नियमसार - गाथा 34: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
< | <div class="PravachanText"><p><strong>एदे छद्दव्वाणि य कालं मोत्तूण अत्थिकायत्ति।</strong></p> | ||
< | <p><strong>णिद्दिट्ठा जिणसमये काया हु वहुप्पदेसत्तं।।34।।</strong></p> | ||
<p> <strong>पाँच द्रव्यों के अस्तिकायपना</strong>―ये 6 द्रव्य हैं। इनमें काल को छोड़कर शेष के 5 द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं। जो बहुप्रदेशी होते हैं उन्हें अस्तिकाय कहते हैं। अस्तिकाय शब्द में दो शब्द हैं―अस्ति और काय अर्थात् है और बहुप्रदेशी है। उनका सद्भाव है इसका द्योतक तो है अस्ति, और वह बहुप्रदेशी है इसका वाचक है काय। कालद्रव्य अस्तिकाय नहीं है क्योंकि कालद्रव्य एकप्रदेशी है, दो प्रदेशी भी नहीं है। और इससे ऊपर कोई भी बहुप्रदेशी नहीं है। समय नामक द्रव्य अप्रदेशी होता हैं ऐसा आगम में कहा है। अप्रदेशी का अर्थ प्रदेशरहित नहीं लेना, किंतु बहुप्रदेशी नहीं है मात्र एकप्रदेशी है यह समझना। जैसे अनुदर कन्या कहते हैं उसे जिसका पेट चिपटा हो, बहुत पतला हो तो कहते है कि इसके पेट ही नहीं है। अरे यदि पेट नहीं है तो खड़ा कैसे होगी? पर इसके मोटा पेट नहीं है, ऐसे ही अप्रदेशी कहे तो इसका अर्थ यह नहीं लेना कि उसमें प्रदेश नहीं हैं, किंतु बहुप्रदेश नहीं हैं। काल तो केवल द्रव्यस्वरूप है और काल के अतिरिक्त अन्य 5 द्रव्य अस्तिकाय भी हैं।</p> | |||
<p | <p> <strong>काय शब्द का अर्थ</strong>―काय शब्द का अर्थ है संचीयते इति काय:। जो संचित किया जाय उसे काय कहते हैं। जिसमें बहुत से प्रदेश प्रचय हों, उसे अस्तिकाय कहते हैं अथवा काय मायने शरीर। जैसे शरीर बहुप्रदेशी होता है उसी तरह जो बहुप्रदेशी हो उसे काय कहते हैं। अंग्रेजी में तो काय को बौडी बोलते हैं। तो चाहे जीव की बौडी हो, चाहे अजीव का कोई पिंड हो उसका भी नाम बौडी है। शरीर को भी काय कहते हैं, और जो शरीर नहीं है किंतु बहुप्रदेशी है, संचयात्मक है उसे भी काय कहते हैं। बौडी का ठीक पर्याय काय हो सकता है, शरीर नहीं हो सकता है। तो जो काय की तरह हो उसे काय कहते हैं। अस्तिकाय 5 होते हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश। इनमें अस्ति नाम सत्ता का है और काय नाम बहुप्रदेशपने का है।</p> | ||
<p | <p> <strong>सत्ता और सत्ता की सप्रतिपक्षता</strong>―सर्वप्रथम सत्ता का अर्थ किया जा रहा है। सत्ता कैसी होती है? सप्रतिपक्ष अर्थात् विरोधी भाव सहित। कोई चीज सत् है तो वही चीज असत् भी है। किसी प्रकार यदि मनुष्य सत् है तो मनुष्यत्व की अपेक्षा और मनुष्यत्व के सिवाय बाकी पशु पक्षी आदि जितने अन्य जीव हैं उन सबकी अपेक्षा से असत् है। जैसे स्याद्वाद में कहते हैं स्याद् अस्ति स्याद् नास्ति। स्वरूपेण सत्, पर रूपेण असत्। अच्छा जरा और अंतर की बात देखो, भिन्न-भिन्न वस्तुओं से बनाया गया स्याद्वाद तो अच्छा नहीं लगा, क्योंकि एक ही वस्तु में सत् और असत् नहीं बताये। एक वस्तु का सत् उस वस्तु का है तो अन्य वस्तुओं की अपेक्षा असत् है ऐसा बताया है। जिज्ञासु कहता है कि मुझे तो ऐसा स्याद्वाद बतावो कि उसी पदार्थ में सत् भी पड़ा हो और उसी पदार्थ की अपेक्षा वही पदार्थ असत् हो जाता हो। जैसे नित्य और अनित्य, ये हमें ठीक जंच रहे हैं। जीव नित्य है तो जीव की ही अपेक्षा नित्य है और जीव अनित्य है तो उसही जीव की अपेक्षा अनित्य है। उसही एक जीव के जो द्रव्यत्व है उसकी दृष्टि से तो वह नित्य है और जो पर्यायत्व है उस ही जीव में उसकी दृष्टि से अनित्य है। तो यह तो स्याद्वाद हमें भा गया कि देखो दूसरे पदार्थ की अपेक्षा नहीं लगायी गयी पर सत् असत् में तो पर की अपेक्षा लेकर तुम बोलते हो। जीव जीवरूप से सत् है और जीव अजीवरूप से असत् है। हमें तो नित्य अनित्य एक अनेक की तरह एक ही पदार्थ की अपेक्षा से सत् बतावो और उसही पदार्थ की अपेक्षा से असत् बतावो तो हो सकता है क्या ऐसा? हो सकता है। कैसे हो सकता है, इसको दो तीन मिनट बाद में बतायेंगे।</p> | ||
<p | <p> <strong>सत्ता की सप्रतिपक्षता की द्वितीय दृष्टि</strong>―भैया ! पहिले ऐसा जानो कि सत्ता प्रतिपक्षसहित है, अर्थात् सत्ता दो प्रकार की है महासत्ता और आवांतर सत्ता। महासत्ता तो वह है जो सब पदार्थों में सामान्य सत्त्व पाया जाता है और एक-एक पदार्थ की जो सत्ता है वह है आवांतर सत्ता महासत्ता की अपेक्षा से आवांतर सत्ता असत्ता है और आवांतर सत्ता की अपेक्षा से महासत्ता असत् है। यह भी कुछ भिन्न-भिन्न बात कही जा रही है। इसमें इतना तो आया कि महासत्ता में सब आ गये। उसमें ही आवांतर सत्ता का एक रूप ले लिया है। और पहिले जो बताया था, जिसकी जिज्ञासा में आपको कहा गया है कि 2-3 मिनट में बतावेंगे यह तो इससे भी और दूर की बात थी। जीव जीव की अपेक्षा सत् है तो असत् में जीव को छुवा ही नहीं गया। अजीव की अपेक्षा असत् है और इस महासत्ता व आवांतर सत्ता में कम से कम इतनी बात तो आयी कि महासत्ता में सबका ग्रहण है। उसमें आवांतर सत्ता भी पड़ी है। जिस किसी वस्तु की सत्ता निरख रहे हैं वह हमारे सबके समानाधिकार में पड़ी हुई है। लेकिन जिज्ञासु कहता है कि मुझे इस कथन में भी संतोष नहीं हो रहा है। हमें तो एक ही ऐसा पदार्थ बतावो कि उस पदार्थ की अपेक्षा से यह सत् है और इस ही पदार्थ की अपेक्षा से यह असत् है। दूसरी बात सुनकर जिज्ञासु उस बात को अपने अंतर की बात को भूल नहीं रहा हैं। हमें तो एक ही पदार्थ बतावो कि उस ही पदार्थ की अपेक्षा सत् हो और उस ही पदार्थ की अपेक्षा असत् हो। अच्छा, तो चलो अब।</p> | ||
<p | <p><strong> सत्ता की सप्रतिपक्षता की तृतीय दृष्टि</strong>―देखो भैया ! पदार्थ गुणपर्यायात्मक है। उस पदार्थ को हम कभी ‘गुण समुदायो द्रव्यम्’ इस रूप से भी देख सकते हैं और उसही पदार्थ को ‘पर्याय समुदायो द्रव्यम्’ इस रूप से भी देख सकते हैं। जब हमने गुण रूप से उसका सत्त्व देखा तो पर्याय रूप से समझमें आने वाला सत्त्व वह नहीं है। तब जो गुणात्मकता के रूप में सत् है वही पदार्थ पर्यायात्मकता के रूप में असत् है और जब उसे पर्यायात्मकता के रूप में निरखा तो पर्यायात्मकता की निगाह से तो सत् है किंतु गुणात्मकता की दृष्टि से असत् है। गुणात्मकता महासत्ता है और पर्यायात्मकता आवांतर सत्ता है, क्योंकि गुण व्यापक है। और पर्याय व्याप्य है। यहाँ इस सप्रतिपक्षपन को इन दोनों पद्धतियों में निरखते जाइये। एक तो एक ही पदार्थ में सप्रतिपक्षपना देखें और सत् और असत् की अपेक्षा वह पदार्थ है और वह नहीं, किंतु उससे भिन्न अनेक समस्त पदार्थ उनकी अपेक्षा से नहीं, यों सप्रतिपक्षपना दिखा।</p> | ||
<p | <p> <strong>आवांतर सत् में अर्थक्रियाकारित्व</strong>―उनमें से प्रथम भिन्न-भिन्न उपदेश की पद्धतियों से सप्रतिपक्षपना दिखाया था, महासत्ता और आवांतर सत्ता समस्त पदार्थों में विस्तार से व्यापने वाले सत् को महासत् कहते हैं और प्रतिनियत जिस किसी पर लक्ष्य हो उस वस्तु में रहने वाले सत् को आवांतर सत् कहते हैं। यों समझ लीजिये कि महासत्ता तो बोलने और समझने की बात है और आवांतरसत्ता काम करने की बात है। जैसे गौ जाति और गौ पशु। गौ जाति तो बोलने और समझने की बात है और गौ पशु, उससे दूध निकलता है, सो व्यवहार करने की बात है। गौ जाति में दूध न निकलेगा। दूध निकलेगा किसी प्रतिनियत गौ से। किसी को दूध चाहिये तो कहे जावो उस गांव में हजारों गायें हैं, उन सब गायों में एक गोत्व सामान्य है, तुम तो सारे गांव के मालिक हो जावो, तुम गौ जाति से दूध निकाल लावो तो गौ जाति से उसे दूध न मिलेगा। दूध दुहने जायेगा तो किसी प्रतिनियत गौ के पास जायेगा। इस ही प्रकार महासत् एक स्वरूप सादृश्य समझने की बात है। यहाँ अर्थक्रिया न होगी, अर्थक्रिया तो प्रतिनियत वस्तु में होगी, आवांतर सत् में होगी तो यह सत् महासत् रूप में है तो उसका प्रतिपक्ष है आवांतर सत् और आवांतर सत् रूप में प्रस्तुत करे तो उसका प्रतिपक्षी है महासत्। तो यह महासत् सर्वपदार्थों में व्यापता है और आवांतर सत् प्रतिनियत वस्तु में व्यापता है।</p> | ||
<p | <p> <strong>गुणमुखेन सत्ता की सप्रतिपक्षता</strong>―महासत् समस्त व्यापक रूप में व्यापता है और आवांतर सत् प्रतिनियत रूप से व्यापता है। पहिले द्रव्यदृष्टि करके प्रतिपक्षता को बताया था, अब यह गुणदृष्टि करके सप्रतिपक्षता कही जा रही है। समस्त व्यापकरूप सबमें व्यापने वाला जो सत् है वह महासत् है और प्रतिनियत एक शक्ति में गुण में व्यापने वाले सत् को आवांतर सत् कहते हैं। वही पदार्थ सर्वगुणप्रचयाभेदात्मकता से जो सत् मिला वह प्रतिनियत एक गुणमुख से देखा गया सत् रूप नहीं है और जो प्रतिनियत एक गुणमुख से देखने पर जो सत् विदित हुआ वह सर्वगुणप्रचयाभेदात्मकता से देखा गया सत् रूप नहीं है। यों द्वितीय पीढ़ी पर महासत्ता व आवांतर सत्ता की पद्धति कही।</p> | ||
<p | <p> <strong>पर्यायमुखेन सत्ता की सप्रतिपक्षता</strong>―इस ही पद्धति में तीसरी पीढ़ी पर कहा जा रहा है कि जो अनंत पर्यायों में व्यापे वह है महासत्। और प्रतिनियत एक पर्याय में व्यापे वह है आवांतर सत्। द्रव्य, गुण, पर्याय इन तीन रूपों में पदार्थ का परिज्ञान किया जाता है। सो इन तीनों ही पद्धतियों में महासत् और आवांतर सत् परस्पर प्रतिपक्ष हैं, यह कथन किया गया है।</p> | ||
<p | <p> <strong>द्रव्य व गुणरूप से सत्ता की सप्रतिपक्षता का उपसंहार</strong>―अब पुन: अभिन्न पदार्थ को एक ही पदार्थ में महासत् और आवांतर सत् निरखिये। एक पदार्थ जितना है वह समग्र है। अनंतगुणात्मक अनंतपर्यायात्मक उस समग्र वस्तु में विस्तृत रूप से व्यापने वाला महासत् है और उस प्रतिनियत वस्तु के उन समग्र विस्तारों में से जब कभी एक धर्म की मुख्यता से देखा जाय तो उस समय वह आवांतर सत् हो गया जो उस व्यापने वाले महासत् में से व्याप्य सत् है। तो एक ही पदाथ्र में यह महासत् और आवांतर सत् सप्रतिपक्ष है। अब उसही एक पदार्थ में समग्र गुणों में व्यापकर रहने वाला सत् महासत् है। तो जब हम उस पदार्थ को किसी एक गुण की मुख्यता से परिचय करने जाते हैं तो वह आवांतर सत् हो जाता है। व्यवहार जितना चलता है वह आवांतर सत् से चलता है। समग्र गुणों को हम एक साथ बता दें, ऐसी कोई वचन पद्धति नहीं है। किसी गुण की मुख्यता से हम उस पूर्ण वस्तु को समझने और समझाने का यत्न किया करते हैं तो गुणरूप से एक ही पदार्थ में यह महासत् और आवांतर सत् विदित होता है।</p> | ||
<p | <p><strong> पर्यायमुखेन सत्ता की सप्रतिपक्षता के विवरण का उपसंहार</strong>―एक ही पदार्थ में एक ही समय में अनंतपर्यायें हैं और भिन्न-भिन्न समयों में भी अनंत पर्यायें हैं। एक समय में तो यों अनंत पर्यायें हैं कि प्रत्येक पदार्थ अनंतगुणात्मक होता है और जितने गुण होते हैं वे सब सदा कर्मठ रहते हैं। कोई गुण बेकार नहीं रह पाता। वह किसी न किसी परिणमन के रूप में व्यक्त हुआ करता है। जैसे आत्मा में श्रद्धा, दर्शन, ज्ञान चारित्र, आनंद आदि अनेक गुण हैं तो ऐसे ही उन सबके परिणमन भी एक साथ हैं। एक ही काल में ज्ञानगुण का भी परिणमन है, दर्शन गुण का भी परिणमन है, सब गुणों का परिणमन है, और भिन्न-भिन्न समयों में व्यतिरेक रूप से अनेक परिणमन होते रहते हैं। उन पर्यायों में और एक ही क्षण में होने वाले अनंत पर्यायों में व्यापने वाला जो सत् हे वह है महासत् और उस समग्र में एक ही उस पदार्थ के जिसके संबंध में महासत् देखा है, किसी एक पर्याय को निगाह में रखकर उसका अस्तित्व देखें तो वह है आवांतर सत्। इस तरह ये सत् सप्रतिपक्ष हैं।</p> | ||
<p | <p> <strong>पक्षस्थापन में द्वैतपने की गुंफितता</strong>―अस्तिकाय के प्रकरण में अस्ति शब्द का यहाँ अर्थ कहा जा रहा है। वैसे तो कुछ भी बात बोलो उसमें द्वैत भाव की पद्धति पड़ी हुई है। कोई कहे कि तुम्हारी यह बात बिल्कुल सच है तो क्या इसका अर्थ यह नहीं निकला कि यह बात झूठ नहीं है? दोनों भाव बंधे हुए हैं। कोई यह हठ करे, नहीं जी हमारी बात सच ही है, तो क्या यह बात नहीं है कि हमारी बात झूठ नहीं है? यदि यह न हो तो अर्थ निकल आया कि झूठ है और जब झूठ का अर्थ निकल आया तो पहिली बात कहां रहेगी? तो कुछ भी बात बोलते ही उसका विरोधी भाव उसमें पड़ा हुआ है। ‘आज मुझे मुनाफा हुआ है’ इसका अर्थ क्या यह नहीं है कि आज मुझे टोटा नहीं रहा। टोटा नहीं रहा, मुनाफा रहा, खैर इसमें तो कुछ अंतर लगा भी सकते हैं। मुनाफे का विरोधी शब्द यदि टोटा हे तो यह विधि निषेध का द्वैतभाव गुंफित है और टोटे का अर्थ दूसरा हो अमुनाफा, इसका अर्थ दूसरा हो तो मुनाफा के मुकाबिले अमुनाफा शब्द रख लो। कुछ भी बात बोलो वह अपने प्रतिपक्षी भाव से गुंफित है।</p> | ||
<p | <p> <strong>प्रत्येक निरूपण में स्याद्वाद की मुद्रा</strong>―प्रत्येक वस्तु में, प्रत्येक कथन में स्याद्वाद की मुद्रा गुंफित है। किसी जगह कोई माल बना तो माल बनाने वाले लोग उसमें अपनी सील लगा देते हैं पर यहाँ तो यह सारा माल पड़ा है, यह किसी जगह किसी ने बनाया नहीं है। यह अपने-अपने स्वरूप से बना है। तो इसमें सील लगाने कौन आयेगा? इसमें सील वही वस्तु लगा लेता है और वह सील है स्याद्वाद। प्रत्येक ज्ञान प्रत्येक व्यवहार स्याद्वादकरि गुंफित है।</p> | ||
<p | <p> <strong>हितार्थी की प्राथमिक और अंतिम अनेकांतता</strong>―इस स्याद्वाद का निकटवर्ती शब्द है अनेकांत। स्याद्वाद है वाचक और अनेकांत है वाच्य। स्याद्वाद में तो शब्दों की प्रभुता है और अनेकांत में वस्तुस्वरूप की प्रभुता है। अनेकांत कहते हैं जिसमें अनेक अंत पाये जायें। अंत का अर्थ है धर्म। सो जब तक व्यवहार मार्ग में अनेकांत का परिज्ञान कर रहे हैं तब तक तो ज्ञाता के उपयोग में यह अर्थ है कि इसमें अनेक पदार्थ हैं और जब अनेकांत का परिज्ञान करके कुछ अध्यात्म में उतरता है, निर्विकल्प समाधि के उन्मुख होता है उस समय मानो अनेकांत की ज्ञाता के उपयोग में यह व्याख्या बन गयी―‘न एक: अपि अंत: यत्र स: अनेकांत:।’ जहां एक भी धर्म नहीं है उसे कहते हैं अनेकांत। जहां रंच भी भेद नहीं है, गुणपर्यायकृत भी अंतर नहीं है, केवल एक ज्ञानस्वरूप का अनुभव है वहाँ अंतिम फलित स्थिति हो गयी। स्याद्वाद से साध्य है अनेक अंत वाला अनेकांत और उस अनेकांत का साध्य है एक भी अंत न हो ऐसी निर्विकल्प स्थिति। यहाँ अस्ति शब्द से पदार्थ का स्वरूप कहा गया है कि ये पदार्थ सत् हैं और कायरूप से सनाथ हैं, इस कारण ये 5 द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं। </p> | ||
<p | <p> </p> | ||
<p | <p> <strong>पदार्थों का अस्तित्व</strong>―जगत् में समस्त पदार्थ 6 जातियों में बंटे हुए हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इन समस्त द्रव्यों को विशेष-विशेष लक्षणों से पहिचानना यह भी भेदविज्ञान के लिए बड़ा सहायक है। किंतु उसके साथ ही समस्त द्रव्यों में पाये जाने वाले साधारण गुणों की दृष्टि से सबको निरखना, यह भी भेदविज्ञान में बहुत सहायक परिज्ञान है। प्रत्येक पदार्थ है। है पर ही तो सारी बात शृंगार चलता है। हे तो मानना ही होगा। जीव है, पुद्गल है आदिक और इतना ही नहीं जीव अनंत हैं सो वे सब अपने आपमें अपना-अपना है लिए हुए हैं। सो किंतु यह है पना सर्व पदार्थों में अविशेषता लिए हुए है। है कि दृष्टि से जीव और पुद्गल में क्या अंतर है?</p> | ||
<p | <p> <strong>अस्तित्व के सप्रतिपक्षत्व की वस्तुत्व द्वारा साध्यता</strong>―भैया ! अंतर पड़ता है असाधारण गुण की दृष्टि से। पुद्गल मूर्तिक हैं, जीव चेतन है, अंतर पड़ गया पर है पने की दृष्टि से क्या अंतर? वस्तु है, आप हैं, हम हैं। वस्तु कुछ भी हो लेकिन वह वस्तु है ऐसा एकांत न चलेगा। वस्तु अपने स्वरूप से है पररूप से नहीं है। दृष्टांत में जैसे इस पुस्तक को उदाहरण में लें यह पुस्तक है। तो है इतने मात्र से काम न चलेगा। यह पुस्तक हे और यह चौकी, घड़ी, मेज, कुर्सी आदिक अपुस्तक नहीं हैं। यदि ऐसी सप्रतिपक्षता का गुंफन ‘‘है’’ के साथ न लगा हो तो ‘‘है’’ भी नहीं टिक सकता। यह है तो क्या यह पुस्तक है, यह चौकी है, यह सर्वात्मक है। तो फिर यह यह नहीं रहा तो अस्तित्त्व के साथ प्रतिपक्ष का बना रहना आवश्यक है। </p> | ||
<p | <p> <strong> द्रव्यत्व का अर्थक्रियाकारिता में योग</strong>―अब वस्तु में अस्तित्व भी हो और स्वरूप से रहना, पररूप से न रहना ऐसा वस्तुत्व भी हुआ, इतने मात्र से भी कुछ काम नहीं बन सकता। क्या यह कूठस्थ ध्रुव है? परिणामी नहीं। यदि ध्रुव अस्तित्व हो, परिणामी न हो तो कुछ काम ही नहीं हो सकता, चलना-फिरना, चहल-पहल, बातचीत, संसारमार्ग, मोक्षमार्ग, जन्म लेना, मरना अथवा बना रहना―ये कुछ भी बातें नहीं हो सकती हैं। इस कारण यह भी निरखा जा रहा है कि प्रत्येक पदार्थ में परिणमनशीलता बसी हुई है। इसका ही नाम द्रव्यत्व है। यदि है तो निरंतर परिणमता रहता है।</p> | ||
<p | <p> <strong>अगुरुलघुत्व द्वारा अर्थक्रियाकारिता की व्यवस्था</strong>―यह परिणमता है तो परिणमता रहो, ऐसा सीमारहित परिणमन क्या है कि किसी भी रूप परिणम जावे? नहीं, चेतन चेतन रूप ही परिणमेगा, अचेतन अचेतन रूप ही परिणमेगा। प्रत्येक पदार्थ अपने ही गुणों में परिणमेगा दूसरे में नहीं। इस मर्म का सूचक है अगुरुलघुत्व गुण। कानून बनाकर लोक को उस पर चलाना एक तो यह बात और एक लोक का परंपरागत प्रचलन देखकर कानून बनाना, इन दो बातों में पहिली बात पास नहीं हो सकती, चल नहीं सकती, लेकिन अनेक गलतियों को सुधार कर परंपरा से जैसे सभ्य पुरुषों में चलता है उसको देखकर कानून गढ़ना, यह बात चलने लायक बात है।</p> | ||
<p | <p> <strong>चरणानुयोग का महत्त्व</strong>―चरणानुयोग में भी जो कुछ क्रिया करना बताया है परमार्थत: उसकी भी स्थिति यही है। ज्ञातृत्व की कला की परख बिना चरणानुयोग बनाकर जीव को उस पर चलाना, यह बात नहीं हुई है किंतु ज्ञानी जीव जो कर्ममल भार से हल्के हो जाते हैं उनकी कैसी प्रवृत्तियां चलती हैं, उन प्रचलनों को दृष्टि में निरखकर चरणानुयोग में गुंफन हुआ है और इसी कारण चरणानुयोग की विधियां जो निरूपित हैं उनके सहारे चूंकि ये निर्दोष कथन हैं सो ऐसा प्रयत्न करके भव्य लोक में प्राय: चलता है। पहिले तो कुछ प्रवृति बना बनाकर चरित्र में चलना होता है, फिर जो यथार्थ बात है वह चरित्र में स्वयं फिट हो जाती है।</p> | ||
<p | <p> <strong>वस्तुगत तत्त्व का निरूपण</strong>―यह वस्तुस्वरूप भी कानून बनाकर गढ़ा नहीं गया, किंतु परमार्थ में जो बात पायी जाती है उसको समझने के लिए उन्हें वचनों में बद्ध किया गया है। समस्त पदार्थ हैं और अपने स्वरूप से हैं पररूप से नहीं हैं―इन दो बातों की मिलती है। यों दो मित्र युगल हैं ये पदार्थ हैं व स्वरूप से हैं पररूप से नहीं, यह है प्रथम युगल और ये पदार्थ परिणमते हैं और अपने में ही परिणमते यह है दूसरे में नहीं परिणमते हैं, यह है द्रव्यत्व और अगुरुलघुत्व दो मित्रों की बात। ये चार साधारण गुण प्रत्येक पदार्थ में पाये जाते हैं। </p> | ||
<p | <p> <strong>पदार्थ में प्रदेशवत्त्व</strong>―भैया ! इतने पर भी अभी व्यवहार में उपयोग में बात पूर्णतया घर नहीं कर पायी। छितरा-बितरा परिज्ञान रहा, बंधा हुआ नहीं हो सका। तो अब प्रदेशवत्व गुण के द्वार से यह जानो कि ये समस्त गुण और परिणमन जहां होते हैं वे द्रव्य प्रदेशवान् हैं, केवल गल्प बात नहीं है, किंतु है कोई पदार्थ प्रदेशवान जहां यह साधारण और असाधारण शक्तियों का काम चल रहा है?</p> | ||
<p | <p><strong> पदार्थ में प्रमेयत्व</strong>―सब कुछ है और ज्ञान में न हो ऐसा भी नहीं है, सब प्रमेय है। न प्रमेय होता तो उनके संबंध में बात ही क्या चलती और ज्ञान का स्वरूप ऐसा है कि वह निर्दोष हो, निरावरण हो तो वह जानेगा। कितना जानेगा? यदि इसकी सीमा बना दी जाय तो उसका कारण क्या? ज्ञान ने इतना ही क्यों जाना, इससे आगे क्यों नहीं जाना? या तो कुछ न जाने यो सब जाने। बीच की बात ज्ञान में नहीं फबती। कुछ न जाने ज्ञान यह तो स्वरूप नहीं है। अपन समझ रहे है, सबके ज्ञान का स्वभाव जानना है, और सीमा रखकर जाने, यह युक्ति में नहीं बैठती क्यों कि यह ज्ञान दौड़-दौड़कर वस्तु के पास जा-जाकर नहीं जानता। यदि इस प्रकार जानने का स्वरूप हो तो थोड़ा कहना भी जंचता कि जहां तक ज्ञान दौड़ेगा वहाँ तक जान जायेगा पर यह ज्ञान राजा अपने ही प्रदेश में ठहरा हुआ अपनी कला से सहज स्वभाव को जाने जाता है। जो कुछ हे वह जाना जाता है। तो यों सर्वपदार्थों में प्रमेयता अवश्य आ ही पड़ी।</p> | ||
<p | <p> <strong>साधारण और असाधारण गुणों की अविनाभाविता</strong>―इस प्रकार इन 6 साधारण गुणों के साथ सदा प्रवर्तमान ये पदार्थ अपने में स्वतंत्र-स्वतंत्र परिणमन करते चले जा रहे हैं। साधारण गुण को अपने ज्ञान में स्थान न दें तो असाधारण गुण से ज्ञान और व्यवहार की गाड़ी चल नहीं सकती और असाधारण गुण को अपने उपयोग में स्थान न दें तो केवल साधारण गुणों की गाड़ी नहीं चल सकती। इस कारण वह सदा महासत् और आवांतर सत् ऐसे प्रतिपक्षपने को लिए हुए ही है। </p> | ||
<p | <p><strong> साधारण व असाधारण गुणों की अविनाभाविता का विवरण</strong>―पदार्थ में साधारण गुण न हो तो असाधारण गुण क्या करेगा? आत्मा में ज्ञानगुण है? हाँ है, और साधारण गुण माने नहीं तो, न परिणमन होगा, न सत्ता रहेगी, न कोइ्र आधार जंचेगा, फिर तो उन्मत्त कल्पना हो जायेगी। यदि साधारण गुण ही माने गए और असाधारण स्वरूप कुछ न तका तो द्रव्यत्व से बना क्या? द्रव्यत्व का निर्णय हुआ क्या? तो साधारण और असाधारण गुणों की परस्पर संबद्धता होती है और हैं ये प्रतिपक्षी भाव, ऐसी ही सामान्य सत्ता और आवांतर सत्ता इसका एक पदार्थ में सम्मिलन है। साधारण गुणों का प्रतिनिधि है महासत्ता और असाधारण गुणों की प्रतिनिधि है आवांतर सत्ता। ऐसे यथार्थ स्वरूप सहित पदार्थों का परिज्ञान करना हित पंथ में गमन करने के लिए आवश्यक है।</p> | ||
<p | <p> <strong>षड्द्रव्यरत्नमाला</strong>―यह 6 द्रव्यों की रत्नमाला भव्य जीवों के कंठ में आभरण के लिए शोभा के लिए हो जाती है। ज्ञानी की शोभा ज्ञान से है, और ज्ञान का रूप बनता है इन समस्त विश्व के पदार्थों के जानने से, तो ये सब पदार्थ इस ज्ञान की शोभा के लिए हैं। पदार्थ संबंधी यह सामान्य विवरण करके अब यहाँ यह बतला रहे हैं कि कौनसे द्रव्य में कितने प्रदेश हैं?</p> | ||
<p> | <p><strong> </strong></p> | ||
</div> | |||
<noinclude> | <noinclude> | ||
Line 33: | Line 34: | ||
[[ वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 35-36 | अगला पृष्ठ ]] | [[ वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 35-36 | अगला पृष्ठ ]] | ||
[[वर्णीजी-प्रवचन:क्षु. मनोहर वर्णी - नियमसार प्रवचन | अनुक्रमणिका ]] | [[वर्णीजी-प्रवचन:क्षु. मनोहर वर्णी - नियमसार प्रवचन अनुक्रमणिका | अनुक्रमणिका ]] | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: नियमसार]] | [[Category: नियमसार]] | ||
[[Category: प्रवचन]] | [[Category: प्रवचन]] |
Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
एदे छद्दव्वाणि य कालं मोत्तूण अत्थिकायत्ति।
णिद्दिट्ठा जिणसमये काया हु वहुप्पदेसत्तं।।34।।
पाँच द्रव्यों के अस्तिकायपना―ये 6 द्रव्य हैं। इनमें काल को छोड़कर शेष के 5 द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं। जो बहुप्रदेशी होते हैं उन्हें अस्तिकाय कहते हैं। अस्तिकाय शब्द में दो शब्द हैं―अस्ति और काय अर्थात् है और बहुप्रदेशी है। उनका सद्भाव है इसका द्योतक तो है अस्ति, और वह बहुप्रदेशी है इसका वाचक है काय। कालद्रव्य अस्तिकाय नहीं है क्योंकि कालद्रव्य एकप्रदेशी है, दो प्रदेशी भी नहीं है। और इससे ऊपर कोई भी बहुप्रदेशी नहीं है। समय नामक द्रव्य अप्रदेशी होता हैं ऐसा आगम में कहा है। अप्रदेशी का अर्थ प्रदेशरहित नहीं लेना, किंतु बहुप्रदेशी नहीं है मात्र एकप्रदेशी है यह समझना। जैसे अनुदर कन्या कहते हैं उसे जिसका पेट चिपटा हो, बहुत पतला हो तो कहते है कि इसके पेट ही नहीं है। अरे यदि पेट नहीं है तो खड़ा कैसे होगी? पर इसके मोटा पेट नहीं है, ऐसे ही अप्रदेशी कहे तो इसका अर्थ यह नहीं लेना कि उसमें प्रदेश नहीं हैं, किंतु बहुप्रदेश नहीं हैं। काल तो केवल द्रव्यस्वरूप है और काल के अतिरिक्त अन्य 5 द्रव्य अस्तिकाय भी हैं।
काय शब्द का अर्थ―काय शब्द का अर्थ है संचीयते इति काय:। जो संचित किया जाय उसे काय कहते हैं। जिसमें बहुत से प्रदेश प्रचय हों, उसे अस्तिकाय कहते हैं अथवा काय मायने शरीर। जैसे शरीर बहुप्रदेशी होता है उसी तरह जो बहुप्रदेशी हो उसे काय कहते हैं। अंग्रेजी में तो काय को बौडी बोलते हैं। तो चाहे जीव की बौडी हो, चाहे अजीव का कोई पिंड हो उसका भी नाम बौडी है। शरीर को भी काय कहते हैं, और जो शरीर नहीं है किंतु बहुप्रदेशी है, संचयात्मक है उसे भी काय कहते हैं। बौडी का ठीक पर्याय काय हो सकता है, शरीर नहीं हो सकता है। तो जो काय की तरह हो उसे काय कहते हैं। अस्तिकाय 5 होते हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश। इनमें अस्ति नाम सत्ता का है और काय नाम बहुप्रदेशपने का है।
सत्ता और सत्ता की सप्रतिपक्षता―सर्वप्रथम सत्ता का अर्थ किया जा रहा है। सत्ता कैसी होती है? सप्रतिपक्ष अर्थात् विरोधी भाव सहित। कोई चीज सत् है तो वही चीज असत् भी है। किसी प्रकार यदि मनुष्य सत् है तो मनुष्यत्व की अपेक्षा और मनुष्यत्व के सिवाय बाकी पशु पक्षी आदि जितने अन्य जीव हैं उन सबकी अपेक्षा से असत् है। जैसे स्याद्वाद में कहते हैं स्याद् अस्ति स्याद् नास्ति। स्वरूपेण सत्, पर रूपेण असत्। अच्छा जरा और अंतर की बात देखो, भिन्न-भिन्न वस्तुओं से बनाया गया स्याद्वाद तो अच्छा नहीं लगा, क्योंकि एक ही वस्तु में सत् और असत् नहीं बताये। एक वस्तु का सत् उस वस्तु का है तो अन्य वस्तुओं की अपेक्षा असत् है ऐसा बताया है। जिज्ञासु कहता है कि मुझे तो ऐसा स्याद्वाद बतावो कि उसी पदार्थ में सत् भी पड़ा हो और उसी पदार्थ की अपेक्षा वही पदार्थ असत् हो जाता हो। जैसे नित्य और अनित्य, ये हमें ठीक जंच रहे हैं। जीव नित्य है तो जीव की ही अपेक्षा नित्य है और जीव अनित्य है तो उसही जीव की अपेक्षा अनित्य है। उसही एक जीव के जो द्रव्यत्व है उसकी दृष्टि से तो वह नित्य है और जो पर्यायत्व है उस ही जीव में उसकी दृष्टि से अनित्य है। तो यह तो स्याद्वाद हमें भा गया कि देखो दूसरे पदार्थ की अपेक्षा नहीं लगायी गयी पर सत् असत् में तो पर की अपेक्षा लेकर तुम बोलते हो। जीव जीवरूप से सत् है और जीव अजीवरूप से असत् है। हमें तो नित्य अनित्य एक अनेक की तरह एक ही पदार्थ की अपेक्षा से सत् बतावो और उसही पदार्थ की अपेक्षा से असत् बतावो तो हो सकता है क्या ऐसा? हो सकता है। कैसे हो सकता है, इसको दो तीन मिनट बाद में बतायेंगे।
सत्ता की सप्रतिपक्षता की द्वितीय दृष्टि―भैया ! पहिले ऐसा जानो कि सत्ता प्रतिपक्षसहित है, अर्थात् सत्ता दो प्रकार की है महासत्ता और आवांतर सत्ता। महासत्ता तो वह है जो सब पदार्थों में सामान्य सत्त्व पाया जाता है और एक-एक पदार्थ की जो सत्ता है वह है आवांतर सत्ता महासत्ता की अपेक्षा से आवांतर सत्ता असत्ता है और आवांतर सत्ता की अपेक्षा से महासत्ता असत् है। यह भी कुछ भिन्न-भिन्न बात कही जा रही है। इसमें इतना तो आया कि महासत्ता में सब आ गये। उसमें ही आवांतर सत्ता का एक रूप ले लिया है। और पहिले जो बताया था, जिसकी जिज्ञासा में आपको कहा गया है कि 2-3 मिनट में बतावेंगे यह तो इससे भी और दूर की बात थी। जीव जीव की अपेक्षा सत् है तो असत् में जीव को छुवा ही नहीं गया। अजीव की अपेक्षा असत् है और इस महासत्ता व आवांतर सत्ता में कम से कम इतनी बात तो आयी कि महासत्ता में सबका ग्रहण है। उसमें आवांतर सत्ता भी पड़ी है। जिस किसी वस्तु की सत्ता निरख रहे हैं वह हमारे सबके समानाधिकार में पड़ी हुई है। लेकिन जिज्ञासु कहता है कि मुझे इस कथन में भी संतोष नहीं हो रहा है। हमें तो एक ही ऐसा पदार्थ बतावो कि उस पदार्थ की अपेक्षा से यह सत् है और इस ही पदार्थ की अपेक्षा से यह असत् है। दूसरी बात सुनकर जिज्ञासु उस बात को अपने अंतर की बात को भूल नहीं रहा हैं। हमें तो एक ही पदार्थ बतावो कि उस ही पदार्थ की अपेक्षा सत् हो और उस ही पदार्थ की अपेक्षा असत् हो। अच्छा, तो चलो अब।
सत्ता की सप्रतिपक्षता की तृतीय दृष्टि―देखो भैया ! पदार्थ गुणपर्यायात्मक है। उस पदार्थ को हम कभी ‘गुण समुदायो द्रव्यम्’ इस रूप से भी देख सकते हैं और उसही पदार्थ को ‘पर्याय समुदायो द्रव्यम्’ इस रूप से भी देख सकते हैं। जब हमने गुण रूप से उसका सत्त्व देखा तो पर्याय रूप से समझमें आने वाला सत्त्व वह नहीं है। तब जो गुणात्मकता के रूप में सत् है वही पदार्थ पर्यायात्मकता के रूप में असत् है और जब उसे पर्यायात्मकता के रूप में निरखा तो पर्यायात्मकता की निगाह से तो सत् है किंतु गुणात्मकता की दृष्टि से असत् है। गुणात्मकता महासत्ता है और पर्यायात्मकता आवांतर सत्ता है, क्योंकि गुण व्यापक है। और पर्याय व्याप्य है। यहाँ इस सप्रतिपक्षपन को इन दोनों पद्धतियों में निरखते जाइये। एक तो एक ही पदार्थ में सप्रतिपक्षपना देखें और सत् और असत् की अपेक्षा वह पदार्थ है और वह नहीं, किंतु उससे भिन्न अनेक समस्त पदार्थ उनकी अपेक्षा से नहीं, यों सप्रतिपक्षपना दिखा।
आवांतर सत् में अर्थक्रियाकारित्व―उनमें से प्रथम भिन्न-भिन्न उपदेश की पद्धतियों से सप्रतिपक्षपना दिखाया था, महासत्ता और आवांतर सत्ता समस्त पदार्थों में विस्तार से व्यापने वाले सत् को महासत् कहते हैं और प्रतिनियत जिस किसी पर लक्ष्य हो उस वस्तु में रहने वाले सत् को आवांतर सत् कहते हैं। यों समझ लीजिये कि महासत्ता तो बोलने और समझने की बात है और आवांतरसत्ता काम करने की बात है। जैसे गौ जाति और गौ पशु। गौ जाति तो बोलने और समझने की बात है और गौ पशु, उससे दूध निकलता है, सो व्यवहार करने की बात है। गौ जाति में दूध न निकलेगा। दूध निकलेगा किसी प्रतिनियत गौ से। किसी को दूध चाहिये तो कहे जावो उस गांव में हजारों गायें हैं, उन सब गायों में एक गोत्व सामान्य है, तुम तो सारे गांव के मालिक हो जावो, तुम गौ जाति से दूध निकाल लावो तो गौ जाति से उसे दूध न मिलेगा। दूध दुहने जायेगा तो किसी प्रतिनियत गौ के पास जायेगा। इस ही प्रकार महासत् एक स्वरूप सादृश्य समझने की बात है। यहाँ अर्थक्रिया न होगी, अर्थक्रिया तो प्रतिनियत वस्तु में होगी, आवांतर सत् में होगी तो यह सत् महासत् रूप में है तो उसका प्रतिपक्ष है आवांतर सत् और आवांतर सत् रूप में प्रस्तुत करे तो उसका प्रतिपक्षी है महासत्। तो यह महासत् सर्वपदार्थों में व्यापता है और आवांतर सत् प्रतिनियत वस्तु में व्यापता है।
गुणमुखेन सत्ता की सप्रतिपक्षता―महासत् समस्त व्यापक रूप में व्यापता है और आवांतर सत् प्रतिनियत रूप से व्यापता है। पहिले द्रव्यदृष्टि करके प्रतिपक्षता को बताया था, अब यह गुणदृष्टि करके सप्रतिपक्षता कही जा रही है। समस्त व्यापकरूप सबमें व्यापने वाला जो सत् है वह महासत् है और प्रतिनियत एक शक्ति में गुण में व्यापने वाले सत् को आवांतर सत् कहते हैं। वही पदार्थ सर्वगुणप्रचयाभेदात्मकता से जो सत् मिला वह प्रतिनियत एक गुणमुख से देखा गया सत् रूप नहीं है और जो प्रतिनियत एक गुणमुख से देखने पर जो सत् विदित हुआ वह सर्वगुणप्रचयाभेदात्मकता से देखा गया सत् रूप नहीं है। यों द्वितीय पीढ़ी पर महासत्ता व आवांतर सत्ता की पद्धति कही।
पर्यायमुखेन सत्ता की सप्रतिपक्षता―इस ही पद्धति में तीसरी पीढ़ी पर कहा जा रहा है कि जो अनंत पर्यायों में व्यापे वह है महासत्। और प्रतिनियत एक पर्याय में व्यापे वह है आवांतर सत्। द्रव्य, गुण, पर्याय इन तीन रूपों में पदार्थ का परिज्ञान किया जाता है। सो इन तीनों ही पद्धतियों में महासत् और आवांतर सत् परस्पर प्रतिपक्ष हैं, यह कथन किया गया है।
द्रव्य व गुणरूप से सत्ता की सप्रतिपक्षता का उपसंहार―अब पुन: अभिन्न पदार्थ को एक ही पदार्थ में महासत् और आवांतर सत् निरखिये। एक पदार्थ जितना है वह समग्र है। अनंतगुणात्मक अनंतपर्यायात्मक उस समग्र वस्तु में विस्तृत रूप से व्यापने वाला महासत् है और उस प्रतिनियत वस्तु के उन समग्र विस्तारों में से जब कभी एक धर्म की मुख्यता से देखा जाय तो उस समय वह आवांतर सत् हो गया जो उस व्यापने वाले महासत् में से व्याप्य सत् है। तो एक ही पदाथ्र में यह महासत् और आवांतर सत् सप्रतिपक्ष है। अब उसही एक पदार्थ में समग्र गुणों में व्यापकर रहने वाला सत् महासत् है। तो जब हम उस पदार्थ को किसी एक गुण की मुख्यता से परिचय करने जाते हैं तो वह आवांतर सत् हो जाता है। व्यवहार जितना चलता है वह आवांतर सत् से चलता है। समग्र गुणों को हम एक साथ बता दें, ऐसी कोई वचन पद्धति नहीं है। किसी गुण की मुख्यता से हम उस पूर्ण वस्तु को समझने और समझाने का यत्न किया करते हैं तो गुणरूप से एक ही पदार्थ में यह महासत् और आवांतर सत् विदित होता है।
पर्यायमुखेन सत्ता की सप्रतिपक्षता के विवरण का उपसंहार―एक ही पदार्थ में एक ही समय में अनंतपर्यायें हैं और भिन्न-भिन्न समयों में भी अनंत पर्यायें हैं। एक समय में तो यों अनंत पर्यायें हैं कि प्रत्येक पदार्थ अनंतगुणात्मक होता है और जितने गुण होते हैं वे सब सदा कर्मठ रहते हैं। कोई गुण बेकार नहीं रह पाता। वह किसी न किसी परिणमन के रूप में व्यक्त हुआ करता है। जैसे आत्मा में श्रद्धा, दर्शन, ज्ञान चारित्र, आनंद आदि अनेक गुण हैं तो ऐसे ही उन सबके परिणमन भी एक साथ हैं। एक ही काल में ज्ञानगुण का भी परिणमन है, दर्शन गुण का भी परिणमन है, सब गुणों का परिणमन है, और भिन्न-भिन्न समयों में व्यतिरेक रूप से अनेक परिणमन होते रहते हैं। उन पर्यायों में और एक ही क्षण में होने वाले अनंत पर्यायों में व्यापने वाला जो सत् हे वह है महासत् और उस समग्र में एक ही उस पदार्थ के जिसके संबंध में महासत् देखा है, किसी एक पर्याय को निगाह में रखकर उसका अस्तित्व देखें तो वह है आवांतर सत्। इस तरह ये सत् सप्रतिपक्ष हैं।
पक्षस्थापन में द्वैतपने की गुंफितता―अस्तिकाय के प्रकरण में अस्ति शब्द का यहाँ अर्थ कहा जा रहा है। वैसे तो कुछ भी बात बोलो उसमें द्वैत भाव की पद्धति पड़ी हुई है। कोई कहे कि तुम्हारी यह बात बिल्कुल सच है तो क्या इसका अर्थ यह नहीं निकला कि यह बात झूठ नहीं है? दोनों भाव बंधे हुए हैं। कोई यह हठ करे, नहीं जी हमारी बात सच ही है, तो क्या यह बात नहीं है कि हमारी बात झूठ नहीं है? यदि यह न हो तो अर्थ निकल आया कि झूठ है और जब झूठ का अर्थ निकल आया तो पहिली बात कहां रहेगी? तो कुछ भी बात बोलते ही उसका विरोधी भाव उसमें पड़ा हुआ है। ‘आज मुझे मुनाफा हुआ है’ इसका अर्थ क्या यह नहीं है कि आज मुझे टोटा नहीं रहा। टोटा नहीं रहा, मुनाफा रहा, खैर इसमें तो कुछ अंतर लगा भी सकते हैं। मुनाफे का विरोधी शब्द यदि टोटा हे तो यह विधि निषेध का द्वैतभाव गुंफित है और टोटे का अर्थ दूसरा हो अमुनाफा, इसका अर्थ दूसरा हो तो मुनाफा के मुकाबिले अमुनाफा शब्द रख लो। कुछ भी बात बोलो वह अपने प्रतिपक्षी भाव से गुंफित है।
प्रत्येक निरूपण में स्याद्वाद की मुद्रा―प्रत्येक वस्तु में, प्रत्येक कथन में स्याद्वाद की मुद्रा गुंफित है। किसी जगह कोई माल बना तो माल बनाने वाले लोग उसमें अपनी सील लगा देते हैं पर यहाँ तो यह सारा माल पड़ा है, यह किसी जगह किसी ने बनाया नहीं है। यह अपने-अपने स्वरूप से बना है। तो इसमें सील लगाने कौन आयेगा? इसमें सील वही वस्तु लगा लेता है और वह सील है स्याद्वाद। प्रत्येक ज्ञान प्रत्येक व्यवहार स्याद्वादकरि गुंफित है।
हितार्थी की प्राथमिक और अंतिम अनेकांतता―इस स्याद्वाद का निकटवर्ती शब्द है अनेकांत। स्याद्वाद है वाचक और अनेकांत है वाच्य। स्याद्वाद में तो शब्दों की प्रभुता है और अनेकांत में वस्तुस्वरूप की प्रभुता है। अनेकांत कहते हैं जिसमें अनेक अंत पाये जायें। अंत का अर्थ है धर्म। सो जब तक व्यवहार मार्ग में अनेकांत का परिज्ञान कर रहे हैं तब तक तो ज्ञाता के उपयोग में यह अर्थ है कि इसमें अनेक पदार्थ हैं और जब अनेकांत का परिज्ञान करके कुछ अध्यात्म में उतरता है, निर्विकल्प समाधि के उन्मुख होता है उस समय मानो अनेकांत की ज्ञाता के उपयोग में यह व्याख्या बन गयी―‘न एक: अपि अंत: यत्र स: अनेकांत:।’ जहां एक भी धर्म नहीं है उसे कहते हैं अनेकांत। जहां रंच भी भेद नहीं है, गुणपर्यायकृत भी अंतर नहीं है, केवल एक ज्ञानस्वरूप का अनुभव है वहाँ अंतिम फलित स्थिति हो गयी। स्याद्वाद से साध्य है अनेक अंत वाला अनेकांत और उस अनेकांत का साध्य है एक भी अंत न हो ऐसी निर्विकल्प स्थिति। यहाँ अस्ति शब्द से पदार्थ का स्वरूप कहा गया है कि ये पदार्थ सत् हैं और कायरूप से सनाथ हैं, इस कारण ये 5 द्रव्य अस्तिकाय कहलाते हैं।
पदार्थों का अस्तित्व―जगत् में समस्त पदार्थ 6 जातियों में बंटे हुए हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इन समस्त द्रव्यों को विशेष-विशेष लक्षणों से पहिचानना यह भी भेदविज्ञान के लिए बड़ा सहायक है। किंतु उसके साथ ही समस्त द्रव्यों में पाये जाने वाले साधारण गुणों की दृष्टि से सबको निरखना, यह भी भेदविज्ञान में बहुत सहायक परिज्ञान है। प्रत्येक पदार्थ है। है पर ही तो सारी बात शृंगार चलता है। हे तो मानना ही होगा। जीव है, पुद्गल है आदिक और इतना ही नहीं जीव अनंत हैं सो वे सब अपने आपमें अपना-अपना है लिए हुए हैं। सो किंतु यह है पना सर्व पदार्थों में अविशेषता लिए हुए है। है कि दृष्टि से जीव और पुद्गल में क्या अंतर है?
अस्तित्व के सप्रतिपक्षत्व की वस्तुत्व द्वारा साध्यता―भैया ! अंतर पड़ता है असाधारण गुण की दृष्टि से। पुद्गल मूर्तिक हैं, जीव चेतन है, अंतर पड़ गया पर है पने की दृष्टि से क्या अंतर? वस्तु है, आप हैं, हम हैं। वस्तु कुछ भी हो लेकिन वह वस्तु है ऐसा एकांत न चलेगा। वस्तु अपने स्वरूप से है पररूप से नहीं है। दृष्टांत में जैसे इस पुस्तक को उदाहरण में लें यह पुस्तक है। तो है इतने मात्र से काम न चलेगा। यह पुस्तक हे और यह चौकी, घड़ी, मेज, कुर्सी आदिक अपुस्तक नहीं हैं। यदि ऐसी सप्रतिपक्षता का गुंफन ‘‘है’’ के साथ न लगा हो तो ‘‘है’’ भी नहीं टिक सकता। यह है तो क्या यह पुस्तक है, यह चौकी है, यह सर्वात्मक है। तो फिर यह यह नहीं रहा तो अस्तित्त्व के साथ प्रतिपक्ष का बना रहना आवश्यक है।
द्रव्यत्व का अर्थक्रियाकारिता में योग―अब वस्तु में अस्तित्व भी हो और स्वरूप से रहना, पररूप से न रहना ऐसा वस्तुत्व भी हुआ, इतने मात्र से भी कुछ काम नहीं बन सकता। क्या यह कूठस्थ ध्रुव है? परिणामी नहीं। यदि ध्रुव अस्तित्व हो, परिणामी न हो तो कुछ काम ही नहीं हो सकता, चलना-फिरना, चहल-पहल, बातचीत, संसारमार्ग, मोक्षमार्ग, जन्म लेना, मरना अथवा बना रहना―ये कुछ भी बातें नहीं हो सकती हैं। इस कारण यह भी निरखा जा रहा है कि प्रत्येक पदार्थ में परिणमनशीलता बसी हुई है। इसका ही नाम द्रव्यत्व है। यदि है तो निरंतर परिणमता रहता है।
अगुरुलघुत्व द्वारा अर्थक्रियाकारिता की व्यवस्था―यह परिणमता है तो परिणमता रहो, ऐसा सीमारहित परिणमन क्या है कि किसी भी रूप परिणम जावे? नहीं, चेतन चेतन रूप ही परिणमेगा, अचेतन अचेतन रूप ही परिणमेगा। प्रत्येक पदार्थ अपने ही गुणों में परिणमेगा दूसरे में नहीं। इस मर्म का सूचक है अगुरुलघुत्व गुण। कानून बनाकर लोक को उस पर चलाना एक तो यह बात और एक लोक का परंपरागत प्रचलन देखकर कानून बनाना, इन दो बातों में पहिली बात पास नहीं हो सकती, चल नहीं सकती, लेकिन अनेक गलतियों को सुधार कर परंपरा से जैसे सभ्य पुरुषों में चलता है उसको देखकर कानून गढ़ना, यह बात चलने लायक बात है।
चरणानुयोग का महत्त्व―चरणानुयोग में भी जो कुछ क्रिया करना बताया है परमार्थत: उसकी भी स्थिति यही है। ज्ञातृत्व की कला की परख बिना चरणानुयोग बनाकर जीव को उस पर चलाना, यह बात नहीं हुई है किंतु ज्ञानी जीव जो कर्ममल भार से हल्के हो जाते हैं उनकी कैसी प्रवृत्तियां चलती हैं, उन प्रचलनों को दृष्टि में निरखकर चरणानुयोग में गुंफन हुआ है और इसी कारण चरणानुयोग की विधियां जो निरूपित हैं उनके सहारे चूंकि ये निर्दोष कथन हैं सो ऐसा प्रयत्न करके भव्य लोक में प्राय: चलता है। पहिले तो कुछ प्रवृति बना बनाकर चरित्र में चलना होता है, फिर जो यथार्थ बात है वह चरित्र में स्वयं फिट हो जाती है।
वस्तुगत तत्त्व का निरूपण―यह वस्तुस्वरूप भी कानून बनाकर गढ़ा नहीं गया, किंतु परमार्थ में जो बात पायी जाती है उसको समझने के लिए उन्हें वचनों में बद्ध किया गया है। समस्त पदार्थ हैं और अपने स्वरूप से हैं पररूप से नहीं हैं―इन दो बातों की मिलती है। यों दो मित्र युगल हैं ये पदार्थ हैं व स्वरूप से हैं पररूप से नहीं, यह है प्रथम युगल और ये पदार्थ परिणमते हैं और अपने में ही परिणमते यह है दूसरे में नहीं परिणमते हैं, यह है द्रव्यत्व और अगुरुलघुत्व दो मित्रों की बात। ये चार साधारण गुण प्रत्येक पदार्थ में पाये जाते हैं।
पदार्थ में प्रदेशवत्त्व―भैया ! इतने पर भी अभी व्यवहार में उपयोग में बात पूर्णतया घर नहीं कर पायी। छितरा-बितरा परिज्ञान रहा, बंधा हुआ नहीं हो सका। तो अब प्रदेशवत्व गुण के द्वार से यह जानो कि ये समस्त गुण और परिणमन जहां होते हैं वे द्रव्य प्रदेशवान् हैं, केवल गल्प बात नहीं है, किंतु है कोई पदार्थ प्रदेशवान जहां यह साधारण और असाधारण शक्तियों का काम चल रहा है?
पदार्थ में प्रमेयत्व―सब कुछ है और ज्ञान में न हो ऐसा भी नहीं है, सब प्रमेय है। न प्रमेय होता तो उनके संबंध में बात ही क्या चलती और ज्ञान का स्वरूप ऐसा है कि वह निर्दोष हो, निरावरण हो तो वह जानेगा। कितना जानेगा? यदि इसकी सीमा बना दी जाय तो उसका कारण क्या? ज्ञान ने इतना ही क्यों जाना, इससे आगे क्यों नहीं जाना? या तो कुछ न जाने यो सब जाने। बीच की बात ज्ञान में नहीं फबती। कुछ न जाने ज्ञान यह तो स्वरूप नहीं है। अपन समझ रहे है, सबके ज्ञान का स्वभाव जानना है, और सीमा रखकर जाने, यह युक्ति में नहीं बैठती क्यों कि यह ज्ञान दौड़-दौड़कर वस्तु के पास जा-जाकर नहीं जानता। यदि इस प्रकार जानने का स्वरूप हो तो थोड़ा कहना भी जंचता कि जहां तक ज्ञान दौड़ेगा वहाँ तक जान जायेगा पर यह ज्ञान राजा अपने ही प्रदेश में ठहरा हुआ अपनी कला से सहज स्वभाव को जाने जाता है। जो कुछ हे वह जाना जाता है। तो यों सर्वपदार्थों में प्रमेयता अवश्य आ ही पड़ी।
साधारण और असाधारण गुणों की अविनाभाविता―इस प्रकार इन 6 साधारण गुणों के साथ सदा प्रवर्तमान ये पदार्थ अपने में स्वतंत्र-स्वतंत्र परिणमन करते चले जा रहे हैं। साधारण गुण को अपने ज्ञान में स्थान न दें तो असाधारण गुण से ज्ञान और व्यवहार की गाड़ी चल नहीं सकती और असाधारण गुण को अपने उपयोग में स्थान न दें तो केवल साधारण गुणों की गाड़ी नहीं चल सकती। इस कारण वह सदा महासत् और आवांतर सत् ऐसे प्रतिपक्षपने को लिए हुए ही है।
साधारण व असाधारण गुणों की अविनाभाविता का विवरण―पदार्थ में साधारण गुण न हो तो असाधारण गुण क्या करेगा? आत्मा में ज्ञानगुण है? हाँ है, और साधारण गुण माने नहीं तो, न परिणमन होगा, न सत्ता रहेगी, न कोइ्र आधार जंचेगा, फिर तो उन्मत्त कल्पना हो जायेगी। यदि साधारण गुण ही माने गए और असाधारण स्वरूप कुछ न तका तो द्रव्यत्व से बना क्या? द्रव्यत्व का निर्णय हुआ क्या? तो साधारण और असाधारण गुणों की परस्पर संबद्धता होती है और हैं ये प्रतिपक्षी भाव, ऐसी ही सामान्य सत्ता और आवांतर सत्ता इसका एक पदार्थ में सम्मिलन है। साधारण गुणों का प्रतिनिधि है महासत्ता और असाधारण गुणों की प्रतिनिधि है आवांतर सत्ता। ऐसे यथार्थ स्वरूप सहित पदार्थों का परिज्ञान करना हित पंथ में गमन करने के लिए आवश्यक है।
षड्द्रव्यरत्नमाला―यह 6 द्रव्यों की रत्नमाला भव्य जीवों के कंठ में आभरण के लिए शोभा के लिए हो जाती है। ज्ञानी की शोभा ज्ञान से है, और ज्ञान का रूप बनता है इन समस्त विश्व के पदार्थों के जानने से, तो ये सब पदार्थ इस ज्ञान की शोभा के लिए हैं। पदार्थ संबंधी यह सामान्य विवरण करके अब यहाँ यह बतला रहे हैं कि कौनसे द्रव्य में कितने प्रदेश हैं?