रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 80: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
क्षितिसलिलदहनपवनारंभं विफलं वनस्पतिच्छेदम् ।
सरणं सारणमपि च प्रमादचर्या प्रभाषंते ।। 80 ।।
प्रमादचर्यानामक अनर्थदंड के लक्षण―ऐसे काम करना जिनमें न अपनी आजीविका से संबंध है न धर्मपालन से संबंध है और व्यर्थ का आरंभ है, पाप का जिसमें संबंध है, ऐसे कार्यों को करना प्रमादचर्या नामक अनर्थदंड है । जैसे पृथ्वी खोदने का ही शौक चल गया बिना काम पृथ्वी खोद रहे हैं, पत्थर आदिक फोड़ने का आरंभ कर रहे हैं, जल को फाल्तू बहाते, बहुत-बहुत बखेरते, घंटों साबुन लगाकर नहाते, बाल्टियों पानी बहाते, ये सब प्रमादचर्या की बातें है । ऐसा क्या यह शरीर रत्न जवाहरातसा बन रहा जिसको इतना अधिक नहलवाया जा रहा है और फिर बहुत देर तक नहलवाना, नहाते हुए में बड़ा मौज मानना ये सब प्रमादचर्या की बातें है । प्रमादचर्या की क्या थोड़ी बात है? पद-पद पर प्रमादचर्या चल रही है मनुष्यों के, जिनसे कुछ प्रयोजन नहीं, शौक बढ़ रहा, राग बढ़ रहा, बिना प्रयोजन अग्नि बढ़ा रहे हैं, पटाके फोड़ रहे हैं, यह सब प्रमादचर्या है । हिंसा हो रही है, क्या प्रयोजन पड़ा है? एक सीधी सी कुंजी है कि जिससे आपको आजीविका में मदद न मिले अथवा धर्म पालन में मदद न मिले या कहो कि सामाजिक पारिवारिक जीवन भले प्रकार जिए उसमें मदद नहीं तो ऐसी बातें जितनी भी करें वह सब प्रमादचर्या है । वनस्पतियों का छेदना बिना प्रयोजन चल रहा है । रास्ते में छोटे-छोटे पेड़ लगे उनकी पत्तियां तोड़ते जाते हैं, वह आदत पड़ी है ना? अगर किसी घास पुराल पर विराजे हुए त्यागी के पास बैठ गए तो वहाँ भी घास के तिनके तोड़ते रहते, इस प्रकार की एक आदत पड़ी है लोगों को । तो यह सब प्रमादचर्या वाली बातें है । व्यर्थ का आरंभ, हिंसाजनक कार्य, बिना प्रयोजन अधिक गमन करना, गमन कराना, प्रयोजनवश तो कराता है श्रावक, आखिर पाप से वह कहां तक हट सकेगा? हर जगह पाप की क्रिया कुछ न कुछ करनी ही पड़ रही है, क्योंकि घर में बस रहे, एकेंद्रिय जीव की हिंसा टाल नहीं सकते । आजीविका किए बिना काम नहीं चलता तो पाप कार्यों में लगना पड़ता है गृहस्थों को तो कम से कम इतना तो करें कि जिन कामों से कुछ हमें प्रयोजन ही नहीं है ऐसे अनर्थ के पाप न करें । ऐसा रोजिगार करना जैसे ईटों का भट्टा लग रहा, जो कार्य अत्यंत निषिद्ध था वह कार्य किया जाता है और उसका खेद भी नहीं मानते । तो ये तो सब कारण होने पर भी यदि खोटे वाणिज्यों को करे, आरंभ को करे तो वह भी व्रती श्रावक के योग्य नहीं है ।
द्युतक्रीड़ा में महान् अनर्थदंड―भैया कितने ही ऐसे कार्य हैं कि अव्रती श्रावक के भी योग्य नहीं है उन कार्यों के करते हुए वे सम्यग्दृष्टि भी न कहला सकेंगे । तो ऐसी अनेक प्रकार की जों अनर्थ क्रियायें है उनमें प्रधान है जुवा खेलना, यह बहुत बुरा व्यसन है । इसमें बुद्धि बिगड़ जाय, बड़े पाप करने में कारण बन जाय, धर्म कार्यों में मन न लगे, वह अनर्थदंड है, प्रमादचर्या है, उससे भी अधिक अनर्थ है । हार जीत की दृष्टि जहाँ रहती है वहाँ परिणामों में कितनी व्यग्रता रहेगी । हारे तो खेद मानता, जीत जाय तो अभिमान करता, और फिर चलो हार जीत थोड़ी हुए बिना खेल नहीं बनता । कबड्डी का खेल गुल्ली डंडे का खेल या फुटबाल, बालीबाल वगैरह के खेल इनमें भी हार जीत होती । मगर इनमें धन संबंधी हार जीत नहीं होती, इनमें स्वास्थ्य का प्रयोजन है, तास का शतरंज वगैरह के खेल में बतावो स्वास्थ्य का क्या संबंध? बल्कि इनमें तो स्वास्थ्य बिगड़ता है । पर खाली बैठे हैं, खेल रहे हैं, मन बहला रहे हैं । अरे जिसमें जुवा का व्यसन लग गया वह धीरे-धीरे अपना बहुत बड़ा रूपक बना लेता है । अभी तो देखने में ऐसा लग रहा कि क्या है, बच्चे हैं, तास खेल रहे, मन बहला रहे, पर धीरे-धीरे बढ़ बढ़कर यह ही अनर्थ का कारण बन जाता है । हारे तो बुरा, जीते तो बुरा । तो जुवा समस्त व्यसनों में प्रधान व्यसन हैं, समस्त पापों का वह संकेत साधन है, जुवा खेलने वाले में अंत में सब पाप आ जाते हैं । जिसमें जुवा खेलने की आदत है वह धन जुड़ जाने पर फिर उसे परोपकार में नहीं लगाता, उसमें शराब खोरी, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन आदि की अनेक बातें आ जाती हैं। क्योंकि सदाचार का एक बांध टूट गया तो कुछ भी करने में उसे हिचक नहीं हो पाती और कहो वह अपना घर भी दांव पर लगा दे । बाल बच्चे भी कहो दांव पर लगा दे, यों कितने ही अनर्थ वह कर लेता है, उसके परिणामों में बड़ी निर्दयता आ जाती है दूसरों को घात भी विचार कर लेता है । और जुवा में मान लो धन हार गया तो वह चोरी करेगा, वह बड़ा व्यग्र रहता है ।
व्यसनों से स्वयं बचना व अपने परिजनों को बचाना―भाई आप सबकी जिम्मेदारी है कि आपके बाल बच्चों को भी सत्संग बना रहे, कुसंग न बनने पाये, तो जुवा खेलना महा अनर्थ दंड है । ऐसा भला मनुष्य जीवन पाया और खोटी-खोटी बातों को चित्त में स्थान दे तो यह अपना जीवन खोना है । थोड़ा समझ में आये, थोड़ा यहाँ सीखें, तत्त्वज्ञान में प्रवेश करें तो थोड़े-थोड़े के बाद बहुत ज्ञान बन जाता है । जो आज कोई विद्वान है क्या वह पैदा होते ही विद्वान बन गया था? अरे उसने बचपन से ही कुछ अध्ययन किया । तत्वज्ञान की रुचि भई, पढ़ता गया, ज्यों-ज्यों समय बढ़ता गया त्यों-त्यों उसका ज्ञान भी बढ़ता गया । तो बस एक ही ध्यान रखना चाहिए कि मुझे ज्ञान प्राप्त करना है । कल्याण की भावना हो तो निर्णय बनाइये कि बाहरी बात तो पुण्य पाप के अनुकूल बनेगी, जो होगा उसी में काम बन सकता । यदि उदय ठीक है तो बिना विचारे सब कुछ प्राप्त हो जाता । उसका ज्यादह क्या सोचना? वह उद्देश्य नहीं है जीवन में, जीवन का उद्देश्य है तत्वज्ञान होना, इस ओर लगिये तो आपके सब अनर्थ छूट जायेंगे । मैं किस योग्य कि जुवा खेलूं या अमुक कार्य करूं और थोड़ा यह देख लीजिए । जैसे मान लो कोई पढ़ाता है और उसके पास आप घर से पढ़ने आते हैं और बगल में पुस्तक दाबे हुए आते है तो जहाँ से आपने पुस्तक दबाया और घर से चले वहीं से आप अपने को बालकवत् विद्यार्थी अनुभव करते है ना, तो इतना अनुभव आते ही आपका कितना भार दूर हो जाता है, फिर भला तत्वज्ञान पा लेने पर कितना भार कम हो जाता है इसका अंदाज तो करलो । तो बस एक जिसमें अपने ज्ञानस्वरूप की धुन बने वह काम करें, जो अन्य जुवा आदिक काम हैं, जिनमें असभ्यता भी है और अनेक प्रकार का दुसंग भी है वह सब त्यागने योग्य है । अब अनर्थ दंड व्रत के 5 अतिचार बताते है ।