रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 34: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p | <div class="PravachanText"><p><strong>न सम्यक्त्वसमं किंचित्त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि ।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ।।34।।</strong></p> | ||
<p | <p> देहधारी प्राणियों को तीन लोक तीन काल में सम्यक्त्व के समान श्रेयस्कर अन्य कुछ नहीं है और मिथ्यात्व के समान विपत्ति कारक अश्रेयस्कर अन्य कुछ नहीं है । कल्याण और अकल्याण में लगने का सर्व कुछ आधार अपने अंदर है । बाहरी पदार्थों से कोई दुःखी नहीं होता । सुखी भी नहीं हो सकता, किंतु बाह्य पदार्थों के विषय में अपने आप में कल्पनायें बनाकर यह जीव और दुःखी होता है । तो कल्याण और अकल्याण का मूल कहां निकला? बाहर नहीं निकला, अपने आत्मा में ही । इस जीव का स्वरूप अमूर्त चैतन्यमात्र ज्ञान और आनंद से परिपूर्ण है, किंतु आज की यह दशा बन रही है कि ज्ञान भी नहीं पूरा है, अति स्वल्प है और आनंद का तो ठिकाना ही नहीं है । है ही नहीं । सुख और दुःख इन दोनों में चलते रहते है तो ऐसी जो स्थिति बनी है उस स्थिति का मूल कारण, साक्षात् कारण तो अपने आपके स्वरूप की बेहोशी है जिसके कारण अनेक तरह की कल्पनायें उठती हैं, पर यह बेहोशी अनैमित्तिक नहीं है । मिथ्यात्व प्रकृति का उदय है जिसका निमित्त पाकर उसकी यह दशा बन रही है । बात बिल्कुल स्पष्ट है । मैं स्वभाव से बुरा नहीं हूँ, किंतु कर्मोदय का सन्निधान पाकर मैं बुरा परिणमन किया करता हूँ । सो यदि मैं अपनी शक्ति को सम्हालूँ तो उस कर्म में भी अंतर आ जायगा उन कर्मों की भी निर्जरा बनेगी और मैं कभी निकट काल में ही उन कर्मों से भी छूट जाऊंगा । तो अपना पौरुष यह है कि हम निज सहज स्वभाव की दृष्टि का प्रयत्न करें । सम्यक्त्व के बराबर तीन लोक तीन काल में कोई सारभूत बात नहीं है ।</p> | ||
<p | <p> <strong>अपने भविष्य पर दृष्टिपात करने का परिणाम</strong>―आखिर सोचिये―यह एक प्रश्न करते जाइये कि फिर क्या होगा । पढ़ते हैं बच्चे लोग, स्कूलों में पढ़ जायेंगे, फिर क्या होगा? डिग्री पास कर लेंगे, फिर क्या होगा? सर्विस पा लेंगे, या व्यापार पा लेंगे, फिर क्या होगा? परिवार बसेगा फिर क्या होगा? खूब संपदा जुड़ जायगी फिर क्या होगा? वृद्धि हो जायगी फिर क्या होगा? बस मरण हो जायगा, यहाँ से कूच करना पड़ेगा । सारे जीवन भर श्रम किया मोह की पुड़िया पूरी और अंत में इसे छोड़कर जाना ही पड़ा । अच्छा फिर क्या होगा? शरीर तो यहाँ ही छूट गया, इसे तो लोगों ने जला डाला । कोई उस मृत शरीर को 10 मिनट भी रखना नहीं पसंद करता क्योंकि कुछ ही देर में उस शरीर में से बदबू निकलने की संभावना होती है । तो आप इस अपने शरीर को छूकर बोलो जिस शरीर को लोग जला देंगे, जो जलकर राख हो जायगा और जो मैं हूँ, जिसका भीतर में अहं-अहं का बोध हो रहा है वह मैं यहाँ से निकल जाऊंगा, निकलकर कहां जाऊंगा? जैसे मैंने जीवन में पुण्य और पापकर्म किया उसके अनुसार मेरा नया जन्म होगा, फिर वहाँ वैसा फल भोगना पड़ेगा, इस कारण अपने भावों को सही शुद्ध रखिये । एक निरंतर प्रयास रखिये कि कभी भी किसी जीव पर ईर्ष्या विरोध करने का, दु:खी करने का भाव न रखिये, क्योंकि खोटे भाव रखे जाने का फल कोई दूसरा भोगने न आयगा । खुद ही कर्म के अनुसार दुख भोगना पड़ेगा । इस कारण अंतरंग में तो आत्मा के सही स्वरूप की सुध रखिये, प्रवृत्ति में अपने भावों को निर्मल रखिये, स्वच्छ रखिये ताकि अपने मन से, वचन से किसी को अहित न हो । अपने भावों को सही रखें तो आगे भी सद्गति मिलेगी, धर्म का प्रसंग मिलेगा, आत्मदृष्टि बनेगी, आत्मरमण कर सकेंगे, संकटों से छूट सकेंगे । यदि अपने भावों को खोटा रखा तो उससे आपका काम बन ही जाय यह नियम नहीं है । किसीने भाव किया कि मैं अमुक को दु:खी कर डालूँ तो उसके भाव करने से वह दुःखी हो जायगा, यह कोई संभव नहीं है । वह दुखी होगा तो अपने किए हुए पाप के उदय से दु:खी होगा, आपके सोचने से दुखी न होगा । तब फिर बुरा विचारना यह निरर्थक ही तो रहा । इससे कुछ लाभ मिला क्या? तो भावों को सही रखना, अपने आत्मा के स्वरूप की सुध रखना, ऐसा यह जीवन गुजरे तब तो भला है और यदि यह जीवन अटपट रखने में, खोटी हठों में, विषयों की प्रीति में गुजरता है तो मनुष्यभव पाना न पाना समान सा रहा ।</p> | ||
<p | <p><strong> तीन लोक में तीन काल में सम्यक्त्व की श्रेयस्करता</strong>―इस मनुष्यभव में एक सम्यक्त्व का ही लाभ लूटिये । कितना काल व्यतीत हो गया? अनंतकाल । कितना काल व्यतीत होगा? अनंतकाल । यह लोक कितना बड़ा है? 343 घनराजू प्रमाण । उसमें यह त्रसनाली कितनी बड़ी है? 14 राजूप्रमाण । उसमें भी यह मध्यलोक कितना बड़ा है? तिर्यकलोक, एक राजू प्रमाण, चौड़ाई में कम । इतने बड़े लोक में, इतने अपरिमित काल में सारी चीजों पर दृष्टि डालकर देख लीजिए, कुछ भी सार न मिलेगा । सार है तो एक अपने आत्मा का भाव, आत्मा का उपयोग आत्मा के स्वरूप को निरखें और आत्मा के ही चैतन्यस्वरूप में रम जाय, सदा के लिए शरीरों का मिलना खतम हो जाय, कर्म का बंधन समाप्त हो जाय तो इससे बढ़कर और आप क्या चाहते है? सदा के लिए कोई संकट न रहे यह चाहते है, तो उसका उपाय है सम्यग्दर्शन । उसके लिए अपना सर्वस्व समर्पित हो जाय तो भी कुछ गया नहीं आपका । सम्यक्त्व पाया तो समझिये आपने सर्वसमृद्धि प्राप्त कर लिया । इस सम्यक्त्व के प्रति, आत्मा के सहज भाव के प्रति जिनकी धुन नहीं बनती उनपर क्या विपत्ति छायी हुई है कर्मोदय की कि जिससे वह बेहोशी में पड़ा हुआ है । बेहोशी को त्यागना है और अपने सहज स्वरूप का दर्शन करना है । इस लोक में सम्यक्त्व के समान अन्य कुछ भी उपकार करने वाला नहीं है । देखिये―सम्यग्दर्शन जगने पर यदि संसार में कुछ समय रहना भी पड़े तो भी इंद्र, अहिमिंद्र, बलभद्र, तीर्थंकर जैसी विशाल विभूतियां प्राप्त होंगी और फिर निकट काल में ही मुक्ति भी प्राप्त होगी । खूब ध्यान में लाये कि मेरा सम्यक्त्व यह ही मेरे लिए देव है, शरण है, मेरा सर्वस्व है । यह यदि है तो मेरे को कोई आकुलता नहीं है और मेरा आत्मा ही मेरी निगाह में न रहा, बाहरी पदार्थ ही मेरे लिए सब कुछ कहलाये तो वहाँ आकुलता है, कर्मबंधन है, संसार में रुलना है । तो जानों कि सम्यक्त्व के समान इस जीव का श्रेयस्कर अन्य कुछ नहीं है और मिथ्यात्व के समान इस जीव का बुरा करने वाला जगत में अन्य कुछ नहीं है ।</p> | ||
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
न सम्यक्त्वसमं किंचित्त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि ।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ।।34।।
देहधारी प्राणियों को तीन लोक तीन काल में सम्यक्त्व के समान श्रेयस्कर अन्य कुछ नहीं है और मिथ्यात्व के समान विपत्ति कारक अश्रेयस्कर अन्य कुछ नहीं है । कल्याण और अकल्याण में लगने का सर्व कुछ आधार अपने अंदर है । बाहरी पदार्थों से कोई दुःखी नहीं होता । सुखी भी नहीं हो सकता, किंतु बाह्य पदार्थों के विषय में अपने आप में कल्पनायें बनाकर यह जीव और दुःखी होता है । तो कल्याण और अकल्याण का मूल कहां निकला? बाहर नहीं निकला, अपने आत्मा में ही । इस जीव का स्वरूप अमूर्त चैतन्यमात्र ज्ञान और आनंद से परिपूर्ण है, किंतु आज की यह दशा बन रही है कि ज्ञान भी नहीं पूरा है, अति स्वल्प है और आनंद का तो ठिकाना ही नहीं है । है ही नहीं । सुख और दुःख इन दोनों में चलते रहते है तो ऐसी जो स्थिति बनी है उस स्थिति का मूल कारण, साक्षात् कारण तो अपने आपके स्वरूप की बेहोशी है जिसके कारण अनेक तरह की कल्पनायें उठती हैं, पर यह बेहोशी अनैमित्तिक नहीं है । मिथ्यात्व प्रकृति का उदय है जिसका निमित्त पाकर उसकी यह दशा बन रही है । बात बिल्कुल स्पष्ट है । मैं स्वभाव से बुरा नहीं हूँ, किंतु कर्मोदय का सन्निधान पाकर मैं बुरा परिणमन किया करता हूँ । सो यदि मैं अपनी शक्ति को सम्हालूँ तो उस कर्म में भी अंतर आ जायगा उन कर्मों की भी निर्जरा बनेगी और मैं कभी निकट काल में ही उन कर्मों से भी छूट जाऊंगा । तो अपना पौरुष यह है कि हम निज सहज स्वभाव की दृष्टि का प्रयत्न करें । सम्यक्त्व के बराबर तीन लोक तीन काल में कोई सारभूत बात नहीं है ।
अपने भविष्य पर दृष्टिपात करने का परिणाम―आखिर सोचिये―यह एक प्रश्न करते जाइये कि फिर क्या होगा । पढ़ते हैं बच्चे लोग, स्कूलों में पढ़ जायेंगे, फिर क्या होगा? डिग्री पास कर लेंगे, फिर क्या होगा? सर्विस पा लेंगे, या व्यापार पा लेंगे, फिर क्या होगा? परिवार बसेगा फिर क्या होगा? खूब संपदा जुड़ जायगी फिर क्या होगा? वृद्धि हो जायगी फिर क्या होगा? बस मरण हो जायगा, यहाँ से कूच करना पड़ेगा । सारे जीवन भर श्रम किया मोह की पुड़िया पूरी और अंत में इसे छोड़कर जाना ही पड़ा । अच्छा फिर क्या होगा? शरीर तो यहाँ ही छूट गया, इसे तो लोगों ने जला डाला । कोई उस मृत शरीर को 10 मिनट भी रखना नहीं पसंद करता क्योंकि कुछ ही देर में उस शरीर में से बदबू निकलने की संभावना होती है । तो आप इस अपने शरीर को छूकर बोलो जिस शरीर को लोग जला देंगे, जो जलकर राख हो जायगा और जो मैं हूँ, जिसका भीतर में अहं-अहं का बोध हो रहा है वह मैं यहाँ से निकल जाऊंगा, निकलकर कहां जाऊंगा? जैसे मैंने जीवन में पुण्य और पापकर्म किया उसके अनुसार मेरा नया जन्म होगा, फिर वहाँ वैसा फल भोगना पड़ेगा, इस कारण अपने भावों को सही शुद्ध रखिये । एक निरंतर प्रयास रखिये कि कभी भी किसी जीव पर ईर्ष्या विरोध करने का, दु:खी करने का भाव न रखिये, क्योंकि खोटे भाव रखे जाने का फल कोई दूसरा भोगने न आयगा । खुद ही कर्म के अनुसार दुख भोगना पड़ेगा । इस कारण अंतरंग में तो आत्मा के सही स्वरूप की सुध रखिये, प्रवृत्ति में अपने भावों को निर्मल रखिये, स्वच्छ रखिये ताकि अपने मन से, वचन से किसी को अहित न हो । अपने भावों को सही रखें तो आगे भी सद्गति मिलेगी, धर्म का प्रसंग मिलेगा, आत्मदृष्टि बनेगी, आत्मरमण कर सकेंगे, संकटों से छूट सकेंगे । यदि अपने भावों को खोटा रखा तो उससे आपका काम बन ही जाय यह नियम नहीं है । किसीने भाव किया कि मैं अमुक को दु:खी कर डालूँ तो उसके भाव करने से वह दुःखी हो जायगा, यह कोई संभव नहीं है । वह दुखी होगा तो अपने किए हुए पाप के उदय से दु:खी होगा, आपके सोचने से दुखी न होगा । तब फिर बुरा विचारना यह निरर्थक ही तो रहा । इससे कुछ लाभ मिला क्या? तो भावों को सही रखना, अपने आत्मा के स्वरूप की सुध रखना, ऐसा यह जीवन गुजरे तब तो भला है और यदि यह जीवन अटपट रखने में, खोटी हठों में, विषयों की प्रीति में गुजरता है तो मनुष्यभव पाना न पाना समान सा रहा ।
तीन लोक में तीन काल में सम्यक्त्व की श्रेयस्करता―इस मनुष्यभव में एक सम्यक्त्व का ही लाभ लूटिये । कितना काल व्यतीत हो गया? अनंतकाल । कितना काल व्यतीत होगा? अनंतकाल । यह लोक कितना बड़ा है? 343 घनराजू प्रमाण । उसमें यह त्रसनाली कितनी बड़ी है? 14 राजूप्रमाण । उसमें भी यह मध्यलोक कितना बड़ा है? तिर्यकलोक, एक राजू प्रमाण, चौड़ाई में कम । इतने बड़े लोक में, इतने अपरिमित काल में सारी चीजों पर दृष्टि डालकर देख लीजिए, कुछ भी सार न मिलेगा । सार है तो एक अपने आत्मा का भाव, आत्मा का उपयोग आत्मा के स्वरूप को निरखें और आत्मा के ही चैतन्यस्वरूप में रम जाय, सदा के लिए शरीरों का मिलना खतम हो जाय, कर्म का बंधन समाप्त हो जाय तो इससे बढ़कर और आप क्या चाहते है? सदा के लिए कोई संकट न रहे यह चाहते है, तो उसका उपाय है सम्यग्दर्शन । उसके लिए अपना सर्वस्व समर्पित हो जाय तो भी कुछ गया नहीं आपका । सम्यक्त्व पाया तो समझिये आपने सर्वसमृद्धि प्राप्त कर लिया । इस सम्यक्त्व के प्रति, आत्मा के सहज भाव के प्रति जिनकी धुन नहीं बनती उनपर क्या विपत्ति छायी हुई है कर्मोदय की कि जिससे वह बेहोशी में पड़ा हुआ है । बेहोशी को त्यागना है और अपने सहज स्वरूप का दर्शन करना है । इस लोक में सम्यक्त्व के समान अन्य कुछ भी उपकार करने वाला नहीं है । देखिये―सम्यग्दर्शन जगने पर यदि संसार में कुछ समय रहना भी पड़े तो भी इंद्र, अहिमिंद्र, बलभद्र, तीर्थंकर जैसी विशाल विभूतियां प्राप्त होंगी और फिर निकट काल में ही मुक्ति भी प्राप्त होगी । खूब ध्यान में लाये कि मेरा सम्यक्त्व यह ही मेरे लिए देव है, शरण है, मेरा सर्वस्व है । यह यदि है तो मेरे को कोई आकुलता नहीं है और मेरा आत्मा ही मेरी निगाह में न रहा, बाहरी पदार्थ ही मेरे लिए सब कुछ कहलाये तो वहाँ आकुलता है, कर्मबंधन है, संसार में रुलना है । तो जानों कि सम्यक्त्व के समान इस जीव का श्रेयस्कर अन्य कुछ नहीं है और मिथ्यात्व के समान इस जीव का बुरा करने वाला जगत में अन्य कुछ नहीं है ।