रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 92: Difference between revisions
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
देशावकाशिंक स्यात् कालापरिच्छेदनेन देशस्य ।
प्रत्यहमणुव्रतानां, प्रतिसंहारो विशालस्य ।। 92 ।।
देशावकाशिक नाम के शिक्षाव्रत का स्वरूप―शिक्षाव्रत के चार भेदों में यह पहला भेद देशावकाशिक नाम का है जिसका दूसरा नाम है देशव्रत । अणुव्रत के धारी पुरुष अणुव्रत के बढ़ाने के लिए उनका निर्दोष पालन बने इसके लिए शिक्षाव्रत ग्रहण करते हैं । जिन वृत्तियों से मुनिव्रत की शिक्षा मिले वे वृत्तियां उच्च ही तो हैं, जिनके कारण अणुव्रत का सही पद्धति से पालन और परिवर्द्धन होता है । देशव्रत कहते हैं दिग्व्रत में ली हुई मर्यादा के भीतर और क्षेत्र घटाकर काल की मर्यादा से परिमाण कर लेना, उसके बाहर न आना-जाना, इसे कहते हैं देशव्रत । पहले तो दिग्व्रत में यावज्जीव मर्यादा की थी । अब उसमें भी बहुत कम मर्यादा करना याने क्षेत्र घटा लेना यह तो और विशेषता की ही बात है । सो रोज की मर्यादा या दिन माह आदिक काल की मर्यादा का परिमाण कर लेना कि हमारा आज दसमी तक इस क्षेत्र का परिमाण है या आजकल इसी मोहल्ले का परिमाण है, या इन दो घंटों में हमारा मंदिर जी का ही परिमाण है । ऐसा परिमाण रखकर उसके बाहर न आना जाना, व्यवहार न करना सो देशव्रत कहलाता है ।