नियमसार - गाथा 44: Difference between revisions
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< | <div class="PravachanText"><p><strong>णिग्गंथो णीरागो णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मुक्को।</strong></p> | ||
< | <p><strong>णिक्कामो णिक्कोहो णिम्माणो णिम्मदो अप्पा।।44।।</strong></p> | ||
<p | <p> <strong>अंतस्तत्त्व की निर्ग्रंथता</strong>―इस गाथा में भी शुद्ध जीवस्वरूप का वर्णन किया गया है। शुद्ध जीव का अर्थ है केवल जीव का स्वरूप। जीव अपने सत्त्व के कारण क्रियात्मक है, उस स्वरूप के वर्णन को कहते हैं शुद्ध जीव स्वरूप का वर्णन किया। यह मैं आत्मतत्त्व निर्ग्रंथ हूं। ग्रंथि नाम गांठ का है, आत्मा गांठ रहित है। संसारी आत्मा में गांठ लगी हुई है परिग्रह की और इसी गांठ के कारण इस परिग्रह से छूटकर नहीं पा सकता। यह गांठ 24 प्रकार की है, जिसमें 10 गांठें तो बाह्य गांठें हैं और 14 अंतरंग गांठें हैं।</p> | ||
<p | <p><strong> बाह्याभ्यंतरपरिग्रहरहितता</strong>―बाह्यपरिग्रह है खेत, मकान, पशु, धन, अनाज, नौकर, नौकरानी, वस्त्र, बर्तन, सोना, चाँदी, रत्न―ये सब बाह्यपरिग्रह हैं। बाह्यपरिग्रह वस्तुत: परिग्रह नहीं कहलाते, किंतु यह जीव इन पदार्थों को अपनाए तो उनका नाम परिग्रह बन जाता है। वे सब चीजें तो स्वतंत्र हैं। जैसे आप सत् पदार्थ हैं वैसे ये पुद्गल भी सत् पदार्थ हैं। इनका नाम परिग्रह कैसे पड़ेगा? इनके अपनाने का भाव हो तो परिग्रह नाम होता है। जिसके अंतरंग में परिग्रह का संस्कार लगा है उसके बाह्य में ये सब परिग्रह ऐसे निकट चिपके से रहते हैं कि इनका छोड़ना मुश्किल होता है। कल्याणार्थी पुरुष को इसी कारण चरणानुयोग की विधि से इन बाह्यपरिग्रहों का परित्याग करना चाहिए। जैसे लोग कहते हैं ना कि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। यों ही कर लीजिए। बाह्य का परित्याग किया तो भले ही कुछ दिन तक इसको ख्याल सतायेगा, पर कब तक सतायेगा, ख्याल छूट जायेगा। तो जो हमारे विभावों के साधन है, वे परिग्रह कहलाते हैं और अंतरंग में 14 प्रकार के परिग्रह तो परिग्रह हैं ही। इन 24 प्रकार के परिग्रहों का परित्यागरूप भाव को निर्ग्रंथ भाव कहते हैं।</p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मसाधना की वृद्ध अवस्था</strong>―आत्मा की साधना की दिशा में जब कोई पुरुष बहुत अधिक बढ़ता है तो उसकी स्थिति हो जाती है बाह्य में नग्नरूप। ऐसा निर्दोष आत्मसाधक कोई पुरुष हो कि जिसे अन्य किसी वस्तु का कुछ भी ख्याल न रहे तो स्वयं ही बाह्यपरिग्रह छूटते है और वह उनके ग्रहण करने का परिणाम भी नहीं रखता, ऐसी तो बाह्य में स्थिति होती और अंतरंग में ऐसी निर्विकार स्थिति होती है कि बालक के समान साधु को निर्विकार बताया है, जैसे बालक कभी कोई विकार संबंधी ख्याल ही नहीं कर सकता। बालकों में विकार का अभाव है। तो उनके तो अज्ञान अवस्था में उस बाल्यावस्था के कारण विकारों का अभाव है, किंतु साधु पुरुषों में अपनी ज्ञान अवस्था में विकारों का अभाव है, फिर कैसे साधु वस्त्र ग्रहण करे?</p> | ||
<p | <p> <strong>साधु की निवृत्तिमूलक चर्या</strong>―भैया !साधु की चर्या लोगों को प्रवृत्ति रूप मालूम पड़ती है, किंतु उनकी चर्या का आधार निवृत्ति है। यों ही कोई सोचे कि साधुसंत एक बार आहार करते हैं अरे उसे यों सोचो कि आहारविषयक उनके संज्ञा नहीं रही अथवा अत्यंत शिथिल है, वो बार-बार कैसे आहार करें और शरीर साधने के लिए 24 घंटे में एक बार ही आहार पर्याप्त होता है। यों छूट गया बार-बार का आहार। साधुजन देखकर जीव दया करके चलते हैं और इसे यों सोचो कि जिसकी दृष्टि शुद्ध जीवतत्त्व की बन गयी है और अपने ही स्वरूप के समान संसार के सब जीवों का स्वरूप निरखते हैं, अब बिना देखे कहां चला जाय उन साधुजनों से, उनसे हिंसा संभव नहीं है। उनके शरीर की प्रवृत्ति में निवृत्ति निरखते जावो। प्रवृत्ति को निरख करके उनका मर्म नहीं पा सकते। निवृत्ति को देखकर मर्म का परिचय होगा।</p> | ||
<p | <p> <strong>साधु की आहारचर्या के मूल में निवृत्ति</strong>―साधुजन खड़े ही खड़े आहार करके चले आते हैं। अरे यों प्रवृत्ति से मत देखो, उनके इतनी अवकाश नहीं है कि बहुत समय गृहस्थों के घर आहार करने में लगाएँ। इससे शीघ्रता से खड़े ही खड़े आहार करके चले आते हैं। कोई गृहस्थ के घर अपनी पुजावा के लिए या पीछे भी बड़ा समारोह बनाने के लिए आहार के बाद अथवा कुछ मन मौज वार्तालाप में समय गुजारने के लिए श्रावक के घर घंटे दो घंटे को बैठ जाएं तो उसने निवृत्ति की नीति का उल्लंघन किया। साधु संत बिजली की तरह चल देते हैं और आहार शुद्ध क्रिया करके तुरंत वापिस चले जाते हैं। समय ही उनको इतना नहीं है कि गप्प सप्प करे अथवा बैठकर मौज से बड़े विश्राम से धीरे-धीरे खायें। इस लायक उनकी वांछा भी नहीं रही। साधु की प्रत्येक चर्या में निवृत्ति अंश से निरखते जाइए।</p> | ||
<p | <p> <strong>सामायिक की निवृत्तिमूलकता</strong>―लोग यों देखते हैं कि साधु तीन बार सामायिक करते हैं―उसे यों देखिये ना कि साधुजन अर्द्ध रात्रि के समय भी आत्मचिंतन के लिए समय निकालते हैं। उनका कारण यह है कि चार पाँच घन्टे अन्य-अन्य आचरणों में समय गया। उसकी सावधानी के लिए प्रत्येक चार पाँच घंटे बाद सामायिक में बैठ जाता है। श्रावकों की भी यह बात है। सुबह 6 बजे सामायिक हुई, अब 5 घन्टे बाद फिर जो क्रियाएं की है उनका पछतावा, उनकी आलोचना करने के लिए फिर दोपहर को सामायिक की। फिर इसके बाद 4-5 घन्टे यहाँ वहाँ की बातों में बीते तो फिर पछतावा के लिए, आलोचना के लिए अंतस्तत्त्व की भक्ति के लिए फिर सामायिक में बैठ गए और शाम के 6 बजे से और सुबह के 5-6 बजे तक के सोने का टाइम निकाल दो तो उसके भी अंदर 5 घन्टे रह जाते हैं। 5, 5 घंटे में क्रियावों का प्रायश्चित्त आलोचना के लिए सामायिक बनी हुई है। हर बात में निवृत्ति अंश निरखते जाइए। </p> | ||
<p | <p> <strong>परम वैराग्य</strong>―आत्मसाधक इतना तीव्र वैरागी है कि उसके पास धन वैभव का रखना तो दूर रहो, एक वस्त्र को भी धारण करने में असमर्थ है। स्वच्छ बालकवत् निर्विकार निर्ग्रंथरूप रह जाता है, यह तो है व्यवहार की बात, पर यह अंतस्तत्त्व तो वास्तव में 14 प्रकार के परिग्रहों से दूर बने रहने के स्वभाव वाला है। यह तो अमूर्त है। इसमें तो रागादिक भाव भी नहीं हैं। यह तो शुद्ध ज्ञायकस्वरूप है बाह्यपरिग्रहों की तो चर्चा ही क्या? यों यह आत्मतत्त्व निर्ग्रंथ है। यह आत्मतत्त्व नीराग है, रागरहित है। राग एक उपलक्षण है। राग के कहने से समस्त विकार आ गये। रागद्वेष मोह सभी जितने चेतन कर्म हैं उन चेतन कर्मों से रहित इस अंतस्तत्त्व का स्वभाव है।</p> | ||
<p | <p> <strong>अंतस्तत्त्व की नीरागता</strong>―चेतन कर्म यह न चेतनतत्त्व में शामिल है, न अचेतन में शामिल है किंतु इन्हें चिदाभास कहा गया है। अचेतन तो यों नहीं है कि इसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं पाया जाता है। रागद्वेष भाव चेतन भी नहीं हैं कि ये कोई सद्भूत चीज नहीं है, सत् पदार्थ नहीं है, स्वभाव नहीं हैं, गुण नहीं हैं, एक उपाधि के सन्निधान में छाया हुआ है, ये सभी तो माया हैं―काया, खाया, गाया, छाया, जाया, पाया ये सारी मायाएं हैं। कोई इनमें सत् स्वरूप हो तो बतावो। तो समस्त अचेतन कर्मों का अभाव होने से यह अंतस्तत्त्व स्वरसत: नीराग है। देखो आत्मा तो एक स्वरूप है। किंतु निषेधमुखेन इसका वर्णन करते जाइये तो कितने ही दिन गुजारे जा सकते हैं। एक निज शुद्ध स्वरूप के अतिरिक्त जितने परतत्त्व हैं, पर भाव हैं उन सबका निषेध करते जाइए।</p> | ||
<p | <p> <strong>स्वभाव और विभाव का बेमेल प्रसंग</strong>―भैया ! है यह कोरा शुद्ध ज्ञायकस्वरूप, सर्व कल्याणों का आधार स्वयं सुखस्वरूप परमयोगीजनों का ध्येयभूत। इतनी अपूर्वनिधि तो हम आपके अंतर में है और उसकी श्रद्धा न होने से रूप, रस, गंध, स्पर्श वाले इस पुद्गल में और मांस हड्डी चाम वाले इन असमानजातीय पर्यायों में यह ही सार है―ऐसा मान रक्खा है। एक देहाती कहावत है―कामी न जाने जात कुजात, नींद न जाने टूटी खाट। भूख न जाने जूठो भात, प्यास न जाने धोबी घाट।। काम ऐसा बैरी है, ऐसी आग है जिसमें झुलसा हुआ प्राणी अपने आत्मस्वरूप के अवलोकन का पात्र भी नहीं हो सकता। सार कुछ नहीं है और विडंबना इतनी बड़ी बन गयी है। वे गृहस्थ भी धन्य हैं जो घर में रहते हुए भी निष्काम और ब्रह्मचारी रहते हैं। अब भी ऐसे जवान मिलेंगे 30, 40, 50 वर्ष की उम्र के घर में स्त्री सहित रहते हैं, मगर कोई बहिन जैसा नाता बनाकर पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहते हैं। </p> | ||
<p | <p> <strong>मिथ्यात्व का ऐब</strong>―सब ऐबों में दो ऐब विकट हैं―एक तो मिथ्यात्व का ऐब―मोह। यह महा बेवकूफी है कि भिन्न पदार्थों में यह कल्पना बनाई जा रही है कि यह मेरा है। एक तो महान् ऐब यह है। गृहस्थावस्था है तो परिग्रह की रक्षा करो, मना नहीं करते, पर दिन में एक आध बार यह तो सोच लो कि मैं तो सबसे न्यारा केवल शुद्ध ज्ञानमात्र चेतनतत्त्व हूं। आज यहाँ है, आयु का क्षय हो जाय तो कल और कहीं हैं, क्या है मेरा यहाँ, ऐसे शुद्ध विविक्त आत्मस्वरूप की सुधी तो ले लिया करो, अनुभव जब हो तब हो। पर सुधी लेने में क्या कुछ जोर पड़ता है? धर्मपालन और करना हो जाता है तो पहिला ऐब कठिन है यह मिथ्यात्व का।</p> | ||
<p | <p> <strong>कामवासना का ऐब</strong>―दूसरा ऐब कठिन है कामवासना का। जैसे देखो कि जितनी भी ये कषायें हैं सबमें ऐसा लगता है कि निराट बेवकूफी की जा रही है। खुद को खुद का पता नहीं लगता, क्योंकि वह तो कर ही रहा है। दूसरे जानते हैं कि कितनी मूढ़ता की बात की जा रही है। प्रथम तो अपने से ही लगा हुआ यह शरीर सुहा जाय तो यह भी विडंबना है। मैं बहुत अच्छा हूं, साफ रहता हूं, ताकतवर हूं, सुहावनी शकल है। अपना ही शरीर अपने को सुहा जाय, यह भी मूढ़ता है और फिर दूसरे का शरीर सुहा जाय तो वह और डबल मूढ़ता है। दूसरों का शरीर सुहा जाने में तो कामवासना को बल मिलता है और अपना शरीर सुहा जाने में मिथ्यात्व को बल मिलता है।</p> | ||
<p | <p> <strong>नीराग स्वभाव की दृष्टि की प्रेरणा</strong>―यह अंतस्तत्त्व समस्त मोहराग द्वेषात्मक चेतन कर्मों के अभाव से नीराग है। ऐसा नीराग स्वच्छ शुद्ध ज्ञायकस्वरूप इस आत्मतत्त्व की सुधी लो। अनादि से तो अपूर्व निधि को भूला चला आया है, जो जब भी मुक्त हो तब ही भला। अनंत समय तो गया ही है, अब बचा हुआ समय यदि ठीक तरह रख दिया जाय तो यह एक बड़ी सावधानी का कार्य होगा। इस अपने अंतस्तत्त्व को नीराग सर्वविकारों से रहित केवल जानन स्वरूप देखो। यह कारणसमयसार रागादिक विकाररहित है। </p> | ||
<p | <p> <strong>शल्य का क्लेश व स्वभाव की नि:शल्यता</strong>―अब बतला रहे हैं कि यह आत्मा नि:शल्य है। चीज सब वही की वही है, पर किन्हीं दृष्टियों से फेरफार करके कुछ मर्मों के साथ उस ही तत्त्व को दिखाया जा रहा है। शल्य उसे कहते हैं जो कांटे की तरह चुभती रहे। जैसे पैर में कांटा लग जाय तो चाहे वह एक सूत ही लंबा कांटा क्यों न हो, चुभता रहता है, चलते हैं तो पैर ठीक तरह से नहीं धरा जाता है। देखो शरीर तो है डेढ़ मन का और इसमें दो रत्ती का भी दसवां बीसवां हिस्सा बराबर एक सूत लंबा कांटा पड़ा हो तो वह चुभता रहता है। बड़े-बड़े हाथी मदोन्मत्त मतवाले जो किसी से वश में न आए, कांटे से वश में आ जाता है। एक भी कांटा पड़ा हो, पैर में लग जाय तो वह बेहाल हो जाते हैं। तो जैसे कांटा शरीर में चुभता है इस ही प्रकार यह शल्य आत्मा में चुभती रहती है। मन कहीं हैं, आंखें कहीं हैं, दिमाग कहीं है। नशा पीने वाले पुरुष के जैसे हाथ पैर आंखें अटपट फैल जाती हैं इसी तरह इस मोह मद वाले के भी ये सब अन्य बहिरंग साधन अटपट बिखर जाते हैं।</p> | ||
<p | <p> <strong>निदान शल्य</strong>―ये शल्यें हैं तीन―निदान, माया और मिथ्यात्व। निदान शल्य हैं इंद्रिय के विषयों के साधनों की वांछाएं बनाए रहना। मुझे ऐसा मिल जाय, परभव में मैं इंद्र हो जाऊं, देव बन जाऊं, राजा बन जाऊं, या इसी भव में लखपति हो जाऊं, करोड़पति हो जाऊं, अब सोचते जाइए ऐसे मेरे पुत्र हो जाएं, ऐसी स्त्री मिले, जितने प्रकार के मनोविषयक व इंद्रियविषयक साधनों की वांछाएं लग रही हैं वे इस आत्मा में शल्य की तरह चुभ रही हैं। कांटा लगने पर जैसे चैन नदारत हो जाती है ऐसे ही शल्य के लगने से शांति भी नदारत हो जाती है। जब पुराणों में कोई कथा सुनते हैं, अमुक साधु को राजा होने का निदान बांधा था तो देखो वह राजा हो गया। तपस्या में बड़ा प्रभाव है। बात वहां कुछ और होती है सोचने लगे कुछ और बात तो यह हुई कि उनकी तपस्या ऊंची थी कि वे बहुत ऊंचे इंद्र बनते। इससे भी और ऊंची तपस्या थी कि मुक्त हो जाते पर मांग लिया भुस, राजवैभव, सो उतना ही रह गये। लखपति को 100) का कर्जा कौन नहीं दे देता? निदान से बिगाड़ ही होता है, आत्महित नहीं।</p> | ||
<p | <p><strong> निदानों के विस्तार</strong>―निदाननामक शल्य इस जीव को निरंतर कांटे की तरह पीड़ा दिया करती है। निदान भी अनेक प्रकार के हैं, अशुभ निदान और शुभ निदान। अशुभ निदान भी दो तरह से होता है―एक धर्म करके अशुभ इच्छा करना। जैसे कोई तपस्वी किसी शत्रु के प्रति ऐसा परिणाम करे कि मैं परभव में इससे बदला लूं यह अशुभ निदान है और एक साधारणरूप से ही धर्म के एवज में नहीं, किंतु इच्छा बनाता रहे वह भी अशुभ निदान है। धर्म समागम की वांछा करना सो शुभ निदान है। निदान अपनी-अपनी योग्यतानुसार सभी शल्य पहुंचाते हैं।</p> | ||
<p | <p> <strong>मायाशल्य</strong>―छल कपट होना सो माया शल्य है। जो पुरुष छल कपट रखता है, वचनों से कुछ कहा करता है, मन में कुछ बात बनी रहा करती है वह अंतरंग में दु:खी रहा करता है। भले ही मायाचारी पुरुष ऐसा समझे कि हम दूसरों को चकमा दे देते हैं, धोखा दे देते हैं, पर असलियत यह है कि कोई किसी दूसरे को धोखा नहीं देता―खुद ही धोखा खाता है। मायाशल्य में माया की शल्य तो है ही, किंतु माया को भी कोई जान न पाये उसको छिपाने की भी एक शल्य रहा करती है। पर अक्सर माया छिप नहीं पाती। कोई दूसरे की माया जाहिर करे अथवा न करे, पर सब मालूम हो जाता है कि अमुक पुरुष ऐसा माया का परिणाम रखता है। धम्र की बात सीधी सी है, किंतु धर्म वहाँ ही प्रवेश कर सकता है जिसका हृदय सरल हो।</p> | ||
<p | <p> <strong>मायाकषाय के शल्यपने का कारण</strong>―चार कषायों में से माया कषाय को शल्य में कहा है। क्रोध, मान, लोभ में भी भयंकर कषायें हैं, पर इनकी शल्य में गिनती नहीं की है। इन कषायों में तो जब कषाय आए तब पीड़ा होती है। फिर माया शल्य वाला तो अहर्निश भयशील रहा करता है। दोगलापन चुगली से ये सब माया के ही परिवार है। दोगला नाम है जिसके दो गले बन जाएं, अमुक से कुछ कह दिया, अमुक से कुछ कह दिया। चुगला नाम है जिसके चार गले बन जायें, चार जगह बात फैला दी और यह भी कहता जाता कि कहना मत किसी से। तो एक यह भी शल्य हो गयी। मैंने उससे कहा था कि कहना मत। वह कह न देवे। माया में कितनी ही शल्यें बन जाती हैं। क्रोध में शल्य का विस्तार नहीं है। मानो क्रोध किया और पछतावा हो गया। मान लोभ में भी बात आयी, पछतावा किया, हो गया। माया में तो शल्यों के ऊपर शल्य बिछती चली जाती है।</p> | ||
<p | <p><strong> मिथ्या शल्य</strong>―तीसरी शल्य है मिथ्यात्व की, जो पदार्थ जैसा नहीं है उसके संबंध में वैसी बात करना, विपरीत बात सोचना इसका नाम है मिथ्याशल्य। सब शल्यों का मूल तो मिथ्यात्व ही है। जिसको अपने आपके ज्ञानानंदस्वरूप का परिचय नहीं है तो वह निदान भी करता है, मायाचार भी करता है। तो सब क्लेशों का मूल, शल्यों का मूल मिथ्या परिणाम है। ऐसे मिथ्यात्व शल्य, माया शल्य और निदान शल्य―इन तीन शल्यों में यह जगत का प्राणी निरंतर संक्लिष्ट बना रहता है, किंतु हे आत्मन् ! अपने स्वभाव को तो निरखो, अंतर मर्म को तो देखो। तू तो अमूर्त ज्ञानानंद स्वभाव है। इसमें तो रागादिक विभावों का भी प्रवेश नहीं है। शल्य कहां से होगा? ऐसा यह आत्मतत्त्व तीनों प्रकार के शल्यों से परे है, नि:शल्य है।</p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मा की सकलदोषनिर्मुक्तता</strong>―यह आत्मतत्त्व समस्त दोषों से मुक्त है अपने आपको अपने स्वरूप द्वार से निरखिये। यह शरीर मैं नहीं हूं इसलिए शरीर से संबंधित है, ऐसी दृष्टि न करिये। आकाशवत् निर्लेप अमूर्त भावमात्र ज्ञानानंद स्वभावमय यह मैं आत्मा हूं। इस आत्मा में न तो शरीर का संबंध है अर्थात् न शरीर का प्रवेश है, इस मुझ स्वरूप में न द्रव्य कर्म का प्रवेश है, और यह भावकर्म भी मेरा स्वरूप नहीं है। तीनों प्रकार के दोषों से मैं मुक्त हूं। ये समस्त दोष इन तीनों दोषों में आ जाते हैं। जिनमें शरीर तो दूर का दोष है। द्रव्यकर्म मेरे निकट वाला दोष है और भावकर्म अपने आपमें बसा हुआ दोष है। तीनों प्रकार के दोषों का अभाव है इस मुझ शुद्ध जीवास्तिकाय में। यह तो अपने शुद्ध द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप है, इस कारण यह आत्मतत्त्व सकल दोषनिर्मुक्त है।</p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मचर्चा</strong>―भैया ! यह चर्चा अपने आपके सही स्वरूप की चल रही है कि मैं वास्तव में कैसा हूं और भूल से परदृष्टि करके कैसा बन गया हूं? यह मैं आत्मतत्त्व निष्काम हूं। इस निज परतत्त्व में वांछा का प्रवेश ही नहीं है। इच्छा करना उपाधि के सन्निधान में होने वाली एक छाया है, झलकती है, वह मेरे स्वभाव से उत्पन्न नहीं होती। स्वभावदृष्टि करके देखो तो मेरा स्वरूप वही है जैसा परमात्मा का स्वरूप है। आत्मा और परमात्मा में परम और अपरम का फर्क है। आत्मा तो एक है, एक स्वरूप है―व्यक्तिभेद अवश्य है, क्योंकि अनुभव जुदा-जुदा है, परंतु जाति पूर्णतया एक है।</p> | ||
<p | <p> <strong>स्वरूप की अपेक्षा से भव्य अभव्य की समानता</strong>―जाति की दृष्टि से जो भव्य और अभव्य में भी अंतर नहीं है। अभव्य ही ज्ञानानंदस्वभावी है, भव्य के भी केवलज्ञान की शक्ति है और अभव्य के भी केवलज्ञान की शक्ति है। फर्क यह हो जाता है कि भव्य के केवल ज्ञान की शक्ति के व्यक्त होने की योग्यता है और अभव्य के केवलज्ञान की शक्ति के व्यक्त होने की योग्यता नहीं है। यदि अभव्य में केवलज्ञान शक्ति न हो तो अभव्य के केवलज्ञानावरण मानने की जरूरत क्या है? केवल ज्ञानावरण उसे कहते हैं जो केवलज्ञान को प्रकट न होने दे। भींत में केवलज्ञान की शक्ति नहीं है तो भींत के क्या केवलज्ञानावरण चिपटा है? ऐसे अभव्य जीवों के यदि केवलज्ञान की शक्ति न हो तो वहाँ पर केवलज्ञानावरण क्यों होगा?</p> | ||
<p | <p> <strong>ज्ञायकस्वरूप का एकत्व</strong>―जाति अपेक्षा, स्वरूप अपेक्षा समस्त जीव एक रूप हैं। सो जाति की अपेक्षा तो एक स्वरूप है उसे मान ले कोई कि व्यक्ति सब एक ही है। बस यही मिथ्या अद्वैतवाद हो जाता है। प्रत्येक पदाथ्र अपने स्वरूप में अद्वैत है अर्थात् स्वयं अपने आपमें केवल है। ऐसे अद्वैत में अद्वैत अनंत आत्मावों का स्वभाव एक अद्वैत है। जाति अपेक्षा से निहारा जाय तो सभी जीव शुद्ध ज्ञायकस्वरूप हैं।</p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मा की निष्कामता</strong>―परमशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में इस मुझ अंतस्तत्त्व में किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं है। इसलिये यह मैं निष्काम हूं। इच्छा एक दोष है। मोक्ष तक की भी जब तब इच्छा रहती है तब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। मोक्ष की इच्छा कुछ पद्धतियों तक कार्यकारी है किंतु जब तक मोक्ष की इच्छा का सद्भाव है तब तक मुक्ति नहीं है। मुक्ति तो अत्यंत अनाकांक्ष स्थिति के कारण हुआ करती है। इस प्रकार यह में आत्मा सब कामनावों से रहित होने से निष्काम हूं।</p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मा की निष्क्रोधता</strong>―यह मैं अंतस्तत्त्व निष्क्रोध हूं, क्रोधरहित हूं। शुभ अथवा अशुभ सभी प्रकार के परद्रव्यों की परिणतियां मुझमें नहीं हैं, इस कारण मैं निष्क्रोध हूं। देखो इस संबंध में उन्हीं शब्दों से क्रोध के कारण भी ज्ञात हो जाते हैं। दूसरे द्रव्यों की परिणति को अपनाने में अथवा उस परिणति को अपने से संबंध मानने पर क्रोध हो सकता है। उस पुरुष को क्रोध कहां से होगा जो सकल द्रव्यों की परिणति से अपने को भिन्न निरखता रहे, क्रोध की वहाँ कहां अवकाश है? वह तो ज्ञाता द्रष्टा रहता है। जान लो यह बात भी। मात्र ज्ञाता रहने में इस जीव को आनंद है, पर किसी पर को इष्टरूप में अपनाने से अथवा अनिष्टरूप में अपनाने से वहाँ क्लेश होता है।</p> | ||
<p | <p> <strong>सम्यक्त्व अभाव में क्षोभ</strong>―लोक में सबसे अचिंत्य उत्कृष्ट वैभव है तो वह सम्यग्दर्शन है। जब तक सम्यक्त्व का अभ्युदय नहीं होता तब तक आत्मा को शांति आ नहीं सकती। जब यह उपभोग अपने स्वभाव का लगाव छोड़कर परपदार्थों में लगाव रखना है तो इसके क्षोभ होता है। क्षोभ का और कोई दूसरा कारण नहीं है। बाहरी पदार्थ यों परिणम गए, इसलिए क्षोभ हो गया―यह उपचार कथन है। वस्तुत: मैं अपने स्वभाव से चिगकर बाह्यपदार्थों में इष्ट अनिष्ट मानने का उपयोग करने लगा, इसलिए क्षोभ होता है।</p> | ||
<p | <p> <strong>परपरिणति अपनाने में क्रोध का वेग</strong>―जितनी अधिक दृष्टि बाह्य पदार्थों की परिणति में होगी उतना ही अधिक क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय प्रबल होगी। ज्ञानीसंत समग्र परपरिणतियों को अपने से भिन्न देखता है, इसलिए क्रोध नहीं होता है और जो अपने आपमें उत्पन्न होने वाली विभावपरिणतियों से भी अपने आपको भिन्न देखता है उसे किसी प्रकार का क्षोभ भी नहीं होता है। यह में आत्मतत्त्व परपरिणतियों से दूर हूं और अपने आपमें ही उठने वाले नैमित्तिक भावों से परे हूं, इस कारण, मैं निष्क्रोध हूं। यह सब निषेध मुख से आत्मतत्त्व का वर्णन चल रहा है। उस अपने आपको पहिचानो कि परमार्थ से मैं हूं कैसा? यदि परमार्थस्वरूप इसके परिचय में आ जाय तो समझो बस उसी क्षण से कल्याण हो गया। सबसे बड़ा क्लेश है तो इस जीव को मोह ममता का है। है कुछ नहीं और मोह ममता होती है उससे खेद की बात है, यह महान् अपराध है। हो कुछ मेरा और मान लें अपना तो उसमें कोई दोष नहीं हैं। बात ही ऐसी है। अपने आपके यथार्थस्वरूप के परिचय बिना इस जीव में कषायें जगती हैं और उन कषायों से यह आत्मा कसा जाता है, दु:खी होता है।</p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मा की निर्मानता</strong>―यह मैं आत्मा निर्मान हूं। इसमें निरंतर परम समतारस का स्वभाव पड़ा हुआ है। मान कब उत्पन्न होता है जब समता की दृष्टि नहीं रहती है। यह तुच्छ है, मैं बड़ा हूं, ऐसा मन में संकल्प आए बिना मान कषाय नहीं जगता। पर कौन तुच्छ है, कौन बड़ा है? इसका निर्णय तो करो। आज जिसे तुच्छ माना है वह अपने सदाचार के कारण इस ही भव में अथवा अगले भव में उत्कृष्ट बन जायेगा। और जिसे अभी बड़ा मानते हो वह अनीति के कारण इस ही भव में या अन्य भव में तुच्छ हो सकता है तो जिसे तुच्छ माना वह बड़ा बन गया और जिसे बड़ा माना वह छोटा बन गया। ऐसा उलट फेर इस जीव में अनादिकाल से चला आ रहा है। फिर दूसरी बात यह है कि जितने भी आत्मा हैं समस्त आत्मावों का स्वरूप एक है। सब चैतन्यशक्ति मात्र हैं, निर्नाम हैं, उनका नाम ही नहीं है, निर्दोष है। वहाँ शरीर ही नहीं है। ऐसे चिदानंदस्वरूप इन समग्र आत्मावों में किसी को तुच्छ मान लेना, अपने को बड़ा मान लेना यह मान कषाय है, पर मान कषाय की गुंजाइश इस आत्मतत्त्व में नहीं है क्योंकि सब जीव एक समान हैं। और फिर यह आत्मा स्वयं अपने आपमें भी समतारस के स्वभाव वाला है। बाह्यपदार्थ में चेतन अचेतन पदार्थ में कोई भला है, कोई बुरा है ऐसा परिणाम नहीं करना है। परमसमरसीभावात्मक होने के कारण यह आत्मतत्त्व निर्मान है।</p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मा की निर्मदता</strong>―इस प्रकार निश्चयनय से यह आत्मतत्त्व समग्ररूप से अंतर्मुख बना हुआ है इस कारण निर्मद है, मदरहित है। मद नाम यद्यपि घमंड का है पर मान और मद में कुछ अंतर है। मान तो व्याप्य चीज है मद की दृष्टि से और मद व्यापक चीज है। जो जीव अंतर्मुख नहीं हैं, बहिर्मुख हो रहे हैं उन जीवों के बेहोशी है, मद है। उनमें घमंड भी आ गया और अपने आपका कुछ पता नहीं, ऐसी एक बेहोशी भी हो गयी। यह आत्मतत्त्व अंतर में अंतर स्वरूप ही तो है। यह बाह्यरूप नहीं है, बहिर्मुख रूप नहीं है, इस कारण यह निर्मद है।</p> | ||
<p | <p> <strong>स्वरूपानुभूति में सत्य वैभव</strong>―यों अत्यंत विशुद्ध सहजसिद्ध शाश्वत निरुपराग ऐसा जो निज कारण समयसार का स्वरूप है यह कारणसमयसार स्वरूप उपादेय है। जैसे आपको मालूम न हो कि हमारी मुट्ठी में क्या है और हम धरे हों अपनी मुट्ठी में एक स्याही की टिकिया और आपसे पूछे कि बतावो मेरी मुट्ठी में क्या है? तो आप अंदाज से कोई बात कहेंगे, पर उत्तर मेरा यह होगा कि मेरी मुट्ठी में सारी दुनिया है। अरे स्याही को घोला तो कहो मकान बना दें, बाल्टी बना दें, मंदिर बना दें, नदी बना दें, समुद्र बना दें, पहाड़ बना दें। जो कहो सो बना दें, मेरी मुट्ठी में सारी दुनिया है। यह तो एक व्यवहारिक कला का उत्तर है, किंतु जिसके उपयोग में यह नित्य निरावरण चैतन्यस्वरूप आ गया है उसके उपयोग में सारी दुनिया एक साथ है।</p> | ||
<p | <p> <strong>परपरिणति के अच्छेद का यत्न</strong>―आत्मा के अंदर की गुत्थी को तोड़ दें, अणुमात्र भी परिग्रह मेरे स्वरूप में नहीं है ऐसा दर्शन कर लो। अन्यथा ऐसा श्रेष्ठ मन बार-बार मिलने को नहीं है। विषय-कषाय तो भव-भव में भोगने को मिलते हैं किंतु आत्मसंतोष के लिये, प्रभुत्व के दर्शन पाने के लिए बड़ा श्रेष्ठ मन चाहिए। अब इतना श्रेष्ठ मन पाकर इतना तो उपक्रम कर ही लेना चाहिए कि अपने आपमें आदर अपने शुद्धस्वरूप का अधिक हो। समग्र परपरिणतियों का उच्छेद बने, कर्ताकर्म का भ्रम मिटे और निज में बसा हुआ जो शाश्वत निरावरण ज्ञायकस्वरूप है उसका अनुभव जगे तो इस उत्कृष्ट नरजीवन की सफलता है। देखो तो भैया ! कितने खेद की बात है कि सच्चिदानंद मात्र ऐसे विशद आत्मतेज में यह उपयोग फिर भी मूर्च्छित पड़ा हुआ है, इसके चलन स्वभाव से विपरीत चल रहे हैं। यदि यह अपने इस ज्ञायक स्वभाव की सहज महिमा को उठाए, अपने उपयोग में ज्ञातृत्व का आदर बनाए तो यह आत्म शांत हो सकता है।</p> | ||
<p | <p> <strong>जीवों का बेकायदा फंसाव</strong>―जरा अंतर में देखो तो सही यह तो पहिले से ही समस्त परतत्त्वों से छूटा हुआ है, कल्पना में अपने को बंधा हुआ समझ लिया है। प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूपमात्र है, इस कारण प्रत्येक स्वयं ही मुक्त है, केवल है, ऐसे इस मुक्त स्वभाव को न निरखने के कारण कितने ही बंधन बना डाले हैं। अहो, राग करने बराबर विपदा और क्या हो सकती है? यहाँ के जीव बेकायदे अट्टसट्ट कोई किसी से फंस गया है अर्थात् जिसे आपने अपना परिजन माना है―ये मेरा कुटुंब है तो बताओ कि उसमें कौनसा नियम है, कौनसी युक्ति है, कौनसी बात है, जिस बात से वे चेतन द्रव्य आपके कुछ हो गए, अट्टसट्ट फंस गए? यह जीव घर में न आता और कोई दूसरा जीव आ जाता तो उसी में ही ममता करते। कायदे की ममता तो हम तब मानें कि ऐसा छटा हुआ काम हो कि वह जीव दूसरे भव में पहुंच जाए या सबमें से एक को उसी को वहाँ भी छांटे तब हम जानें कि कायदे की ममता की जा रही है। यहाँ तो जो सामने आया, चाहे वह जीव पूर्वभव में अनिष्ट भी रहा है, पर इस भव में ममता करने लगे। सो ममता करते जाते हैं, दु:खी होते जाते हैं।</p> | ||
<p | <p> <strong>जब धोखे की टाटी</strong>―इस लोक में पूर्व के पुरुषों की बातें देखो कि आए और चले गए, कोई यहाँ जमकर न रह सका। बड़े पुराण पुरुषों को देखो―तीर्थंकर का जमाना, श्रीराम का जमाना, सारे जमानों को टटोल लो उनका कितना प्रभुत्व था, पर वे भी कोई नहीं रह सके। अपने कुटुंबियों में भी सोच लो कि दादा-बाबा वे भी चले गए। जिन जीवों को निरखते हो, वे भी कोई साथ नहीं निभा सकते। यह जगत् ऐसे अकेले-अकेले के भ्रमण करने वालों का समूह है। किसी का कुछ शरण सोचना, यह पूरा धोखे से भरा हुआ है। अपने आपके अकेलेपन का और सारे स्वभाव का परिचय हो जाए तो सारे कष्ट दूर हों, कर्मबंधन भी दूर हों, रागद्वेषादिक कल्पनाएं भी समाप्त हों, शरीर का संबंध भी दूर हो जाए, फिर तो यह शुद्ध ज्ञानदर्शन सुखवीर्यात्मक अनंतविकास सदा के लिए हो सकता है। </p> | ||
<p | <p> <strong>करणीय विवेक</strong>―भैया ! विवेक ऐसा करो कि जिससे सदा के लिए संकट टलें। यहाँ अट्टसट्ट ममता के करने से किसी प्रकार की सिद्धि नहीं हो सकती, केवल क्लेश ही क्लेश बढ़ता चला जाएगा। जैसे दो रस्सियों की एक सीधी गांठ होती है, जिसे चमरउ गांठ कहते हैं तो उस गांठ को खोलने के लिए कोइ्र पानी सींचे तो गांठ और मजबूत होती जाती है। इसी प्रकार राग से उत्पन्न होने वाले क्लेश दूर करने के लिए कोई राग का ही उपाय बनाए तो उस राग के उपाय से वे क्लेश और मजबूत ही बनते चले जाते हैं। राग से उत्पन्न हुए क्लेश राग से दूर नहीं हो सकते, वे तो ज्ञान और वैराग्य से ही दूर होंगे। इससे अन्य ममताओं की दृष्टि हटाएं और निर्विकल्प ज्ञानानंदस्वभाव मात्र अपने आपके परिचय का यत्न करें।</p> | ||
<p | <p><strong> विषयकषाय के संकट</strong>―इस जीव पर विषयकषायों के पाप का घोर अंधियारा छाया हुआ है। इसी कारण इसे अपने आपमें आनंद पाने का अवकाश नहीं होता है। ये विषयकषायों की कल्पनाएं हैं। यह अंधकार एक ज्ञानज्योति द्वारा ही दूर हो सकता है। जैसे भव्य आत्मा ने अपनी प्रज्ञा से ज्ञानस्वभाव के स्वरूप का भान किया है और इसके अनुभव में शुद्ध आनंद पाया है, वह पुरुष अतुल महिमा वाला है, नित्य आनंदमय है, वह देह मुक्त होकर सदा के लिए संसार के समस्त संकटों से दूर हो जाता है। सभी मनुष्य शांति के लिए अथक प्रयत्न कर रहे हैं, रात दिन एक धुनि में लग रहे हैं कि धनवैभव बढ़े, पोजीशन बढ़े। किसलिए यह किया जा रहा है? ये जीवन के बाद तो साथ देंगे ही नहीं, किंतु जीवनकाल में भी यह सब जंजाल सुख का साथी नहीं है। कहो अनेक विपदाएं, राज्यसंकट, चोरसंकट, कुटुंबीभय आदि अनेक प्रकार के क्लेश इस वैभव और पोजीशन के साथ लगे हुए हैं।</p> | ||
<p | <p> <strong>जीवन और भाग्य का सहवास</strong>―भैया ! रही एक उदरपूर्ति की बात। जब चींटी-चींटा, कीड़े-मकोड़े भी अपनी पर्याय के अनुकूल उदरपूर्ति का सहज समागम पा लेते हैं, जिससे कि जिंदगी रहती है। जिस बड़े भाग्य के उदय से हम आप मनुष्य हुए हैं, क्या यह प्राकृतिक बात नहीं है कि हम आप लोगों के लिए जो जीवन में सहायक है―ऐसा अभ्युदय का संयोग मिल जाए? हो रहा है यह सब प्राकृतिक, किंतु यह मानव उन सबमें कर्तृत्व बुद्धि बनाए हुए है कि मैंने किया तब यह हुआ। अरे ! ये तो उदय की चालें हैं। इतनी तो प्राकृतिक बात हो ही रही है, जिसका जैसा उदय है। इस ओर दृष्टि न लगाकर जीवोद्धार आत्महित के संबंध में अधिक लक्ष्य देना चाहिए, यह तो होता ही है। देखो, किए बिना भी ये सब बातें सहज थोड़ी श्रम से हो जायेंगी, पर जीवोद्धार की बातें पूरे तन, मन, वचन को लगाए बिना, फिर सबका उपयोग छोड़े बिना, अपना सारा पुरुषार्थ बनाए बिना नहीं हो सकता है। इस कारण आत्मा के उद्धार के लिए अधिक ध्यान देने की जरूरत है।</p> | ||
<p | <p><strong> झमेला और ज्ञानी का ज्ञान</strong>―यह तो एक झमेला है, चार दिन का मेला है, मिला और बिछुड़ गया। जब मिल रहे हैं, तब भी अपने नहीं हैं और बिछुड़ तो जाने ही वाले हैं। इसमें दृष्टि रखने योग्य कुछ बात नहीं है। आनंद तो जो करेगा उसको ही मिलेगा। क्या यह बात है बोलने की और सुनने की? बोलने सुनने तक की ही बात रह सके, तब तो वह आनंद न प्राप्त हो सकेगा। इस रूप कुछ भी परिणमन कर सके या इस प्रकार का लक्ष्य बन सके तो आनंद से भेंट हो सकती है। इस प्रकरण में अपने आपके सही स्वरूप की चर्चा चल रही है। यह मिथ्यादृष्टि जीव तो अपने आपको मैं दादा हूं, मैं बाबा हूं, अमुक घर का हूं, अमुक संप्रदाय का हूं, मनुष्य हूं आदि कितनी ही बातें अपने में बसाए हुए है, किंतु ज्ञानी सत् पुरुष अपने आपके विषय में स्पष्ट जान रहा है कि यह मैं आत्मतत्त्व केवल ज्ञानस्वरूप हूं, इसमें किसी परतत्त्व का और परभाव का प्रवेश नहीं है। अब आगे कुछ व्यंजन पर्यायों का निषेध करते हुए आत्मतत्त्व की आंतरिक स्थिति बतला रहे हैं।</p> | ||
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णिग्गंथो णीरागो णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मुक्को।
णिक्कामो णिक्कोहो णिम्माणो णिम्मदो अप्पा।।44।।
अंतस्तत्त्व की निर्ग्रंथता―इस गाथा में भी शुद्ध जीवस्वरूप का वर्णन किया गया है। शुद्ध जीव का अर्थ है केवल जीव का स्वरूप। जीव अपने सत्त्व के कारण क्रियात्मक है, उस स्वरूप के वर्णन को कहते हैं शुद्ध जीव स्वरूप का वर्णन किया। यह मैं आत्मतत्त्व निर्ग्रंथ हूं। ग्रंथि नाम गांठ का है, आत्मा गांठ रहित है। संसारी आत्मा में गांठ लगी हुई है परिग्रह की और इसी गांठ के कारण इस परिग्रह से छूटकर नहीं पा सकता। यह गांठ 24 प्रकार की है, जिसमें 10 गांठें तो बाह्य गांठें हैं और 14 अंतरंग गांठें हैं।
बाह्याभ्यंतरपरिग्रहरहितता―बाह्यपरिग्रह है खेत, मकान, पशु, धन, अनाज, नौकर, नौकरानी, वस्त्र, बर्तन, सोना, चाँदी, रत्न―ये सब बाह्यपरिग्रह हैं। बाह्यपरिग्रह वस्तुत: परिग्रह नहीं कहलाते, किंतु यह जीव इन पदार्थों को अपनाए तो उनका नाम परिग्रह बन जाता है। वे सब चीजें तो स्वतंत्र हैं। जैसे आप सत् पदार्थ हैं वैसे ये पुद्गल भी सत् पदार्थ हैं। इनका नाम परिग्रह कैसे पड़ेगा? इनके अपनाने का भाव हो तो परिग्रह नाम होता है। जिसके अंतरंग में परिग्रह का संस्कार लगा है उसके बाह्य में ये सब परिग्रह ऐसे निकट चिपके से रहते हैं कि इनका छोड़ना मुश्किल होता है। कल्याणार्थी पुरुष को इसी कारण चरणानुयोग की विधि से इन बाह्यपरिग्रहों का परित्याग करना चाहिए। जैसे लोग कहते हैं ना कि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। यों ही कर लीजिए। बाह्य का परित्याग किया तो भले ही कुछ दिन तक इसको ख्याल सतायेगा, पर कब तक सतायेगा, ख्याल छूट जायेगा। तो जो हमारे विभावों के साधन है, वे परिग्रह कहलाते हैं और अंतरंग में 14 प्रकार के परिग्रह तो परिग्रह हैं ही। इन 24 प्रकार के परिग्रहों का परित्यागरूप भाव को निर्ग्रंथ भाव कहते हैं।
आत्मसाधना की वृद्ध अवस्था―आत्मा की साधना की दिशा में जब कोई पुरुष बहुत अधिक बढ़ता है तो उसकी स्थिति हो जाती है बाह्य में नग्नरूप। ऐसा निर्दोष आत्मसाधक कोई पुरुष हो कि जिसे अन्य किसी वस्तु का कुछ भी ख्याल न रहे तो स्वयं ही बाह्यपरिग्रह छूटते है और वह उनके ग्रहण करने का परिणाम भी नहीं रखता, ऐसी तो बाह्य में स्थिति होती और अंतरंग में ऐसी निर्विकार स्थिति होती है कि बालक के समान साधु को निर्विकार बताया है, जैसे बालक कभी कोई विकार संबंधी ख्याल ही नहीं कर सकता। बालकों में विकार का अभाव है। तो उनके तो अज्ञान अवस्था में उस बाल्यावस्था के कारण विकारों का अभाव है, किंतु साधु पुरुषों में अपनी ज्ञान अवस्था में विकारों का अभाव है, फिर कैसे साधु वस्त्र ग्रहण करे?
साधु की निवृत्तिमूलक चर्या―भैया !साधु की चर्या लोगों को प्रवृत्ति रूप मालूम पड़ती है, किंतु उनकी चर्या का आधार निवृत्ति है। यों ही कोई सोचे कि साधुसंत एक बार आहार करते हैं अरे उसे यों सोचो कि आहारविषयक उनके संज्ञा नहीं रही अथवा अत्यंत शिथिल है, वो बार-बार कैसे आहार करें और शरीर साधने के लिए 24 घंटे में एक बार ही आहार पर्याप्त होता है। यों छूट गया बार-बार का आहार। साधुजन देखकर जीव दया करके चलते हैं और इसे यों सोचो कि जिसकी दृष्टि शुद्ध जीवतत्त्व की बन गयी है और अपने ही स्वरूप के समान संसार के सब जीवों का स्वरूप निरखते हैं, अब बिना देखे कहां चला जाय उन साधुजनों से, उनसे हिंसा संभव नहीं है। उनके शरीर की प्रवृत्ति में निवृत्ति निरखते जावो। प्रवृत्ति को निरख करके उनका मर्म नहीं पा सकते। निवृत्ति को देखकर मर्म का परिचय होगा।
साधु की आहारचर्या के मूल में निवृत्ति―साधुजन खड़े ही खड़े आहार करके चले आते हैं। अरे यों प्रवृत्ति से मत देखो, उनके इतनी अवकाश नहीं है कि बहुत समय गृहस्थों के घर आहार करने में लगाएँ। इससे शीघ्रता से खड़े ही खड़े आहार करके चले आते हैं। कोई गृहस्थ के घर अपनी पुजावा के लिए या पीछे भी बड़ा समारोह बनाने के लिए आहार के बाद अथवा कुछ मन मौज वार्तालाप में समय गुजारने के लिए श्रावक के घर घंटे दो घंटे को बैठ जाएं तो उसने निवृत्ति की नीति का उल्लंघन किया। साधु संत बिजली की तरह चल देते हैं और आहार शुद्ध क्रिया करके तुरंत वापिस चले जाते हैं। समय ही उनको इतना नहीं है कि गप्प सप्प करे अथवा बैठकर मौज से बड़े विश्राम से धीरे-धीरे खायें। इस लायक उनकी वांछा भी नहीं रही। साधु की प्रत्येक चर्या में निवृत्ति अंश से निरखते जाइए।
सामायिक की निवृत्तिमूलकता―लोग यों देखते हैं कि साधु तीन बार सामायिक करते हैं―उसे यों देखिये ना कि साधुजन अर्द्ध रात्रि के समय भी आत्मचिंतन के लिए समय निकालते हैं। उनका कारण यह है कि चार पाँच घन्टे अन्य-अन्य आचरणों में समय गया। उसकी सावधानी के लिए प्रत्येक चार पाँच घंटे बाद सामायिक में बैठ जाता है। श्रावकों की भी यह बात है। सुबह 6 बजे सामायिक हुई, अब 5 घन्टे बाद फिर जो क्रियाएं की है उनका पछतावा, उनकी आलोचना करने के लिए फिर दोपहर को सामायिक की। फिर इसके बाद 4-5 घन्टे यहाँ वहाँ की बातों में बीते तो फिर पछतावा के लिए, आलोचना के लिए अंतस्तत्त्व की भक्ति के लिए फिर सामायिक में बैठ गए और शाम के 6 बजे से और सुबह के 5-6 बजे तक के सोने का टाइम निकाल दो तो उसके भी अंदर 5 घन्टे रह जाते हैं। 5, 5 घंटे में क्रियावों का प्रायश्चित्त आलोचना के लिए सामायिक बनी हुई है। हर बात में निवृत्ति अंश निरखते जाइए।
परम वैराग्य―आत्मसाधक इतना तीव्र वैरागी है कि उसके पास धन वैभव का रखना तो दूर रहो, एक वस्त्र को भी धारण करने में असमर्थ है। स्वच्छ बालकवत् निर्विकार निर्ग्रंथरूप रह जाता है, यह तो है व्यवहार की बात, पर यह अंतस्तत्त्व तो वास्तव में 14 प्रकार के परिग्रहों से दूर बने रहने के स्वभाव वाला है। यह तो अमूर्त है। इसमें तो रागादिक भाव भी नहीं हैं। यह तो शुद्ध ज्ञायकस्वरूप है बाह्यपरिग्रहों की तो चर्चा ही क्या? यों यह आत्मतत्त्व निर्ग्रंथ है। यह आत्मतत्त्व नीराग है, रागरहित है। राग एक उपलक्षण है। राग के कहने से समस्त विकार आ गये। रागद्वेष मोह सभी जितने चेतन कर्म हैं उन चेतन कर्मों से रहित इस अंतस्तत्त्व का स्वभाव है।
अंतस्तत्त्व की नीरागता―चेतन कर्म यह न चेतनतत्त्व में शामिल है, न अचेतन में शामिल है किंतु इन्हें चिदाभास कहा गया है। अचेतन तो यों नहीं है कि इसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं पाया जाता है। रागद्वेष भाव चेतन भी नहीं हैं कि ये कोई सद्भूत चीज नहीं है, सत् पदार्थ नहीं है, स्वभाव नहीं हैं, गुण नहीं हैं, एक उपाधि के सन्निधान में छाया हुआ है, ये सभी तो माया हैं―काया, खाया, गाया, छाया, जाया, पाया ये सारी मायाएं हैं। कोई इनमें सत् स्वरूप हो तो बतावो। तो समस्त अचेतन कर्मों का अभाव होने से यह अंतस्तत्त्व स्वरसत: नीराग है। देखो आत्मा तो एक स्वरूप है। किंतु निषेधमुखेन इसका वर्णन करते जाइये तो कितने ही दिन गुजारे जा सकते हैं। एक निज शुद्ध स्वरूप के अतिरिक्त जितने परतत्त्व हैं, पर भाव हैं उन सबका निषेध करते जाइए।
स्वभाव और विभाव का बेमेल प्रसंग―भैया ! है यह कोरा शुद्ध ज्ञायकस्वरूप, सर्व कल्याणों का आधार स्वयं सुखस्वरूप परमयोगीजनों का ध्येयभूत। इतनी अपूर्वनिधि तो हम आपके अंतर में है और उसकी श्रद्धा न होने से रूप, रस, गंध, स्पर्श वाले इस पुद्गल में और मांस हड्डी चाम वाले इन असमानजातीय पर्यायों में यह ही सार है―ऐसा मान रक्खा है। एक देहाती कहावत है―कामी न जाने जात कुजात, नींद न जाने टूटी खाट। भूख न जाने जूठो भात, प्यास न जाने धोबी घाट।। काम ऐसा बैरी है, ऐसी आग है जिसमें झुलसा हुआ प्राणी अपने आत्मस्वरूप के अवलोकन का पात्र भी नहीं हो सकता। सार कुछ नहीं है और विडंबना इतनी बड़ी बन गयी है। वे गृहस्थ भी धन्य हैं जो घर में रहते हुए भी निष्काम और ब्रह्मचारी रहते हैं। अब भी ऐसे जवान मिलेंगे 30, 40, 50 वर्ष की उम्र के घर में स्त्री सहित रहते हैं, मगर कोई बहिन जैसा नाता बनाकर पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहते हैं।
मिथ्यात्व का ऐब―सब ऐबों में दो ऐब विकट हैं―एक तो मिथ्यात्व का ऐब―मोह। यह महा बेवकूफी है कि भिन्न पदार्थों में यह कल्पना बनाई जा रही है कि यह मेरा है। एक तो महान् ऐब यह है। गृहस्थावस्था है तो परिग्रह की रक्षा करो, मना नहीं करते, पर दिन में एक आध बार यह तो सोच लो कि मैं तो सबसे न्यारा केवल शुद्ध ज्ञानमात्र चेतनतत्त्व हूं। आज यहाँ है, आयु का क्षय हो जाय तो कल और कहीं हैं, क्या है मेरा यहाँ, ऐसे शुद्ध विविक्त आत्मस्वरूप की सुधी तो ले लिया करो, अनुभव जब हो तब हो। पर सुधी लेने में क्या कुछ जोर पड़ता है? धर्मपालन और करना हो जाता है तो पहिला ऐब कठिन है यह मिथ्यात्व का।
कामवासना का ऐब―दूसरा ऐब कठिन है कामवासना का। जैसे देखो कि जितनी भी ये कषायें हैं सबमें ऐसा लगता है कि निराट बेवकूफी की जा रही है। खुद को खुद का पता नहीं लगता, क्योंकि वह तो कर ही रहा है। दूसरे जानते हैं कि कितनी मूढ़ता की बात की जा रही है। प्रथम तो अपने से ही लगा हुआ यह शरीर सुहा जाय तो यह भी विडंबना है। मैं बहुत अच्छा हूं, साफ रहता हूं, ताकतवर हूं, सुहावनी शकल है। अपना ही शरीर अपने को सुहा जाय, यह भी मूढ़ता है और फिर दूसरे का शरीर सुहा जाय तो वह और डबल मूढ़ता है। दूसरों का शरीर सुहा जाने में तो कामवासना को बल मिलता है और अपना शरीर सुहा जाने में मिथ्यात्व को बल मिलता है।
नीराग स्वभाव की दृष्टि की प्रेरणा―यह अंतस्तत्त्व समस्त मोहराग द्वेषात्मक चेतन कर्मों के अभाव से नीराग है। ऐसा नीराग स्वच्छ शुद्ध ज्ञायकस्वरूप इस आत्मतत्त्व की सुधी लो। अनादि से तो अपूर्व निधि को भूला चला आया है, जो जब भी मुक्त हो तब ही भला। अनंत समय तो गया ही है, अब बचा हुआ समय यदि ठीक तरह रख दिया जाय तो यह एक बड़ी सावधानी का कार्य होगा। इस अपने अंतस्तत्त्व को नीराग सर्वविकारों से रहित केवल जानन स्वरूप देखो। यह कारणसमयसार रागादिक विकाररहित है।
शल्य का क्लेश व स्वभाव की नि:शल्यता―अब बतला रहे हैं कि यह आत्मा नि:शल्य है। चीज सब वही की वही है, पर किन्हीं दृष्टियों से फेरफार करके कुछ मर्मों के साथ उस ही तत्त्व को दिखाया जा रहा है। शल्य उसे कहते हैं जो कांटे की तरह चुभती रहे। जैसे पैर में कांटा लग जाय तो चाहे वह एक सूत ही लंबा कांटा क्यों न हो, चुभता रहता है, चलते हैं तो पैर ठीक तरह से नहीं धरा जाता है। देखो शरीर तो है डेढ़ मन का और इसमें दो रत्ती का भी दसवां बीसवां हिस्सा बराबर एक सूत लंबा कांटा पड़ा हो तो वह चुभता रहता है। बड़े-बड़े हाथी मदोन्मत्त मतवाले जो किसी से वश में न आए, कांटे से वश में आ जाता है। एक भी कांटा पड़ा हो, पैर में लग जाय तो वह बेहाल हो जाते हैं। तो जैसे कांटा शरीर में चुभता है इस ही प्रकार यह शल्य आत्मा में चुभती रहती है। मन कहीं हैं, आंखें कहीं हैं, दिमाग कहीं है। नशा पीने वाले पुरुष के जैसे हाथ पैर आंखें अटपट फैल जाती हैं इसी तरह इस मोह मद वाले के भी ये सब अन्य बहिरंग साधन अटपट बिखर जाते हैं।
निदान शल्य―ये शल्यें हैं तीन―निदान, माया और मिथ्यात्व। निदान शल्य हैं इंद्रिय के विषयों के साधनों की वांछाएं बनाए रहना। मुझे ऐसा मिल जाय, परभव में मैं इंद्र हो जाऊं, देव बन जाऊं, राजा बन जाऊं, या इसी भव में लखपति हो जाऊं, करोड़पति हो जाऊं, अब सोचते जाइए ऐसे मेरे पुत्र हो जाएं, ऐसी स्त्री मिले, जितने प्रकार के मनोविषयक व इंद्रियविषयक साधनों की वांछाएं लग रही हैं वे इस आत्मा में शल्य की तरह चुभ रही हैं। कांटा लगने पर जैसे चैन नदारत हो जाती है ऐसे ही शल्य के लगने से शांति भी नदारत हो जाती है। जब पुराणों में कोई कथा सुनते हैं, अमुक साधु को राजा होने का निदान बांधा था तो देखो वह राजा हो गया। तपस्या में बड़ा प्रभाव है। बात वहां कुछ और होती है सोचने लगे कुछ और बात तो यह हुई कि उनकी तपस्या ऊंची थी कि वे बहुत ऊंचे इंद्र बनते। इससे भी और ऊंची तपस्या थी कि मुक्त हो जाते पर मांग लिया भुस, राजवैभव, सो उतना ही रह गये। लखपति को 100) का कर्जा कौन नहीं दे देता? निदान से बिगाड़ ही होता है, आत्महित नहीं।
निदानों के विस्तार―निदाननामक शल्य इस जीव को निरंतर कांटे की तरह पीड़ा दिया करती है। निदान भी अनेक प्रकार के हैं, अशुभ निदान और शुभ निदान। अशुभ निदान भी दो तरह से होता है―एक धर्म करके अशुभ इच्छा करना। जैसे कोई तपस्वी किसी शत्रु के प्रति ऐसा परिणाम करे कि मैं परभव में इससे बदला लूं यह अशुभ निदान है और एक साधारणरूप से ही धर्म के एवज में नहीं, किंतु इच्छा बनाता रहे वह भी अशुभ निदान है। धर्म समागम की वांछा करना सो शुभ निदान है। निदान अपनी-अपनी योग्यतानुसार सभी शल्य पहुंचाते हैं।
मायाशल्य―छल कपट होना सो माया शल्य है। जो पुरुष छल कपट रखता है, वचनों से कुछ कहा करता है, मन में कुछ बात बनी रहा करती है वह अंतरंग में दु:खी रहा करता है। भले ही मायाचारी पुरुष ऐसा समझे कि हम दूसरों को चकमा दे देते हैं, धोखा दे देते हैं, पर असलियत यह है कि कोई किसी दूसरे को धोखा नहीं देता―खुद ही धोखा खाता है। मायाशल्य में माया की शल्य तो है ही, किंतु माया को भी कोई जान न पाये उसको छिपाने की भी एक शल्य रहा करती है। पर अक्सर माया छिप नहीं पाती। कोई दूसरे की माया जाहिर करे अथवा न करे, पर सब मालूम हो जाता है कि अमुक पुरुष ऐसा माया का परिणाम रखता है। धम्र की बात सीधी सी है, किंतु धर्म वहाँ ही प्रवेश कर सकता है जिसका हृदय सरल हो।
मायाकषाय के शल्यपने का कारण―चार कषायों में से माया कषाय को शल्य में कहा है। क्रोध, मान, लोभ में भी भयंकर कषायें हैं, पर इनकी शल्य में गिनती नहीं की है। इन कषायों में तो जब कषाय आए तब पीड़ा होती है। फिर माया शल्य वाला तो अहर्निश भयशील रहा करता है। दोगलापन चुगली से ये सब माया के ही परिवार है। दोगला नाम है जिसके दो गले बन जाएं, अमुक से कुछ कह दिया, अमुक से कुछ कह दिया। चुगला नाम है जिसके चार गले बन जायें, चार जगह बात फैला दी और यह भी कहता जाता कि कहना मत किसी से। तो एक यह भी शल्य हो गयी। मैंने उससे कहा था कि कहना मत। वह कह न देवे। माया में कितनी ही शल्यें बन जाती हैं। क्रोध में शल्य का विस्तार नहीं है। मानो क्रोध किया और पछतावा हो गया। मान लोभ में भी बात आयी, पछतावा किया, हो गया। माया में तो शल्यों के ऊपर शल्य बिछती चली जाती है।
मिथ्या शल्य―तीसरी शल्य है मिथ्यात्व की, जो पदार्थ जैसा नहीं है उसके संबंध में वैसी बात करना, विपरीत बात सोचना इसका नाम है मिथ्याशल्य। सब शल्यों का मूल तो मिथ्यात्व ही है। जिसको अपने आपके ज्ञानानंदस्वरूप का परिचय नहीं है तो वह निदान भी करता है, मायाचार भी करता है। तो सब क्लेशों का मूल, शल्यों का मूल मिथ्या परिणाम है। ऐसे मिथ्यात्व शल्य, माया शल्य और निदान शल्य―इन तीन शल्यों में यह जगत का प्राणी निरंतर संक्लिष्ट बना रहता है, किंतु हे आत्मन् ! अपने स्वभाव को तो निरखो, अंतर मर्म को तो देखो। तू तो अमूर्त ज्ञानानंद स्वभाव है। इसमें तो रागादिक विभावों का भी प्रवेश नहीं है। शल्य कहां से होगा? ऐसा यह आत्मतत्त्व तीनों प्रकार के शल्यों से परे है, नि:शल्य है।
आत्मा की सकलदोषनिर्मुक्तता―यह आत्मतत्त्व समस्त दोषों से मुक्त है अपने आपको अपने स्वरूप द्वार से निरखिये। यह शरीर मैं नहीं हूं इसलिए शरीर से संबंधित है, ऐसी दृष्टि न करिये। आकाशवत् निर्लेप अमूर्त भावमात्र ज्ञानानंद स्वभावमय यह मैं आत्मा हूं। इस आत्मा में न तो शरीर का संबंध है अर्थात् न शरीर का प्रवेश है, इस मुझ स्वरूप में न द्रव्य कर्म का प्रवेश है, और यह भावकर्म भी मेरा स्वरूप नहीं है। तीनों प्रकार के दोषों से मैं मुक्त हूं। ये समस्त दोष इन तीनों दोषों में आ जाते हैं। जिनमें शरीर तो दूर का दोष है। द्रव्यकर्म मेरे निकट वाला दोष है और भावकर्म अपने आपमें बसा हुआ दोष है। तीनों प्रकार के दोषों का अभाव है इस मुझ शुद्ध जीवास्तिकाय में। यह तो अपने शुद्ध द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप है, इस कारण यह आत्मतत्त्व सकल दोषनिर्मुक्त है।
आत्मचर्चा―भैया ! यह चर्चा अपने आपके सही स्वरूप की चल रही है कि मैं वास्तव में कैसा हूं और भूल से परदृष्टि करके कैसा बन गया हूं? यह मैं आत्मतत्त्व निष्काम हूं। इस निज परतत्त्व में वांछा का प्रवेश ही नहीं है। इच्छा करना उपाधि के सन्निधान में होने वाली एक छाया है, झलकती है, वह मेरे स्वभाव से उत्पन्न नहीं होती। स्वभावदृष्टि करके देखो तो मेरा स्वरूप वही है जैसा परमात्मा का स्वरूप है। आत्मा और परमात्मा में परम और अपरम का फर्क है। आत्मा तो एक है, एक स्वरूप है―व्यक्तिभेद अवश्य है, क्योंकि अनुभव जुदा-जुदा है, परंतु जाति पूर्णतया एक है।
स्वरूप की अपेक्षा से भव्य अभव्य की समानता―जाति की दृष्टि से जो भव्य और अभव्य में भी अंतर नहीं है। अभव्य ही ज्ञानानंदस्वभावी है, भव्य के भी केवलज्ञान की शक्ति है और अभव्य के भी केवलज्ञान की शक्ति है। फर्क यह हो जाता है कि भव्य के केवल ज्ञान की शक्ति के व्यक्त होने की योग्यता है और अभव्य के केवलज्ञान की शक्ति के व्यक्त होने की योग्यता नहीं है। यदि अभव्य में केवलज्ञान शक्ति न हो तो अभव्य के केवलज्ञानावरण मानने की जरूरत क्या है? केवल ज्ञानावरण उसे कहते हैं जो केवलज्ञान को प्रकट न होने दे। भींत में केवलज्ञान की शक्ति नहीं है तो भींत के क्या केवलज्ञानावरण चिपटा है? ऐसे अभव्य जीवों के यदि केवलज्ञान की शक्ति न हो तो वहाँ पर केवलज्ञानावरण क्यों होगा?
ज्ञायकस्वरूप का एकत्व―जाति अपेक्षा, स्वरूप अपेक्षा समस्त जीव एक रूप हैं। सो जाति की अपेक्षा तो एक स्वरूप है उसे मान ले कोई कि व्यक्ति सब एक ही है। बस यही मिथ्या अद्वैतवाद हो जाता है। प्रत्येक पदाथ्र अपने स्वरूप में अद्वैत है अर्थात् स्वयं अपने आपमें केवल है। ऐसे अद्वैत में अद्वैत अनंत आत्मावों का स्वभाव एक अद्वैत है। जाति अपेक्षा से निहारा जाय तो सभी जीव शुद्ध ज्ञायकस्वरूप हैं।
आत्मा की निष्कामता―परमशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में इस मुझ अंतस्तत्त्व में किसी भी प्रकार की इच्छा नहीं है। इसलिये यह मैं निष्काम हूं। इच्छा एक दोष है। मोक्ष तक की भी जब तब इच्छा रहती है तब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। मोक्ष की इच्छा कुछ पद्धतियों तक कार्यकारी है किंतु जब तक मोक्ष की इच्छा का सद्भाव है तब तक मुक्ति नहीं है। मुक्ति तो अत्यंत अनाकांक्ष स्थिति के कारण हुआ करती है। इस प्रकार यह में आत्मा सब कामनावों से रहित होने से निष्काम हूं।
आत्मा की निष्क्रोधता―यह मैं अंतस्तत्त्व निष्क्रोध हूं, क्रोधरहित हूं। शुभ अथवा अशुभ सभी प्रकार के परद्रव्यों की परिणतियां मुझमें नहीं हैं, इस कारण मैं निष्क्रोध हूं। देखो इस संबंध में उन्हीं शब्दों से क्रोध के कारण भी ज्ञात हो जाते हैं। दूसरे द्रव्यों की परिणति को अपनाने में अथवा उस परिणति को अपने से संबंध मानने पर क्रोध हो सकता है। उस पुरुष को क्रोध कहां से होगा जो सकल द्रव्यों की परिणति से अपने को भिन्न निरखता रहे, क्रोध की वहाँ कहां अवकाश है? वह तो ज्ञाता द्रष्टा रहता है। जान लो यह बात भी। मात्र ज्ञाता रहने में इस जीव को आनंद है, पर किसी पर को इष्टरूप में अपनाने से अथवा अनिष्टरूप में अपनाने से वहाँ क्लेश होता है।
सम्यक्त्व अभाव में क्षोभ―लोक में सबसे अचिंत्य उत्कृष्ट वैभव है तो वह सम्यग्दर्शन है। जब तक सम्यक्त्व का अभ्युदय नहीं होता तब तक आत्मा को शांति आ नहीं सकती। जब यह उपभोग अपने स्वभाव का लगाव छोड़कर परपदार्थों में लगाव रखना है तो इसके क्षोभ होता है। क्षोभ का और कोई दूसरा कारण नहीं है। बाहरी पदार्थ यों परिणम गए, इसलिए क्षोभ हो गया―यह उपचार कथन है। वस्तुत: मैं अपने स्वभाव से चिगकर बाह्यपदार्थों में इष्ट अनिष्ट मानने का उपयोग करने लगा, इसलिए क्षोभ होता है।
परपरिणति अपनाने में क्रोध का वेग―जितनी अधिक दृष्टि बाह्य पदार्थों की परिणति में होगी उतना ही अधिक क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय प्रबल होगी। ज्ञानीसंत समग्र परपरिणतियों को अपने से भिन्न देखता है, इसलिए क्रोध नहीं होता है और जो अपने आपमें उत्पन्न होने वाली विभावपरिणतियों से भी अपने आपको भिन्न देखता है उसे किसी प्रकार का क्षोभ भी नहीं होता है। यह में आत्मतत्त्व परपरिणतियों से दूर हूं और अपने आपमें ही उठने वाले नैमित्तिक भावों से परे हूं, इस कारण, मैं निष्क्रोध हूं। यह सब निषेध मुख से आत्मतत्त्व का वर्णन चल रहा है। उस अपने आपको पहिचानो कि परमार्थ से मैं हूं कैसा? यदि परमार्थस्वरूप इसके परिचय में आ जाय तो समझो बस उसी क्षण से कल्याण हो गया। सबसे बड़ा क्लेश है तो इस जीव को मोह ममता का है। है कुछ नहीं और मोह ममता होती है उससे खेद की बात है, यह महान् अपराध है। हो कुछ मेरा और मान लें अपना तो उसमें कोई दोष नहीं हैं। बात ही ऐसी है। अपने आपके यथार्थस्वरूप के परिचय बिना इस जीव में कषायें जगती हैं और उन कषायों से यह आत्मा कसा जाता है, दु:खी होता है।
आत्मा की निर्मानता―यह मैं आत्मा निर्मान हूं। इसमें निरंतर परम समतारस का स्वभाव पड़ा हुआ है। मान कब उत्पन्न होता है जब समता की दृष्टि नहीं रहती है। यह तुच्छ है, मैं बड़ा हूं, ऐसा मन में संकल्प आए बिना मान कषाय नहीं जगता। पर कौन तुच्छ है, कौन बड़ा है? इसका निर्णय तो करो। आज जिसे तुच्छ माना है वह अपने सदाचार के कारण इस ही भव में अथवा अगले भव में उत्कृष्ट बन जायेगा। और जिसे अभी बड़ा मानते हो वह अनीति के कारण इस ही भव में या अन्य भव में तुच्छ हो सकता है तो जिसे तुच्छ माना वह बड़ा बन गया और जिसे बड़ा माना वह छोटा बन गया। ऐसा उलट फेर इस जीव में अनादिकाल से चला आ रहा है। फिर दूसरी बात यह है कि जितने भी आत्मा हैं समस्त आत्मावों का स्वरूप एक है। सब चैतन्यशक्ति मात्र हैं, निर्नाम हैं, उनका नाम ही नहीं है, निर्दोष है। वहाँ शरीर ही नहीं है। ऐसे चिदानंदस्वरूप इन समग्र आत्मावों में किसी को तुच्छ मान लेना, अपने को बड़ा मान लेना यह मान कषाय है, पर मान कषाय की गुंजाइश इस आत्मतत्त्व में नहीं है क्योंकि सब जीव एक समान हैं। और फिर यह आत्मा स्वयं अपने आपमें भी समतारस के स्वभाव वाला है। बाह्यपदार्थ में चेतन अचेतन पदार्थ में कोई भला है, कोई बुरा है ऐसा परिणाम नहीं करना है। परमसमरसीभावात्मक होने के कारण यह आत्मतत्त्व निर्मान है।
आत्मा की निर्मदता―इस प्रकार निश्चयनय से यह आत्मतत्त्व समग्ररूप से अंतर्मुख बना हुआ है इस कारण निर्मद है, मदरहित है। मद नाम यद्यपि घमंड का है पर मान और मद में कुछ अंतर है। मान तो व्याप्य चीज है मद की दृष्टि से और मद व्यापक चीज है। जो जीव अंतर्मुख नहीं हैं, बहिर्मुख हो रहे हैं उन जीवों के बेहोशी है, मद है। उनमें घमंड भी आ गया और अपने आपका कुछ पता नहीं, ऐसी एक बेहोशी भी हो गयी। यह आत्मतत्त्व अंतर में अंतर स्वरूप ही तो है। यह बाह्यरूप नहीं है, बहिर्मुख रूप नहीं है, इस कारण यह निर्मद है।
स्वरूपानुभूति में सत्य वैभव―यों अत्यंत विशुद्ध सहजसिद्ध शाश्वत निरुपराग ऐसा जो निज कारण समयसार का स्वरूप है यह कारणसमयसार स्वरूप उपादेय है। जैसे आपको मालूम न हो कि हमारी मुट्ठी में क्या है और हम धरे हों अपनी मुट्ठी में एक स्याही की टिकिया और आपसे पूछे कि बतावो मेरी मुट्ठी में क्या है? तो आप अंदाज से कोई बात कहेंगे, पर उत्तर मेरा यह होगा कि मेरी मुट्ठी में सारी दुनिया है। अरे स्याही को घोला तो कहो मकान बना दें, बाल्टी बना दें, मंदिर बना दें, नदी बना दें, समुद्र बना दें, पहाड़ बना दें। जो कहो सो बना दें, मेरी मुट्ठी में सारी दुनिया है। यह तो एक व्यवहारिक कला का उत्तर है, किंतु जिसके उपयोग में यह नित्य निरावरण चैतन्यस्वरूप आ गया है उसके उपयोग में सारी दुनिया एक साथ है।
परपरिणति के अच्छेद का यत्न―आत्मा के अंदर की गुत्थी को तोड़ दें, अणुमात्र भी परिग्रह मेरे स्वरूप में नहीं है ऐसा दर्शन कर लो। अन्यथा ऐसा श्रेष्ठ मन बार-बार मिलने को नहीं है। विषय-कषाय तो भव-भव में भोगने को मिलते हैं किंतु आत्मसंतोष के लिये, प्रभुत्व के दर्शन पाने के लिए बड़ा श्रेष्ठ मन चाहिए। अब इतना श्रेष्ठ मन पाकर इतना तो उपक्रम कर ही लेना चाहिए कि अपने आपमें आदर अपने शुद्धस्वरूप का अधिक हो। समग्र परपरिणतियों का उच्छेद बने, कर्ताकर्म का भ्रम मिटे और निज में बसा हुआ जो शाश्वत निरावरण ज्ञायकस्वरूप है उसका अनुभव जगे तो इस उत्कृष्ट नरजीवन की सफलता है। देखो तो भैया ! कितने खेद की बात है कि सच्चिदानंद मात्र ऐसे विशद आत्मतेज में यह उपयोग फिर भी मूर्च्छित पड़ा हुआ है, इसके चलन स्वभाव से विपरीत चल रहे हैं। यदि यह अपने इस ज्ञायक स्वभाव की सहज महिमा को उठाए, अपने उपयोग में ज्ञातृत्व का आदर बनाए तो यह आत्म शांत हो सकता है।
जीवों का बेकायदा फंसाव―जरा अंतर में देखो तो सही यह तो पहिले से ही समस्त परतत्त्वों से छूटा हुआ है, कल्पना में अपने को बंधा हुआ समझ लिया है। प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूपमात्र है, इस कारण प्रत्येक स्वयं ही मुक्त है, केवल है, ऐसे इस मुक्त स्वभाव को न निरखने के कारण कितने ही बंधन बना डाले हैं। अहो, राग करने बराबर विपदा और क्या हो सकती है? यहाँ के जीव बेकायदे अट्टसट्ट कोई किसी से फंस गया है अर्थात् जिसे आपने अपना परिजन माना है―ये मेरा कुटुंब है तो बताओ कि उसमें कौनसा नियम है, कौनसी युक्ति है, कौनसी बात है, जिस बात से वे चेतन द्रव्य आपके कुछ हो गए, अट्टसट्ट फंस गए? यह जीव घर में न आता और कोई दूसरा जीव आ जाता तो उसी में ही ममता करते। कायदे की ममता तो हम तब मानें कि ऐसा छटा हुआ काम हो कि वह जीव दूसरे भव में पहुंच जाए या सबमें से एक को उसी को वहाँ भी छांटे तब हम जानें कि कायदे की ममता की जा रही है। यहाँ तो जो सामने आया, चाहे वह जीव पूर्वभव में अनिष्ट भी रहा है, पर इस भव में ममता करने लगे। सो ममता करते जाते हैं, दु:खी होते जाते हैं।
जब धोखे की टाटी―इस लोक में पूर्व के पुरुषों की बातें देखो कि आए और चले गए, कोई यहाँ जमकर न रह सका। बड़े पुराण पुरुषों को देखो―तीर्थंकर का जमाना, श्रीराम का जमाना, सारे जमानों को टटोल लो उनका कितना प्रभुत्व था, पर वे भी कोई नहीं रह सके। अपने कुटुंबियों में भी सोच लो कि दादा-बाबा वे भी चले गए। जिन जीवों को निरखते हो, वे भी कोई साथ नहीं निभा सकते। यह जगत् ऐसे अकेले-अकेले के भ्रमण करने वालों का समूह है। किसी का कुछ शरण सोचना, यह पूरा धोखे से भरा हुआ है। अपने आपके अकेलेपन का और सारे स्वभाव का परिचय हो जाए तो सारे कष्ट दूर हों, कर्मबंधन भी दूर हों, रागद्वेषादिक कल्पनाएं भी समाप्त हों, शरीर का संबंध भी दूर हो जाए, फिर तो यह शुद्ध ज्ञानदर्शन सुखवीर्यात्मक अनंतविकास सदा के लिए हो सकता है।
करणीय विवेक―भैया ! विवेक ऐसा करो कि जिससे सदा के लिए संकट टलें। यहाँ अट्टसट्ट ममता के करने से किसी प्रकार की सिद्धि नहीं हो सकती, केवल क्लेश ही क्लेश बढ़ता चला जाएगा। जैसे दो रस्सियों की एक सीधी गांठ होती है, जिसे चमरउ गांठ कहते हैं तो उस गांठ को खोलने के लिए कोइ्र पानी सींचे तो गांठ और मजबूत होती जाती है। इसी प्रकार राग से उत्पन्न होने वाले क्लेश दूर करने के लिए कोई राग का ही उपाय बनाए तो उस राग के उपाय से वे क्लेश और मजबूत ही बनते चले जाते हैं। राग से उत्पन्न हुए क्लेश राग से दूर नहीं हो सकते, वे तो ज्ञान और वैराग्य से ही दूर होंगे। इससे अन्य ममताओं की दृष्टि हटाएं और निर्विकल्प ज्ञानानंदस्वभाव मात्र अपने आपके परिचय का यत्न करें।
विषयकषाय के संकट―इस जीव पर विषयकषायों के पाप का घोर अंधियारा छाया हुआ है। इसी कारण इसे अपने आपमें आनंद पाने का अवकाश नहीं होता है। ये विषयकषायों की कल्पनाएं हैं। यह अंधकार एक ज्ञानज्योति द्वारा ही दूर हो सकता है। जैसे भव्य आत्मा ने अपनी प्रज्ञा से ज्ञानस्वभाव के स्वरूप का भान किया है और इसके अनुभव में शुद्ध आनंद पाया है, वह पुरुष अतुल महिमा वाला है, नित्य आनंदमय है, वह देह मुक्त होकर सदा के लिए संसार के समस्त संकटों से दूर हो जाता है। सभी मनुष्य शांति के लिए अथक प्रयत्न कर रहे हैं, रात दिन एक धुनि में लग रहे हैं कि धनवैभव बढ़े, पोजीशन बढ़े। किसलिए यह किया जा रहा है? ये जीवन के बाद तो साथ देंगे ही नहीं, किंतु जीवनकाल में भी यह सब जंजाल सुख का साथी नहीं है। कहो अनेक विपदाएं, राज्यसंकट, चोरसंकट, कुटुंबीभय आदि अनेक प्रकार के क्लेश इस वैभव और पोजीशन के साथ लगे हुए हैं।
जीवन और भाग्य का सहवास―भैया ! रही एक उदरपूर्ति की बात। जब चींटी-चींटा, कीड़े-मकोड़े भी अपनी पर्याय के अनुकूल उदरपूर्ति का सहज समागम पा लेते हैं, जिससे कि जिंदगी रहती है। जिस बड़े भाग्य के उदय से हम आप मनुष्य हुए हैं, क्या यह प्राकृतिक बात नहीं है कि हम आप लोगों के लिए जो जीवन में सहायक है―ऐसा अभ्युदय का संयोग मिल जाए? हो रहा है यह सब प्राकृतिक, किंतु यह मानव उन सबमें कर्तृत्व बुद्धि बनाए हुए है कि मैंने किया तब यह हुआ। अरे ! ये तो उदय की चालें हैं। इतनी तो प्राकृतिक बात हो ही रही है, जिसका जैसा उदय है। इस ओर दृष्टि न लगाकर जीवोद्धार आत्महित के संबंध में अधिक लक्ष्य देना चाहिए, यह तो होता ही है। देखो, किए बिना भी ये सब बातें सहज थोड़ी श्रम से हो जायेंगी, पर जीवोद्धार की बातें पूरे तन, मन, वचन को लगाए बिना, फिर सबका उपयोग छोड़े बिना, अपना सारा पुरुषार्थ बनाए बिना नहीं हो सकता है। इस कारण आत्मा के उद्धार के लिए अधिक ध्यान देने की जरूरत है।
झमेला और ज्ञानी का ज्ञान―यह तो एक झमेला है, चार दिन का मेला है, मिला और बिछुड़ गया। जब मिल रहे हैं, तब भी अपने नहीं हैं और बिछुड़ तो जाने ही वाले हैं। इसमें दृष्टि रखने योग्य कुछ बात नहीं है। आनंद तो जो करेगा उसको ही मिलेगा। क्या यह बात है बोलने की और सुनने की? बोलने सुनने तक की ही बात रह सके, तब तो वह आनंद न प्राप्त हो सकेगा। इस रूप कुछ भी परिणमन कर सके या इस प्रकार का लक्ष्य बन सके तो आनंद से भेंट हो सकती है। इस प्रकरण में अपने आपके सही स्वरूप की चर्चा चल रही है। यह मिथ्यादृष्टि जीव तो अपने आपको मैं दादा हूं, मैं बाबा हूं, अमुक घर का हूं, अमुक संप्रदाय का हूं, मनुष्य हूं आदि कितनी ही बातें अपने में बसाए हुए है, किंतु ज्ञानी सत् पुरुष अपने आपके विषय में स्पष्ट जान रहा है कि यह मैं आत्मतत्त्व केवल ज्ञानस्वरूप हूं, इसमें किसी परतत्त्व का और परभाव का प्रवेश नहीं है। अब आगे कुछ व्यंजन पर्यायों का निषेध करते हुए आत्मतत्त्व की आंतरिक स्थिति बतला रहे हैं।