रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 79: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
आरंभसंगसाहस-मिथ्यात्वद्वेषरागयमदनै: ।
चेत: कलुषयतां श्रुति-रवधीनां दु:श्रु तिर्भवति ।। 79 ।।
दु:श्रुतिनामक अनर्थदंड के लक्षण―दुश्रुति नामक अनर्थ दंड व्रत का इस छंद में स्वरूप बताया गया है । दुश्रुत का अर्थ है खोटा सुनना, दु: मायने बुरा श्रूत मायने सुनना, जो वचन चित्त की कलुषित करें ऐसे वचनों का सुनना दुश्रुति नामक अनर्थ दंड है । जो आरंभ के वचन हों―असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और जो परिग्रह संबंधी बातें हो या ऐसा कथानक हो जिसमें आश्चर्यकारी वीर लोगों के कर्तव्य बताये गए अथवा मिथ्यात्व की बातें हों, मिथ्या मत की वार्ता हो । यज्ञ करना आदिक विरुद्ध अर्थों का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र हों, रागद्वेष बढ़ाने वाले वचन हो तो ऐसा चित्त को कलुषित करने वाले शास्त्र हों अथवा लौकिक वार्ता हो उनको सुनना दु:श्रुति नाम का अनर्थदंड है । जिसने यह निर्णय कर लिया कि मेरे को दो बातों से प्रयोजन है, मुख्य तो है धर्मपालन । मैं अपने स्वभाव को निरखूँ, और स्वभाव में यह मैं हूं, ऐसा अपने आपका बनाऊं यह तो है मुख्य काम, दूसरा है गौण काम आजीविका इन दो से संबंध है, वे वचन तो सुनने ही पड़ेंगे, मगर जिनका इन दो से संबंध नहीं है और व्यर्थ है, पाप कार्यों की जिसमें प्रेरणा भी है ऐसे वचनों को सुनना दुश्रुति है यह वह ज्ञानी स्वयं ही जानता है । अपना ही चित्त अपने की गवाही दे देता कि यह बात अनर्थ दंड है अथवा नही । जो मोह बढ़ायें, रागद्वेष बढ़ायें, पदार्थ का विपरीत स्वरूप ग्रहण करायें ऐसे शास्त्रों को सुनना यह दु:श्रुति नामक अनर्थ दंड है । लोक में भी जो विकथा वाली बातें हैं मारण, उच्चाटन, वशीकरण आदिक कामवासना के उत्पादन करने वाले उनका सुनना भी दुःश्रुति है, जिनका वैराग्य ही प्रयोजन हो ऐसे शास्त्र तो शास्त्र हैं, पर जिनका प्रयोजन मन बहलावा या राग बढ़ाना या भगवान के नाम पर ही भक्ति सी समझ लीजिए, पर हो राग की ही बातें हों तो ऐसे सब वचन दु:श्रुति में आते है ।
आत्मस्वभाव के अनुभव से रहित जीवों के जीवन की अंधकारमयता―जिनको अपने आत्मा के सहज स्वभाव का पता नहीं वे बिछल अंधेरे में हैं । चाहे वे लौकिक हिसाब से जैन मत के मानने वाले हों चाहे अन्य मत के मानने वाले हों, जिनको अपने सहज स्वभाव का परिचय नहीं है वे अंधेरे में हैं । उनका जो भी कर्त्तव्य बनेगा कर्म बनेंगे वे मोह से मिले हुए हैं, अतएव कर्मबंध के ही कारण बनते हैं, मुक्ति का कारण नहीं बन पाते । जीवन में सबसे प्रधान कार्य है अपने आत्मा के सहज स्वभाव का अनुभव बनाना । इसके लिए चाहिए तत्वज्ञान, स्वाध्याय, सत्संग । अब विषयवासना अनादि से लगी है । इनका दिल नहीं चाहता कि सत्संग में या तत्वज्ञान के वातावरण में रहें । उन्हें वही रुचता है जैसा कि संसार में अनादि काल से रहते आये, इसलिए इनको कठिन मालूम होल है वास्तविक धर्म का करना । बाकी आत्मपरिचय के बिना जो भी कार्य किए जा रहे है उनका प्रयोजन तो बस इतना है कि कुटुंब खुश रहे, आजीविका खूब बने । जैसे-जैसे थन की वृद्धि होती वैसे ही वैसे प्रभुमक्ति में भी उनका मन लगता, इस ख्याल से कि प्रभुभक्ति की वजह से ही हमको यह लक्ष्मी मिल रही और मिलती रहेगी । पर जरा सोचिये तो सही कि वह प्रभुभक्ति मोक्ष मार्ग में ले जाने वाली है या बाह्य विषयों में ही उपयोग दृढ़ कराने वाली है । जितना करते है चलो वह भी ठीक है मगर मुक्ति की अभिलाषा से जो प्रभुभक्ति है आत्मस्वभाव का परिचय करके जो प्रभुभक्ति बनती है उसमें तो दोनों ही काम हो रहे है । संपन्नता भी रहेगी और मोक्षमार्ग भी चलेगा । केवल एक बाह्य सांसारिक प्रयोजन लेकर प्रभु भक्ति करें तो उसमें इसका ठेका न रहा कि संपन्नता रहे किंतु पापभाव चल रहा है । कोई सोचता होगा कि वाह भगवान की भक्ति कर रहे, उसमें कैसे पापभाव? अरे शरीर में ही तो यह क्रिया बन रही । भीतर से तो देखो कि संसार के भोगोपभोग साधनों के प्रति कितनी आसक्ति चल रही है और उस आसक्ति के फल में पुण्य बंधेगा कि पाप । भले ही वह मंदिर में बैठा है । पूजा पढ़ रहा मगर संसार बढ़ाने वाले भोगोपभोग में आसक्त है और उसी ध्यान से पूजन दर्शन वगैरह है तो यह बतलावो कि मंदिर में उसे पाप का बंध हो रहा या पुण्य का? पुण्य होता है तो अल्प, पाप होता है तो अधिक । कर्म यह नहीं निरखते कि यह मंदिर में बैठा है इसलिए पाप न बंधना चाहिए । वहाँ तो निमित्त नैमित्तिक योग है, यह उपयोग आस्था किसमें रख रहा? वहाँ वास्तव में आस्था भगवान में नहीं है, किंतु संसार की भोगोपभोग सामग्री प्राप्त
करने में है । खूब परीक्षा करके देख लीजिए । जहां आस्था होगी उसकी प्रकार का बंध चलेगा। तो जब इतनी तक बात है कि खुद अगर राग की प्रधानता रख रहे है तो वहाँ ही अनर्थ है, फिर जो शास्त्र ऐसे है कि जिन में राग की प्रेरणा बसी हुई हैं, बस भगवान के गुण गाये जा रहे हैं तो यहीं तक कि मक्खन चुराया, अनेक सखियों को छेड़ा, महिलावों में रहे, इतने शिकार खेले, या अमुक का वध किया, यों ही कितनी ही बातें भगवान का नाम लेकर लोग बोलते है और समझते हैं कि हमने गुण गा लिया, पर वहाँ भगवान के गुण एक भी गाये गए क्या? भगवान का गुण तो है वीतरागता और सर्वज्ञता, इसकी अगर महिमा गाये तब तो समझिये कि भगवान के गुण गाये अन्यथा वह तो अपने पापभावों में ही चल रहा । यह सब ऐसी वाणी सुनना दु:श्रुति अनर्थदंड बतलाया । खोटी कथा खोटी चेष्टा की बात सुनने का त्याग इस व्रती श्रावक के रहता है, अब प्रमादचर्या अनर्थदंड का स्वरूप कहते हैं ।