करना, यही आनंद का उपाय है। खूब खोज लो कि जो सुखाभास होता है, उसमें भी पीछे पछतावा आता है, पर लोग सुख भोगने के काल में पछतावा महसूस नहीं करते। अत: तीनों लोकों में देवगति हो या नीचे का पाताल लोक हो अथवा मध्यलोक हो; उसमें रहने वाले जितने जीव, उनके भोगसाधन, वैभव, इज्जत आदि समस्त बातों पर निगाह डाल लो। सुखदायी कुछ नहीं है, सारभूत कुछ नहीं है, यह मर्म की बात, धर्म की बात थोड़ासा बुद्धि का प्रयोग करें तो अनुभव में उतर सकती है।
धर्म, अधर्म के फल की प्रयोगसिद्धता―पर को असार जानकर, विकल्प छोड़कर निर्विकल्पभाव से क्षणभर ठहर जाए तो अनुभूत हो जाएगा कि आत्मा का स्वरूप अनादि, अनंत है। जैसे कोई चीज बनाते हैं तो प्रयोग करते हुए देखते हुए देखते जाते हैं। जैसे चाकू की धार लगाते हैं तो बीच-बीच में थोड़ी अंगुली फेर कर देखते जाते हैं और वहाँ ज्ञान होता जाता है कि अभी धार में थोड़ी कमी रह गयी, अब ठीक हो गयी अथवा रोटी सेंकते जाते हैं और देखते जाते हैं कि इस तरफ की सिक गयी, उस तरफ की सिक गयी, अब फूल गयी, अभी इतनी कसर रह गयी, घुमाते जाते हैं, प्रयोग करते जाते हैं और समझते जाते हैं। इसी प्रकार धर्म और अधर्म की बात प्रयोग करते जावो और समझते जावो, कोई कठिन बात नहीं है। विकल्पभाव दूर करो और धर्म का प्रयोग करके समझ लो कि सार और शांति यहाँ ही है या नहीं। अधर्म की बात का प्रयोग तो किए ही हुए हैं अनादि से और समझ रहे हैं। तीन लोक में सार रागद्वेष रहित, विकाररहित जो शुद्ध ज्ञानस्वभाव है, वह स्वयं कल्याणरूप है और आनंद को देने वाला है। अत: तीनों योग संभाल करके उस वीतरागविज्ञान को नमस्कार हो।
पुद्गल में स्वभावपरिणमन व विभावपरिणमन―शुद्ध ज्ञायकस्वभावमय आत्मा को उस द्रव्य में ही केवल अकेले में देखा जाए तो उसका परिणमन ऐसा रमा रहता है कि प्रतिक्षण परिणमन होता हुआ भी परिवर्तन समझ में नहीं आता। इस परमाणु में भी परमाणुद्रव्यत्व के कारण उसमें प्रतिक्षण परिणमन होता रहता है। पतिक्षण परिणमन होता हुआ भी परिणमन में परिवर्तन नहीं हो पाता। वह ऐसे ही एकत्व को लिए हुए है। यह उसका स्वभावपर्याय है और पुद्गल का विभावपर्याय है। स्कंधरूप से परिणमन हो जाना पुद्गल का स्वजातीय बंधन है। परमाणु परमाणु मिलकर स्कंध बनता है, इसे सजातीय द्रव्यपर्याय कहते हैं। यह है पुद्गलद्रव्य की विभावपर्याय, अकेला अणु रह गया वह तो है स्वभावपर्याय और अनेक अणु मिलकर स्कंध बन गए तो यह है विभावपर्याय।
परमाणु में शब्दरहितता―इन परमाणुओं में, शुद्ध पुद्गलद्रव्य में जो कि परपरिणति से दूर हैं, शुद्ध पर्यायरूप हैं, शब्द नहीं होते हैं। जैसे कि परपरिणति से परे शुद्ध पर्यायात्मक परमात्मपदार्थ में कामादिक विकार नहीं होते हैं। शब्द एक विकारपर्याय है। अत: शब्दपर्याय भी शुद्ध पर्याय में नहीं होती। भाषावर्गणा जाति के स्कंध पड़े हुए हैं जगत् में, सर्वत्र पड़े हैं। बोलते हैं तो तुरंत इतने शब्दों का विस्तार बन जाता है। भाषावर्गणा के उपादान में परिणत ये सब शब्द पुद्गलद्रव्य हैं। पुद्गल को संदूक में बंद कर सकते हैं, पुद्गल को उठाकर बहुत दूर तक फेंक सकते हैं। ऐसे ही ये शब्द भी पुद्गल हैं। उन शब्दों को अपन रोक सकते हैं, टेप में तो थाम लेते हैं, रिकार्ड में भी थाम लेते हैं और शब्द छिड़ जायें। भींत बीच में हो या किवाड़ बंद हों, बाहर से कोई चिल्लाए तो शब्द सुनने में नहीं आते। ये शब्द पुद्गलद्रव्य हैं, विकारीपर्याय हैं। ये शब्द पर्याय शुद्ध पर्यायरूप परमाणु में नहीं है, क्योंकि परमाणु स्वतंत्र अपने एकत्व को लिए हुआ पदार्थ है, वह परपरिणति से दूर है। स्कंधों में से स्वतंत्रपरमाणु का जो कार्य है, वह नहीं हो सकता। वहाँ परपरिणति का रंग सर्वपरमाणुवों पर पड़ा है, स्कंधावस्था में पड़ा है। केवल एक जो शुद्ध परमाणु है, उस परमाणु में परपरिणति का रंग नहीं होता, इस कारण उसमें स्कंधपर्याय जो शब्दनामक है, वह नहीं हुआ करता है।
शुद्ध पदार्थों के कैवल्य की समानता―भैया ! अपन चेतन हैं इस कारण चैतन्य शुद्ध चैतन्यतत्त्व की महिमा अधिक गाते हैं, पर जितने भी शुद्ध द्रव्य हैं उन सबमें शुद्धता की महिमा पायी जाती है। इस प्रकार निष्पक्ष दृष्टि से देखें तो जैसे परमाणु शुद्ध विलसित होता है इसी प्रकार सिद्ध जीव भी शुद्ध विलसित है। आकाशद्रव्य निरंतर शुद्ध रहता है, जिसमें समस्त विश्व के पर्याय भी लोट रहे हैं, फिर भी आकाश में विकार नहीं होता। ऐसे ही शुद्ध आत्मा के स्थान पर अनेक विश्व के पदार्थ लोट रहे हैं, फिर भी उनमें विकार नहीं होता। और जब तक पुद्गल शुद्ध पुद्गल है वहाँ भी समस्त पदार्थ लोट रहे हैं फिर भी तो पुद्गल में विकार नहीं होता है।
जीव व पुद्गल की शुद्धता में भविष्यत्का अंतर―आत्मा की शुद्धता और पुद्गल की शुद्धता में यह अंतर है कि आत्मा तो शुद्ध होकर फिर कभी अशुद्ध नहीं हो सकता है क्योंकि आत्मा के अशुद्ध होने का कारण है रागद्वेष विभाव। रागद्वेष विभाव मूलत: एक बार नष्ट होने पर फिर उसका कार्यरूप कर्म नहीं आते और जब कर्म नहीं रहते तो कोई कार्यरूप रागद्वेष की संभावना नहीं रहती, किंतु पुद्गल परमाणुओं में परस्पर का जो द्रव्यबंधन है वह परमाणु के स्निग्ध रूक्षत्व गुण के कारण हैं। स्निग्ध रूक्षत्व गुण परमाणु में शाश्वत रहता है और उनका अविभागप्रतिच्छेद भी स्वयं कर्मवश हो रहा है परिणमनशीलता के कारण। तो जब बंधन की योग्यता होती है व दो गुण अधिक उनका योग मिलता है तो भी परमाणु आपस में बंधन को प्राप्त हो जाता है तब यह अशुद्ध कहलाने लगता है, पर जब तक परमाणु शुद्ध है तब तक उसके परपरिणति नहीं है, शब्द भी नहीं है। ऐसे पुद्गल द्रव्य पर्यायों के प्रकरण में यहाँ स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय रूप से दो प्रकार की पर्यायें बतायी गयी हैं।