नियमसार - गाथा 6: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
छुहतण्हभीरु रोसो रागो मोहो चिंता जरा रुजा मिच्चू।सेदं खेद मदो रइ विम्हियणिद्दा जणुव्वेगो।।6।।अठारह दोषों का प्रभु में अभाव―18 दोष हैं क्षुधा, तृषा, भय, रोष, राग, मोह, चिंता, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, पसीना, खेद, घमंड, रति, आश्चर्य, निद्रा, जन्म और उद्वेग। ये दोष भगवान् में नहीं होते हैं। अब इन दोषों का लक्षण सुनिए।क्षुधा दोष का विवरण―क्षुधा किसे कहते हैं ? असातावेदनीय के तीव्र उदय से व उदीरणा से तीव्र मंद क्लेश के रहते हुए क्षुधा होती है, अर्थात् क्षुधा उत्पन्न करने में सहायक ऐसा असाता वेदनीय कर्म निमित्त हो उस समय जो शरीर में एक विशिष्ट दशा होती है भूख जैसी, तो वहाँ क्षुधा की वेदना होती है। भूख को कोई बता सकता है क्या ? जैसे कोई बच्चे लोग कभी-कभी कहते हैं कि हमें भूख लगी, तो उनसे कहो कि जरा दिखाओ तो अपनी भूख, तो क्या कोई अपनी भूख दिखा सकता है ? नहीं दिखा सकता है। अरे कहाँ भूख लग बैठी, यह कहाँ लगती है ? भूख कहाँ लगती है ? पेट में। पेट के ऊपर भूख लगती है कि भीतर लगती है ? पेट के भीतर लगती है। तुमने ही बता दिया कि भीतर भूख लगती है अब हम तुम्हें क्या उत्तर दें।क्षुधा और बुभुक्षा के वाच्य का अंतर―आप हमसे पूछें कि भूख कहाँ लग रही है ? तो आपको हम क्या कहेंगे कि हमें पता नहीं कुछ भी कि कहाँ भूख लग रही है ? भूख की बात पूछो तो भूख का संस्कृत शब्द है बुभुक्षा माने भूख भोक्तुं इच्छा इति बुभुक्षा। भूख का अर्थ भोगने की इच्छा, खाने की इच्छा। अब बताओ भूख शरीर में लगी कि आत्मा में ? अर्थ पहिले समझ लो। बुभुक्षा मायने खाने की इच्छा। तो खाने की इच्छा आत्मा में लगी कि शरीर में ? भूख आत्मा में लगी। पहिले शब्द का अर्थ समझो। और क्षुधा कहाँ लगी ? तो क्षुधा का क्या अर्थ है ? उसका भी अर्थ है विक्लव करना आपत्ति करना। तो भूख मायने खाने की इच्छा वह तो हुई जीव में और शरीर में जो हल्कापन-सा है वह है क्षुधा। इसे आप बता नहीं सकते हैं। क्षुधा लगती तो भैया हमारे भी है पर हम बता नहीं सकते कि क्षुधा क्या कहलाती है ? पेट में कुछ नहीं रहता, रीता-सा रहता है। उसमें आल्पीनें-सी गड़ती रहती हैं। ऐसी एक विशिष्ट दशा हो जाती है वह है शरीर में क्षुधा। इस प्रकार शरीर की क्षुधा अवस्था होने पर खाने की जो इच्छा जगती है वह इच्छा होती है जीव में, जीव को वेदना होती है इच्छा से। तेज भूख लगी तो अधिक वेदना होती है और हल्की भूख लगी तो हल्की वेदना होती है। वह है क्षुधा नाम का दोष।तृषादोष का विवरण―तृषा कैसी है कि असाता वेदनीय के उदय से तीव्र तीव्रतर और मंद मंदतर पीड़ा रूप तृषा उत्पन्न होती है। देखो–क्षुधा में तो दो जाति की वेदना है–तीव्र और मंद और तृषा भी दो जाति की वेदना है, तीव्र तीव्रतर और मंद मंदतर। बहुत हल्की, हल्की, तेज और बहुत तेज। ऐसी 4 वेदनाएँ होती हैं। प्यास में और भूख में दो तरह की वेदनाएँ होती हैं–तीव्र और मंद। तो प्यास में हल्की से हल्की वेदना और तेज से तेज वेदना है, किंतु भूख में न बहुत हल्की वेदना रहती है और न अत्यंत तेज वेदना रहती। बहुत से लोग प्यास से मर जाते हैं भूख से नहीं मरते। इसका यह कारण है कि तीव्रतर वेदना प्यास में होती है, भूख में तीव्रतर वेदना नहीं होती है। किसी को जरा-सी भी प्यास लगी हो तो झट महसूस हो जाती है और भूख जरा-सी लगी हो तो पता ही नहीं रहता। तो भूख अत्यंत हल्की कभी नहीं होती। प्यास अत्यंत हल्की भी होती है।क्षुधा तृषा का नरलोक व्यवस्था में सहयोग―ये क्षुधा तृषा की वेदनाएँ आप्त भगवान् में नहीं है। ये दो बड़ी कठिन वेदनाएँ हैं भूख और प्यास की। मनुष्य के भूख और प्यास न लगती होती तो बड़ा अंधेरा यहाँ मच जाता, फिर कोई व्यवस्था ही यहाँ न हो पाती। जैसे देव हैं, उनके भूख प्यास नहीं लगती। मगर वहाँ अंधेर यों नहीं मच रहा है कि वे न दुकान करें, न रोजगार करें, न कमायी का कोई काम करें, भूख प्यास की वेदना नहीं रही मगर फिर भी उनका बुरा हाल हो रहा है और यहाँ भूख प्यास तो लगे नहीं साथ पोजीशन के लिये दुकानें व्यवसाय किये ही जायें तो यहाँ जो अंधेरा मच जायेगा उसका प्रलय जैसा रूप हो जायेगा। मनुष्य भूख प्यास के आगे घुटने टेक देते हैं।क्षुधा तृषा का मोक्षोपायार्थियों में स्थान―वैसे तो भैया ! जहाँ भूख प्यास की वेदना होती है उस ही भव में मुक्ति का उपाय बन सकता है। जहाँ-जहाँ भूख प्यास की वेदना होती है वहाँ से मुक्ति का रास्ता खुला है यह तो नहीं कह रहे किंतु मुक्ति का मार्ग उस भव से ही मिलता है जिस भव में भूख और प्यास की वेदनाएँ हुआ करती हैं। जहाँ भूख और प्यास की वेदनाएँ नहीं हैं, वहाँ सम्यक्चारित्र भी नहीं बनता। ऐसा जानना कि भोगभूमिया जीव हैं, देव व नारकी हैं उनको उस भव से मुक्ति नहीं बतायी गयी है। अरहंत के क्षुधा और तृषा की वेदना नहीं है किंतु वे मुक्त स्वरूप हैं।भयदोष में इहलोकभय का विवरण―तीसरा दोष बताया जा रहा है भय। भय 7 प्रकार के होते हैं। इस लोक का भय–हाय मेरी जिंदगी कैसे चलेगी, मेरा गुजारा कैसे होगा, कैसे-कैसे कानून बन रहे हैं, यह इतनी जायदाद रह सकेगी कि नहीं, आदि नानाप्रकार की विकल्प धाराएँ चलवाना और सामने आने वाली विपत्तियों से घबड़ाना–ये सब इस लोक के भय हैं। कितने ही भय हैं इन जीवों में और ये समस्त भय एक आत्मा के आश्रय से समाप्त हो जाते हैं। भैया ! वह जीव बड़ा सुरक्षित है जिसमें विषय वांछाएँ परिग्रह संचय या यश कीर्ति का फैलाना ये परिणाम नहीं होते। वह मनुष्य नहीं है वह तो प्रभु का छोटा भाई है।भ्रमी का बेतुकी श्रम―ये विकार पिरणाम जिस जीव के होते हैं उस समय यह मूर्ख बनता, आकुलताओं में पड़ता और भविष्य की आकुलताएँ भी लाद लेता है। अंत में फल क्या मिलता है ? कुछ नहीं। बाल-बच्चों के लिए, कुटुंब–परिवार के लिए कितना-कितना श्रम करते हैं और ऐसा निर्णय करके बैठे हैं कि जितना भी धन कमाते हैं वह सब कुटुंब के लिए ही है अन्य कार्य के लिए नहीं है। अपना सारा श्रम कुटुंब के लिए ही करेंगे, औरों के लिए नहीं। रात दिन किसी जगह बैठे हों जब मन में चिंतन करेंगे तो कुटुंब का चिंतन करेंगे। वह ऐसा है, उसे यों करना है, उसे यों सुखी करेंगे, निरंतर चिंतन चलाया करते हैं। और प्रेमपूर्वक अपना हृदय देकर वचन बोलने का यदि कुछ यत्न है तो कुटुंब के लिए है। यह दशा है मोहग्रस्त जीवों की। भला बताओ कि उनके हृदय में भगवान् का निवास कैसे हो ? उनके उपयोग में प्रभु की भक्ति कैसे आए ? हृदयवास अथवा पूजा―जब तक हृदय में स्वच्छता नहीं उत्पन्न होती तब तक प्रभु का स्मरण ही नहीं हो सकता। वैसे पूज तो रहे सब लोग निरंतर किसी न किसी को, पर कोई भगवान् को पूज रहा है, कोई किसी को पूज रहा है। हृदय में जिसका रात दिन अधिक समय तक निवास होता हो उसको ही वह पूज रहा है। कोई त्री को पूज रहा है, कोई बच्चों को पूज रहा है, कोई धन को पूज रहा है। तो कोई पंडित चतुर जिसका निकट संसार हो उसको वह पूज रहा है। पूजा बिना कोई नहीं रहता। जिसके हृदय में जिसका अधिक समय तक निवास हो वह उसको ही पूजता है।हितकारिणी पूजा का निर्णय―भैया ! अब यह निर्णय कर लो कि किसको पूजने में भलाई है, इस आत्मा को कौन शांति दे सकता है ? यह उपयोग अपनी श्रद्धा में है, इससे चूककर बाहर फिरकर किसी परपदार्थ का आश्रय करें वह तो भटका हुआ लिया दिया रीता उपयोग है उसमें शांति प्रकट होने का माद्दा नहीं है। किसी भी परवस्तु को यदि हम अपने उपयोग में रखते हैं तो उससे नियम से अशांति उत्पन्न होगी। कोई न कोई प्रकार की आकुलता आ जायेगी। भगवान् की भक्ति लाभ देती है ठीक है मगर बिना कुछ आकुलता के हम प्रभु की भक्ति भी नहीं कर सकते हैं। खैर ! पूर्ण शांति की अवस्था पर दृष्टि रहती है तो हमें प्रभुभक्ति से बहुत लाभ मिलता है। तो जितना गंदा हो, मलिन हो, विषयकषायों के बोझ से लदा हो उसे प्रभुभक्ति बड़ा लाभ देती है। कितने संकट दूर हो जायें, कितने पाप दूर हो जायें तो आकुलता समाप्त हो जाती है यह प्रभुभक्ति में गुण है।शुभराग में भी क्षोभ का स्थान―भैया ! फिर भी उपयोग चूँकि अपने स्वामी को छोड़े हुए हो और बाहर में किसी शुद्ध तत्त्व का भी ध्यान कर रहा हो तो विकारों का बहिर्गमन तो बराबर है। बहिर्गमन में ही यह कला है कि आकुलता रहती है। किसी को शिखर जी जाने की मन में इच्छा हुई तो उस इच्छा से अंत:आकुलता हुई ना कि मुझे शिखर जी जाना है। यद्यपि और भी बहुत से काम हैं जिनसे आकुलता होती है। यहाँ कुछ अच्छे ढंग की आवश्यकता है सो बता रहे हैं। मन, वचन, काय का यत्न किसी न किसी आवश्यकता बिना नहीं होते हैं। कोई बुद्धिपूर्वक मन का यत्न करे, देह का यत्न करे तो वह क्षोभपूर्वक होता है, लेकिन मलिन क्षोभ को मिटाने के लिए कोई शुभ क्षोभ हो तो उस क्षोभ को भला समझना।अल्प आकुलता में स्वस्थता का व्यवहार―जैसे किसी के 105 डिग्री बुखार चढ़ा हो और उतरकर 99 डिग्री रह जाए तो कहता है कि अब मेरा स्वास्थ्य बहुत अच्छा है। अरे ! अच्छा कहाँ है ? वह तो 105 डिग्री बुखार के सामने कम है। सो अपने स्वास्थ्य को अच्छा मानता है। यदि विषयकषायों में गया हुआ उपयोग है तो वह तो बहुत अस्वस्थता की बात है और प्रभु या गुरु या चर्चा में लगा हुआ जो उपयोग है, वह क्या स्वस्थता की बात नहीं है ? है, किंतु परमार्थ से स्वस्थता परमार्थ प्रभु या गुरु में उपयोग जाए वह है।भय का मूल तृष्णा―इस जीव ने अपने आपमें इस लोक का भय लगा लिया है, यह सब तृष्णा का परिणाम है। तृष्णा जगे बिना भय नहीं हो सकता। भय होता है तो समझो कि किसी न किसी प्रकार की तृष्णा है, इस कारण से भय होता है। इस लोकभय से यह मनुष्य कितना ग्रस्त है ? इतना तो भय पशु-पक्षियों में भी नहीं है। पशु-पक्षी निर्भय होकर यत्र-तत्र विचरते रहते हैं, उनके साथ बखेड़ा कुछ भी नहीं रहता है। परमार्थ से ऐसा नहीं कह रहे हैं, पर वर्तमान देखकर कह रहे हैं कि मनुष्य के संग में इतना बखेड़ा लगा है कि स्वतंत्रता से किसी जगह भ्रमण नहीं कर सकता। किसी भी समय यह मनुष्य अपने को अकेला नहीं अनुभव कर सकता। कितना बोझ यह मनुष्य लादे है ? पैसे का बोझ है, बैंक में हिसाब रखे हैं, दुकान करे है, उस पैसे की रक्षा का बोझ लदा है, रिश्तेदारों का बोझ है, कोई रिश्तेदार नाराज हो गया तो उसे खुश किया, उनका सन्मान किया, यह मनुष्य कितना-कितना बोझ लादे है, पर पशु-पक्षियों के कुछ भी बोझ नहीं लदा है।मनुष्य के भय की विशेषता―भैया ! भय की भी बात देखो कि पशु-पक्षियों को कोई भय नहीं। कोई लाठी लेकर मारने को तैयार हो या मुक्का मारे तो पशु-पक्षी डरते हैं, वरना वे न डरेंगे। पर इस मनुष्य को कितना डर लगा है ? सो उनकी क्या व्याख्या करें, सभी जानते हैं। यश में फर्क पड़ जाए, किसी बात में फर्क पड़ जाये, धन में कमी आ जाये, इस प्रकार के कितनी तरह के भय इस मनुष्य में लगे हैं। सो यह जीव अनेक भयों से दबा है। उन भयों में से एक भय इहलोकभय है।परलोकभय का विवरण―दूसरा भय परलोकभय है।प्रश्न–जो समझदार है, उन्हें ही भय लगा है परलोक का और जो मानते ही नहीं, वे नास्तिक हैं। उन्हें काहे का परलोकभय ? उनके मन में कल्पना ही नहीं होती कि हाय ! मैं मरकर क्या बनूँगा ? उत्तर–जब मरण का समय आता है तब संभव है कि किसी को ऐसा मालूम होता हो कि हाय मैं मरकर कहाँ जाऊँ ? जो जिंदगीभर परलोक को मना करता हो, प्राय: यह संभव है कि वह मनुष्य मरते समय परलोक के बारे में कुछ न कुछ ख्याल करता हो और न रखता हो कुछ भी ख्याल तो भी वहाँ अधिक भय होता है अज्ञान के कारण। हम मर रहे हैं, अब क्या होगा ? अपने बारे में कोई ख्याल, परलोक संबंधी कोई ख्याल उस मनुष्य को मरते समय आ ही जाता है।धर्मशून्य जीवन वाले का मरणकाल में शोक―जिन्होंने अपने जीवन में धर्म की साधना नहीं की, उन्हें मरते समय बहुत क्लेश होता है। यदि उजड्ड ही रहे और मर गये तो इस तरह का क्लेश है कि हाय मेरा घर छूटा, परिवार छूटा, त्री पुत्र छुटे, बस नहीं चलता। आँखों से दिख रहा है कि ये छूटे जा रहे हैं, हम मर रहे हैं तो उजड्ड हों तो उसके दु:ख ही रहता है और कुछ समझदारी आयी तो यह दु:ख रहता है कि हाय मैंने सारी जिंदगी मान, माया, लोभ में बिताया, मैंने अपना कुछ भी हित नहीं किया। न प्रभुभक्ति की, न अपना ध्यान बनाया, सब तरह से उसने अपने को बरबाद किया, यों उसके क्लेश हो गया। जिसने जीवन में धर्म नहीं किया, उसको मरते समय क्लेश होता है।कृपणता की वेदना―भैया ! जिसने अपने जीवन में कमाई भी खूब की, दान भी खूब दिया, खूब धर्मसाधना भी की, सत्संग भी किया, सर्वप्रकार से अपने यत्नभर धर्मसाधन में लगा, उदारता में इसका जीवन व्यतीत हुआ, मरण समय में भी उसे शांति रहती है। ऐसे जीव जिसने न अपने लिये खाया अच्छी तरह, न कोई दान दिया–ऐसे पुरुष मरते समय बहुत ही आकुलित होकर मरते हैं। कम से कम जिसने भोग भोगा, अपने लिए खर्च किया, वह इतना तो सोचता है कि हमने कमाया है तो खर्च भी किया है, इससे कुछ संतोष होता है, किंतु उन कृपणों को जो अपने लिये खा भी नहीं सकते आर पर के लिये दे भी नहीं सकते, उन सबकी स्थिति मरने के समय में बड़ी दयनीय होती है–ऐसा कृपण का दूसना नाम क्या है ? कंजूस, सूम और मक्खीचूस।कृपण की प्रशंसा―कवि ने बताया है कि दुनिया में सबसे ऊंचा दानी पुरुष कंजूस होता है। कंजूस के बराबर दानी दूसरा कोई नहीं हो सकता है। अन्य लोगों को यह कंजूस पुरुष सारा का सारा धन मरण के समय छोड़े जा रहा है जिसने कभी जरा-सा भी अंश दूसरों को उसमें से नहीं दिया, अपने लिए खाया भी नहीं, उसे बिना छुए ही वह पूरा का पूरा धन चुकता, बिल्कुल कहो या कुलबिल कहो, मानो पूरा का पूरा बिल जो बजट बना वह सारा का सारा दूसरों को दिये जाता है। तो उसके समान दाता कौन होगा, ऐसा एक कवि ने उसका मजाक उड़ाया है। कोई ऐसा पुरुष दानी नहीं कहला सकता है।परलोकभय―तो इस मनुष्य को कितना भय लगा है, वह सब भय अज्ञान के और मोह के कारण है। कुछ समझदारी हुई तो उसे परलोक का भय लग जाता है। परलोक में मेरी क्या दशा होगी ? मुझे सुख, भोग मिलेंगे या नहीं, तिखंडा चौखंडा मकान मिलेगा या नहीं, उसे परलोक चिंतन का भी बहुत बड़ा क्लेश रहता है यह भी एक भय है, कोई-सा भी भय हो इस जीव को क्लेश ही पहुँचता है।अरक्षाभय से रहितपना―अपने आपमें रक्षा न पा सकने वाले जीवों को एक अरक्षा का भय लगा है। मेरी रक्षा कैसे हो ? मुझ पर इतने लोग खार खाये हुए हैं, इत्यादि कितने ही विकल्प करके यह मनुष्य भय बनाता है। उन सर्वभयों से रहित भगवान् आप्त है।अगुप्तिभय से रहितपना―भगवान् सर्वज्ञदेव सर्वदोषों से रहित हैं, उनमें भय नाम का भी दोष नहीं है। भय 7 प्रकार के हैं जिनमें 3 प्रकार के भयों का वर्णन हो चुका है, अब अगुप्तिभय बताते हैं। मेरी रक्षा का कोई साधन नहीं है, मेरे घर, गढ़ के किवाड़ मजबूत नहीं है, सुरक्षा का साधन नहीं है, इस प्रकार का भय करना सो अगुप्तिभय है। यह भय प्रभु अरहंतदेव के नहीं है।मरणभय से रहितपना―मरणभय भी आप्तदेव के नहीं है। इसके बाद कहते हैं आयु के क्षय का भय। आयुकर्म के क्षय का नाम निर्वाण भी है और मरण भी है। जिस आयु समाप्ति के बाद जीवन हो उसका तो नाम मरण है और जिस आयु समाप्ति के बाद जन्म न हो उसका नाम निर्वाण है। भगवान् अरहंतदेव का फिर जन्म नहीं होता है इस कारण वहाँ मरण भय कुछ नहीं है। इन भयों का संबंध मोहनीय के साथ है, सो मोहनीय कर्म नहीं है इस कारण मरणभय नहीं है, आयु के क्षय का भय नहीं है। प्रथम तो आयु के क्षय का नाम निर्वाण है।आप्त के वेदनाभय का अभाव―वेदनाभय भी आप्त के नहीं होता है। जो आत्मा निर्दोष हो जाता है उसका शरीर परमौदारिक हो जाता है। जीव के परिणामों का शरीर के मिलने के साथ निमित्त–नैमित्तिक भाव भी है, जिसका परिणाम निर्मल होता है उसे शरीर खोटा नहीं मिलता और जिसका परिणाम मलिन होता है उसका शरीर खोटा हुआ करता है। इसी आधार पर सामुद्रिक शा भी बना है, जिसके हाथ बड़े बेडौल हों, रेखाएँ भी पुण्यवान् जैसी हों, तो शरीर के अंग जिसके अच्छे होते हैं उनसे अनुमान होता है कि पुण्यवान है, धर्मात्मा है। तो परिणामों का शरीर के साथ संबंध भी होता है। जिस आत्मा में एक भी दोष नहीं रहा, निर्दोष हो गया, वह आत्मा जिस शरीर में विराज रहा हो वह शरीर खोटा नहीं रह सकता। मुनि अवस्था में कोई चोट लग गयी हो, फोड़ा-फुंसी हो गयी हो तो अरहंत होने के बाद न चोट रहती है, न फोड़ा-फुंसी रहती है। वहाँ तो निरोग साफ स्फटिक के समान स्वच्छ परमौदारिक शरीर हो जाता है।प्रभु की आकस्मिक भयरहितता―आप्तदेव के आकस्मिक भय भी नहीं है। आकस्मिक भय उसे कहते हैं कि आकस्मिक कोई आपत्ति आ गयी है और उस पर डर माने, शल्य बना रहे कि हाय क्या होगा, अचानक कोई आपत्ति न आ जाय। पर भगवान् के कोई आपत्ति नहीं है, इस का कारण यह है कि एक तो प्रभु को तीन लोक, तीन काल के सब पदार्थ विज्ञात हैं। फिर उनके ज्ञान में अकस्मात् कुछ भी न रहा। अकस्मात् की बात तो छद्मस्थ अवस्था में होती है, जिसको कुछ पता नहीं है अपने उत्कृष्ट प्रभु का, फिर भय की बात तो बहुत दूर है। ऐसे 7 प्रकार के भय भगवान् के नहीं होते।भगवंत की विलक्षणता―भगवान् हमसे बड़े और विलक्षण नहीं होते तो फिर पूजने के लिये ही हम आप क्यों आते हैं ? यदि भगवान् में भी रागद्वेष, मोह होते तो हममें और उनमें अंतर ही क्या था ? अपने घर के परिवार के लोगों को कोई पूजता है क्या ? भले ही राग में आकर उस पूजन से भी बहुत बढ़कर अनुराग करें, मगर पूजा की जो विधि है–द्रव्य चढ़ाना, पूजन आदि करना, इस तरह से कोई मित्रों की या परिजनों की पूजा नहीं करता है। क्योंकि वे जानते हैं कि ये बड़े ही मलिन हमारी ही तरह आत्मा हैं, ऐसे ही मलिन हो गए तो हममें और उनमें विशेषता ही क्या रही ? और प्रभुता भी क्या होगी ? उनमें किसी भी प्रकार का भय नहीं रहा।आप्त के रोषदोष का अभाव―रोष भी भगवान् में नहीं है। रोष कहते हैं क्रोध में आए हुए आत्मा के जो तीव्र परिणाम होता है उसको। क्रोध तो हल्के क्रोध का भी नाम है, मायने हल्का क्रोध और बड़ा क्रोध दोनों का भी नाम रोष है। कहते हैं कि हमको तो बड़ा रोष आ गया। तो रोष की स्थिति क्रोध से तीव्रता को लिए हुए होती है। भगवान् सर्वज्ञदेव के रोष नामक दोष भी नहीं है।प्रभु के रागदोष का अभाव―प्रभु के राग भी नहीं है। राग 2 प्रकार के होते हैं–एक प्रशस्त राग और दूसरा अप्रशस्त राग। शुभ राग कहते हैं दान देना, शीलपालन करना, उपवास करना, गुरुजनों की वैयावृत्ति करना आदिक जो परिणाम हैं इनको कहते हैं शुभ राग। जो राग ऐसा पवित्र होता है कि जिसके कारण विषयकषायों के परिणाम नहीं जगते। शुभपरिणाम, अशुभपरिणाम के दूर करने का उपाय है। जहाँ शुभपरिणाम विराज रहा वहाँ अशुभपरिणाम नहीं रहता। जिसके हृदय में प्रभु की भक्ति रहती है उसमें विषयकषायों का परिणाम नहीं रह सकता। विषयकषायों का परिणाम होना इस जीव पर बहुत बड़ी आपत्ति है। गंदे परिणाम करने से कोई लाभ न मिलेगा। पापमय परिणाम वृत्ति से रहना यह जीव पर बहुत बड़ी विपत्ति है। पर आज क्या अनादि से चला ही आया है कि संसार हँस खेलकर खुशी मानकर उन विपत्तियों में जकड़ रहा है। इनके उपशम का उपाय है प्रशस्त राग। सो इन प्रशस्त रागों में प्रभु मौजूद नहीं है। उनके रागमल ही नहीं है।अशुभराग का मुनि अवस्था से ही अभाव―अशुभ राग कहते हैं त्री की कथा करना, अमुक त्री यों है, अमुक देश की त्री यों है। राज कथा करना कि अमुक राज्य ऐसा है, वहाँ इस प्रकार का प्रबंध है, वहाँ ऐसी गड़बड़ी है। राजाओं का या आजकल मेंबरों का, मिनिस्टरों का कथन करना ये सब अशुभ राग वाली बातें हैं। जो आत्मा के अपने आप में आने का अवसर न दे, वे सब अशुभ राग हैं। चोर कथा–चोरी संबंधी कथा करना अमुक जगह से अमुक चीज ले आओ, उसको इस तरह से बचाकर ले आओ आदि कथनी करना, उनका उपाय जानना, उनमें दिल रखना, उनकी ही बात करना, ये सब चोर कथाएँ हैं, अशुभ राग हैं। भोजन कथा–भोजन की चर्चा करना, अमुक चीज ऐसी अच्छी बनी है, यों बनाकर इस चीज को खायें, इस तरह से खाने पीने की चीजों की कथनी करना ये सब कषाय भावों में शामिल हैं। ये सब अप्रशस्त राग है। इनका अभाव तो मुनि अवस्था से ही हो जाता है। प्रभु के तो किसी भी प्रकार का राग नहीं है।अशुभराग में प्रकट अविवेकिता―इन विषयों में कुछ प्रीति करने की बातें तो दूर रहो मगर इनकी कथा भी नहीं करनी चाहिए और फिर जो बड़े पुरुष होते हैं वे बड़े संतोषी होते हैं। साधुजन, त्यागीजन इन कथाओं को कभी करते ही नहीं। और कथन करने लगें तो समझलो कि ये अशुभ राग में आ गए। किसी ने कहा कि तुमने क्या खाया ? अजी हमने तो आज बहुत कुछ माल उड़ाया, ऐसी बातें करना ये सब अशुभ राग कहलाते हैं। ये सब बातें भक्त पुरुषों में, त्यागी पुरुषों में नहीं हैं। ये अशुभराग विशिष्ट त्यागी संत पुरुषों के नहीं होते। इन विकथाओं का पालन, विकथाओं का स्वरूप या किसी प्रकार के घुल मिल करके परिणाम रहना, ये सभी बातें राग कहलाती है। प्रभु भगवान् के न शुभ राग है, न अशुभ राग है।भगवान् के स्वरूप का अनुमान―भगवान् के स्वरूप का कुछ अनुमान करना है तो मूर्ति से अनुमान हो जाता है। खूब भली प्रकार से निगाह से देखो प्रभुमुद्रा से सभी बातें अपने आपकी ओर से कहने में आने लगती हैं। शांतमुद्रा है, रागद्वेष नहीं है, कहीं जाने का काम नहीं है, अपने आपमें समाये जा रहे हैं, कहीं देखने का काम नहीं है, ऐसी बातें उस मुद्रा से मिल जाती हैं तो भगवान् प्रभु शुभ और अशुभ सर्व प्रकार के रागों से रहित हैं।प्रभु के मोहदोष का अभाव―प्रभु मोह से दूर हैं। यद्यपि मोह अशुभ ही होता है। मोह में शुभ अशुभ का भेद नहीं है, पर ऐसा जान लें कि किन्हीं आत्माओं से कोई स्नेह विशेष किया उसका नाम मोह है तो मुनि, आर्यिका, ऋषि, यति आदि ऐसे धर्मात्मा पुरुषों में वात्सल्य हो, प्रीति हो, उनसे संबंध हो तो यह है प्रशस्त मोह और बाकी जो परिजन हैं, धर्मशून्य हैं, दोस्त लोग हैं उनमें अनुराग करना, प्रीति बढ़ाना, यह सब अप्रशस्त मोह है। मोह सब अप्रशस्त होते हैं, प्रशस्त नहीं होते हैं, किंतु लोकव्यवहार की अपेक्षा प्रशस्त और अप्रशस्त मोह में भेद किया है। किसी भी प्रकार का मोह प्रभु के नहीं होता।प्रभु के चिंता दोष का अभाव―चिंता भी प्रभु के नहीं है, चिंतन कहो, चिंता कहो एक ही बात है। उस चिंतन का खोटा रूप हुआ तो उस का नाम रख दिया है चिंता और समस्त चिंताओं का नाम चिंतन है। खोटा हो या सही हो, चिंतन कहो या ध्यान कहो इसमें धर्म्य और शुक्लरूप जो ध्यान है यह प्रशस्त चिंतन है और आर्त व रौद्ररूप ध्यान अप्रशस्त चिंतन है। इष्ट का वियोग हो जाय तो उसके चिंतन में पड़ना यह आर्तध्यान है। अनिष्ट को टालने के लिए बड़ा चिंतन बनाए रखना, विचार बनाना आर्तध्यान है और शरीर में कोई वेदना हो गयी, रोग बढ़ जाय, उनका ख्याल करना ये सब आर्तध्यान हैं।निदान के आर्तध्यानपना―विषयभोगों की वांछा बनी रहना भी आर्तध्यान है। इच्छा से पीड़ा हुआ करती है इसलिए निदान को आर्तध्यान में शामिल किया है। निदान को रौद्रध्यान में नहीं लेना। कोई भोग आए, उसकी इच्छा हुई तो इच्छा के समय मनुष्य कोई दीन हो जाता, चिंतित हो जाता और उदास हो जाता है सो निदान भी आर्तध्यान है।रौद्रध्यान व हिंसानंद में रौद्रता―रौद्र ध्यान क्या है ? पाप में आनंद मानना, हिंसा में आनंद मानना। हिंसा करते हुए खुश होना। आजकल तो जीवहिंसा में प्राय: मनुष्य रंच भी नहीं हिचकते। जिसका कुल पवित्र हो, धर्म हो ऐसे कुछ बिरले जीवों को छोड़कर बाकी मनुष्यों को देखो तो जीव हिंसा का परिणमन होता है। जो मांसभक्षण करते हैं, उन्हें हिंसा करते हुए कहाँ संकोच हो सकता है ? अपन लोग जरा धर्मात्माओं के बीच में अधिक रहते हैं सो ऐसा मालूम होता है कि हिंसा करने वाले और मांस खाने वाले कोई ज्यादा नहीं हैं, अगर गणना का हिसाब लगाओ तो 99 प्रतिशत बैठेंगे। कुछ देश तो ऐसे हैं कि शतप्रतिशत मांस खाते हैं हजारों में दो चार लोगों ने यदि न खाया तो वह आधा ही प्रतिशत तो कम रहा। हजारों में 10-5 लोग ही ऐसे हों तो हो गए 99 प्रतिशत मांसाहारी। तो आजकल तो मांसभक्षण में लोग खुश हो रहे हैं, आनंद मनाने की योजनादि बनाना ये सब रौद्रध्यान है।मृषावाद, चोरी व विषयसंरक्षण में रौद्रता―खोटा बोलते हुए आनंद माने, झूठ बोलते हुए आनंद माने, झूठ बोलकर छका दिया या झूठ बोलकर किसी को आपत्ति में डाल दिया। दूसरा चेतन पदार्थ तड़फ रहा है, उसकी तड़फन देखकर खुश होते रहते हैं। चिंतन–चोरी में आनंद मानना, विषयों के साधनों की रक्षा में आनंद मानना, कुशील और परिग्रह इन दोनों पापों में आनंद मानना, इसका नाम है रौद्रध्यान। परिग्रहानंद कहो, विषयसंरक्षणानंद कहो ये सब प्रभु के एक भी चिंतन नहीं है। न शुभ है और न अशुभ है।प्रभु के जरा दोष का अभाव―प्रभु में बुढ़ापा भी नहीं आता। अगर कोई बूढ़ा मुनि हो और प्राय: बूढ़े ही मुनि भगवान् बनाते हैं। तपस्या करें, बहुत तपस्या के बाद शुद्ध फल मिल जाय तब भगवान् बनें। यह कोई नियम नहीं कह रहे हैं, 8 वर्ष का बच्चा भी अरहंत बन सकता है। तो बूढ़ा मुनि भी जब प्रभु बनता है तो फिर शरीर में बुढ़ापा नहीं रहता है। उनका शरीर परमौदारिक शरीर हो जाता है युवावस्था से संपन्न होता है। वैसे भी विचारो कि यदि यहाँ कोई बूढ़े भगवान् जा रहे हों, कमर टूटी हो, चल नहीं पाते हों, देखने में खराब लगते हों तो उनके प्रति किसी की कैसी-कैसी धारण जगेंगी ? भक्ति तो तब जगेगी जब उनमें कोई चमत्कार बनेगा। भगवान् के पूर्ण निर्दोषता प्रकट हुई है, सो युवावस्था से युक्त सुंदर परमौदारिक शरीर होगा उनका। मुनि अवस्था में कोई रोग हो, टूट फूट गया हो कोई अंग मुनि अवस्था में ही ऐसा कोई भी रोग नहीं रहता। वहाँ शरीर में किसी भी प्रकार का विकार नहीं रहता है। वहाँ तो जरा भी नही है।जरा का विवरण―जरा किसे कहते हैं ? तिर्यंच और मनुष्य की अवस्था बढ़ने के कारण जो देह में विकार हो जाता है, उसका नाम बुढ़ापा है। यह बुढ़ापा तिर्यंच और मनुष्यों को ही हुआ करता है। नारकियों को बुढ़ापा नहीं आता और देवों को भी बुढ़ापा नहीं आता। तिर्यंचों को कहते हैं ना कि यह घोड़ा बूढ़ा हो गया, देखते ही हैं और मनुष्यों को बुढ़ापा तो सबको दिख ही रहा है। यह जरा नाम का दोष भी प्रभु अरहंत भगवान् में नहीं होता है।प्रभु के रोग दोष का अभाव―इसी प्रकार प्रभु में रोग भी नहीं है। वात, पित्त, कफ की विषमता हो जाने से शरीर में विशेष पीड़ा होती है, उसका नाम रोग है। सब रोग वात, पित्त, कफ की विषमता के आधार पर हैं। ये रोग भी परमौदारिक शरीर में नहीं है और प्रभु में भी नहीं होते हैं।प्रभु के मृत्यु दोष का अभाव―मृत्यु भी भगवान् के नहीं है। यह जो पर्याय है, अत्यंत असार है, मूर्तिक है, इंद्रियरूप है, विजातीय है अर्थात् चेतन और अचेतन के संबंध से उत्पन्न हुई है–ऐसी ये मनुष्यादिक जो व्यंजन पर्यायें हैं, देह पर्याय जीव संगम से विमुक्त हुए ना, इसका ही नाम मृत्यु है। यह दोष भी प्रभु में नहीं होता।प्रभु के स्वेद दोष का अभाव―इसी तरह पसीना भी भगवान् में नहीं है। अशुभकर्म के उदय से जो शरीर में परिश्रम उत्पन्न होता है, उस परिश्रम से उत्पन्न हुआ जो अपवित्र गंध देने वाला, ऐसी खोटी वासना वाला जो जलबिंदु का समूह है, उसका नाम है पसीना। पसीना सभी को आता है। सो अपना अपना सब जानते हैं। क्या कोई अच्छी चीज है पसीना ? अपना ही पसीना किसी को नहीं सुहाता तो दूसरे का पसीना किसी को सुहाता है क्या ? तो इस शरीर के श्रम होने पर पसीना अशुभ कर्म के उदय से हुआ करता है। भगवान् के इस परमौदारिक शरीर में पसीना नामक दोष भी नहीं है।प्रभु के खेद दोष का अभाव―खेद नामक दोष भी प्रभु में नहीं है। अनिष्ट चीज के लाभ का खेद है। जो अपने को इष्ट नहीं है और अपने पीछे पड़ गई, उस वस्तु में खेद होता है।प्रभु के मद नामक दोष का अभाव―प्रभु के किसी भी प्रकार का मद नहीं है। मद हुआ करता है तब जब चतुराई आए, कविता बनाना आये, सब मनुष्य के कानों को खुश कर सके ऐसा कोई राग हो, भाषण हो, उत्तम शरीर मिला हो, उत्तम कुल मिला हो, बल मिला हो, ऐश्वर्य प्रभुता मिली हो उससे जो अहंकार उत्पन्न होता है या अहंकार को उत्पन्न करने वाला जो परिणाम है, उस परिणाम को मद कहते हैं। देखो ना, इस संसार में प्राय: सभी के मद पाया जा रहा है। किसी के कम किसी के ज्यादा, पर घमंड बिना यहाँ कोई जीव नहीं मिलता है। पशु भी घमंड बगराते हैं। एक पशु को दूसरा पशु मिल जाय तो बड़ी ऐंठ करते हैं। एक बैल की अकड़न को देखकर दूसरा पशु भी अकड़ने लगे तो वहीं लड़ाई होने लगती है। बच्चों में भी अहंकार है, मद है। किसी बच्चे को गोद में लिए हुए खड़े हों, खिला पिला रहे हों फिर भी किसी बात की हठ करले तो गोदी से ही कूदने लगता है और रोने लगता ह क्योंकि उसे मालूम है कि हमारी बात नहीं सुनी जा रही है। या उसे गोदी से उतार दो तो रोता है, वह अपमान समझता है कि मुझे नीचे उतार दिया हैं, बहुत से भिखारी लोगों को देखा होगा वे भी अपनी गोष्ठी में कितने घमंड की बातें करते हैं ? तो चतुराई, बल ऐश्वर्य आदिक की महत्ता मानना इन सब बातों में अहंकार पैदा होता है। अहंकार उसे होता है जो बीच की स्थिति का है। सर्वज्ञ को अहंकार नहीं होता। या यों समझ लीजिए कि अधिक बुद्धि वाल को भी अहंकार नहीं होता, यह नियमत: नहीं कह रहे हैं, व्यवहार से कह रहे हैं। अहंकार वहाँ ही पैदा होता है जहाँ कुछ जानने लगे। कुछ समझने लगे किंतु यथार्थ स्पष्ट न जाने तो प्रभु सर्वज्ञ तीन लोक तीन काल के समस्त पदार्थों को एक साथ जानने वाले हैं। उनके ज्ञान में कुछ भी शेष नहीं रहा। उन्हें अहंकार किस बात पर आए ? तो प्रभु के मद नाम का भी दोष नहीं है।प्रभु के रति नामक दोष का अभाव―प्रभु के रति भी नहीं है, इष्ट वस्तुओं से परम प्रीति के उत्पन्न होने को रति कहते हैं। प्रभु सर्वज्ञ के कुछ भी इष्ट या अनिष्ट नहीं है। इस तरह इस गाथा में समस्त दोषों से रहित प्रभु का वर्णन चल रहा है।प्रभु के विस्मय नामक दोष का अभाव―भगवान् के कोई विस्मय नहीं होता, आश्चर्य नहीं होता। आश्चर्य तब हुआ करता है जब अपने समता भाव से च्युत हो जाएँ और बाहर में कहीं अपूर्व पदार्थ दीखे तो उससे आश्चर्य होने लगता है। पर भगवान् तो परम समतारस से पूर्ण हैं। वहाँ रागद्वेष का कोई कार्य ही नहीं है और साथ ही उन्हें कोई चीज अपूर्व नहीं दिखती। जो करोड़ों खरबों वर्ष बाद बात होगी, परिणमन होगा वह उन्हें अभी से ही ज्ञात है। तो आश्चर्य किस बात का होगा ? आश्चर्य होता है अज्ञानी पुरुष को। ज्ञानी पुरुष भी कोई आश्चर्य में नहीं पड़ता। भले ही कदाचित् थोड़ी भनक आए पर उनके आश्चर्य यों किसी बात पर नहीं होता कि वे जानते हैं कि वस्तु का परिणमन इसी तरह हुआ करता है।विस्मय करने की व्यर्थता―भैया ! कौन-सी बात ऐसी है जो ज्ञानी के लिए आश्चर्य के लायक हो ? मान लो बड़े धन का नुकसान हो गया या कुटुंब का बड़ा नुकसान हो गया अथवा कुटुंब के सब लोग गुजर गए, खाली वही एक रह गया तिस पर भी उसे आश्चर्य नहीं होता। वह तो जानता है कि ये सांसारिक विपत्तियाँ आश्चर्य की चीजें नहीं हैं। रोज-रोज जीव मरते हैं, इसमें क्या आश्चर्य है, बल्कि आश्चर्य तो इस बात का है कि जो जिंदा बने हुए हैं, मरने का तो जहाँ चाहे ठिकाना रहा करता है। गर्भ में मर जाय, पैदा होते ही मर जाय, छोटी कुमार अवस्था में मर जाय, रोग से मरे, दंगों से मरे, गुंडों की पीड़ा से मरे, आग में जलकर मरे, कदाचित् छत से ही गिरकर मर जाय, मरने के तो जहाँ चाहे अनेक आश्रय हैं, उसका क्या आश्चर्य ? धन की कमी में विस्मय करने की व्यर्थता―इसी प्रकार धन के नुकसान का भी क्या आश्चर्य ? यह लक्ष्मी जब आती है तब पता ही नहीं पड़ता, जब जहाँ आनी होती है आ जाती है, पता नहीं पड़ता। व्यर्थ ही यह मनुष्य कल्पना करके लक्ष्मी की तृष्णा करता है। उस तृष्णा से क्या लाभ है ? इस तृष्णा का फल तो आकुलता ही है। जिसका जितना उदय है उतना ही प्राप्त होता है। उदय से अधिक किसी को भी नहीं प्राप्त होता है और त्याग करे, उदारता करे तो समझो कि उदय के अनुकूल उसका भरावा हो ही जाता है। उसका क्या आश्चर्य है ? क्या आया, क्या गया, क्या रहा, बड़ा से बड़ा लौकिक नुकसन अचानक हो जाता है। किंतु ज्ञानी को उस पर भी आश्चर्य नहीं होता।पहिले से अजानकारी में विस्मय की संभवता―प्रभु जो विश्व के समस्त पदार्थों को उनके अनंत परिणमनों सहित यथावत् जानते हैं उनको आश्चर्य क्या ? आश्चर्य तो वहाँ होता है जहाँ पूर्व बात ज्ञात न हो व अचानक जानें। जैसे किसी घर में कोई बीमार हो, टी0बी0 हो गई हो, तीन साल से बीमारी चल रही हो और साल भर से तो ऐसा लग रहा था कि यह तो दो ही दिन का मेहमान है। ऐसा तीन साल का रोगी, जिसको दो वर्ष पहिले से ही यह जान रहे थे कि यह मरेगा जल्दी ही और वह मर भी जाय तो उस पर आश्चर्य होता है क्या घर वालों को ? आश्चर्य नहीं होता है क्योंकि पहिले से ही जान रहे थे। और किसी की अचानक ही चलते-चलते मृत्यु हो जाय, हार्टफैल हो जाय तो उस पर आश्चर्य होता है क्योंकि पहिले से जानाबूझा न था, अचानक जानने में आया इसलिए आश्चर्य होता है। भगवान् सर्वज्ञदेव को अचानक कोई कुछ जानने में आए, ऐसा है ही नहीं। जो है वह सब जानने में पहले आता है।छद्मस्थ सम्यग्दृष्टि के भी अजानकारी का अभाव―भैया ! भगवान् की बात तो बड़ी है ही, पर सम्यग्दृष्टि पुरुष भी सब बातें पहिले से जान रहे हैं। भले ही विवरण सहित नहीं जान रहे हें पर जान तो रहे हैं कि सर्वपर्यायें विनाशीक हैं, जितनी भी प्रयोजनभूत बातें हों सब जान लिया। अब उसमें कोई यह कहे कि घसीटेमल के 10 रुपये भी उसने जाने क्या कि जो कि उसकी जेब से निकल जायेंगे ? अरे घसीटे-वसीटे को नहीं जाना, पर यह तो जाना कि संसार ऐसा होता है, पर्याय ऐसे मिटती है, भिन्न वस्तु यों विविक्त होती हैं। ये सब जान गया ज्ञानी जीव। ज्ञानी जीव और सर्वज्ञदेव का ज्ञान पूर्ण है। फर्क इतना है कि सर्वज्ञदेव तो प्रत्येक पर्यायों सहित स्पष्ट जानते हैं और यह ज्ञानी जीव कानून द्वारा सब जान लेता है।आत्महित के प्रयोजन की बात―प्रयोजन की बात इतनी ही तो है कि पुद्गल-पुद्गल हैं, उनका परिणमन उनमें है। जीव जीव हैं, जीव के परिणमन जीव में ही हैं। पुद्गल से जीव का हित व अहित नहीं। जीव से पुद्गल का सुधार व बिगाड़ नहीं। इतना जान लिया तो सब जान लिया। चाहे यहाँ का पुद्गल हो, चाहे अमेरिका का पुद्गल हो, ज्ञान से सब जान लिया। चाहे किसी जगह पुद्गल पड़ा हो, सामान्यतया यह तो जान लिया कि वह अजीव पदार्थ है। इसी तरह सारे विश्व को जान लिया। अब उसे भी आश्चर्य क्या ? जिसे विदित है कि सिनेमाओं में व्यर्थ की चीजें दिखाईजाती हैं–रूप, रंग, मोह, आसक्ति, प्रेम ये बातें दिखाई जाती हैं उसे सिनेमा से अरुचि है और उससे कोई कहे कि चलो जी आज सिनेमा चलें, आज का खेल बहुत बढ़िया है तो वह कहता है कि हमने सब देख लिया, अरे तो कहाँ देखा है, यह तो खेल अभी आया है। तो वह कहता है कि हमने तो सब देख लिया। फिर कहा कि अरे यह तो अभी कल ही भिंड में आया है, इसे कहाँ तुमने देखा है ? तो वह कहता है कि बस हम सब देख चुके हैं। उसमें कुछ पुरुषों की सूरतें होंगी, स्त्रियों की सूरते होंगी, वे परस्पर में वार्तालाप कर रहे होंगे, यह सब मैंने देख लिया। तो यों ही उस ज्ञानी जीव ने विश्व के समस्त द्रव्यों को जान लिया।
केवल ज्ञातृत्व में कुशलता―भैया ! जो जानने तक ही रहता है वह तो समृद्धि में है और जो कुछ राग में पड़ा है सो ही गिरफ्तार होता है। यह सारा संसार अजायबघर है। अजायबघर में दर्शकों को सिर्फ देखने की इजाजत होती है छूने की इजाजत नहीं होती है। अगर कोई छूएगा तो वह गिरफ्तार हो जायेगा। इसी तरह इस विश्व में हम आप सब को केवल देखने तक की इजाजत है। यदि रागद्वेष करेंगे तो गिरफ्तार हो जायेंगे। हम आप गिरफ्तार होते हैं तो स्वयं ही खुशी-खुशी से गिरफ्तार होते हैं। हम आपकी गिरफ्तारी कोई दूसरा नहीं करवा रहा है। जैसे कोई अपराधी विकट फंसाव जानकर खुद ही कचेहरी में हाजिर हो जाय कि मैं ही अपराधी हूँ। कचेहरी जानते हो किसे कहते हैं ? कच मायने बाल, जहाँ बाल साफ कर दिये जाएँ उसका नाम कचेहरी। बाल न रहने दिये जाएँ मायने पैसे का सफाया करा दिया जाय। बाल साफ हो जाने के मायने हैं कि पैसा साफ हो जाता है। तो इसी तरह ये संसार के जीव खुशी-खुशी गिरफ्तार हो रहे हैं। किसी से राग किया, लो गिरफ्तार हो गए, बंधन में आ गए, अपराधी हो गए, सेवा करना होगा, अब उसके लिए वही मात्र एक प्रभु बन गया और कहीं दृष्टि ही नहीं रही। कितना बंधन में आ गया। केवल जानने देखने की इजाजत है, राग करने की इजाजत नहीं है। जो भगवान् के आर्डर का उल्लंघन करेगा उसे गिरफ्तार होना होगा।ज्ञानी की दृष्टि में आकस्मिक घटना का अभाव―जो बात अपूर्व ज्ञात होती है वह विस्मय की बात हुआ करती है। ज्ञानी को तो कुछ भी अपूर्व नहीं लगता है। ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि जो हो सो ही भला। क्यों जी कल रंक हो जाएँ तो क्या यह भी भला ? तुम्हारा तो तुम तुम्हारे ही पास है। उसे तो कोई छीन नहीं सकता। और पहिले भी जब बड़े वैभव का मैल था तब भी अपना ही काम करते थे, पर वस्तु का कुछ भी काम न करते थे। अब भी हम अपना ही काम करते हैं। सब भला ही तो है। और क्यों जी नरक जाना पड़े तो यह भी भला है ? हाँ यह भी भला है। जो खोटे कार्य कमाये थे, पाप कमाये थे उनका निखार तो वहाँ हो जायेगा। तो सर्वत्र ज्ञानी जीव देखता है कि ये सब न्याय के काम हो रहे हैं। अन्याय कहीं नहीं होता है ? किसी भी वस्तु में अन्याय नहीं है। जो जैसा करता है वैसा भरता है।जो होता है उसकी युक्तता―एक राजा और मंत्री जंगल में शिकार खेलने गये सो परस्पर में बातें भी करते जायें। सो मंत्री तो शिकार की रुचि वाला न था, पर राजा के संग में जाना पड़ा। मंत्री की ऐसी आदत थी कि हर बात में वह यही कहे कि बड़ा ही अच्छा हुआ। सो राजा ने वहाँ पूछा कि मंत्री तुम यह बतलाओ कि हमारे हाथ में छ: अंगुली हैं, लोग हमको छंगा छंगा बोलते हैं तो यह कैसा हुआ ? सो मंत्री बोला कि बड़ा अच्छा हुआ। राजा को गुस्सा आया कि एक तो मैं छंगा हूँ, अच्छा नहीं माना जाता और यह कहता है कि अच्छा हुआ। सो मंत्री को कुएँ में ढकेल दिया। अब वह राजा आगे बढ़ गया, सो दूसरे देश में हो रहा था नरमेघ यज्ञ। जहाँ एक अच्छे सुंदर मनुष्य की बलि देने की जरूरत थी। सो वहाँ से चार पंडा छूटे। सो राजा सुंदर तो था ही, उसे पकड़कर ले गए। जब होमने को 10 मिनट बाकी थे तब एक पंडा उसके पास आया। उस पंडे को एक हाथ में 6 अंगुलियाँ दिख गयीं। बोला अरे-अरे यह तो छंगा पुरुष है इसको होमकर यज्ञ क्यों खराब करते हो ? सो दो चार थप्पड़ मारकर राजा को वहाँ से भगा दिया। राजा खुश होकर चला आ रहा था। यह सोचता हुआ कि मंत्री ठीक ही कहता था कि जो हुआ है सो भला। अगर मैं छंगा न होता तो आज अग्नि में होम दिया जाता। तो खुश होता हुआ वह कुएँ के पास आया मंत्री को निकाला। सारा किस्सा कह सुनाया। कहा कि मंत्री तुम ठीक कहते थे कि छंगा हो तो ठीक है। यदि मैं छंगा न होता तो यों फंस गया था। पर मंत्री ! यह तो बताओ कि तुम्हें जो कुएँ में ढकेल दिया, सो कैसा हुआ ? मंत्री कहता है कि यह भी भला हुआ। राजा ने पूछा कैसे ? तो मंत्री ने कहा कि महाराज यदि मैं कुएँ में न गिर गया होता तो तुम्हारे संग में मैं भी पकड़ा जाता, आप तो बच जाते छंगा होने की वजह से और मैं ही आग में होम दिया जाता।अंत भला तो सब भला―भैया ! किस बात को बुरा देखते हो। सभी जगह भला ही भला है। जो होता है सो भला है। वस्तु है, वस्तु का परिणमन है। परिणमन कहाँ रुक जायेगा वह तो होगा ही, जैसा हो तैसा हो। क्या आश्चर्य करना ? असल में पूछो तो जैनधर्म की अगर भक्ति है तो एक निर्णय यह कर लो कि काम तो इतना ही करना है। एक आजीविका चलाना और एक आत्मा का उद्धार करना। इसके अलावा कोई तीसरा भी काम करने को है क्या ? कल्याण की, सुख की, शांति की कोई तीसरी भी बात है क्या ? जब दो बातें हैं तो आजीविका का कर्तव्य तो यों निभाओ कि आजीविका करते हुए में जितनी प्राप्ति होती है उसके ही विभाग बना लो कि इतना खर्च करना है, इतना दान के लिए निकालना है, इतना किसी अवसर के लिए संचय रखना है, उसका हिसाब बना लें और उस बजट में जो बांट में पड़ता हो उसमें गुजारा करें अन्यथा कुछ कर ही नहीं सकते। न वर्तमान में सुख मिलेगा और न उद्धार का काम होगा। अब रही यह बात कि हम थोड़े में कैसे गुजारा करेंगे तो औरों के उदाहरण ले लो–बहुत से लोग ऐसे हैं जो थोड़े में ही गुजारा करते हैं। अजी उनकी चल जाती होगी। हमारी तो समाज में पोजीशन है, बड़ी धाक है। अरे तो समाज के लोग देश के लोग जो संसार के मुसाफिर हैं, मायामय हैं, तुम से अत्यंत भिन्न हैं उनमें तुम अपनी पोजीशन मान रहे हो, यह तो अपराध कर रहे हो और यह जब अपराध कर रहे हो तो दु:खी होना प्राकृतिक बात है।नाम की चाह का महापराध―भैया ! तुम जितना आज चाहते हो उतना भी मिल जाय तो भी सुख नहीं हो सकता, क्योंकि यहाँ तुमने एक जबरदस्त अपराध किया है उस अपराध का दंड तो जीवन भर मिलेगा। क्या अपराध किया है ? यह अपराध किया है कि असार मायामय इस जगत में भ्रम करके अपना नाम रखने का भाव बना रहे हो, यह महान् अपराध करते हुए तुम शांति की आशा रखते हो। तो शांति मिल जाय यह कभी नहीं हो सकता है। भगवान् का हुक्म मानते जाओ तो अशांति की शंका नहीं है। भगवान् का हुक्म है कि तुम सब पदार्थों का प्रयोजनभूत परिचय प्राप्त करो। दूसरा हुक्म यह है कि तुम गृहस्थावस्था में हो तो अपना कर्तव्य निभाओ। दुकान करते हो तो दुकान पर जाओ। समय पर वहाँ बैठो, उद्यम का काम कर लो। कोई सर्विस का काम है तो सर्विस का काम ईमानदारी से कर लो। जो जो भी आपके आजीविका के कार्य हों उन्हें ईमानदारी से डटकर कर लो। अब उसमें ही जो कुछ आय हो उसके विभाग बना लो और अपना गुजारा करो। पैसे की ओर दृष्टि नहीं लगाना है, क्योंकि वह तो आने जाने वाली चीज है, रहने वाली चीज नहीं है। आखिर मरते समय तो छोड़ना ही पड़ेगा।व्यामोह का रंग―एक भैया हमसे कह रहे थे कि ये मोही जीव जिंदा में तो कुछ छोड़ नहीं पाते। जिंदा में तो घर नहीं छोड़ सकते। हाँ जिसका घर छूट जाय वह बात अलग है। कैसे घर छुट गया कि कोई कमायी नहीं रही या घर के लोग गुजर गए, अकेले रह गए, तो वह घर का छूटना नहीं कहलाता। जिंदा में तो कोई घर छोड़ना ही नहीं चाहता। और मरने पर भी कोई घर छोड़ देता है क्या ? मरने पर तो घर में जमकर पड़ा रहता है, फिर तो जरा-सा भी नहीं हिलता। जिंदा में तो घर छोड़कर भिंड से चले भी जाते हैं पर मरने पर घर नहीं छोड़ा जाता है सो अकड़कर पड़ जाते हैं। तब घर वाले लोग उसे बाँधकर जबरदस्ती मरघट में डालकर फूँक आते हैं। यह एक उनकी अलंकार की बात कही जा रही है। ज्ञानी जीव को किस बात पर आश्चर्य है ? है क्या उसके आश्चर्य करने के लायक कोई चीज ? कुछ भी नहीं है। वह तो जानता है कि मेरा मैं हूँ और जो कुछ बीत रहा है उस पर भी समझ उसकी बनी रहती है। उसे किसी बात पर आश्चर्य नहीं है और जो बाहर में बीत रही है उस पर भी उसे कुछ आपत्ति नहीं है। प्रभु में विस्मय नाम का भी दोष नहीं है।प्रभु के जन्म नामक दोष का अभाव―प्रभु के जन्म नाम का भी दोष नहीं है। यह जीव नरक तिर्यंच मनुष्य और देव इन चारों गतियों में जन्म ले लेकर इस विश्व में भटक रहा है। इन गतियों में जन्म क्यों होता है, किन परिणामों से होता है, कैसे होता है ? इस बात को आचार्यों ने स्पष्ट बताया है। तीव्र अशुभ परिणाम हो तो नरक गति में जन्म हो, शुभ परिणाम हो तो देवगति में जन्म हो, मायारूप परिणाम हो तो तिर्यंचगति में जन्म हो और मिलाजुला शुभ अशुभ परिणाम हो तो मनुष्यगति में जन्म हो। और खुलासा सुन लो।नरकगति में जन्म लेने का उपाय―बड़ा आरंभ परिग्रह हो, जिसे कि लोग कहते हैं बिजी है बहुत और ऐसा शब्द कहने में वे महत्त्व भी समझते हैं–अजी मैं बहुत बिजी हूँ। बहुत बिजी हूँ कहो या आरंभ में लगा हूँ कहो, एक ही बात है। जो बहुत आरंभ व परिग्रह में रत है उसको नरक आयु का आश्रव होता है, नरक में जाना पड़ता है। काम सब ढंग से चल रहा है पर एक मिल और खुल जाय, और दसों जगह काम करलें, तो बहुत आरंभपरिग्रहवाला ऐसा व्यक्ति नरक में ही जायेगा।न्यायार्जित वैभव के दान का महत्त्व―कोई यह सोचे कि बहुत धन अगर जोड़ लेंगे तो बहुत दान करेंगे। तो उससे नाम होगा तो कितना ही दान कर लिया जाय पर विश्व में नाम हो ही नहीं सकता। यह तो झूठ बात है कि विश्वभर में नाम होगा। हाँ किसी गाँव में नाम हो गया पर सारे विश्व में नाम नहीं होता। और मरने के बाद यहाँ के नाम लेने वाले क्या मदद कर देंगे ? यह दान की बात तो तब है कि न्याय से काम कर रहे हैं, पुण्य का उदय फूट रहा है, तो क्या करना है ? आवश्यकता से अधिक आ रहा हो, न्याय से रहता हो तो इसको परोपकार में लगाओ, दान करो, परसेवा करो। तो इस धन का कुछ सदुपयोग भी हुआ। और धन का सदुपयोग यह नहीं है कि अनेक प्रकार की माया, अन्याय भाव करके धन इस लिए जोड़ा जाए कि हम खूब दान करेंगे तो हमारा नाम होगा।संचय के पाप की दान से शुद्धि―दान तो पापों का प्रायश्चित्त है। इसके मायने कोई यह न समझ ले कि हम कंजूस हैं, दान नहीं देते तो हम को बड़ा अच्छा कह दिया कि दान है पाप का प्रायश्चित्त। हम तो पाप नहीं कर रहे, फिर हमें दान देने की क्या जरूरत ? अरे सभी पाप कर रहे हैं। अपनी स्वभावदृष्टि से चिगना और पर की ओर लगना यह पाप है कि नहीं अथवा धनसंचय के अनेक जरिये बनाना, हिसाब लिखना और-और बातें ये सब पाप हैं कि नहीं ? पाप हैं। अपने स्वरूप से चिगकर बाहर में लगे तो वहाँ पाप ही है। पाप हमारा कैसे छूटे ? इसका उपाय है दान, त्याग। तो कर्तव्य यह है कि हम न्यायपूर्वक आजीविका करें और वहाँ जो प्राप्त हो उसमें ही भोग के, दान के, संचय के हिस्से बनाएँ और उसके माफिक अपने कार्यों को करें। शेष समय ज्ञानार्जन में, तत्त्वचिंतन में, चर्चा में, परसेवा में व्यतीत करें। और वचनालाप करें तो ऐसा करें कि जिससे दूसरों का हित हो और सबको प्रिय लगे। यही है भगवान् का हुक्म। इसे मानोगे तो सुख रहेगा और इसे न मानोगे तो क्लेश ही रहेंगे।वचनालाप की शुद्धि जीवनसुख का प्रधान कारण―भैया ! जीवन को सुखी करने के लिए यह भी एक बहुत बड़ी बात है कि हमारा वचनालाप विशुद्ध हो। लोग व्यर्थ ही अयोग्य वचनालाप करते हैं तो उससे दुखी होना पड़ता है। दूसरों की दृष्टि से भी वह मनुष्य गिर जाता है जिसका वचनालाप विशुद्ध न हो वह स्वयं भी आपत्तियों में पड़ जाता है। यह मन मिला है, इससे ही अगर सबका भला सोच लें तो हानि ही क्या है ? हमें अगर किसी से कष्ट पहुँचता हो और हम चुपके-चुपके जान रहे हों कि इसने हमें कष्ट पहुँचाया तो आपकी दृष्टि से वह कष्ट देने वाला पुरुष गिर गया। जहाँ आपने अपने भावों को प्रदर्शित कर दिया कि मैं तो इतना स्वच्छ हूँ, दूध को धोया बैठा हूँ और मुझे अमुक ने ऐसा कष्ट दिया, यह बात जब चार लोगों को मालूम पड़ जाती है तब इसके मन में उससे प्रतिक्रिया करने का संकल्प हो जाता है। अमुक ने कष्ट दिया ऐसा हम ही जान रहे हैं, दूसरे नहीं जान रहे हैं, चलो क्या बिगाड़ हुआ ? अपना मन अपने पास है, थोड़े समय को तो अपना शुद्ध विचार बनाकर अज्ञानजन्य दु:ख को दूर कर लो, शांति में आ जाओ और जिसके निमित्त से आज कष्ट हुआ है उससे भला बोल लो। बुरा मत बोलो। उसका विचार बदल जायेगा। फिर तुम्हारे कष्ट करने का निमित्त भी न बनेगा। गुपचुप अपने आपमें शुद्ध विचार बनाकर विवेक का काम कर लो। वचनालाप हमारा विशुद्ध हो तो कहीं भी आपत्ति नहीं है।विपरीतवृत्तियों में माध्यस्थभाव―अब रही अपनी बात कि जहाँ दूसरे लोग विपरीत हों उनसे न राग करो न द्वेष करो, उनसे समता कर लो। बड़े आदमी अब भी ऐसे हैं और पुराने होते थे कि रास्ते में चले जा रहे हैं, किसी गुंडे ने अपमानभरी बात बोल दी तो सेठजी इस ढंग से चले जायेंगे कि मानो दुर्वचन कहने वाले की बात को उन्होंने सुना ही नहीं। ऐसे-ऐसे विवेकी पुरुष होते थे। यदि किसी के द्वारा अपने को कष्ट पहुँचे तो उसका प्रथम उपाय है कि यह प्रदर्शित न करो कि मुझमें अमुक के द्वारा यह कष्ट पहुँचा। यह उससे बचने के उपाय का सबसे पहला उपाय है और उसके बाद थोड़ी देर में अपने में ज्ञान जगाओ कि यह तो दुनिया है, अज्ञानीजन हैं, कषाय भरे प्राणी हैं, उनका ऐसा ही परिणमन होता है। उन बेचारों का क्या दोष है ? कर्म के प्रेरे हैं अपने में बुरे भाव न लाएं और अपने दु:ख को अपने ज्ञानजल से धो डालें। जहाँ तक हो सके प्रिय वचन बोल लो, आगे फिर कोई आपत्ति न रहेगी। अपना लोटा छान लें, अपने को क्या करना है ? ऐसा निर्णय करके न्यायनीति से रहें इसमें भलाई है। ज्ञान करो और ज्ञानप्रकाश बढ़ाकर अपना कल्याण करो।चारों गतियों, जन्म के कारणों का संक्षेप में वर्णन―केवल अशुभ कर्म ही कोई करे याने बहुत आरंभ करे, बहुत मूर्छा रखे और खूब लेश्या के परिणाम रखे ऐसे परिणामों से नरकगति में जन्म होता है और शुभ परिणाम ही केवल हों, दान, पूजा, शील, उपवास हो तो इस शुभ परिणाम के निमित्त से ऐसे पुण्य का बंध होता है जिसके विपाक में देवगति में जन्म होता है। मायाचार का परिणाम रखे, छल, कपट, धोखा करे तो तिर्यंच गति में उसका जन्म होता है, और मध्यम परिणाम रहे, कुछ शुभ हो, कुछ अशुभ हो तो उन परिणामों के फल में मनुष्यगति में जन्म होता है। ये चारोंगतियों के जन्म हेय हैं। ये दोष प्रभु अरहंत देव में नहीं होते, परमात्मा में नहीं होते।प्रभु के निद्रा नामक दोष का अभाव―एक निद्रा का दोष है। निद्रा ऐसी अवस्था है कि जहाँ बेहोश हो जाते हैं। यह नींद भी दोष है। जागृत दशा की अपेक्षा निद्रा में पापकर्म का बंध अधिक होता है और रात की अपेक्षा दिन में नींद ले तो उसमें विशेष बंध कहा है। तो यह निद्रा नाम का दोष भी परमात्मा में नहीं है।प्रभु के उद्वेग नामक दोष का अभाव―उद्वेग इष्ट का वियोग हो जाय तब विक्लव प्राप्त होता है उसे उद्वेग कहते हैं। सभी जानते हैं, इष्ट चीज न मिले तो उसको कितना उद्वेग हो जाता है। अन्याय करके, चोरी डकैती करके जो चीज मिल सकती है ऐसी कल्पना की बात आ जाय और फिर न मिले तो उसमें भी बड़ा विक्लव होता है। और न्याय से किसी भी प्रकार जो इष्ट मिल सकता है, जिसमें इष्टपने की कल्पना करली गयी, वह न मिले तो उद्वेग होता है। सबसे अधिक विपत्ति जीव पर इच्छा की ही तो है और कोई विपत्ति ही नहीं है। इच्छा है उससे ऐसा प्रसंग उसे अनिष्ट लगता है जहाँ इच्छा का विघात होता है और दु:खी होता है। विश्व में खूब निगाह डाल लो।तृष्णा से वर्तमान समागम के आराम का भी उच्छेद―इच्छा और तृष्णा के होने से उन करोड़ों पुरुषों पर दृष्टि नहीं पहुँचती कि जिनसे हम अच्छे हैं, किंतु जिनसे होड़ लगाते हैं ऐसे बड़ों पर दृष्टि होती है। कोई लखपति आदमी है। एक हजार का टोटा पड़ जाय तो 99 हजार अभी उसके पास हैं मगर वह दु:खी रहता है। उसकी उस एक हजार पर ही दृष्टि है। वह 99 हजार का सुख भी नहीं भोग सकता है। और कोई पुरुष जो रोज मजदूरी करता है, खोमचा लगाता है, उसका किसी तरह एक हजार रुपया जुड़ जाय तो वह सुख मानता है। और जिसके 99 हजार रखे हैं वह दु:खी है। जो पास में है उसका भी सुख वह नहीं भोग सकता। यह हाल है इच्छा और तृष्णा के संबंध से।इष्टवियोग होने पर कल्पना की दौड़ में विडंबना―इष्ट का वियोग होने पर जो विक्लवता होती है उसे उद्वेग कहते हैं। कभी लाख दो लाख का जब टोटा पड़ जाता है तो सेठजी कोमल गद्दे पर पड़े-पड़े करवटें बदलते हैं, चैन नहीं पड़ती है। डॉक्टर आते हैं, नाड़ी देखते हैं, इंजेक्शन लगाते हैं पर वह कैसे ठीक हों ? उनके तो हजार दो हजार के टोटे की बीमारी लग गयी है। कैसे मिटे उस समय की विक्लवता? यदि वह विक्लवता दूर हो जाय तो अभी बीमारी मिट जाय। ज्ञानदृष्टि यदि जगे कि क्या है ? यह एक अकेला ही तो था। अकेला ही रहेगा। इसका संसार में यही मात्र है। इसका वैभव यही मात्र है। इस मुझको तो इस लोक में कोई पहिचानने वाला भी नहीं है। किसको क्या दिखाना है ? किसे क्या करना है ? ज्ञान जगे और समझें कि दुर्लभ नरकाय मिली है तो एक आत्मदर्शन के लिए मिली है और बातें बेकार हैं। आता है, जाता है, रहा तो क्या, न रहा तो क्या ? तब कहीं शांति मिल सकेगी।कल्पित हानि लाभ में कल्पित हर्षविषाद―घर में 50-100 तोला सोना रखा है, पहिनने के गहने हैं, उन्हें कभी बेचना नहीं है, पहिनने की चीजें हैं पर भाव में घटाबढ़ी हो जाय तो अपने को गरीब या धनी मानने लगते हैं। कहीं 150 का भाव हो गया तो खुश हो रहे हैं और यदि भाव गिरकर 90 रुपये में रह गया तो दु:खी हो रहे हैं, हाय मैं तो लुट गया। तो बेचैन हो रहे हैं। अरे उसमें क्या कम हो गया या क्या बढ़ गया, उसे तो कभी बेचना नहीं है, पहिनने की चीजें हैं। तो ऐसे जो विक्लव भाव होते हैं उसे उद्वेग कहते हैं। इन सर्वदोषों से प्रभु का आत्मा अलग हो गया है, इन समस्त दोषों से मुक्त यह वीतराग सर्वज्ञ हैं।दोष और ऐंठ की दोस्ती―अब देख भैया ! ऐसे दोषों से अपन भरे हुए हैं और ऐंठ बगरा रहे हैं सारी दुनिया की। तनिक-तनिक सी बातों में लड़ाई हो जाय, अभिमान से भरे हुए दुनिया भर की ऐंठ बगरा रहे हैं। हम आप सभी दोषों से भरे हुए हैं। कोई एक दोष हो तो उसके दूर करने का यत्न करें। सर्वत्र दोष ही दोष भरे हैं। दोषों का ही संसार है। यहाँ किस बात का अभिमान करना ? किस पर पक्ष, किसका विरोध, किस पर अन्याय ? जरा ज्ञानदृष्टि जगाओ, सर्व जीव एक स्वरूप हैं। जैसे धर्म के नाम पर बोल लें तो यह है सामायिक आदिक में एकेंद्रिय जीव क्षमा करें, दो इंद्रिय जीव क्षमा करें, सब जीव क्षमा करें, किसी को भी मुझसे बाधा न हो–इस तरह समता का पाठ पढ़ गए कि सब जीव एक समान हैं, पर इतनी भी गम न खायेंगे कि चलो जितने जो भी धर्म को पालने वाले हैं वे सब तो एक समान हैं। जो धर्म को मानते हैं उन सबमें तो कोई अंतर नहीं है। वे धर्म के नाते से तो सब एक ही हैं। सो एक बात नहीं अनेक बातें भरी पड़ी हैं जिससे सन्मार्ग नहीं मिल पाता। जब धर्म को धारण करें, पालन करें उस समय अपने को ऐसा बनाना चाहिए कि मेरे लिए सर्व जीव एक स्वरूप हैं।प्रभुदर्शन में राग को ओट की बाधा―भैया ! तिलकी ओट पहाड़ ढकता है। तिल छोटा होता है और पहाड़ बड़ा होता है पर आँख के आगे तिलकी ओट आ जाय तो सारा पहाड़ ढक जाता है। इसी तरह किसी भी प्रकार का राग हो तो उस राग से यह परमात्मा ढक जाता है। दृष्टि में न आयेगा। कोई कहे कि हमने तो सब राग छोड़ दिये, सिर्फ स्त्री भर का राग है या एक पुत्र का राग है, और कोई राग नहीं है। तो वहाँ यह हिसाब नहीं बैठता कि सर्वजीवों का राग नहीं है तो थोड़ा सम्यग्ज्ञान तो हो जाने दो। एक का राग रह गया, एक ही जीव में तो उसकी विपरीत श्रद्धा है बाकी जीवों को पर मानता है सो ऐसा नहीं होता है कि तिल की ओट पहाड़ न ढके।प्रगति में दया का महत्त्व―धर्म तो वहाँ होता है जहाँ दया होती है। स्व दया और पर दया। स्वदया निश्चयरूप है, परदया व्यवहाररूप है। परदया की परदया में भी निश्चयधर्म का संबंध है, और निश्चयधर्म के रहते हुए परदया की योग्यता है। संबंध है इसलिए अपना जीवन, अपनी दयारूप भी बने पर की दयारूप भी बने ये सब करने की बातें हैं। अपने आपको थोड़ा कष्ट हो इसको स्वीकार करलें, पर जीवों के लिए हम कुछ काम आएं, उनको शांति संतोष से मार्ग के लिए कुछ काम आएं–ऐसी भावना रखनी चाहिए। कारण यह है कि हम आपकी विजय केवल भावों से है, परिणामों से है। जैसे पशु-पक्षी ये सब अकेले विचरते हैं। इसी तरह हम आप भी अपने आपमें केवल अकेले विचरते हैं। यहाँ भी अकेले हैं और कोई नहीं है। तब उत्कर्ष के लिए उन्नति के लिए अपने आपके भावों की सावधानी होना यही एक खास उपयोग है। यह तो है एक धर्म का प्रायोगिकरूप, जिसके प्रसाद से हम मार्ग में अपनी प्रगति कर सकते हैं और जिसका प्रारंभ भी यहीं से होता है। दयाहीन पुरुष व्रत भी करें, तपस्या भी करें तो भी उनकी खोटी ही गति होती है।निर्दय हृदय में व्रत का अप्रवेश―छुआछूत बहुत करलें, अपने सारे टाइमों को निभाने की बड़ी फिकर रखें पर दूसरे धर्मात्मा की करुणा भी न रखें? हमने तो एक घटना सुनी है कि एक साधु महाराज बीमार हो गए, उनको कै होने लगी, विकल्प होने लगा और संग में रहने वाले जो ब्रह्मचारी थे वे उनको न छूवें। तो एक गृहस्थ ने आकर सब सेवा की और पूछा कि ब्रह्मचारी जी तुम तो इनके साथ रहते हो, कम से कम पीठ में, सिर में हाथ फेर देते, तो कहते हैं कि हमारे सामायिक का टाइम हो रहा था, यदि छू लेते तो फिर सामायिक करने के लिए स्नान करना पड़ता। तो भाई सामायिक का टाइम निभा लो, ठीक है, पर जहाँ चित्त में दयाभाव नहीं है, कठोरता बढ़ती जा रही है वहाँ सामायिक विराजेगी कहाँ ? और सामायिक यह नहीं देखती कि त्यागीजी सिर से पैर तक अच्छे धोये बैठे हैं, देवता से बैठ जायें, तो वहाँ सामायिक आकर विराजेगी, ऐसा नहीं है।निर्मोह उपयोग में धर्म का आवास―एक बुंदेलखंड का किस्सा है कि एक स्त्री के बच्चा हुआ और बच्चा होते ही त्री की तबियत बहुत खराब हो गयी। सो दो ही दिन के बाद वह मरणहार हो गयी। सो पति आया और त्री के समीप खड़ा होकर जरा-सा रोने लगा। तो त्री कहती है कि अरे तुम काहे को रोते हो। हमारे मरने के बाद तुम्हारी और शादी हो जायेगी। रोवें तो ये जो दो तीन बच्चे हैं वे रोवें, पता नहीं इनका अब क्या हाल होगा ? उसे अनुराग विशेष हुआ तो प्रतिज्ञा भी कि अच्छा हम नियम लेते हैं कि दूसरी शादी न करेंगे। त्री बोली कि यहाँ तो हम हैं तुम हो और भगवान् हैं, और कोई तो साक्षी नहीं है। तुम्हारी प्रतिज्ञा अडिग है ना। पुरुष बोला कि अडिग है अब तुम क्या चाहती हो, जो चाहो सो हम करने को तैयार हैं। तो त्री बोली कि अब तो यही इच्छा है कि यहाँ से तुम चले जाओ, मैं समाधिपूर्वक मरण करूँगी। हमारे सामने न आना। वह पुरुष चला गया। उस त्री ने समाधिपूर्वक मरण किया। बच्चा पैदा होने के 2 दिन बाद तक बाह्य में कुछ पवित्रता नहीं रहती होगी, मगर उसी हालत में वह ध्यान लगाकर बैठ गयी, मन में णमोकार मंत्र का जाप किया, अन्य जगजाल को त्याग दिया और प्राण छोड़ दिया। कोई कहे कि समाधिमरण कैसे हुआ, चार पाँच दिन हो जायें बच्चा पैदा होने के, तब समाधिमरण हो। अरे तो क्या समाधिमरण यह देखता है कि अभी चार पाँच दिन हो जाने दें। वह तो अपने अंतरंग में पवित्रता लाकर अपने आत्मा में समा जाने की बात है। पर जो कर्तव्य है वह तो अपने अवसर में किया ही जाना चाहिए।दयाशून्य जीवन अवनति का स्रोत―जिसका हृदय दया से शून्य है वह बड़ा व्रत करे, तप करे, संयम करे पर यदि परसेवा का भाव नहीं बन सकता, अपने ही मतलब की फिकर में रहे जाय, अपने-अपने आराम की धुनि लगी हो, हमारे ख्याल से वह तो त्यागी नहीं, व्रती नहीं, संयमी नहीं। हाँ कोई मंदकषायी हो कि अपनी भी परवाह न हो, अपनी भी गरज न रहे, ऐसी हालत में परसेवा न रहे तो दोष नहीं। पर जहाँ खुदगर्जी का पूरा प्रोग्राम रहता हो, विषयसाधन का, अपने खानपान का और पर के संबंध में दया न आती हो, सेवा न की जा सकती हो तो समझना चाहिए कि अभी योग्यता इसकी उचित नहीं हुई। यह बात दूसरी है कि नहीं है कषाय इस योग्य, तो जिस योग्य हो उस योग्य बर्ताव करे। पर कोई धर्मकार्य सामने आए, कोई धार्मिक पुरुष हो, उसकी सेवा न करके केवल अपनी धुन में मानी हुई बातों में लगे रहें तो उसमें अंतर की प्रगति नहीं है।स्वदया का सुफल―स्वदया के बिना तो धर्म में प्रारंभ ही नहीं है। अपने आपके सहजस्वरूप का जब तक परिचय नहीं है तो शांति कहाँ पावोगे ? किसमें लेना है शांति, किसको देना है शांति ? उसका ही पता न रहे और चिल्लाते रहें शांति शांति, तो वह शांति कहाँ विराजेगी ? जैसे किसी ने किसी बच्चे को बहका दिया कि देख तेरा कान कौवा लिये जा रहा है, लो अब वह कौवे के पीछे दौड़ लगाये जा रहा है। अरे बच्चे तू कहाँ दौड़ा जा रहा है ? तो बच्चा कहता है कि बोलो नहीं। हमारा कान कौवा लिए जा रहा है। अरे पहिले अपने कान टटोल तो ले। कान टटोला तो देखा कि अरे कान तो यहीं है, कौवा नहीं लिए जा रहा है। इसी प्रकार शांति के लिए लोग बाहर-बाहर दौड़ते भागते रहते हैं–यहाँ शांति मिलेगी, वहाँ शांति मिलेगी, तीर्थ में शांति मिलेगी, वंदना में शांति मिलेगी, इस तरह से उस शांति की खोज में बाहर-बाहर दौड़ते रहते हैं, कोई ज्ञानी पुरुष कहता है कि अरे सुनो तो सही शांति किसका नाम है और किसको देना है, उस स्थान को तो पहिले टटोल लो। शांति तो आत्मा का सहजस्वरूप है।तुच्छ लाभ के मोह में बड़ी निधि का अलाभ―भैया ! जिसे इस सहजस्वरूप का परिचय हुआ उसे शांति का मार्ग शीघ्र मिल सकता है। तो क्या उद्यम करना होगा ? इन विषयवांछाओं को दूर करना होगा। जैसे किसी करोड़पति सेठ के नाबालिक लड़के की जायदाद गवर्नमेन्ट ने कोर्ट ऑफ वार्ड कर लिया है और उसके एवज में 1000 रुपये महीना बाँध दिया है। अब वह बालक सरकार के गुण गाता है। देखो कैसा घर बैठे सरकार 1000 रुपये महीना देती है। जब वह बालक 20 वर्ष का हो गया तब सरकार को नोटिस देता है कि हमें तुमसे 1000 रुपया मासिक न चाहिये। हमारी जो जायदाद कोर्ट ऑफ वार्ड कर ली गई है उसे वापिस कर दिया जाय, क्योंकि अब हम बालिग हो गए हैं और ऐसा न करे, 1000 रुपये मासिक का ही आदर रखे तो उसको उसकी करोड़ों की जायदाद कहाँ से मिले ? विषयसुख के लोभ में सहजानंद का अलाभ―इसी प्रकार इस अनंत आनंद की निधि इन कर्मों ने (निमित्त दृष्टि से) जप्त कर ली है और कर्मों ने विषय-सुख का प्रलोभन दे दिया है, जो खर्च है वह इंद्रियों के विषयसुखों का है। सो विषय सुख का प्रलोभन मिला, तो यह नाबालिग मिथ्यादृष्टि कर्मों के गुण गाता है, खूब साधन मिले हैं, खूब विषय भोग मिले हैं। और जिस दिन यह बालिग बन जाता है, ज्ञानी बन जाता है सो पुण्य सरकार को नोटिस दे देता है कि हमें ये विषयों के सुख नहीं चाहियें। अब मैं बालिग हो गया हूँ। मुझे तो मेरा ज्ञानानंदस्वरूप चाहिए। वह यदि विषयसुखों के प्रलोभन में ही रह जाय तो अनंत आनंद फिर कैसे मिल सकता है ? सो इन विषयसुखों को दूर किया जायेगा तब अनंत आनंद प्राप्त होगा। इन्हीं पुरुषार्थों के बल से जो परमात्मा हुए हैं उनके अंतर में ये 18 प्रकार के दोष नहीं हैं।आप्त की भक्ति कृतज्ञता की प्रेरणा―जिसमें एक भी दोष न हो और ज्ञानानंदस्वरूप का चरम विकास हुआ हो वही हमारा देव है। जिस आत्मा में दोष एक भी न रहा हो उसके ही गुणों का चरम विकास होता है, वही हमारा देव है, उसकी ही मात्र भक्ति हो। आप्त ने हमारा बड़ा उपकार किया। क्या ? हमें मालूम पड़ गया कि हमारा इष्ट स्वात्मगुणोपलब्धि है। यही सिद्ध है, यही निर्वाण है। ज्ञानानंद स्वरूप का लक्ष्य ही हमारा इष्ट है और इस इष्ट के प्राप्त करने का उपाय है सम्यग्ज्ञान। और सम्यग्ज्ञान मिलता है सत् शात्रों से और इन शात्रों की उत्पत्ति होती है आप्त भगवान् से। इस कारण ये आप्त भगवान् मेरे परम उपकारी हैं। जो सज्जन होते हैं, साधु पुरुष होते हैं वे किए गये उपकार को कभी नहीं भूलते। मेरा महान् उपकार हुआ परमआप्तदेव की कृपा से, इस कारण हे प्रभु ! तुम्हारे गुणों की भक्ति मेरे हृदय में विराजे, जिसके प्रसाद से हम अपने धर्म में आगे प्रगति कर सकते हैं।जिस आप्त की श्रद्धा से सम्यक्त्व उत्पन्न होता है उस आप्त के विवरण में अभी यह बताया गया है कि जिसमें 18 प्रकार के दोष नहीं होते हैं वे आप्तदेव हैं। ये भगवान् शत इंद्रकर पूज्य हैं। जिनके ज्ञान का राज्य समस्त लोक अलोक में फैला हुआ है, जिसके चार घातिया कर्म विनष्ट हो गए हैं, ऐसे ये आप्त भगवान् हम सबके उपकार के मूल कारण हैं। ऐसा आप्तदेव के संबंध में और विशेष वर्णन करने के लिए कहते हैं।