रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 21: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p | <div class="PravachanText"><p><strong>नांगहीनमलं छेत्तुं दर्शनं जंयसंततिं ।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>न हि मंत्रोऽक्षरोन्यूनो निहंति विषवेदनां ।।21।।</strong></p> | ||
<p | <p><strong> अंगहीन सम्यक्त्व की जन्मसंततिछेदनाशक्यता के कथन के प्रसंग में प्रथम चार अंगों के स्वरूप का पुन: स्मरण</strong>―अभी सम्यग्दर्शन के 8 अंग बताये गये थे । उनके संबंध में कह रहे हैं कि उन अंगों में से यदि कोई अंग कम है तो वह सम्यक्त्व जन्म संतति को छेदने में समर्थ नहीं है । जैसे कि कोई अक्षर कम हो किसी मंत्र में तो उस हीन अक्षर वाले मंत्र की आराधना से विष वेदना को नहीं दूर कर सकते, ऐसे ही अंगहीन सम्यक्त्व जन्म संतति को नष्ट नहीं कर सकता । जिसके 8 अंग बराबर हों उस सम्यक्त्व से संसार पार होगा । वे 8 अंग क्या है सो संक्षेप में सुनो―(1) अपने आत्मा के स्वरूप में शंका न करना, किसी प्रकार का मरण आदिक भय न रखना, जिनवाणी के वचनों में संदेह न करना । (2) विषयभोग के साधनों की इच्छा न करना और कम से कम इतना तो अवश्य ही करना कि धर्मधारण करने के एवज में विषयों की आकांक्षा न करना । जैसे महावीरजी क्षेत्र पर जाकर कोई कामना करे कि मेरे को अमुक काम की सिद्धि हो या अन्य क्षेत्र पर चढ़ावा बोले या अपने ही नगर में धर्म पूजा करे उसके एवज में चाहें कि मेरा परिवार सुखी रहे या अमुक लाभ हो तो वे सब सम्यक्त्व से विपरीत बातें है । उल्टी चाल चलने से सिद्धि नहीं होती । निष्पक्ष धर्म का ख्याल करके धर्म करना चाहिए । जो लोग महावीर जी, पद्मप्रभु या तिजारा आदिक जगहों पर कामना नहीं करते, नहीं जाते ऐसे लोग क्या दुःख में रहते है? लोग धन की बात करते हैं । अन्य विदेशों में जो लोग कोइ देव नहीं मानते वे लोग भी तो करोड़पति, अरबपति आदिक बड़े संपन्न पाये जाते । तो बताओ प्रभु से माँगने से उन्हें धन मिला क्या? अरे यह तो सब पूर्वकृत क्रम की उदय से सब पुण्यसामग्री मिली है । आज की बात आज हैं । अब परिणाम बिगड़ेंगे तो आगे कष्ट है, अपने परिणाम ठीक रखेंगे तो आगे आराम है । जरा अपनी वर्तमान बात सोचिये-यह संसार यह जन्ममरण दुःख का जाल है । इससे बचना अभीष्ट है, इससे बचना है । उसका उपाय क्या है? अपने अकेले स्वरूप को जानें उस ही में श्रद्धान बनावें कि यह मैं हूँ और उस ही में रमण करें, अवश्य शांति मिलेगी । तो किसी प्रकार की आकांक्षा न करना, धर्म धारण करके तो आकांक्षा करना ही नहीं । यह नि:कांक्षित अंग है । कोई तीव्र कर्मोदय आयें और बड़े संकट सामने आ जाये तो उनसे घबड़ाना नहीं, चित्त की गिराना नहीं और सोचना कि क्या संकट है? ये बाहरी पदार्थ हैं, ये रहें न रहे, कैसे ही रहे, वे बाहर की बातें बाहर ही तो रही, उनसे मेरे में क्या संकट है? अपने अमूर्त, सुरक्षित ज्ञानस्वरूप को निहारकर उसमें ही तृप्त रहना चित्त को गिराना नहीं यह नि:शंकित अंग है । और साधुजनों की सेवा करते हुए में ग्लानि न रखना यह है तीसरा निर्विचिकित्सत अंग । (4) अमूढ़दृष्टि । खोटे मार्ग को देखकर खोटे मार्ग पर चलने वाले लोगों का चमत्कार देखकर उसमें मुग्ध न होना, बात यथार्थ ही जानना कि लोक में चमत्कार कितने ही दिखा लिए जाये पर उनसे पूरा न पड़ेगा । पूरा पड़ता है सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से ।</p> | ||
<p | <p> <strong>अंगहीनसम्यक्त्व की जन्मसंततिच्छेदाशक्यता के कथन के प्रसंग में अंतिम चार अंगों के स्वरूप का पुन: स्मरण</strong>―5 वां है और उपगूहन । जैन शासन को उज्ज्वल बनाये रखने के लिए किसी धर्मात्मा के दोषों का प्रसार न करना, नहीं तो लोग धर्ममार्ग से हट जायेंगे, यह कहकर कि यह सब ढकोसला है, जैन शासन कुछ नहीं है, सो उसकी रक्षा करने के लिए निर्दोष बनाना उपगूहन अंग है । (6) स्थितिकरण―कोई धर्म से चिग रहा हो किसी आपत्ति से या उसकी चिंता से तो हर उपायों से उसको धर्म में स्थिर करना स्थितिकरण है । (7) वात्सल्य―निष्कपट प्रेम । क्योंकि खुद भोग के साधनों में अनादर रख रहा इसलिए उससे कोई कपट नहीं हो सकता । ये चूंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के धारी है दूसरे पुरुष तो उनके गुणों में अनुराग जगता ही है । (8) आठवां है प्रभावना अंग―ज्ञान की प्रभावना करना प्रभावना है । धर्म ज्ञान ही है, अन्य चेष्टावों का नाम धर्म नहीं, । मंदिर में आकर पूजा करके हाथ जोड़कर, अनेक चेष्टायें करके यदि आपके इस ज्ञानस्वभाव में दृष्टि जगती है, इसका लक्ष्य बनता है । इस ज्ञानस्वभाव में रुचि जगती है तब तो आप समझिये कि धर्म कर रहे अन्यथा धर्म नहीं कर रहे । अब कोई पूछ सकता क्या इन मंदिरों का आना छोड़ दिया जाय? तो यहाँ छोड़ने की बात नहीं कर रहे, क्योंकि धर्म करने के ये साधन हैं । अगर इन साधनों में लगे रहेंगे तो ज्ञान की वार्ता कभी मिलेगी और कभी अनुभव बनेगा तो आप धर्म करने लगेंगे, क्योंकि धर्म ही इस जीव का कल्याण कर सकने वाला है । दूसरा कोई मददगार नहीं । अब विशुद्ध ज्ञानस्वभावमय अपने को अनुभवना बस यही संकटों को दूर रखना है । तो यों आठ अंग होते है । उनमें यदि कोई अंग कम हो जाय तो वह सम्यक्त्व जन्म परंपरा को नष्ट नहीं कर सकता ।</p> | ||
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
नांगहीनमलं छेत्तुं दर्शनं जंयसंततिं ।
न हि मंत्रोऽक्षरोन्यूनो निहंति विषवेदनां ।।21।।
अंगहीन सम्यक्त्व की जन्मसंततिछेदनाशक्यता के कथन के प्रसंग में प्रथम चार अंगों के स्वरूप का पुन: स्मरण―अभी सम्यग्दर्शन के 8 अंग बताये गये थे । उनके संबंध में कह रहे हैं कि उन अंगों में से यदि कोई अंग कम है तो वह सम्यक्त्व जन्म संतति को छेदने में समर्थ नहीं है । जैसे कि कोई अक्षर कम हो किसी मंत्र में तो उस हीन अक्षर वाले मंत्र की आराधना से विष वेदना को नहीं दूर कर सकते, ऐसे ही अंगहीन सम्यक्त्व जन्म संतति को नष्ट नहीं कर सकता । जिसके 8 अंग बराबर हों उस सम्यक्त्व से संसार पार होगा । वे 8 अंग क्या है सो संक्षेप में सुनो―(1) अपने आत्मा के स्वरूप में शंका न करना, किसी प्रकार का मरण आदिक भय न रखना, जिनवाणी के वचनों में संदेह न करना । (2) विषयभोग के साधनों की इच्छा न करना और कम से कम इतना तो अवश्य ही करना कि धर्मधारण करने के एवज में विषयों की आकांक्षा न करना । जैसे महावीरजी क्षेत्र पर जाकर कोई कामना करे कि मेरे को अमुक काम की सिद्धि हो या अन्य क्षेत्र पर चढ़ावा बोले या अपने ही नगर में धर्म पूजा करे उसके एवज में चाहें कि मेरा परिवार सुखी रहे या अमुक लाभ हो तो वे सब सम्यक्त्व से विपरीत बातें है । उल्टी चाल चलने से सिद्धि नहीं होती । निष्पक्ष धर्म का ख्याल करके धर्म करना चाहिए । जो लोग महावीर जी, पद्मप्रभु या तिजारा आदिक जगहों पर कामना नहीं करते, नहीं जाते ऐसे लोग क्या दुःख में रहते है? लोग धन की बात करते हैं । अन्य विदेशों में जो लोग कोइ देव नहीं मानते वे लोग भी तो करोड़पति, अरबपति आदिक बड़े संपन्न पाये जाते । तो बताओ प्रभु से माँगने से उन्हें धन मिला क्या? अरे यह तो सब पूर्वकृत क्रम की उदय से सब पुण्यसामग्री मिली है । आज की बात आज हैं । अब परिणाम बिगड़ेंगे तो आगे कष्ट है, अपने परिणाम ठीक रखेंगे तो आगे आराम है । जरा अपनी वर्तमान बात सोचिये-यह संसार यह जन्ममरण दुःख का जाल है । इससे बचना अभीष्ट है, इससे बचना है । उसका उपाय क्या है? अपने अकेले स्वरूप को जानें उस ही में श्रद्धान बनावें कि यह मैं हूँ और उस ही में रमण करें, अवश्य शांति मिलेगी । तो किसी प्रकार की आकांक्षा न करना, धर्म धारण करके तो आकांक्षा करना ही नहीं । यह नि:कांक्षित अंग है । कोई तीव्र कर्मोदय आयें और बड़े संकट सामने आ जाये तो उनसे घबड़ाना नहीं, चित्त की गिराना नहीं और सोचना कि क्या संकट है? ये बाहरी पदार्थ हैं, ये रहें न रहे, कैसे ही रहे, वे बाहर की बातें बाहर ही तो रही, उनसे मेरे में क्या संकट है? अपने अमूर्त, सुरक्षित ज्ञानस्वरूप को निहारकर उसमें ही तृप्त रहना चित्त को गिराना नहीं यह नि:शंकित अंग है । और साधुजनों की सेवा करते हुए में ग्लानि न रखना यह है तीसरा निर्विचिकित्सत अंग । (4) अमूढ़दृष्टि । खोटे मार्ग को देखकर खोटे मार्ग पर चलने वाले लोगों का चमत्कार देखकर उसमें मुग्ध न होना, बात यथार्थ ही जानना कि लोक में चमत्कार कितने ही दिखा लिए जाये पर उनसे पूरा न पड़ेगा । पूरा पड़ता है सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से ।
अंगहीनसम्यक्त्व की जन्मसंततिच्छेदाशक्यता के कथन के प्रसंग में अंतिम चार अंगों के स्वरूप का पुन: स्मरण―5 वां है और उपगूहन । जैन शासन को उज्ज्वल बनाये रखने के लिए किसी धर्मात्मा के दोषों का प्रसार न करना, नहीं तो लोग धर्ममार्ग से हट जायेंगे, यह कहकर कि यह सब ढकोसला है, जैन शासन कुछ नहीं है, सो उसकी रक्षा करने के लिए निर्दोष बनाना उपगूहन अंग है । (6) स्थितिकरण―कोई धर्म से चिग रहा हो किसी आपत्ति से या उसकी चिंता से तो हर उपायों से उसको धर्म में स्थिर करना स्थितिकरण है । (7) वात्सल्य―निष्कपट प्रेम । क्योंकि खुद भोग के साधनों में अनादर रख रहा इसलिए उससे कोई कपट नहीं हो सकता । ये चूंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के धारी है दूसरे पुरुष तो उनके गुणों में अनुराग जगता ही है । (8) आठवां है प्रभावना अंग―ज्ञान की प्रभावना करना प्रभावना है । धर्म ज्ञान ही है, अन्य चेष्टावों का नाम धर्म नहीं, । मंदिर में आकर पूजा करके हाथ जोड़कर, अनेक चेष्टायें करके यदि आपके इस ज्ञानस्वभाव में दृष्टि जगती है, इसका लक्ष्य बनता है । इस ज्ञानस्वभाव में रुचि जगती है तब तो आप समझिये कि धर्म कर रहे अन्यथा धर्म नहीं कर रहे । अब कोई पूछ सकता क्या इन मंदिरों का आना छोड़ दिया जाय? तो यहाँ छोड़ने की बात नहीं कर रहे, क्योंकि धर्म करने के ये साधन हैं । अगर इन साधनों में लगे रहेंगे तो ज्ञान की वार्ता कभी मिलेगी और कभी अनुभव बनेगा तो आप धर्म करने लगेंगे, क्योंकि धर्म ही इस जीव का कल्याण कर सकने वाला है । दूसरा कोई मददगार नहीं । अब विशुद्ध ज्ञानस्वभावमय अपने को अनुभवना बस यही संकटों को दूर रखना है । तो यों आठ अंग होते है । उनमें यदि कोई अंग कम हो जाय तो वह सम्यक्त्व जन्म परंपरा को नष्ट नहीं कर सकता ।