पंचास्तिकाय - गाथा 103: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
एवं पवयणसार पंचत्थियसंगहं वियाणित्ता ।
जो मुयदि रागदोसे सो गाहदि दुक्खपरिमोक्खं ।।103।।
शास्त्रपरिज्ञान का लाभ―पंच अस्तिकायों का वर्णन करने के बाद आचार्यदेव यह बतला रहे हैं कि जिसमें 5 अस्तिकायों का संग्रह है ऐसे प्रवचनों के इस सारभूत निबंध को जानकर के जो पुरुष राग और द्वेष को दूर करता है वह दुःख से छुटकारा पा लेता है । पाँच अस्तिकायों के अलावा और कुछ भी प्रतिपादित न होकर शास्त्रों में षट्द्रव्यों से अतिरिक्त और किसका वर्णन मिलेगा? कुछ अन्य है ही नहीं । तो यह पंचास्तिकाय का जो संग्रह है यह भी प्रवचनों का सार है । प्रवचन नाम आगम का भी है, परमागम का सारभूत यह कथन है । जो पुरुष इस ग्रंथ को लिखे हुए शब्दों के अर्थ को अर्थरूप से जानकर अपने आप में घटित करता हुआ इस उपदेश में जो अभीष्ट प्रयोजन है उसको चाहता हुआ समझकर जो अपने स्वभाव का निश्चय करेगा वह पुरुष दुःखों से छुटकारा पा लेता है ।
संसार के दुःख और उनके शमन का अधिकार―संसार में दुःख इस प्रकार है जैसे अग्नि से उबलता हुआ जल हो । जैसे अग्नि से उबलता हुआ जल खलबलाया करता है, वह अपने में स्थित रह नहीं पाता है और ऐसा भी नहीं है कि अपने से अलग कहीं बाहर में जल स्थित हो जाता हो । न अपने में स्थित है, न बाहर स्थित है, किंतु दुःस्थ है, अपने ही अगल-बगल खलबलाता रहता है । ऐसे ही इस संसार के दुःख जब इस जीव पर आते हैं तो इस जीव का यह परिणमन न अपने में स्थित है, न किसी बाहर में चला गया, किंतु अपने आपके प्रदेशों में खलबल करता हुआ यह बना रहता है । ऐसे दुःख से भी छुटकारा वह पुरुष पा लेता है जो निजस्वभाव को भली प्रकार जानकर उस अपने स्वभाव को ग्रहण करता है ।
संतापशमन का उपाय―देखिये अग्नि से खूब जाज्वल्यमान (जलते हुए) उस जल को शीतल करने का हम आप क्या उपाय करते हैं कि जो आग लगी है उसे अलग कर दें और नई आग उसमें न डालें तो वह अत्यंत उबलता हुआ पानी शीतल हो जाता है । ऐसे ही इस संसार अवस्था में हम दुःख से उबल रहे हैं । इस दुःख को शमन करना है तो यही उपाय करना होता है कि पहिले के बंध तो अलग कर दें और नवीन बंध इसमें डालें नहीं तो यह दुःख शांत हो जायेगा । जितने भी बंधन हैं वे स्नेह से हैं । किसी भी परद्रव्य से स्नेह न हो तो वहाँ कोई बंधन ही अनुभव में नहीं आता । गाय बछिया से बंधी है, बछिया गाय से बँधी है, गाय से मालिक बँधा है यह परस्पर का बंधन स्नेह से है । यह तो एक जो प्रकट व्यवहार में समझ में आ रहा है, उसकी बात है । यह जीवास्तिकाय में जो स्नेहभाव उत्पन्न होता है उसका निमित्त पाकर नवीन कर्म बंधन को प्राप्त होते हैं । यह सर्व स्नेह का बंधन है । यदि पूर्व बंध को दूर करना है, भावी बंध को आने नहीं देना है तो यह कर्तव्य होगा कि अपने को स्नेहरहित बनावें ।
संतापशमन―जैसे जघन्य स्निग्ध गुण के अभिमुख जो परमाणु है उस परमाणु का बंधन नहीं होता, ऐसे ही स्नेह जीर्ण शीर्ण हो जाये तो उस जीव का भी बंधन न होगा ।यह बंधन कैसे दूर हो, उसका उपाय यही है कि रागद्वेष की परिणति का विनाश किया जाये ।यह रागद्वेष परिणति कर्मबंध की संतति को बढ़ाने वाली है । जो पुरुष इस रागद्वेष परिणति को शिथिल करता है उसका वह स्नेह जिसे चिकनाई कहो, लेश्या कहो, जीर्ण शीर्ण हो जाती है, और यह चिकनाई जब दूर हो गई तो जैसे जघन्यगुण की चिकनाई वाले परमाणु का बंध नहीं होता ऐसे ही इस जीर्ण स्नेह वाले आत्मा का बंधन न होगा । जब बंधन न होगा अर्थात् पूर्व बंध तो मिट जाये और भावी बंध न आये तो इसका दुःख छूट जायेगा । जैसे कि नई आग न लगाये, पुरानी आग दूर कर दे तो वह खलबलाहट वह संतप्तता दूर हो जाती है ।
हितप्रयोग की आवश्यकता―हाँ लो देखो भैया! सबसे बड़ा कठिन काम तो यही है ना कि रागद्वेष की वृत्ति को दूर कर दें । उसका उपाय क्या है? दो पहलवान थे, एक था तगड़ा और एक था अत्यंत कमजोर । और वह हँसी मजाक करने वाला था । किसी प्रसंग में तगड़े पहलवान ने कहा कि हम से कोई भी लड़ सकता है । तो वह कमजोर पहलवान बोला कि हम तुम से लड़ेंगे, तुम्हें तो हम खड़े होते ही होते पछार देंगे, मगर शर्त एक यह है कि जब तुम हमारे पास आना तो गिर जाना । अरे फिर पछारना ही क्या है? यही तो एक कठिन काम है । यह काम कैसे बने? उसका उपाय क्या है? उसका उपाय यह है कि तत्काल जो कुछ भी गुजर रहा हो उस प्रसंग में अपनी विवेक ज्योति को जगा लें, विकसित कर लें । अर्थात् अपने वर्तमान काल में जो विभावपरिणमन होते हैं उन विभावपरिणमनों से भिन्न अनादिनिधन शुद्धज्ञायक स्वरूप यह मैं आत्मतत्त्व हूं―इस प्रकार इन विभावपरिणमनों से अपने आत्मा को जुदा प्रतीति में ले लें, यही है रागद्वेष परिणति के मिटाने का उपाय । यह बात केवल बात में रहे तो रागद्वेष परिणति नहीं मिटती । यह मर्म प्रयोगरूप में आये तो रागद्वेष की परिणति मिटती है । यह काम प्रयोगसाध्य हुआ करता है ।
दृष्टांतपूर्वक हितप्रयोग की आवश्यकता का समर्थन―बच्चों को तैरने की कला पुस्तकों से सिखा देने के बाद भी उन्हें नदी में कूदने को कह दिया जाये तो कूदकर वे तैर नहीं सकते ।भले ही उन्होंने वचनों से तैरना खूब सीखा है किंतु तैरना तो प्रयोगसाध्य बात है । इस ही प्रकार अपने आपके संबंध में जो भी उपदेश मिले हैं उन्हें केवल बातों तक ही रक्खे तो वह अनुभूति नहीं जगती । अनुभूति तो प्रयोगसाध्य बात है । ज्ञान और ज्ञान की दृढ़ता, ज्ञान की स्थिरता यही तो एक प्रयोग है । जो पुरुष सर्वप्रयत्नों से अपने शुद्ध अंतस्तत्त्व को दृष्टि में रखते हैं वे पुरुष रागद्वेष की परिणति का विनाश करते हैं ।
कष्ट में साहस―और भी देखो, जिसे अपने पर बुखार गुजर जाये तो उस छाये हुए बुखार में यह रोगी अपने में कैसी हिम्मत बनाता है? दूसरे लोग देखकर घबड़ा जायें, बड़ा कठिन बुखार है, पर जिस पर गुजरती है वह अपना अंत:साहस बनाये है सहने का, क्योंकि खुद पर गुजर रही है ना । केवल मालूम कर ले यह कि मुझ को अब बड़ा तीव्र बुखार होगा और अब यह टाइफाइड बन जायेगा तो उसको कितनी घबड़ाहट होती है और जब रोग आ जाये तो उसको सहने की शक्ति उसमें आ जाती है । जो भी कष्ट आयें उसे बराबर सहे, लंघन किये पड़ा रहे, ये सब बातें उसके लिए आसान हो जाती हैं । हम पर आ रहे हैं ये रागद्वेष विभावपरिणमन, अनुभूत हो रहे हैं, पर उनको ही तो देख-देखकर हमें उनसे न्यारा होकर अपने आत्मतत्त्व के देखने का साहस बनाना है, न कि उन विभावपरिणमनों से पीड़ित होकर कायर बने रहना है । यह बात तो अब तक बनी ही रही तभी तो अनादि से अब तक यह संसार चला आ रहा है ।
भेदविज्ञान का प्रयोग―ये विकार जो मुझ में अनुभूयमान हो रहे हैं ये कर्मबंधों की संतति से हुए हैं । ये नये-नये आते हैं । जैसे बीजारोपण होता है । नये-नये वृक्ष लगाये जा रहे हैं, ऐसे ही नये-नये विकार वृक्ष इसमें लगाये जा रहे हैं । यह कर्मबंधसंतति अनादिकाल के रागद्वेष परिणामों के कारण हुई है । और इस विभाव में, कर्मबंधन में यह अनादि संतति, परस्पर का निमित्तनैमित्तिक भाव, कार्यकारणभाव यह चल रहा है । उससे जो यहाँ यह विकार रोपण हुआ है इन विकारों को ही दृष्टि में रखकर ये मैं नहीं हूँ, मैं इनसे भिन्न शाश्वत चित्स्वरूप पदार्थ हूँ, इस प्रकार अपने को इस वर्तमान काल में अनुभूयमान विभावों से न्यारा जो अपने को निरखेगा वही इन रागद्वेषों का विनाश कर सकेगा ।
कल्याणमय पुरुषार्थ―सब पुरुषार्थों में एक निचोड़रूप सार पुरुषार्थ यह है कि वर्तमान विभावपरिणामों से न्यारे अपने आपके उस चैतन्यस्वरूप की प्रतीति बनाये रहना । इस पुरुषार्थ में सब तत्त्व आ जाते हैं । सब तत्वों का जो प्रयोजन है वह प्रयोजन आ जाता है ।प्रतिक्रमण और प्रायश्चित इस ही एक वर्तमान के उपाय से गर्भित है । जब वर्तमान में आये हुए विकारों से भिन्न अपने धाम में हम पहुंचते हैं उपयोग द्वारा तो इसका अर्थ यही हुआ ना कि पूर्व काल में जो कर्मबंधन किया था वह कर्मबंधन अब निष्फल हो रहा है । इसका अर्थ यही हुआ ना कि भावीकाल में हम पीड़ित हो सकते थे, ऐसा कर्मबंध होने का था वह अब नहीं हो रहा है । एक मात्र पुरुषार्थ शांति के लिए हम आपको यह करना है ।
स्वरूपनिर्णय में उत्थान―उत्थान की बातें तभी बनती हैं जब हम अपने को ऐसा निश्चय कर लें कि हम स्वरूप से अत्यंत विशुद्ध चैतन्यस्वभावी सत् हैं । केवल एक चेतना का ही कार्य करने वाला यह मैं एक आत्मा परमात्मतत्व हूँ, ऐसा अपने स्वभाव में निश्चय हो तो ये सब बातें फिर बनने लगती हैं और इस विधि से यह जीव दुःखों से छूट जाता है । मैं चैतन्यस्वभावी हूँ, यह निश्चय भी कहीं अन्यत्र नहीं करना है, अपने आप में निश्चय करना है और वह अपने आप में इस निज जीवास्तिकाय के अंतर्गत है । देखिये निज की बात भेदरूप से कही जा रही है । द्रव्य,क्षेत्र, काल, भाव के भेद की दृष्टि से यह मैं भी अपने उपयोग में विभिन्न जंचने गता हूँ और तब फिर यह षट्कारक प्रक्रिया चलने लगती है ।
पदार्थ, अस्तिकाय, द्रव्य व तत्त्व के विश्लेषण में दृष्टांत―सिद्धांत ग्रंथों में अपने आत्मा के संबंध में दो चार जगह बताया है जीवद्रव्य, जीवास्तिकाय, जीव पदार्थ और जीवतत्त्व जीव हैं ये चारों, फिर इनके साथ पदार्थ द्रव्य तत्व अस्तिकाय ये जुदे-जुदे बोलने की क्या जरूरत है? बात यह है कि हम किसी भी पदार्थ को निरखते हैं तो चार दृष्टियों से निरखा करते हैं―द्रव्य,क्षेत्र, काल, भाव । यह चौकी है तो जब इस पिंडदृष्टि से निहारते हैं तो यह चौकी पिंडात्मक नजर आयी । जब क्षेत्रदृष्टि से निहारते हैं तो यह चौकी इतनी लंबी चौड़ी ऊँची इस आकार नजर आयी । जब हम इस चौकी की परिणति काल की दृष्टि से निहारते हैं तो यह पुरानी है, कमजोर है, पुष्ट है―ये सब बातें नजर आती हैं और जब इस चौकी को भाव की दृष्टि से देखते हैं तो ये स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदिक रूप से दिखती है ।
जीव में पदार्थ, अस्तिकाय, द्रव्य व तत्त्व का विश्लेषण―ऐसे ही जब हम इस जीव को पिंडदृष्टि से देखते हैं अर्थात् द्रव्यदृष्टि से देखते हैं तो यह गुणपर्यायवान जीव पदार्थ नजर आता है । जब हम अपने आपको क्षेत्र की भूमिका से देखते हैं तो यह असंख्यातप्रदेशी अस्तिकाय है, यों जीवास्तिकाय के रूप से दृष्टि में आता है । इसको ही जब हम कालदृष्टि से निरखते हैं तो इसने अनेक पर्यायें पायी दिखीं, यों हम इसे जीवद्रव्य के रूप में निरखते हैं और जब भावदृष्टि की प्रधानता से निरखते हैं तो यह तो एक चैतन्यस्वरूप जो भी इसका स्वभाव है उस स्वभाव को लक्ष्य में लेकर हम इसे जीवतत्त्व के रूप में निरखते हैं तो यह मैं चैतन्यस्वभावी आत्मा हूँ, सो यह मैं स्वयं ऐसा हूँ और यह मैं जीवास्तिकाय के अंतर्गत हूँ अर्थात् अपने प्रदेशों में ही बसने वाला हूँ । ऐसे इस स्वभाव को जो पुरुष जानता है वह संसार के इन समस्त दुःखों को दूर कर देता है । पंचास्तिकाय के प्रथम अधिकार में इसकी समाप्ति सूचक ये दो गाथायें चल रही हैं । अब दुःख का छूटना किस क्रम से होता है, इसका वर्णन इस दूसरी गाथा में कर रहे हैं ।