रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 5: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p | <div class="PravachanText"><p><strong>आप्तेनोच्छिन्नदोषेण, सर्वज्ञेनागमेशिना ।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>भवितव्यं नियोगेन, नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।।5।।</strong></p> | ||
<p | <p> <strong>निर्दोष आत्मा के ही आप्तपने की संभवता</strong>―इससे पहले श्लोक में यह कहा था कि वास्तविक आप्त आगम और गुरु का श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है । तो उन तीनों में से प्रथम कहा हुआ जो आप्त है उसका क्या स्वरूप है यह वर्णन इस श्लोक में चल रहा है । आप्त का शब्दार्थ है पहुंचा हुआ, व्याप्त हुआ, छाया हुआ और उसका भावार्थ है कि वह परमात्मा जिसकी दिव्यध्वनि से आगम की रचना बनी है उसे कहते हैं आप्त । वह आप्त कैसा होता है? दोषरहित, सर्वज्ञ और आगम का अधिकारी याने हितोपदेशी । जहाँ ये तीन बातें पाई जायें उसे आप्त कहते है । अब इसके विरुद्ध कुछ कल्पना करके सोचिये आप्त में 3 बातें कहा है―(1) निर्दोष (2) सर्वज्ञ और (3) हितोपदेशी । यदि निर्दोष न हो तो क्या वह आप्त हो सकता है? जिसमें क्षुधा, तृषा, वेदना रोग ये दोष पाये जायें तो वह खुद ही सुखी नहीं है । फिर वह दूसरों को आनंद का क्या उपदेश दे सकता है? काम विकार आदिक भी दोष है, ये जिनके दोष नहीं मिटे, कामी है विकारी है कोई तो वह खुद पराधीन है, काम के विषयभूत है, पर पुरुष या स्त्री के ध्यान में निरंतर रहने से वह पराधीन है वह क्या आप्त हो सकेगा? जिसके रागद्वेष है वह स्वयं कलंकित है, वह आप्त कैसे हो सकता है? वह सत्य कैसे बोल सकता है? जिसके रागद्वेष भाव लगा है वह यथार्थ उपदेश नहीं कर सकता । फिर जो दोषी है वह उन दोषों के वशीभूत होकर या भय के वशीभूत होकर या जीवन में क्रूरता के परिणाम बढ़ाकर वह अनेक साधन रखेगा । कोई स्त्री रखे है फिर भी यह प्रसिद्धि कर रहा कि मैं भगवान हूँ । कोई हथियार रखे है, किसी के पुत्र भी है तो भी यह प्रसिद्धि करता है कि मैं भगवान हूँ, जो शस्त्र रखे हैं सो क्यों रखता है? या तो उसे शौक है या कोई डर लगा है । तो शौक होना वह भी दोष, डर लगा है तो वह तो बड़ा डरपोक । वह प्रभु कैसे हो सकता है? तो निर्दोष होना यह आप्त का पहला विशेषण है । उसके बिना आगे की बात चल ही न सकेगी ।</p> | ||
<p | <p><strong> निर्दोष व सर्वज्ञ आत्मा के ही आप्तपना की संभवता</strong>―आप्त का दूसरा विशेषण दिया है सर्वज्ञ, जो सर्व को जानने वाला हो वह आप्त है क्योंकि जो सबको न जानता हो वह सर्व बातों का कैसे वर्णन कर सकता है? सर्व कितनी चीजें है? पहले तो द्रव्य की जाति जानों कि द्रव्य 6 प्रकार के होते है (1) जीव, (2) पुद्गल, (3) धर्म, (4) अधर्म, (5) आकाश और (6) काल । जीव द्रव्य हैं अनंत, पुद्गल हैं अनंत । धर्मद्रव्य एक है, अधर्मद्रव्य एक है, आकाशद्रव्य एक है और कालद्रव्य असंख्याते हैं । अब इनमें से मानो एक जीव को ही ग्रहण करे तो एक जीव में अनंत शक्ति है―ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनंद, आदिक और एक-एक शक्ति की भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यकाल की अपेक्षा अनंत पर्यायें हैं । उन अनंत पर्यायों में एक ही पर्याय में अनंत रस भरे पड़े हैं । ऐसे-ऐसे अनंत जीव, अनंत पुद्गल कितने पदार्थ है जगत में उन सबका जानने वाला जो पुरुष होगा वही प्रयोजन की सच्ची बातें कह सकेगा । इसलिये आप्त के लक्षण में दूसरा विशेषण कहा है कि वह सर्वज्ञ होना चाहिये ।</p> | ||
<p | <p><strong> निर्दोष, सर्वज्ञ हितोपदेशी आत्मा के ही आप्तपना की संभवता</strong>―आप्त का तीसरा विशेषण है हितोपदेशी । सकल परमात्मा का जो उपदेश है यह सर्व जीवों के हित के लिये है । जैसे मनुष्यों को दया का, संयम का, व्रत का उपदेश किया है तो जो लोग उन उपदेशों का पालन करेंगे उनका हित होगा और जीव दया का उपदेश दिया तो वह जीव दया पालेगा तो अनेक जीवो में दया होगी । उनकी हिंसा बच गई सो यह अन्य जीवों का हित है । तो आप्त हितोपदेशी होता है । इससे यह अर्थ जानें कि आप्त के उपदेशों की परंपरा से जो आप्त आगम है, जो चार अनुयोगों में विभक्त है―(1) प्रथमानुयोग, (2) करणानुयोग, (3) चरणानुयोग, (4) द्रव्यानुयोग । सो प्रत्येक शास्त्र के कथन में आत्मा के हित की ही बात कही गई है । पुराणों में चारित्र देकर यह श्रद्धा करायी गई है कि जो शुभ भाव करेगा सो पुण्य बाँधेगा । जो अशुभ भाव करेगा सो पाप बाँधेगा और जो शुभाशुभ दोनों से रहित आत्मा के शुद्ध भाव को करेगा वह मोक्ष पायगा । तो उस प्रथमानुयोग पुराण के सुनने से उदाहरण भी सामने आने से यह श्रद्धा दृढ़ होती है कि मेरे आत्मा को तो शुभ और अशुभ भाव से हटकर शुद्ध भाव में लगना चाहिए । प्रथमानुयोग में बाह्य-क्रियाओं का वर्णन है और अंतरंग भावना का उसमें समन्वय है तो योग्य क्रियायें करने से इन जीवों को पात्रता होती है कि वे मोक्ष मार्ग में चल सकें । तो वह भी उपकारक उपदेश है । करणानुयोग में तो तीन लोक, तीन काल, गुणस्थान मार्गणा आदिक का सूक्ष्म से सूक्ष्म विवेचन है जिससे अपनी स्थिति का हम पहले क्या थे उन बातों का, अब हमें क्या करना चाहिए, इन सबका वहाँ ज्ञान बताया है । द्रव्यानुयोग में आत्मा और आत्मा का स्वरूप दिखाकर अनात्मा से हटना और सहज आत्मस्वरूप में लगना, इस तरह का उपदेश करके जो आत्मा को निर्दोष निर्मोह बनाया तो उसमें भी आत्मा के उद्धार की ही बात लिखी है, ऐसा आगम का जो प्रसंग है हितोपदेशी द्वारा कहा गया है ।</p> | ||
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<p | <p> <strong>आप्त के लक्षण में निर्दोष, सर्वज्ञ व हितोपदेशी इन तीन विशेषणों की सार्थकता</strong>―यहां एक शंका की जा सकती है कि आप्त अरहंतदेव के लक्षण में दिव्यध्वनि द्वारा आगम प्रसार करने वाले तीर्थंकर आदिक में यहाँ जो तीन गुण बतला रहे विशेषण बतला रहे, सो तीन की क्या जरूरत थी? एक ही विशेषण से सब काम बन जाता । जैसे प्रभु निर्दोष होते हैं तो अब अर्थ आगे बढ़ाते जाइये जो निर्दोष प्रभु हैं, परमात्मा हैं सो शास्त्र के रचने वाले हैं, पहुंचे हुए है । तो एक निर्दोष शब्द के कहने से ही सही परमात्मा का परिचय होता है और उसमें कुछ उपयोग देकर अपने आपको सुखी शांत बनाया जाता है । तो इस निर्दोष की बात श्लोक में रखते यानि केवल निर्दोष शब्द ही कहा जाता । इस शंका के उत्तर में कहते है कि यदि सर्वज्ञ और हितोपदेशी ये दो विशेषण हटा देते तो उसका अर्थ यह बनता कि जो क्षुधा तृषा रागद्वेषादिक दोषों से रहित है वह है आप्त । इतना ही अगर कहते तो पुद्गल धर्मादिक द्रव्य इनमें कहाँ क्षुधा, तृषा, रोग, शोक पाये जाते है । तो सिर्फ निर्दोष को ही कहते कि यह आप्त है और सर्वज्ञ और हितोपदेशी ये दो विशेषण न कहते तो पुद्गल धर्मादिक द्रव्य आप्त बन जाते, इससे केवल निर्दोष कहकर आप्त को सही लक्षण बताने की कोशिश नहीं निभती । निर्दोष हो और सर्वज्ञ हो वही पुरुष आप्त हो सकता है । तो कोई शंका करे कि ये दो ही विशेषण रहने दो―निर्दोष हो और सर्वज्ञ हो, हितोपदेशी शब्द न कहते, तो इस शंका का उत्तर यह है कि सिद्ध भगवान निर्दोष हैं और सर्वज्ञ हैं, पर वे आप्त तो नहीं कहलाते । यद्यपि सिद्ध भगवान आप्त से बड़े हैं, आप्त तो अरहंत अवस्था का नाम है । तीर्थकर या अन्य अरहंत जिनकी दिव्यध्वनि खिरती है और ज्ञानधारा जहाँ से बहती है उसे आप्त कहते है । सिद्ध भगवान के 8 कर्म नहीं है । शरीर नहीं है अरि वह बहुत उत्कृष्ट पूर्ण सर्वोत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त है फिर भी । सिद्ध भगवान की वजह से परंपरा से शास्त्र नहीं निकले । आगम नहीं निकला । आगम निकला है आप्त की परंपरा से । आप्त का निर्दोष और सर्वज्ञ ये दो विशेषण देते हितोपदेशी न कहते तो भी आप्त का लक्षण पूरा नहीं बनता । आज हम जैन शासन का अध्ययन कर रहे है । वे शास्त्र कहां से निकले, उनका मूल प्रणेता कौन है, यह निर्णय हुए बिना शास्त्र में भी श्रद्धान न जगेगा । इसके प्रणेता निर्दोष सर्वज्ञ हितोपदेशी अरहंत भगवान है, उनकी परंपरा से चले आये शास्त्र में असत्यता का कोई अवकाश नहीं । सर्व सत्य है और प्रामाणिक है । तो इस प्रकार आप्त भगवान के लक्षण में ये तीन विशेषण दिये हैं―निर्दोष हो, सर्वज्ञ हो और हितोपदेशी हो ।</p> | ||
<p | <p> <strong>निर्दोष, सर्वज्ञ व हितोपदेशी हुए बिना आप्तपने की असंभवता</strong>―उक्त तीनों गुणों से रहित कोई भी हो वह यदि अपने को भगवान जाहिर करे तो वह केवल एक लौकिक चाल की ही बात रही, पर प्रभुता नहीं आयी उनमें । क्योंकि जो निर्दोष नहीं है वह पराधीन है, दु:खी है उसके वचन सत्य कैसे निकल सकते? सो इस प्रकार ये तीनों ही विशेषण आप्त के कथन में देना आवश्यक हुआ, ऐसा आप्त तत्त्वार्थ का कहने वाला है । प्रभु सर्वज्ञ हैं, तीन लोक तीन काल के सर्व पदार्थो को एक साथ जानते है । ऐसा सर्व विषयक ज्ञान होना आत्मा से है इंद्रिय द्वारा संभव नहीं है क्योंकि इंद्रिय तो एक सामने रहने वाले पदार्थ को जानेगी, और उसमें भी कुछ जानेगी, सबको न जानेगी जैसे आँख से जाना कि यह चौकी है तो आँख ने चौकी के बारे में कितना समझा कि बस ऊपर से यह रंग रूप और सामने जितना आकार दीख रहा, बस इतना ही भर आँखों द्वारा जाना । चूंकि पूरा नहा जान पाये । पूरा क्या? कि अनादि अनंत है, अनंत शक्ति वाला है आदि, सो इन पदार्थो को भी इंद्रियज्ञान पूरा नहीं जान सकता । सर्व का जाननहार ज्ञान अतींद्रिय है, इंद्रिय से परे है । इंद्रियजंय ज्ञान स्थूल को जानेगा, सामने रहने वाले पदार्थ को जानेगा । वर्तमान में जो बन रहा है उसे जानेगा, पर इतने स्थूल क्रमवर्ती को जानने से कोई सर्वज्ञ नहीं होता । सर्वज्ञ होता है तो एक इस सत्यार्थ स्वरूप के ज्ञान के बल पर ।</p> | ||
<p | <p> <strong>श्लोक में कहे गये तीन विशेषणों के क्रमस्थापन का रहस्य</strong>―इस श्लोक में आप्त के तीन विशेषणों का जो क्रम रखा है उससे क्या संबंध निकलता है सो देखिये? सबसे पहला विशेषण है भगवान का आप्त का जिसकी दिव्यध्वनि की परंपरा से हम सबको यह तत्व ज्ञान मिला है । सो उसके तीन प्रकार है, देखिये तीन बातें कही हैं―निर्दोष, सर्वज्ञ, हितोपदेशी इनमें कारण कार्य बना है । निर्दोष होंगे तब ही सर्वज्ञ बनेंगे दोष रहित हुए कोई सर्वज्ञ नहीं बन सकता । करणानुयोग के अनुसार निर्दोष होना 12 हैं गुण स्थान में हो जाता है । 10 वें गुण-स्थान के अंत में निर्दोष हो जाता है । अर्थात् किसी भी मोहनीय कर्म की सत्ता न रही क्षपक के 12 वें गुणस्थान में तो जब यह निर्दोष अवस्था मिली 1 2वां गुणस्थान मिला तब वह 13 वां गुणस्थान पाया याने सर्वज्ञ हुए । तो निर्दोष जो होगा सो ही सर्वज्ञ होगा, दूसरा कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता । यह संबंध बना है । जो निर्दोष होगा, सर्वज्ञ होगा वही हितोपदेष्टा हो सकता है दूसरा नहीं हो सकता । तो आप्त के ये तीन विशेषण दिए । आगम के मूल प्रणेता अरहंत भगवान में ये तीन विशेषण इस क्रम से न रखते और दूसरा क्रम रख देते तब सर्वज्ञ, निर्दोष, हितोपदेशी या हितोपदेशी, सर्वज्ञ, निर्दोष, तो ऐसे कुछ भी अटपट क्रम में यह सर्वज्ञ नहीं विदित हो सकता । उल्टी बात आती है । यहाँ काल का भी क्रम आ गया । पहले निर्दोष होता है कोई फिर सर्वज्ञ होता है वही कोई फिर हितोपदेशी होता है । कारण भी आ गया, निर्दोष हुआ इस कारण सर्वज्ञ हुआ । सर्वज्ञ हुआ इस कारण हितोपदेशी हुआ । यह चर्चा किसकी चल रही है? इन्हीं शास्त्रों की निकली है। उन शास्त्रों का मूल वक्ता, मूल प्रणेता कौन था, उसका यह वर्णन चल रहा है । वह थे निर्दोष: इसलिए कोई झूठ बात उसमें आ नहीं सकती । वह थे सर्वज्ञ इसलिए कोई अज्ञानकृत दोष के कारण भी झूठ बात आ नहीं सकती । उनके अज्ञान है ही नहीं । वह थे हितोपदेशी सो किसी अहित बात का यहाँ उपदेश हो ही नहीं सकता । सम्यग्दृष्टि से लेकर, पहली प्रतिमा से लेकर बढ़ते चले जाइये । महाव्रती हुये, क्षपक श्रेणी में चढ़े, सभी का आचार, सभी का व्यवहार अपनी-अपनी भूमिका में हित की ओर रहने वाला रहता है । अहित वाला व्यवहार नहीं रहा । तौ प्रभु जो निर्देश हो सर्वज्ञ हो वही हितोपदेशी है और जिसमें ये तीन गुण हों उसके द्वारा जो आज शास्त्र प्रवाह चल रहा है वह पूरा प्रामाणिक है । जो लोग इन शास्त्रों के अध्ययन में नहीं है और न प्रयत्न करना चाहते कि हम कुछ सीखें, अध्ययन करें, जिससे हमें विदित हो कि शास्त्रों में जो कुछ लिखा है वह वस्तुस्वरूप के अनुसार लिखा है । जैन शासन कहो या विश्व धर्म कहो । विश्व मायने समस्त पदार्थ उनको बताने वाला, उनके धर्म को जताने वाला यह शासन है । ऐसे परंपरा से चले आये हुए इन शास्त्रों के अध्ययन से हम अपने कल्याण की बात पाते हैं ।</p> | ||
<p | <p> <strong>आप्त की पुरुषोत्तमता</strong>―वे आप्त मनुष्य हैं। अरहंत भगवान मनुष्य हैं जिनकी हम पूजा करते हैं मूर्ति बनाकर । वे मनुष्यगति के जीव हैं । अब आप देखिये मनुष्य-मनुष्य में कितने भेद पड़ गए हैं । कोई मनुष्य अज्ञानी मिथ्यादृष्टि खुद व्याकुल ऐसी स्थिति में है तो कोई मनुष्य यथार्थ वान और श्रद्धान पाकर कुशल बना, सावधान बना है और वह अनंत संसार वाले कर्मो को नहीं बांधता । एक वह मनुष्य है । और एक वह मनुष्य है जो आत्मानुभव करने की दिशा में बढ़ रहा है और अपनी भूमि का के अनुसार अणुव्रत धारण कर रहा है और उसमें 11 प्रतिमा के भेद और एक वह मनुष्य जिसका किसी प्रकार का शल्य नहीं है । किसी बाह्य पदार्थ में अटका हुआ नहीं है मुनि है, महाव्रती है; शरीरमात्र ही जिसका परिग्रह है तो एक ऐसा मनुष्य । और वही मुनीश्वर जब अपने आत्मा पर एक कब्जा प्राप्त कर लेते है तो वे श्रेणी में बढ़ते है । जहाँ शुद्ध ध्यान है । रागद्वेष की प्रवृत्ति नहीं है, एक तो वह मनुष्य और एक वह मनुष्य कि जिसके अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत शक्ति और अनंत आनंद प्रकट हुआ है, जिसकी दिव्य वाणी सुनने के लिए स्वर्ग खाली हो जाता हैं । देव लोग आ जाते है । खाली होने का मतलब बिल्कुल खाली नहीं किंतु वहाँ कोई चहल पहल नहीं रहती, सब विक्रिया ऋद्धि से भगवान के समवशरण में आ जाते हैं । कैसी समवशरण की रचना, कैसी परम वैराग्य की मुद्रा, एक वह मनुष्य है । तो मनुष्यों के अनेक भेद है । जिन आप्त का हम वर्णन कर रहे हैं वे आप्त हैं मनुष्य, किंतु मनुष्यों में अलौकिक मनुष्य हैं, जिन्हें मनुष्य न कहकर भगवान कहियेगा । ये अनंत ज्ञान द्वारा सबको जानते हैं । अनंत दर्शन द्वारा सबका अवलोकन करते है । अनंत शक्ति द्वारा सर्व इन अनंत गुणों को, अनंत विकासों को सम्हाले हुए हैं । अनंत आनंद द्वारा अद्भुत अलौकिक आनंद को भोग रहे हैं । तो ऐसे लोकालोक में व्याप्त हो जाने से याने जिनका ज्ञान इतना बढ़ा चढ़ा है कि उसमें सारे लोकालोक प्रतिबिंबित हो गए तो ऐसे व्याप्त हो जाने के कारण जो अन्य दीन मनुष्यों में आत्मरूप न पाया जाय, ऐसे आत्मस्वरूप से वे देदीप्यमान रहते है । ये प्रभु देवाधिदेव मनुष्य पर्याय में रहने वाले अनंतज्ञान, अनंतशक्ति आदिक गुणों के कारण ये आप्त कहलाते हैं । उनकी वाणी है यह सब जो कि आज अनेक शास्त्रों के रूप में फैली हुई है ।</p> | ||
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
आप्तेनोच्छिन्नदोषेण, सर्वज्ञेनागमेशिना ।
भवितव्यं नियोगेन, नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ।।5।।
निर्दोष आत्मा के ही आप्तपने की संभवता―इससे पहले श्लोक में यह कहा था कि वास्तविक आप्त आगम और गुरु का श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है । तो उन तीनों में से प्रथम कहा हुआ जो आप्त है उसका क्या स्वरूप है यह वर्णन इस श्लोक में चल रहा है । आप्त का शब्दार्थ है पहुंचा हुआ, व्याप्त हुआ, छाया हुआ और उसका भावार्थ है कि वह परमात्मा जिसकी दिव्यध्वनि से आगम की रचना बनी है उसे कहते हैं आप्त । वह आप्त कैसा होता है? दोषरहित, सर्वज्ञ और आगम का अधिकारी याने हितोपदेशी । जहाँ ये तीन बातें पाई जायें उसे आप्त कहते है । अब इसके विरुद्ध कुछ कल्पना करके सोचिये आप्त में 3 बातें कहा है―(1) निर्दोष (2) सर्वज्ञ और (3) हितोपदेशी । यदि निर्दोष न हो तो क्या वह आप्त हो सकता है? जिसमें क्षुधा, तृषा, वेदना रोग ये दोष पाये जायें तो वह खुद ही सुखी नहीं है । फिर वह दूसरों को आनंद का क्या उपदेश दे सकता है? काम विकार आदिक भी दोष है, ये जिनके दोष नहीं मिटे, कामी है विकारी है कोई तो वह खुद पराधीन है, काम के विषयभूत है, पर पुरुष या स्त्री के ध्यान में निरंतर रहने से वह पराधीन है वह क्या आप्त हो सकेगा? जिसके रागद्वेष है वह स्वयं कलंकित है, वह आप्त कैसे हो सकता है? वह सत्य कैसे बोल सकता है? जिसके रागद्वेष भाव लगा है वह यथार्थ उपदेश नहीं कर सकता । फिर जो दोषी है वह उन दोषों के वशीभूत होकर या भय के वशीभूत होकर या जीवन में क्रूरता के परिणाम बढ़ाकर वह अनेक साधन रखेगा । कोई स्त्री रखे है फिर भी यह प्रसिद्धि कर रहा कि मैं भगवान हूँ । कोई हथियार रखे है, किसी के पुत्र भी है तो भी यह प्रसिद्धि करता है कि मैं भगवान हूँ, जो शस्त्र रखे हैं सो क्यों रखता है? या तो उसे शौक है या कोई डर लगा है । तो शौक होना वह भी दोष, डर लगा है तो वह तो बड़ा डरपोक । वह प्रभु कैसे हो सकता है? तो निर्दोष होना यह आप्त का पहला विशेषण है । उसके बिना आगे की बात चल ही न सकेगी ।
निर्दोष व सर्वज्ञ आत्मा के ही आप्तपना की संभवता―आप्त का दूसरा विशेषण दिया है सर्वज्ञ, जो सर्व को जानने वाला हो वह आप्त है क्योंकि जो सबको न जानता हो वह सर्व बातों का कैसे वर्णन कर सकता है? सर्व कितनी चीजें है? पहले तो द्रव्य की जाति जानों कि द्रव्य 6 प्रकार के होते है (1) जीव, (2) पुद्गल, (3) धर्म, (4) अधर्म, (5) आकाश और (6) काल । जीव द्रव्य हैं अनंत, पुद्गल हैं अनंत । धर्मद्रव्य एक है, अधर्मद्रव्य एक है, आकाशद्रव्य एक है और कालद्रव्य असंख्याते हैं । अब इनमें से मानो एक जीव को ही ग्रहण करे तो एक जीव में अनंत शक्ति है―ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनंद, आदिक और एक-एक शक्ति की भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यकाल की अपेक्षा अनंत पर्यायें हैं । उन अनंत पर्यायों में एक ही पर्याय में अनंत रस भरे पड़े हैं । ऐसे-ऐसे अनंत जीव, अनंत पुद्गल कितने पदार्थ है जगत में उन सबका जानने वाला जो पुरुष होगा वही प्रयोजन की सच्ची बातें कह सकेगा । इसलिये आप्त के लक्षण में दूसरा विशेषण कहा है कि वह सर्वज्ञ होना चाहिये ।
निर्दोष, सर्वज्ञ हितोपदेशी आत्मा के ही आप्तपना की संभवता―आप्त का तीसरा विशेषण है हितोपदेशी । सकल परमात्मा का जो उपदेश है यह सर्व जीवों के हित के लिये है । जैसे मनुष्यों को दया का, संयम का, व्रत का उपदेश किया है तो जो लोग उन उपदेशों का पालन करेंगे उनका हित होगा और जीव दया का उपदेश दिया तो वह जीव दया पालेगा तो अनेक जीवो में दया होगी । उनकी हिंसा बच गई सो यह अन्य जीवों का हित है । तो आप्त हितोपदेशी होता है । इससे यह अर्थ जानें कि आप्त के उपदेशों की परंपरा से जो आप्त आगम है, जो चार अनुयोगों में विभक्त है―(1) प्रथमानुयोग, (2) करणानुयोग, (3) चरणानुयोग, (4) द्रव्यानुयोग । सो प्रत्येक शास्त्र के कथन में आत्मा के हित की ही बात कही गई है । पुराणों में चारित्र देकर यह श्रद्धा करायी गई है कि जो शुभ भाव करेगा सो पुण्य बाँधेगा । जो अशुभ भाव करेगा सो पाप बाँधेगा और जो शुभाशुभ दोनों से रहित आत्मा के शुद्ध भाव को करेगा वह मोक्ष पायगा । तो उस प्रथमानुयोग पुराण के सुनने से उदाहरण भी सामने आने से यह श्रद्धा दृढ़ होती है कि मेरे आत्मा को तो शुभ और अशुभ भाव से हटकर शुद्ध भाव में लगना चाहिए । प्रथमानुयोग में बाह्य-क्रियाओं का वर्णन है और अंतरंग भावना का उसमें समन्वय है तो योग्य क्रियायें करने से इन जीवों को पात्रता होती है कि वे मोक्ष मार्ग में चल सकें । तो वह भी उपकारक उपदेश है । करणानुयोग में तो तीन लोक, तीन काल, गुणस्थान मार्गणा आदिक का सूक्ष्म से सूक्ष्म विवेचन है जिससे अपनी स्थिति का हम पहले क्या थे उन बातों का, अब हमें क्या करना चाहिए, इन सबका वहाँ ज्ञान बताया है । द्रव्यानुयोग में आत्मा और आत्मा का स्वरूप दिखाकर अनात्मा से हटना और सहज आत्मस्वरूप में लगना, इस तरह का उपदेश करके जो आत्मा को निर्दोष निर्मोह बनाया तो उसमें भी आत्मा के उद्धार की ही बात लिखी है, ऐसा आगम का जो प्रसंग है हितोपदेशी द्वारा कहा गया है ।
आप्त के लक्षण में निर्दोष, सर्वज्ञ व हितोपदेशी इन तीन विशेषणों की सार्थकता―यहां एक शंका की जा सकती है कि आप्त अरहंतदेव के लक्षण में दिव्यध्वनि द्वारा आगम प्रसार करने वाले तीर्थंकर आदिक में यहाँ जो तीन गुण बतला रहे विशेषण बतला रहे, सो तीन की क्या जरूरत थी? एक ही विशेषण से सब काम बन जाता । जैसे प्रभु निर्दोष होते हैं तो अब अर्थ आगे बढ़ाते जाइये जो निर्दोष प्रभु हैं, परमात्मा हैं सो शास्त्र के रचने वाले हैं, पहुंचे हुए है । तो एक निर्दोष शब्द के कहने से ही सही परमात्मा का परिचय होता है और उसमें कुछ उपयोग देकर अपने आपको सुखी शांत बनाया जाता है । तो इस निर्दोष की बात श्लोक में रखते यानि केवल निर्दोष शब्द ही कहा जाता । इस शंका के उत्तर में कहते है कि यदि सर्वज्ञ और हितोपदेशी ये दो विशेषण हटा देते तो उसका अर्थ यह बनता कि जो क्षुधा तृषा रागद्वेषादिक दोषों से रहित है वह है आप्त । इतना ही अगर कहते तो पुद्गल धर्मादिक द्रव्य इनमें कहाँ क्षुधा, तृषा, रोग, शोक पाये जाते है । तो सिर्फ निर्दोष को ही कहते कि यह आप्त है और सर्वज्ञ और हितोपदेशी ये दो विशेषण न कहते तो पुद्गल धर्मादिक द्रव्य आप्त बन जाते, इससे केवल निर्दोष कहकर आप्त को सही लक्षण बताने की कोशिश नहीं निभती । निर्दोष हो और सर्वज्ञ हो वही पुरुष आप्त हो सकता है । तो कोई शंका करे कि ये दो ही विशेषण रहने दो―निर्दोष हो और सर्वज्ञ हो, हितोपदेशी शब्द न कहते, तो इस शंका का उत्तर यह है कि सिद्ध भगवान निर्दोष हैं और सर्वज्ञ हैं, पर वे आप्त तो नहीं कहलाते । यद्यपि सिद्ध भगवान आप्त से बड़े हैं, आप्त तो अरहंत अवस्था का नाम है । तीर्थकर या अन्य अरहंत जिनकी दिव्यध्वनि खिरती है और ज्ञानधारा जहाँ से बहती है उसे आप्त कहते है । सिद्ध भगवान के 8 कर्म नहीं है । शरीर नहीं है अरि वह बहुत उत्कृष्ट पूर्ण सर्वोत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त है फिर भी । सिद्ध भगवान की वजह से परंपरा से शास्त्र नहीं निकले । आगम नहीं निकला । आगम निकला है आप्त की परंपरा से । आप्त का निर्दोष और सर्वज्ञ ये दो विशेषण देते हितोपदेशी न कहते तो भी आप्त का लक्षण पूरा नहीं बनता । आज हम जैन शासन का अध्ययन कर रहे है । वे शास्त्र कहां से निकले, उनका मूल प्रणेता कौन है, यह निर्णय हुए बिना शास्त्र में भी श्रद्धान न जगेगा । इसके प्रणेता निर्दोष सर्वज्ञ हितोपदेशी अरहंत भगवान है, उनकी परंपरा से चले आये शास्त्र में असत्यता का कोई अवकाश नहीं । सर्व सत्य है और प्रामाणिक है । तो इस प्रकार आप्त भगवान के लक्षण में ये तीन विशेषण दिये हैं―निर्दोष हो, सर्वज्ञ हो और हितोपदेशी हो ।
निर्दोष, सर्वज्ञ व हितोपदेशी हुए बिना आप्तपने की असंभवता―उक्त तीनों गुणों से रहित कोई भी हो वह यदि अपने को भगवान जाहिर करे तो वह केवल एक लौकिक चाल की ही बात रही, पर प्रभुता नहीं आयी उनमें । क्योंकि जो निर्दोष नहीं है वह पराधीन है, दु:खी है उसके वचन सत्य कैसे निकल सकते? सो इस प्रकार ये तीनों ही विशेषण आप्त के कथन में देना आवश्यक हुआ, ऐसा आप्त तत्त्वार्थ का कहने वाला है । प्रभु सर्वज्ञ हैं, तीन लोक तीन काल के सर्व पदार्थो को एक साथ जानते है । ऐसा सर्व विषयक ज्ञान होना आत्मा से है इंद्रिय द्वारा संभव नहीं है क्योंकि इंद्रिय तो एक सामने रहने वाले पदार्थ को जानेगी, और उसमें भी कुछ जानेगी, सबको न जानेगी जैसे आँख से जाना कि यह चौकी है तो आँख ने चौकी के बारे में कितना समझा कि बस ऊपर से यह रंग रूप और सामने जितना आकार दीख रहा, बस इतना ही भर आँखों द्वारा जाना । चूंकि पूरा नहा जान पाये । पूरा क्या? कि अनादि अनंत है, अनंत शक्ति वाला है आदि, सो इन पदार्थो को भी इंद्रियज्ञान पूरा नहीं जान सकता । सर्व का जाननहार ज्ञान अतींद्रिय है, इंद्रिय से परे है । इंद्रियजंय ज्ञान स्थूल को जानेगा, सामने रहने वाले पदार्थ को जानेगा । वर्तमान में जो बन रहा है उसे जानेगा, पर इतने स्थूल क्रमवर्ती को जानने से कोई सर्वज्ञ नहीं होता । सर्वज्ञ होता है तो एक इस सत्यार्थ स्वरूप के ज्ञान के बल पर ।
श्लोक में कहे गये तीन विशेषणों के क्रमस्थापन का रहस्य―इस श्लोक में आप्त के तीन विशेषणों का जो क्रम रखा है उससे क्या संबंध निकलता है सो देखिये? सबसे पहला विशेषण है भगवान का आप्त का जिसकी दिव्यध्वनि की परंपरा से हम सबको यह तत्व ज्ञान मिला है । सो उसके तीन प्रकार है, देखिये तीन बातें कही हैं―निर्दोष, सर्वज्ञ, हितोपदेशी इनमें कारण कार्य बना है । निर्दोष होंगे तब ही सर्वज्ञ बनेंगे दोष रहित हुए कोई सर्वज्ञ नहीं बन सकता । करणानुयोग के अनुसार निर्दोष होना 12 हैं गुण स्थान में हो जाता है । 10 वें गुण-स्थान के अंत में निर्दोष हो जाता है । अर्थात् किसी भी मोहनीय कर्म की सत्ता न रही क्षपक के 12 वें गुणस्थान में तो जब यह निर्दोष अवस्था मिली 1 2वां गुणस्थान मिला तब वह 13 वां गुणस्थान पाया याने सर्वज्ञ हुए । तो निर्दोष जो होगा सो ही सर्वज्ञ होगा, दूसरा कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता । यह संबंध बना है । जो निर्दोष होगा, सर्वज्ञ होगा वही हितोपदेष्टा हो सकता है दूसरा नहीं हो सकता । तो आप्त के ये तीन विशेषण दिए । आगम के मूल प्रणेता अरहंत भगवान में ये तीन विशेषण इस क्रम से न रखते और दूसरा क्रम रख देते तब सर्वज्ञ, निर्दोष, हितोपदेशी या हितोपदेशी, सर्वज्ञ, निर्दोष, तो ऐसे कुछ भी अटपट क्रम में यह सर्वज्ञ नहीं विदित हो सकता । उल्टी बात आती है । यहाँ काल का भी क्रम आ गया । पहले निर्दोष होता है कोई फिर सर्वज्ञ होता है वही कोई फिर हितोपदेशी होता है । कारण भी आ गया, निर्दोष हुआ इस कारण सर्वज्ञ हुआ । सर्वज्ञ हुआ इस कारण हितोपदेशी हुआ । यह चर्चा किसकी चल रही है? इन्हीं शास्त्रों की निकली है। उन शास्त्रों का मूल वक्ता, मूल प्रणेता कौन था, उसका यह वर्णन चल रहा है । वह थे निर्दोष: इसलिए कोई झूठ बात उसमें आ नहीं सकती । वह थे सर्वज्ञ इसलिए कोई अज्ञानकृत दोष के कारण भी झूठ बात आ नहीं सकती । उनके अज्ञान है ही नहीं । वह थे हितोपदेशी सो किसी अहित बात का यहाँ उपदेश हो ही नहीं सकता । सम्यग्दृष्टि से लेकर, पहली प्रतिमा से लेकर बढ़ते चले जाइये । महाव्रती हुये, क्षपक श्रेणी में चढ़े, सभी का आचार, सभी का व्यवहार अपनी-अपनी भूमिका में हित की ओर रहने वाला रहता है । अहित वाला व्यवहार नहीं रहा । तौ प्रभु जो निर्देश हो सर्वज्ञ हो वही हितोपदेशी है और जिसमें ये तीन गुण हों उसके द्वारा जो आज शास्त्र प्रवाह चल रहा है वह पूरा प्रामाणिक है । जो लोग इन शास्त्रों के अध्ययन में नहीं है और न प्रयत्न करना चाहते कि हम कुछ सीखें, अध्ययन करें, जिससे हमें विदित हो कि शास्त्रों में जो कुछ लिखा है वह वस्तुस्वरूप के अनुसार लिखा है । जैन शासन कहो या विश्व धर्म कहो । विश्व मायने समस्त पदार्थ उनको बताने वाला, उनके धर्म को जताने वाला यह शासन है । ऐसे परंपरा से चले आये हुए इन शास्त्रों के अध्ययन से हम अपने कल्याण की बात पाते हैं ।
आप्त की पुरुषोत्तमता―वे आप्त मनुष्य हैं। अरहंत भगवान मनुष्य हैं जिनकी हम पूजा करते हैं मूर्ति बनाकर । वे मनुष्यगति के जीव हैं । अब आप देखिये मनुष्य-मनुष्य में कितने भेद पड़ गए हैं । कोई मनुष्य अज्ञानी मिथ्यादृष्टि खुद व्याकुल ऐसी स्थिति में है तो कोई मनुष्य यथार्थ वान और श्रद्धान पाकर कुशल बना, सावधान बना है और वह अनंत संसार वाले कर्मो को नहीं बांधता । एक वह मनुष्य है । और एक वह मनुष्य है जो आत्मानुभव करने की दिशा में बढ़ रहा है और अपनी भूमि का के अनुसार अणुव्रत धारण कर रहा है और उसमें 11 प्रतिमा के भेद और एक वह मनुष्य जिसका किसी प्रकार का शल्य नहीं है । किसी बाह्य पदार्थ में अटका हुआ नहीं है मुनि है, महाव्रती है; शरीरमात्र ही जिसका परिग्रह है तो एक ऐसा मनुष्य । और वही मुनीश्वर जब अपने आत्मा पर एक कब्जा प्राप्त कर लेते है तो वे श्रेणी में बढ़ते है । जहाँ शुद्ध ध्यान है । रागद्वेष की प्रवृत्ति नहीं है, एक तो वह मनुष्य और एक वह मनुष्य कि जिसके अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत शक्ति और अनंत आनंद प्रकट हुआ है, जिसकी दिव्य वाणी सुनने के लिए स्वर्ग खाली हो जाता हैं । देव लोग आ जाते है । खाली होने का मतलब बिल्कुल खाली नहीं किंतु वहाँ कोई चहल पहल नहीं रहती, सब विक्रिया ऋद्धि से भगवान के समवशरण में आ जाते हैं । कैसी समवशरण की रचना, कैसी परम वैराग्य की मुद्रा, एक वह मनुष्य है । तो मनुष्यों के अनेक भेद है । जिन आप्त का हम वर्णन कर रहे हैं वे आप्त हैं मनुष्य, किंतु मनुष्यों में अलौकिक मनुष्य हैं, जिन्हें मनुष्य न कहकर भगवान कहियेगा । ये अनंत ज्ञान द्वारा सबको जानते हैं । अनंत दर्शन द्वारा सबका अवलोकन करते है । अनंत शक्ति द्वारा सर्व इन अनंत गुणों को, अनंत विकासों को सम्हाले हुए हैं । अनंत आनंद द्वारा अद्भुत अलौकिक आनंद को भोग रहे हैं । तो ऐसे लोकालोक में व्याप्त हो जाने से याने जिनका ज्ञान इतना बढ़ा चढ़ा है कि उसमें सारे लोकालोक प्रतिबिंबित हो गए तो ऐसे व्याप्त हो जाने के कारण जो अन्य दीन मनुष्यों में आत्मरूप न पाया जाय, ऐसे आत्मस्वरूप से वे देदीप्यमान रहते है । ये प्रभु देवाधिदेव मनुष्य पर्याय में रहने वाले अनंतज्ञान, अनंतशक्ति आदिक गुणों के कारण ये आप्त कहलाते हैं । उनकी वाणी है यह सब जो कि आज अनेक शास्त्रों के रूप में फैली हुई है ।