रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 40: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p | <div class="PravachanText"><p><strong>शिवमजर मरुजमक्षय-मव्याबाधं विशोकभयशंकम् ।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>काष्ठागतसुखविद्या-विभवं विमलं भजंति दर्शनाशरणा: ।।40।।</strong></p> | ||
<p | <p> <strong>सम्यग्दृष्टिजीव के मोक्षपद का लाभ</strong>―सम्यग्दर्शन का शरण जिसको मिल चुका है अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव उस सम्यक्त्व के प्रताप से इसही स्वभाव दृष्टि में बढ़कर सम्यक्चारित्र पाकर सम्यक्चारित्र की पूर्णता से मोक्ष पद को प्राप्त करते है । वह मोक्षपद कैसा है? अनेक लोग ऐसा सोचने लगते है कि जितना संसार में सुख है उससे कई गुना सुख मोक्ष में है पर संसार का सुख है अन्य जाति का, क्षोभ वाला तो क्षोभ वाले सुख से अनंतगुना सुख है इसका क्या अर्थ हुआ? सांसारिक सुख से कई गुना सुख है ऐसा न सोचना किंतु उनका आनंद विलक्षण जाति का है । इस सुख से बिल्कुल विपरीत जाति है । केवल आत्मा से ही विशुद्ध आनंद प्रकट होता है, जहाँ आकुलता का क्षोभ का नाम नहीं है । प्रथम तो यह विचारें कि उस जीव के शरीर नहीं है, केवल ज्ञानपुंज आत्मा । ज्ञानमात्र आत्मा जो ज्ञानमात्र आत्मा है उसके शरीरजन्य सुख का क्या काम है? आत्मा स्वयं आनंदस्वरूप है, इसलिए परम आल्हाद पूर्ण निराकुलता, केवल ज्ञाता दृष्टा रहना यह स्थिति होती है मोक्ष में । जहाँ पूर्ण निराकुलता है और ऐसी निराकुलता अनंतकाल तक बर्तती रहेगी, ऐसा पद है मोक्ष ।</p> | ||
<p | <p> <strong>अजर अरोग अक्षय अव्यावाध विशोक विभय अशंक शिवपद का गुणगान</strong>―मोक्षपद में जीर्णता का नाम नहीं है । आत्मा में कोई कमजोरी या जीर्णता नहीं आती इसलिए वह शिवपद अजर है, रोग रहित है । रोग का आधार है शरीर और शरीर से अत्यंत जुदा हो गया है, उस मोक्ष में रोग का क्या काम? वह शिवपद अनन्य है, अविनाशी है । जो अनंत चतुष्टय प्रकट हुआ है, अनंत ज्ञान, केवलज्ञान उसका कभी विनाश न होगा । समय-समय प्रति समय केवलज्ञान-केवलज्ञान रूप के परिणमन चलते रहेंगे, ऐसे ही अनंत दर्शन, अनंत शक्ति और अनंत आनंद ये सदा बर्तते रहेंगे, ऐसा अक्षय है वह शिवपद । जिस मोक्ष में बाधा का नाम नहीं । बाधा का यहाँ कारण था शरीर, मन, अनेक शारीरिक कष्ट थे, अनेक मानसिक कष्ट थे, जहाँ शरीर न रहा, वहाँ मानसिक कष्ट का भी काम नहीं, वह आत्मा है, ज्ञानमात्र है, परिपूर्ण सत् है वह शुद्ध विकास है, दोष का नाम नहीं, धर्मादिक द्रव्यों की तरह अब वह पूर्ण शुद्ध अवस्था है । वहाँ बाधा का काम नहीं है, वह शिवपद शोकरहित है । शोक का भी कारण है तन, मन और वचन । तो वचन से होने वाला जो कष्ट है वह मानसिक कष्ट में ही शामिल होता है और शरीर में होने वाले कष्ट शारीरिक कष्ट हैं । तो जहाँ शरीर नहीं वहाँ शंका का आधार कुछ रहा ही नहीं, मन नहीं तो शोक का आधार कुछ रहा ही नहीं । वह आत्मस्वरूप स्वयं सहज ज्ञान और आनंद से भरा हुआ है । जैसे यहाँ पुद्गल देखते हैं तो पुद्गल क्या? जो रूप, रस, गंध, स्पर्श का पिंड हो, तो आत्मा को बतलावो आत्मा क्या? जो ज्ञान और आनंद का पुंज हो । आत्मा का रहस्य बड़ा अद्भुत है जिसकी दृष्टि आत्मा के अंतस्तत्त्व पर पहुंच जाती है वह पुरुष धन्य है । आत्मा अमूर्त है, पर जैसे आकाश अमूर्त है किंतु सत् है, प्रदेशवान है ऐसे ही आत्मा स्वयं सत् है प्रदेशवान है और उसका असाधारण स्वरूप है ज्ञान और आनंद । ऐसा ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा जहाँ शुद्ध हुआ है, अकेला रह रहा है वह परिपूर्ण विकसित है, वहाँ शोक का क्या काम? भय भी किस बात का? विकल्प ही कुछ नहीं है और अमूर्त आकाश में आपत्ति क्या आती? जैसे लाठी मारी गई तो बताओ आकाश में लगेगी क्या? आग जलाया तो आकाश जलेगा क्या? जैसे अमूर्त आकाश को किसी पर पदार्थ से कोई बाधा नहीं आती, ऐसे ही अमूर्त आत्मा को किसी भी प्रकार से कोई बाधा नहीं आती । बहां भय का कोई अवकाश ही नहीं, और फिर निर्विकल्प है । तो वह शिवपद भयरहित है और इसी प्रकार शंकारहित है ।</p> | ||
<p | <p><strong> शिवपद की काष्ठागतविद्याविभवता</strong>―इस शिवपद में ज्ञान और आनंद का वैभव उत्कृष्ट से भी उत्कृष्ट बन गया है । आत्मा ज्ञानस्वरूप है, पर ज्ञानावरण कर्म का उदय होने पर यह ज्ञान कम हो जाता है । न्याय के ढंग से विचार करें, जब ही आवरण हटता है तो वह ज्ञान बढ़ता है, तो एक ही नियम है कि पर पदार्थ के कारण जो चीज घटी और पर पदार्थ के हटने से जो चीज बढ़ी वह वस्तु कभी किसी के एकदम उत्कृष्ट बढ़ी हुई भी होती है । सामान्यतया यह दृष्टि दें कि जो चीज घटती है वह घटकर कभी बिल्कुल भी मिटती है, जो चीज बढ़ती है वह बढ़-बढ़कर कभी भी पूर्ण बढ़ जाती है । अभी इसमें दोष आयेंगे, उन दोषों का निराकरण करने के लिए विशेषण आयगा, पर सामान्यतया अभी यह जानें कि जो चीज घटा करती है वह घट-घटकर एकदम घट सकती है । जैसे रागद्वेष विकारभाव ये घटा करते है । किसी जीव में राग कम है किसी में और कम है, तो कोई जीव ऐसे भी होंगे कि जिन में राग बिल्कुल न रहेगा । दूसरी बात ज्ञान में दिखती है कि इसका ज्ञान अधिक है, इसका ज्ञान और भी अधिक है तो कोई आत्मा ऐसा भी होता होगा जिसके पूर्ण अधिक परिपूर्ण ज्ञान हो गया? सामान्यतया एक युक्ति लगावो, पर इसमें एक आपत्ति आती है कि हम उल्टा फेरकर रोक लगा दें कि ज्ञान किसी में कम है किसी में बहुत कम है तो किसी में बिल्कुल भी ज्ञान खत्म है । तथा किसी में राग अधिक है किसी में और अधिक है तो कोई ऐसा होता होगा कि जिसमें परिपूर्ण व सदा राग रहेगा । क्या ऐसा भी होता होगा कि जहाँ ज्ञान बिल्कुल न रहेगा? या राग सदा के लिए परिपूर्ण रहेगा । भैया, यह आपत्ति यों नहीं आती कि यहाँ यह समझना होगा कि आवरण के हटने पर, जो घटे वह कभी पूर्ण घट सकता है, आवरण के मिटने पर जो बढ़े वह कभी पूर्ण बढ़ा हुआ हो सकता । ये दो विशेषण साथ लेने से यह समस्या ठीक बैठती है । आवरण के हटने से राग बढ़ता है क्या किसी के आवरण के हटने से तो राग घटता है । इसलिए जब आवरण पूरा हट गया तो राग कहीं पूरा मिट गया । आवरण के हटने से ज्ञान बढ़ता है । तो जहाँ आवरण पूरा हट गया वहाँ ज्ञान पूरा हो गया । इस युक्ति से आप यह जानें कि कोई आत्मा ऐसा है कि जहाँ ज्ञान परिपूर्ण हो जाता है । जहाँ ज्ञान परिपूर्ण है वहाँ लोक अलोक सब एक साथ स्पष्ट प्रत्यक्ष ज्ञात होते हैं ।</p> | ||
<p | <p> देखिये―ज्ञान तो है जानने वाला और सारे पदार्थ है विषयभूत । तो विषय और विषयी इन दोनों के संबंध को देखा जाये तो कह सकते है कि भगवान के ज्ञान होने का निमित्त कारण सारा विश्व है । है वह निमित्त कारण विषय रूप से पर यह कभी नहीं कहा जा सकता कि पदार्थों के परिणमन होने का निमित्त कारण भगवान का ज्ञान है । जैसे कि आसानी से यह कह दिया जाता है कि भगवान ने जाना सो हो गया याने भगवान ने जाना इसलिए हो गया, यह कारण कार्य न बनेगा पर यह कारण कार्य तो बन जायगा विषयी के रूप से कि चूंकि ऐसा होना था सो भगवान ने जान लिया । तो भगवान का ज्ञान केवल ज्ञाता मात्र है । जो था, जो है जो होगा वह सब भगवान के द्वारा ज्ञात है ।</p> | ||
<p | <p><strong> प्रभु की उत्कष्ट ज्ञान और आनंद से परिपूर्णता</strong>―कोई शंका कर सकता है कि तीन काल की बात भगवान जानते है । यह बात कैसे समझें? अरे जो वर्तमान में पड़ा होगा सो झलकेगा, भूत भविष्य कैसे ज्ञान में आयगा? तो आप भगवान की बात थोड़ी देर को छोड़ो, अपनी ही बात सम्हाल लीजिए, अपने की किसी भी ढंग से हो, भूत काल की कुछ चीजों का ज्ञान होता है या नहीं? कम से कम इसी भव में 5-7 वर्ष की उम्र तक का अब से पहले का बहुतसा ज्ञान चलता है । जो-जो देखा जो-जो परिचय में आया उस सब विषयक ज्ञान चलता है । तो इसमें भी तो भूतकाल विषयक ज्ञान चलता है, भविष्य का भी चलता है । चाहे वह सही निकले या नहीं, मगर कला है ऐसी कि भविष्य का जाने । किसके सही निकल आता है, तो भूत वर्तमान और भविष्य तीनों काल के पदार्थो का ज्ञान प्रभु के होता है, सबका होता है । स्पष्ट प्रत्यक्ष होता है? यों मोक्षपद उत्कृष्ट ज्ञान से परिपूर्ण है । आनंद भी वहाँ परिपूर्ण है, क्योंकि आनंद के बाधक हैं अष्ट कर्म―चार घातियाकर्म, मोहनीयकर्म, वेदनीयकर्म, संसार के विषयों का आश्रय लेना, ये सारी की सारी बातें शिवपथ में नहीं है इस कारण वहाँ सुख में कोई बाधा नहीं है । जो सुख थोड़ा बहुत यहाँ मालूम होता है वह सुख क्या है? वह शांति की वस्तु नहीं है, किंतु कल्पना में बड़ा दुःख न रहा उससे कुछ सुख का अनुभव किया जाता है । जैसे मानों किसी को 105 डिग्री बुखार है, उतर कर रह गया 101 डिग्री, अब उससे कोई पूछे कि भाई अब कैसी तबीयत है? तो वह कहता है कि अब तो ठीक है । अरे ठीक कहां है? अभी तो 101 डिग्री बुखार है, पर वह थोड़ा कम हो जाने से मानता है कि ठीक है, तो ऐसी ही आप संसार की सारी स्थितियों में परख लो कि जिसको हम सुख मानते है वह सुख नहीं है । है वास्तव में दु:खरूप पर अन्य दुःख कुछ कम हो गया इस कारण अपने को सुखी मान लेते । वस्तुत: देखा जाय तो संसार के सभी सुख आकुलता से भरे है । भले ही मोह के कारण उन आकुलतावों पर दृष्टि नहीं डाल पाते । तो जहाँ इष्ट समागम का आश्रय नहीं, वेदनीय कर्म नहीं; मोहनीय नहीं, चार घातिया नहीं, अष्ट कर्म नहीं, शरीर नहीं, वहाँ पर सुख दुःख का क्या प्रसंग है । और सुख दु:ख से रहित जो अवस्था है वह अनंत आनंदरूप अवस्था है । तो वह शिवपद उत्कृष्ट ज्ञान और आनंद से भरा हुआ है ।</p> | ||
<p | <p><strong> जैन शासन का सर्वत्र प्रसार न हो सकने के तीन कारणों में प्रथम कारण का निर्देश</strong>―युक्त्यनुशासन में पूज्य समंतभद्राचार्य ने प्रभु की स्तुति करते हुए बताया है कि हे भगवान आपके गुण इतने अपार हैं कि कोई उनका वर्णन कर ही नहीं सकता है । हां हम अगर कुछ कह सकते हैं तो इतना ही कह पाते हैं कि भगवान काष्ठागत ज्ञान और आनंद वाले है अर्थात् सर्वाधिक ज्ञान और आनंद से परिपूर्ण हैं । इतना ही हम बोल सकते हैं, इससे अधिक हम कुछ कह नहीं सकते । अब बात देखो कि कह तो सब डाला, इससे अधिक कहने को क्या था? उत्कृष्ट ज्ञान और उत्कृष्ट आनंद से परिपूर्ण है । खैर यह तो स्तुति की बात है किंतु वहाँ कोई मानो भगवान की ओर से वकील बोला कि यह तो बताओ कि जब स्तुति में बताया है कि हे प्रभु आप अनंतज्ञान और अनंत आनंदमय हो, और तुम्हारा शासन निर्मल है जीवों को तार देने वाला है तो इतनी बड़ी अच्छी चीज है जैन शासन, किंतु सारे विश्व में इसका सर्वाधिक प्रचार क्यों नहीं है । याने सर्वत्र केवल एक शासन क्यों नहीं माना जा रहा है? तो उसका उत्तर श्री समंतभद्राचार्य ने कहा है―काल: कलिर्वा कलुषाशयोवा श्रोतु: प्रवक्तुर्वचनानयोवा । त्वच्छासनैकाधिपतित्वलक्ष्मी प्रभुत्वशक्तेरपवादहेतु: । अर्थात् हितकारी शासन का आधिपत्य सर्वत्र न होने के क्या है कारण सो सुनो―तीन कारण है उसके । (1) प्रथम कारण तो यह है कि आज का काल पंचमकाल है, कलिकाल है । इस कलिकाल में लोगों की भावनायें खोटी होती हैं, धर्म के प्रतिकूल होतीं हैं विषय सुखों में प्रगति की भावना होती है, धार्मिक चीजों में विघ्न करने में संतोष मानने की प्रकृति बनती है, ये सारी बातें कलिकाल के दोष से होती रहती है । सो प्रभु आपका यह शासन जो सर्वत्र नहीं फैल पा रहा है उसका प्रथम कारण है कलिकाल । पंचमकाल के अंत से जैन शासन तीर्थरूप में नहीं रहने का । वस्तु में तो धर्म रहेगा पर तीर्थरूप में न रहेगा । जैन शासन ने बताया है कि वस्तु उत्पाद-व्यय धौव्य युक्त है । तो क्या वस्तु का धर्म भी मिट जायगा । जो पदार्थ का धर्म है मेरा असाधारण स्वरूप है, आत्मा का असाधारण चैतन्य स्वभाव है वह कभी नहीं मिटता । धर्म कभी खतम न होगा । धर्म है वस्तु का स्वभाव । धर्म है तो वस्तु में, वस्तु का धर्म सदा रहेगा, पर उसके जानकार न रहेंगे और उस ज्ञान पर अमल करने वाले न रहेंगे, यह स्थिति बनेगी पंचमकाल के अंत में । यह कहलाता है धर्म का विनाश । तो प्रभु आपका शासन जो एकाधिपति रूप में जगत में नहीं है उसका पहला कारण है कलिकाल ।</p> | ||
<p | <p> <strong>जिन शासन का सर्वत्र आधिपत्य न होने का दूसरा कारण है</strong>―श्रोतावों का मलिन अभिप्राय होना । यद्यपि एक सभावों के रूप से प्रवचन के रूप से श्रोता वक्ता का संबंध चलता रहेगा और सभी श्रोता मलिन आशय वाले हों ऐसा भी नहीं है । श्रोता और वक्ता हित की इच्छा करने वाले भी होंगे मगर वे बहुत कम । बहुत से श्रोताजन तो यही बात देखेंगे कि वक्ता की कोई बात पकड़ें और श्रोतावों के बीचवक्ता से कोई ऐसी चर्चा छेड़ दें कि जिससे श्रोताजन समझलें कि यह श्रोता तो बड़े जानकार हैं, अथवा कोई ऐसा प्रश्न किया जाय कि जिसका उत्तर वक्ता न दे सके तो इससे हमारी महिमा जाहिर होगी या अन्य-अन्य प्रकार के अनेक भाव श्रोतावों के बन सकते हैं । तो जब श्रोतावों का आशय कलुषित है तो फिर जैन शासन की प्रभावना बन कैसे सकेगी? तो दूसरा कारण है―श्रोतावों का कलुषित आशय । एक ऐसी कथा बड़ी प्रसिद्ध है कि एक राजा को एक पुरोहित प्रतिदिन कथा सुनाया करता था । एक दिन उस पुरोहित को किसी काम से कहीं बाहर जाना पड़ा तो उसने अपने बेटे को शास्त्र सुनाने के लिए कह दिया । सो उस पुरोहित का बेटा उस दिन राजा को कथा सुना रहा था । उस कथा में एक प्रकरण ऐसा आ गया कि जो रत्ती भर भी मांस खावे वह नरक जायगा । अब राजा तो मांस बहुत खाता था सो उसको वह बात काफी खटकी । दूसरे दिन जब पुरोहित आया तो राजा नाराज होने लगा उस पुरोहित पर । तुमने कल कैसा कथा बांचने वाला भेज दिया था, वह तो कुछ नहीं जानता ।... अरे कैसे नहीं जानता महाराज? वह तो बनारस का पढ़ा हुआ है । काफी विद्वान है । अरे वह तो कह रहा था कि जो रत्ती भर भी मांस खावे वह नरक जायगा ।... तो राजा के मन की- बात समझ गया पुरोहित और बोला―हां उसने ठीक कहा था महाराज ।... कैसे?... इस तरह कि उसने यही तो कहा था कि जो रत्ती भर मांस खावे वह नरक जायगा । उसने यह तो नहीं कहा कि जो बहुत अधिक मांस खाता हो यह नरक जायगा । तो इस प्रकार का अपने मन माफिक उत्तर सुनकर राजा उस पर बड़ा प्रसन्न हुआ । तो इस काल में श्रोतावों का मलिन आशय है । वे अपने मनपसंद बात सुनना चाहते हैं । यदि मनपसंद बात न हुई तो झट कह उठते कि यह प्रवचन तो बेकार है । इससे किसी को क्या लाभ?</p> | ||
<p | <p><strong> वीरशासन का एकाधिपत्य न होने के कारणों में तीसरा कारण</strong>―वीरशासन का एकाधिपत्य न होने का तीसरा कारण है कि वक्ताओं को नयों का ज्ञान नहीं है । अभी कल ही एक जिकर आया था ज्ञप्ति और निष्पत्ति का । चर्चा में था कि ज्ञप्ति की दृष्टि से वर्णन और तरह होता है और निष्पत्ति याने उत्पत्ति की दृष्टि से वर्णन और प्रकार होता है । जैसे एक दृष्टांत लो―ऊपर पानी खूब बरसा और यहां नीचे हम आप रह रहे, यहाँ पानी का बाढ़ आ गया तो जानकारी की ओर से तो यों कहा जायगा कि यह बाढ़ आयी है तो ऊपर पानी बरसा है । याने बाढ़ आना तो वर्षा की ज्ञप्ति का कारण बन गया और पानी बरसना ज्ञप्ति में कार्य बन गया । साधन से साध्य का ज्ञान हुआ । साधन हुआ बाढ़ का आना और साध्य हुआ पानी का बरसना । पर उत्पत्ति की अपेक्षा देखिये तो यों बोला जायगा कि ऊपर पनी बरसता है, यह तो है कारण और बाढ़ आयी यह है कार्य । अब कोई उत्पत्ति की बात समझाना चाहे और ज्ञप्ति का प्रसंग छोड़कर उसमें बताये कि देखो जब बाढ़ आयी है तो पानी बरसता है यह बात जानने के लिए तो ठीक बैठती है मगर उत्पत्ति के लिए ठीक नहीं बैठती कि देखो बाढ़ आना कारण हुआ ना और पानी बरसना उसका कार्य हुआ । तो देखो एकदम उल्टी बात समझायी गई । जो बात ज्ञप्ति से समझना था उस रूप में उत्पत्ति बात समझा दी गई । तो वहाँ नयों का ज्ञान नहीं है यह ही तो कहा जायगा द्रव्यदृष्टि से जीव नित्यं है । अब कोई अनित्य की बात कहे तो यही तो कहेगा कि पर्याय दृष्टि से जीव अनित्य है । अगर पर्याय न हो तो जीव की सत्ता नहीं रह सकती । पर्यायशून्य कोई-द्रव्य नहीं होता । तो पर्यायदृष्टि से जीव अनित्य है, द्रव्य दृष्टि से नित्य है । अब इन नयों का कोई परिचय न पाये और वक्ता बन जाय तो उससे जगह-जगह त्रुटि होगी । तो वक्ताजनों को नयों को ज्ञान न होने से जैन शासन की प्रभावना नहीं हो पाती । ये तीन कारण हैं जिसकी वजह से हे प्रभो आपके शासन का एकाधिपत्य रहे यह बात नहीं बन पाती ।</p> | ||
<p | <p><strong> काष्ठागतविद्या विभव एवं अमल शिवपद की प्राप्ति का उपाय</strong>―तो देखिये―शिवपद की बात कही जा रही है । वहाँ उत्कृष्ट तो ज्ञान है और उत्कृष्ट आनंद है । ज्ञान और आनंद का वैभव काष्ठागत है, ऐसा वह शिवपद है, जहाँ कोई मल नहीं रहा । मल तीन प्रकार के होते हैं । (1) द्रव्यकर्म (2) भावकर्म और (3) नोकर्म । द्रव्यकर्म तो ज्ञानावरणादिक अष्टकर्म हैं, वे न रहे मोक्ष में । भावकर्म हैं रागद्वेषादिक विकार । ये भी नहीं हैं मोक्ष में । नोकर्म कहलाता है शरीर, वह भी नहीं है मोक्ष में । इस कारण से सिद्ध प्रभु अत्यंत निर्मल कहलाते हैं, ऐसा अमल है वह शिवपद । अब उस मोक्षपद में अंदर की बात देखिये―और यह भी सोचिये कि इन तीन मलों को हटाया कैसे गया? इन मलों की बात चित्त में रखकर मैं इनका नाश करूं, मैं इनको हटाऊं, ऐसा कहकर ये हटाये नहीं जा सकते । उनके हटाने का भी साधन स्वभावदृष्टि है । आत्मा का जो असाधारण स्वभाव है उस स्वभाव की दृष्टि करना यह ही है एक पौरुष जिस पौरुष के बल से यह आत्मा मोक्षपद प्राप्त करता हैं । जो व्यवहारचारित्र है, अणुव्रत, महाव्रत, ऐसी प्रवृत्ति करना, ऐसा चलना, ऐसा निरखना आदिक जो भी स्वाध्याय आदिक व्यवहार धर्म है वे धर्म इस लिए करने पड़ते हैं कि इस जीव पर अशुभ विषयवासना हावी है, क्योंकि अनादिकाल से इनका संस्कार है, सो वे अशुभ विकार विदा हो, मेरे में न आ सकें, शुद्धोपयोग तो अभी बन नहीं रहा, अशुभोपयोग और शुभोपयोग की योग्यता है तो ये विकार हम पर हावी न बन जाये, उस अशुभोपयोग को टालने का तत्काल सीधा सुगम उपाय शुभोपयोग है । उन व्यवहार धर्मो से हम अशुभोपयोग को टालते और शुद्धोपयोग के पात्र रहते है, उसी शुभोपयोग के प्रताप से कभी शुभोपयोग की सीमा से आगे बढ़कर शुद्धोपयोग में भी पहुंच जायेंगे । तो यह एक स्वभावदृष्टि को दृढ़ बनाने के लिए ये शुभोपयोग के भी प्रयत्न होते हैं और शुद्धोपयोग का पौरुष होता है । कार्य एक ही है हम आपको करने का कि हम अपने स्वभाव की दृष्टि रखें, इस ही के प्रताप से ये दर्शन ज्ञान चारित्रवान भव्य जीव मोक्ष पद को प्राप्त करते हैं ।</p> | ||
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
शिवमजर मरुजमक्षय-मव्याबाधं विशोकभयशंकम् ।
काष्ठागतसुखविद्या-विभवं विमलं भजंति दर्शनाशरणा: ।।40।।
सम्यग्दृष्टिजीव के मोक्षपद का लाभ―सम्यग्दर्शन का शरण जिसको मिल चुका है अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव उस सम्यक्त्व के प्रताप से इसही स्वभाव दृष्टि में बढ़कर सम्यक्चारित्र पाकर सम्यक्चारित्र की पूर्णता से मोक्ष पद को प्राप्त करते है । वह मोक्षपद कैसा है? अनेक लोग ऐसा सोचने लगते है कि जितना संसार में सुख है उससे कई गुना सुख मोक्ष में है पर संसार का सुख है अन्य जाति का, क्षोभ वाला तो क्षोभ वाले सुख से अनंतगुना सुख है इसका क्या अर्थ हुआ? सांसारिक सुख से कई गुना सुख है ऐसा न सोचना किंतु उनका आनंद विलक्षण जाति का है । इस सुख से बिल्कुल विपरीत जाति है । केवल आत्मा से ही विशुद्ध आनंद प्रकट होता है, जहाँ आकुलता का क्षोभ का नाम नहीं है । प्रथम तो यह विचारें कि उस जीव के शरीर नहीं है, केवल ज्ञानपुंज आत्मा । ज्ञानमात्र आत्मा जो ज्ञानमात्र आत्मा है उसके शरीरजन्य सुख का क्या काम है? आत्मा स्वयं आनंदस्वरूप है, इसलिए परम आल्हाद पूर्ण निराकुलता, केवल ज्ञाता दृष्टा रहना यह स्थिति होती है मोक्ष में । जहाँ पूर्ण निराकुलता है और ऐसी निराकुलता अनंतकाल तक बर्तती रहेगी, ऐसा पद है मोक्ष ।
अजर अरोग अक्षय अव्यावाध विशोक विभय अशंक शिवपद का गुणगान―मोक्षपद में जीर्णता का नाम नहीं है । आत्मा में कोई कमजोरी या जीर्णता नहीं आती इसलिए वह शिवपद अजर है, रोग रहित है । रोग का आधार है शरीर और शरीर से अत्यंत जुदा हो गया है, उस मोक्ष में रोग का क्या काम? वह शिवपद अनन्य है, अविनाशी है । जो अनंत चतुष्टय प्रकट हुआ है, अनंत ज्ञान, केवलज्ञान उसका कभी विनाश न होगा । समय-समय प्रति समय केवलज्ञान-केवलज्ञान रूप के परिणमन चलते रहेंगे, ऐसे ही अनंत दर्शन, अनंत शक्ति और अनंत आनंद ये सदा बर्तते रहेंगे, ऐसा अक्षय है वह शिवपद । जिस मोक्ष में बाधा का नाम नहीं । बाधा का यहाँ कारण था शरीर, मन, अनेक शारीरिक कष्ट थे, अनेक मानसिक कष्ट थे, जहाँ शरीर न रहा, वहाँ मानसिक कष्ट का भी काम नहीं, वह आत्मा है, ज्ञानमात्र है, परिपूर्ण सत् है वह शुद्ध विकास है, दोष का नाम नहीं, धर्मादिक द्रव्यों की तरह अब वह पूर्ण शुद्ध अवस्था है । वहाँ बाधा का काम नहीं है, वह शिवपद शोकरहित है । शोक का भी कारण है तन, मन और वचन । तो वचन से होने वाला जो कष्ट है वह मानसिक कष्ट में ही शामिल होता है और शरीर में होने वाले कष्ट शारीरिक कष्ट हैं । तो जहाँ शरीर नहीं वहाँ शंका का आधार कुछ रहा ही नहीं, मन नहीं तो शोक का आधार कुछ रहा ही नहीं । वह आत्मस्वरूप स्वयं सहज ज्ञान और आनंद से भरा हुआ है । जैसे यहाँ पुद्गल देखते हैं तो पुद्गल क्या? जो रूप, रस, गंध, स्पर्श का पिंड हो, तो आत्मा को बतलावो आत्मा क्या? जो ज्ञान और आनंद का पुंज हो । आत्मा का रहस्य बड़ा अद्भुत है जिसकी दृष्टि आत्मा के अंतस्तत्त्व पर पहुंच जाती है वह पुरुष धन्य है । आत्मा अमूर्त है, पर जैसे आकाश अमूर्त है किंतु सत् है, प्रदेशवान है ऐसे ही आत्मा स्वयं सत् है प्रदेशवान है और उसका असाधारण स्वरूप है ज्ञान और आनंद । ऐसा ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा जहाँ शुद्ध हुआ है, अकेला रह रहा है वह परिपूर्ण विकसित है, वहाँ शोक का क्या काम? भय भी किस बात का? विकल्प ही कुछ नहीं है और अमूर्त आकाश में आपत्ति क्या आती? जैसे लाठी मारी गई तो बताओ आकाश में लगेगी क्या? आग जलाया तो आकाश जलेगा क्या? जैसे अमूर्त आकाश को किसी पर पदार्थ से कोई बाधा नहीं आती, ऐसे ही अमूर्त आत्मा को किसी भी प्रकार से कोई बाधा नहीं आती । बहां भय का कोई अवकाश ही नहीं, और फिर निर्विकल्प है । तो वह शिवपद भयरहित है और इसी प्रकार शंकारहित है ।
शिवपद की काष्ठागतविद्याविभवता―इस शिवपद में ज्ञान और आनंद का वैभव उत्कृष्ट से भी उत्कृष्ट बन गया है । आत्मा ज्ञानस्वरूप है, पर ज्ञानावरण कर्म का उदय होने पर यह ज्ञान कम हो जाता है । न्याय के ढंग से विचार करें, जब ही आवरण हटता है तो वह ज्ञान बढ़ता है, तो एक ही नियम है कि पर पदार्थ के कारण जो चीज घटी और पर पदार्थ के हटने से जो चीज बढ़ी वह वस्तु कभी किसी के एकदम उत्कृष्ट बढ़ी हुई भी होती है । सामान्यतया यह दृष्टि दें कि जो चीज घटती है वह घटकर कभी बिल्कुल भी मिटती है, जो चीज बढ़ती है वह बढ़-बढ़कर कभी भी पूर्ण बढ़ जाती है । अभी इसमें दोष आयेंगे, उन दोषों का निराकरण करने के लिए विशेषण आयगा, पर सामान्यतया अभी यह जानें कि जो चीज घटा करती है वह घट-घटकर एकदम घट सकती है । जैसे रागद्वेष विकारभाव ये घटा करते है । किसी जीव में राग कम है किसी में और कम है, तो कोई जीव ऐसे भी होंगे कि जिन में राग बिल्कुल न रहेगा । दूसरी बात ज्ञान में दिखती है कि इसका ज्ञान अधिक है, इसका ज्ञान और भी अधिक है तो कोई आत्मा ऐसा भी होता होगा जिसके पूर्ण अधिक परिपूर्ण ज्ञान हो गया? सामान्यतया एक युक्ति लगावो, पर इसमें एक आपत्ति आती है कि हम उल्टा फेरकर रोक लगा दें कि ज्ञान किसी में कम है किसी में बहुत कम है तो किसी में बिल्कुल भी ज्ञान खत्म है । तथा किसी में राग अधिक है किसी में और अधिक है तो कोई ऐसा होता होगा कि जिसमें परिपूर्ण व सदा राग रहेगा । क्या ऐसा भी होता होगा कि जहाँ ज्ञान बिल्कुल न रहेगा? या राग सदा के लिए परिपूर्ण रहेगा । भैया, यह आपत्ति यों नहीं आती कि यहाँ यह समझना होगा कि आवरण के हटने पर, जो घटे वह कभी पूर्ण घट सकता है, आवरण के मिटने पर जो बढ़े वह कभी पूर्ण बढ़ा हुआ हो सकता । ये दो विशेषण साथ लेने से यह समस्या ठीक बैठती है । आवरण के हटने से राग बढ़ता है क्या किसी के आवरण के हटने से तो राग घटता है । इसलिए जब आवरण पूरा हट गया तो राग कहीं पूरा मिट गया । आवरण के हटने से ज्ञान बढ़ता है । तो जहाँ आवरण पूरा हट गया वहाँ ज्ञान पूरा हो गया । इस युक्ति से आप यह जानें कि कोई आत्मा ऐसा है कि जहाँ ज्ञान परिपूर्ण हो जाता है । जहाँ ज्ञान परिपूर्ण है वहाँ लोक अलोक सब एक साथ स्पष्ट प्रत्यक्ष ज्ञात होते हैं ।
देखिये―ज्ञान तो है जानने वाला और सारे पदार्थ है विषयभूत । तो विषय और विषयी इन दोनों के संबंध को देखा जाये तो कह सकते है कि भगवान के ज्ञान होने का निमित्त कारण सारा विश्व है । है वह निमित्त कारण विषय रूप से पर यह कभी नहीं कहा जा सकता कि पदार्थों के परिणमन होने का निमित्त कारण भगवान का ज्ञान है । जैसे कि आसानी से यह कह दिया जाता है कि भगवान ने जाना सो हो गया याने भगवान ने जाना इसलिए हो गया, यह कारण कार्य न बनेगा पर यह कारण कार्य तो बन जायगा विषयी के रूप से कि चूंकि ऐसा होना था सो भगवान ने जान लिया । तो भगवान का ज्ञान केवल ज्ञाता मात्र है । जो था, जो है जो होगा वह सब भगवान के द्वारा ज्ञात है ।
प्रभु की उत्कष्ट ज्ञान और आनंद से परिपूर्णता―कोई शंका कर सकता है कि तीन काल की बात भगवान जानते है । यह बात कैसे समझें? अरे जो वर्तमान में पड़ा होगा सो झलकेगा, भूत भविष्य कैसे ज्ञान में आयगा? तो आप भगवान की बात थोड़ी देर को छोड़ो, अपनी ही बात सम्हाल लीजिए, अपने की किसी भी ढंग से हो, भूत काल की कुछ चीजों का ज्ञान होता है या नहीं? कम से कम इसी भव में 5-7 वर्ष की उम्र तक का अब से पहले का बहुतसा ज्ञान चलता है । जो-जो देखा जो-जो परिचय में आया उस सब विषयक ज्ञान चलता है । तो इसमें भी तो भूतकाल विषयक ज्ञान चलता है, भविष्य का भी चलता है । चाहे वह सही निकले या नहीं, मगर कला है ऐसी कि भविष्य का जाने । किसके सही निकल आता है, तो भूत वर्तमान और भविष्य तीनों काल के पदार्थो का ज्ञान प्रभु के होता है, सबका होता है । स्पष्ट प्रत्यक्ष होता है? यों मोक्षपद उत्कृष्ट ज्ञान से परिपूर्ण है । आनंद भी वहाँ परिपूर्ण है, क्योंकि आनंद के बाधक हैं अष्ट कर्म―चार घातियाकर्म, मोहनीयकर्म, वेदनीयकर्म, संसार के विषयों का आश्रय लेना, ये सारी की सारी बातें शिवपथ में नहीं है इस कारण वहाँ सुख में कोई बाधा नहीं है । जो सुख थोड़ा बहुत यहाँ मालूम होता है वह सुख क्या है? वह शांति की वस्तु नहीं है, किंतु कल्पना में बड़ा दुःख न रहा उससे कुछ सुख का अनुभव किया जाता है । जैसे मानों किसी को 105 डिग्री बुखार है, उतर कर रह गया 101 डिग्री, अब उससे कोई पूछे कि भाई अब कैसी तबीयत है? तो वह कहता है कि अब तो ठीक है । अरे ठीक कहां है? अभी तो 101 डिग्री बुखार है, पर वह थोड़ा कम हो जाने से मानता है कि ठीक है, तो ऐसी ही आप संसार की सारी स्थितियों में परख लो कि जिसको हम सुख मानते है वह सुख नहीं है । है वास्तव में दु:खरूप पर अन्य दुःख कुछ कम हो गया इस कारण अपने को सुखी मान लेते । वस्तुत: देखा जाय तो संसार के सभी सुख आकुलता से भरे है । भले ही मोह के कारण उन आकुलतावों पर दृष्टि नहीं डाल पाते । तो जहाँ इष्ट समागम का आश्रय नहीं, वेदनीय कर्म नहीं; मोहनीय नहीं, चार घातिया नहीं, अष्ट कर्म नहीं, शरीर नहीं, वहाँ पर सुख दुःख का क्या प्रसंग है । और सुख दु:ख से रहित जो अवस्था है वह अनंत आनंदरूप अवस्था है । तो वह शिवपद उत्कृष्ट ज्ञान और आनंद से भरा हुआ है ।
जैन शासन का सर्वत्र प्रसार न हो सकने के तीन कारणों में प्रथम कारण का निर्देश―युक्त्यनुशासन में पूज्य समंतभद्राचार्य ने प्रभु की स्तुति करते हुए बताया है कि हे भगवान आपके गुण इतने अपार हैं कि कोई उनका वर्णन कर ही नहीं सकता है । हां हम अगर कुछ कह सकते हैं तो इतना ही कह पाते हैं कि भगवान काष्ठागत ज्ञान और आनंद वाले है अर्थात् सर्वाधिक ज्ञान और आनंद से परिपूर्ण हैं । इतना ही हम बोल सकते हैं, इससे अधिक हम कुछ कह नहीं सकते । अब बात देखो कि कह तो सब डाला, इससे अधिक कहने को क्या था? उत्कृष्ट ज्ञान और उत्कृष्ट आनंद से परिपूर्ण है । खैर यह तो स्तुति की बात है किंतु वहाँ कोई मानो भगवान की ओर से वकील बोला कि यह तो बताओ कि जब स्तुति में बताया है कि हे प्रभु आप अनंतज्ञान और अनंत आनंदमय हो, और तुम्हारा शासन निर्मल है जीवों को तार देने वाला है तो इतनी बड़ी अच्छी चीज है जैन शासन, किंतु सारे विश्व में इसका सर्वाधिक प्रचार क्यों नहीं है । याने सर्वत्र केवल एक शासन क्यों नहीं माना जा रहा है? तो उसका उत्तर श्री समंतभद्राचार्य ने कहा है―काल: कलिर्वा कलुषाशयोवा श्रोतु: प्रवक्तुर्वचनानयोवा । त्वच्छासनैकाधिपतित्वलक्ष्मी प्रभुत्वशक्तेरपवादहेतु: । अर्थात् हितकारी शासन का आधिपत्य सर्वत्र न होने के क्या है कारण सो सुनो―तीन कारण है उसके । (1) प्रथम कारण तो यह है कि आज का काल पंचमकाल है, कलिकाल है । इस कलिकाल में लोगों की भावनायें खोटी होती हैं, धर्म के प्रतिकूल होतीं हैं विषय सुखों में प्रगति की भावना होती है, धार्मिक चीजों में विघ्न करने में संतोष मानने की प्रकृति बनती है, ये सारी बातें कलिकाल के दोष से होती रहती है । सो प्रभु आपका यह शासन जो सर्वत्र नहीं फैल पा रहा है उसका प्रथम कारण है कलिकाल । पंचमकाल के अंत से जैन शासन तीर्थरूप में नहीं रहने का । वस्तु में तो धर्म रहेगा पर तीर्थरूप में न रहेगा । जैन शासन ने बताया है कि वस्तु उत्पाद-व्यय धौव्य युक्त है । तो क्या वस्तु का धर्म भी मिट जायगा । जो पदार्थ का धर्म है मेरा असाधारण स्वरूप है, आत्मा का असाधारण चैतन्य स्वभाव है वह कभी नहीं मिटता । धर्म कभी खतम न होगा । धर्म है वस्तु का स्वभाव । धर्म है तो वस्तु में, वस्तु का धर्म सदा रहेगा, पर उसके जानकार न रहेंगे और उस ज्ञान पर अमल करने वाले न रहेंगे, यह स्थिति बनेगी पंचमकाल के अंत में । यह कहलाता है धर्म का विनाश । तो प्रभु आपका शासन जो एकाधिपति रूप में जगत में नहीं है उसका पहला कारण है कलिकाल ।
जिन शासन का सर्वत्र आधिपत्य न होने का दूसरा कारण है―श्रोतावों का मलिन अभिप्राय होना । यद्यपि एक सभावों के रूप से प्रवचन के रूप से श्रोता वक्ता का संबंध चलता रहेगा और सभी श्रोता मलिन आशय वाले हों ऐसा भी नहीं है । श्रोता और वक्ता हित की इच्छा करने वाले भी होंगे मगर वे बहुत कम । बहुत से श्रोताजन तो यही बात देखेंगे कि वक्ता की कोई बात पकड़ें और श्रोतावों के बीचवक्ता से कोई ऐसी चर्चा छेड़ दें कि जिससे श्रोताजन समझलें कि यह श्रोता तो बड़े जानकार हैं, अथवा कोई ऐसा प्रश्न किया जाय कि जिसका उत्तर वक्ता न दे सके तो इससे हमारी महिमा जाहिर होगी या अन्य-अन्य प्रकार के अनेक भाव श्रोतावों के बन सकते हैं । तो जब श्रोतावों का आशय कलुषित है तो फिर जैन शासन की प्रभावना बन कैसे सकेगी? तो दूसरा कारण है―श्रोतावों का कलुषित आशय । एक ऐसी कथा बड़ी प्रसिद्ध है कि एक राजा को एक पुरोहित प्रतिदिन कथा सुनाया करता था । एक दिन उस पुरोहित को किसी काम से कहीं बाहर जाना पड़ा तो उसने अपने बेटे को शास्त्र सुनाने के लिए कह दिया । सो उस पुरोहित का बेटा उस दिन राजा को कथा सुना रहा था । उस कथा में एक प्रकरण ऐसा आ गया कि जो रत्ती भर भी मांस खावे वह नरक जायगा । अब राजा तो मांस बहुत खाता था सो उसको वह बात काफी खटकी । दूसरे दिन जब पुरोहित आया तो राजा नाराज होने लगा उस पुरोहित पर । तुमने कल कैसा कथा बांचने वाला भेज दिया था, वह तो कुछ नहीं जानता ।... अरे कैसे नहीं जानता महाराज? वह तो बनारस का पढ़ा हुआ है । काफी विद्वान है । अरे वह तो कह रहा था कि जो रत्ती भर भी मांस खावे वह नरक जायगा ।... तो राजा के मन की- बात समझ गया पुरोहित और बोला―हां उसने ठीक कहा था महाराज ।... कैसे?... इस तरह कि उसने यही तो कहा था कि जो रत्ती भर मांस खावे वह नरक जायगा । उसने यह तो नहीं कहा कि जो बहुत अधिक मांस खाता हो यह नरक जायगा । तो इस प्रकार का अपने मन माफिक उत्तर सुनकर राजा उस पर बड़ा प्रसन्न हुआ । तो इस काल में श्रोतावों का मलिन आशय है । वे अपने मनपसंद बात सुनना चाहते हैं । यदि मनपसंद बात न हुई तो झट कह उठते कि यह प्रवचन तो बेकार है । इससे किसी को क्या लाभ?
वीरशासन का एकाधिपत्य न होने के कारणों में तीसरा कारण―वीरशासन का एकाधिपत्य न होने का तीसरा कारण है कि वक्ताओं को नयों का ज्ञान नहीं है । अभी कल ही एक जिकर आया था ज्ञप्ति और निष्पत्ति का । चर्चा में था कि ज्ञप्ति की दृष्टि से वर्णन और तरह होता है और निष्पत्ति याने उत्पत्ति की दृष्टि से वर्णन और प्रकार होता है । जैसे एक दृष्टांत लो―ऊपर पानी खूब बरसा और यहां नीचे हम आप रह रहे, यहाँ पानी का बाढ़ आ गया तो जानकारी की ओर से तो यों कहा जायगा कि यह बाढ़ आयी है तो ऊपर पानी बरसा है । याने बाढ़ आना तो वर्षा की ज्ञप्ति का कारण बन गया और पानी बरसना ज्ञप्ति में कार्य बन गया । साधन से साध्य का ज्ञान हुआ । साधन हुआ बाढ़ का आना और साध्य हुआ पानी का बरसना । पर उत्पत्ति की अपेक्षा देखिये तो यों बोला जायगा कि ऊपर पनी बरसता है, यह तो है कारण और बाढ़ आयी यह है कार्य । अब कोई उत्पत्ति की बात समझाना चाहे और ज्ञप्ति का प्रसंग छोड़कर उसमें बताये कि देखो जब बाढ़ आयी है तो पानी बरसता है यह बात जानने के लिए तो ठीक बैठती है मगर उत्पत्ति के लिए ठीक नहीं बैठती कि देखो बाढ़ आना कारण हुआ ना और पानी बरसना उसका कार्य हुआ । तो देखो एकदम उल्टी बात समझायी गई । जो बात ज्ञप्ति से समझना था उस रूप में उत्पत्ति बात समझा दी गई । तो वहाँ नयों का ज्ञान नहीं है यह ही तो कहा जायगा द्रव्यदृष्टि से जीव नित्यं है । अब कोई अनित्य की बात कहे तो यही तो कहेगा कि पर्याय दृष्टि से जीव अनित्य है । अगर पर्याय न हो तो जीव की सत्ता नहीं रह सकती । पर्यायशून्य कोई-द्रव्य नहीं होता । तो पर्यायदृष्टि से जीव अनित्य है, द्रव्य दृष्टि से नित्य है । अब इन नयों का कोई परिचय न पाये और वक्ता बन जाय तो उससे जगह-जगह त्रुटि होगी । तो वक्ताजनों को नयों को ज्ञान न होने से जैन शासन की प्रभावना नहीं हो पाती । ये तीन कारण हैं जिसकी वजह से हे प्रभो आपके शासन का एकाधिपत्य रहे यह बात नहीं बन पाती ।
काष्ठागतविद्या विभव एवं अमल शिवपद की प्राप्ति का उपाय―तो देखिये―शिवपद की बात कही जा रही है । वहाँ उत्कृष्ट तो ज्ञान है और उत्कृष्ट आनंद है । ज्ञान और आनंद का वैभव काष्ठागत है, ऐसा वह शिवपद है, जहाँ कोई मल नहीं रहा । मल तीन प्रकार के होते हैं । (1) द्रव्यकर्म (2) भावकर्म और (3) नोकर्म । द्रव्यकर्म तो ज्ञानावरणादिक अष्टकर्म हैं, वे न रहे मोक्ष में । भावकर्म हैं रागद्वेषादिक विकार । ये भी नहीं हैं मोक्ष में । नोकर्म कहलाता है शरीर, वह भी नहीं है मोक्ष में । इस कारण से सिद्ध प्रभु अत्यंत निर्मल कहलाते हैं, ऐसा अमल है वह शिवपद । अब उस मोक्षपद में अंदर की बात देखिये―और यह भी सोचिये कि इन तीन मलों को हटाया कैसे गया? इन मलों की बात चित्त में रखकर मैं इनका नाश करूं, मैं इनको हटाऊं, ऐसा कहकर ये हटाये नहीं जा सकते । उनके हटाने का भी साधन स्वभावदृष्टि है । आत्मा का जो असाधारण स्वभाव है उस स्वभाव की दृष्टि करना यह ही है एक पौरुष जिस पौरुष के बल से यह आत्मा मोक्षपद प्राप्त करता हैं । जो व्यवहारचारित्र है, अणुव्रत, महाव्रत, ऐसी प्रवृत्ति करना, ऐसा चलना, ऐसा निरखना आदिक जो भी स्वाध्याय आदिक व्यवहार धर्म है वे धर्म इस लिए करने पड़ते हैं कि इस जीव पर अशुभ विषयवासना हावी है, क्योंकि अनादिकाल से इनका संस्कार है, सो वे अशुभ विकार विदा हो, मेरे में न आ सकें, शुद्धोपयोग तो अभी बन नहीं रहा, अशुभोपयोग और शुभोपयोग की योग्यता है तो ये विकार हम पर हावी न बन जाये, उस अशुभोपयोग को टालने का तत्काल सीधा सुगम उपाय शुभोपयोग है । उन व्यवहार धर्मो से हम अशुभोपयोग को टालते और शुद्धोपयोग के पात्र रहते है, उसी शुभोपयोग के प्रताप से कभी शुभोपयोग की सीमा से आगे बढ़कर शुद्धोपयोग में भी पहुंच जायेंगे । तो यह एक स्वभावदृष्टि को दृढ़ बनाने के लिए ये शुभोपयोग के भी प्रयत्न होते हैं और शुद्धोपयोग का पौरुष होता है । कार्य एक ही है हम आपको करने का कि हम अपने स्वभाव की दृष्टि रखें, इस ही के प्रताप से ये दर्शन ज्ञान चारित्रवान भव्य जीव मोक्ष पद को प्राप्त करते हैं ।