पंचास्तिकाय - गाथा 39: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
सव्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कज्जजुदं ।
पाणित्तमदिक्कतां णाणं विंदंति ते जीवा ।।39।।
त्रिविध चेतनाओं की प्रभुता―पूर्व गाथा में यह बताया था कि चेतना तीन प्रकार की होती है―कर्मफलचेतना, कर्मचेतना और ज्ञानचेतना । यह जीव चेतकस्वभावी होने से इन चेतनावों में से किसी न किसी को चेतता ही रहता है । अब जीव किस चेतना को चेतता है, इसका वर्णन इस गाथा में किया जा रहा है । स्थावर काय जितने हैं वे सभी कर्मफल को चेतते हैं । चेतना कहो, अनुभव कहो, प्राप्त करना, वेदन करना―ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं । केवल कर्मफल चेतते हैं, इसका अर्थ है कि स्थावर जीव अव्यक्त सुख दुःख को अनुभवनरूप शुभ अशुभ कर्मफल को चेतते है । और त्रस कर्मचेतना सहित कर्मफल चेतना को चेतते हैं, अर्थात् त्रस जीवों में दोनों ही चेतनाओं की करीब-करीब प्रधानता है और उनमें भी कर्मचेतना की प्रधानता है । इन्हें कर्मचेतना और कर्मफलचेतना से चेतने का कार्य क्यों करना पड़ा? उन्होंने निर्विकल्प परम आनंदस्वभाव वाले आत्मतत्त्व का अनुभवन नहीं किया । जो ज्ञानमात्र अपने आपको अनुभव नहीं करते वे रागद्वेष से मलीमस बनकर कुछ न कुछ परभावों में पर तत्त्वों में इसे मैं करता हूँ, इसे मैं भोगता हूँ―इस प्रकार का अनुभवन किया करते हैं । ज्ञानचेतना से कौनसा जीव अपने ज्ञानस्वरूप का अनुभव करता है? जिनके अब द्रव्य प्राण ही नहीं रहे, प्राणित्व से अतिक्रांत हो गये वे प्रभु ज्ञानचेतना से चेतते हैं ।
त्रिविध चेतनाओं के अधिकारियों का विवरण―प्राण दस प्रकार के कहे गये हैं―5 इंद्रिय, तीन बल, श्वासोच्छ्वास और आयु । जिसमें केवल चार ही प्राण पाये जाते हैं―स्पर्शनइंद्रिय, कायबल, श्वासोच्छ्वास और आयु वे स्थावर जीव हैं । स्थावर जीवों में विग्रहगति में अपर्याप्त में तो 3 प्राण होते हैं, श्वासोच्छ्वास नहीं होता और पर्याप्त अवस्था में चार प्राण होते हैं । इन चार प्राणों तक के धारी कर्मफलचेतना तक को ही भोगते है । और चार प्राण से अधिक के व दसों प्राणों के धारी कर्मचेतना, कर्मफलचेतना को भोगते हैं और जो इन दसों प्रकार के प्राणों से अतिक्रांत हो गये हैं वे जीव सिद्ध हैं, वे केवल ज्ञान का ही अनुभव करते हैं । उन्हें केवल शुद्ध निज स्वरूपमात्र आत्मतत्त्व की अनुभूति हुई है, इसकी भावना जो करता है उससे ऐसे शुद्ध आत्मा की अनुभूति होती है और परम आनंदमय एक सुधारस का स्वाद उन्हें प्राप्त होता है । ये सिद्ध जीव केवल अपने ज्ञान को अनुभवते हैं ।
अनुभाव्य तत्त्व―भैया ! कोई भी जीव अपने को अनुभवे बिना रहता नहीं है, कोई अपने को कुछ मानता है, कोई कुछ मानता है, पर सबको अपने बारे में कुछ न कुछ प्रतीति बनी हुई है । अब विवेक यहाँ करना है कि हम अपने आपकी क्या प्रतीति करें जिससे आनंद प्राप्त हो, और कैसी प्रतीति हम करते हैं जिससे क्लेशों की प्राप्ति होती है, अपने को शुद्ध एक ज्ञानप्रकाशमात्र विकाररहित अनुभव करो । उपाधि का निमित्त पाकर हममें विकार हो जाते हैं । कैसे हो जाते हैं? क्या बतावें? निमित्तनैमित्तिक योग है । आग का निमित्त पाकर पानी गर्म हो जाता है । कैसे गर्म हुआ, कहां से हुआ? क्या बतावें? साक्षात् अनुभव कर लो । ठंडा पानी रक्खे, थोड़ी देर बाद देख लो गर्म । अब कैसे वहां गर्म रूप परिणमन हुआ, यह उसकी बात है । मुझ में रागद्वेष विकार कैसे आ गए? क्या बताएँ, हमारे स्वरूप में तो विकार है नहीं, पर अवस्था में विकार चल ही रहा है । हम अपने स्वरूप की खबर नहीं रखते, सो यह उपयोग हमारे अपने ज्ञानस्वरूप के सिवाय अन्यत्र चल रहा है, दौड़ रहा है, हमारी परमुखी दृष्टि हो रही है हम स्वमुखी दृष्टि में नहीं हैं, तब यह विकारों की चाल चला करती है । अपने में निर्विकार स्वभाव का आश्रय करें तो अवस्था में भी निर्विकारता प्रकट होती है । इस प्रकरण में जो दूसरा अंतराधिकार चेतयिता का था उसके संबंध में दो गाथावों में वर्णन किया है । अब तीसरा अंतराधिकार उपयोग का है, उस उपयोग का वर्णन इस गाथा में अब किया जा रहा है ।