समयसार - गाथा 317: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Revision as of 16:35, 2 July 2021
ण मुयदि पयडिमभव्वो सुट्ठुवि अज्झाइदूण सत्थाणि।गुडदुद्धंपि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा होंति।।317।।
अभव्य की प्रकृति―अभव्य जीव शास्त्रों का अध्ययन करके भी प्रकृति को नहीं छोड़ता है। जैसे सांप दूध और गुड़ पीकर भी निर्विष नहीं होता है, सर्प विषभाव को न तो खुद छोड़ता है और जो विषभाव को छोड़ने में समर्थ जो दूध शक्कर है वह भी पिला दें, उसे भी नहीं छोड़ता। इस ही प्रकार अभव्य जीव प्रकृति के स्वभाव को स्वयं भी नहीं छोड़ता और प्रकृति स्वभाव को छोड़ने में समर्थ जो द्रव्य श्रुत का ज्ञान है उस ज्ञान से भी प्रकृति के स्वभाव को नहीं छोड़ता।क्योंकि अभव्य जीव के भाव श्रुतज्ञानरूप शुद्ध ज्ञान का अभाव है इस कारण वह अज्ञानी ही रहता है, जैसे नीतिकार लोग कहते हैं कि सिंह यदि उपवास करले तो वह तो उपवास मांस का ही करेगा। सो प्राय: सिंह यदि ज्ञान से जगता है तो चूंकि वह बड़ा जीव है ना, उसमें जब बल प्रकट होता है तो ऐसा आत्मबल प्रकट होता है कि समाधिमरण ही कर डालता है। प्रकृति है रागद्वेषमोह का परिणमन। इन रागादिक भावों को अभव्य स्वयं नहीं छोड़ता और रागपरिहार करने में समर्थ श्रुताध्ययन है उस श्रुत का अध्ययन भी करें तो भी नहीं छोड़ता। जैसे देखा होगा कि जो विवादी लोग हैं, ऊधमी लोग हैं वे ज्यादा पढ़ जायें तो भी उनके विवाद और बढ़ जाता है।
अभव्य की चरम ज्ञानयोग्यता व प्रकृतिस्वभाव का अपरिहार―भैया ! अभव्य जीव के क्या कम ज्ञान है? ग्यारह अंग और 9 पूर्वों का धारी होता है। धरसेनाचार्य से तो ज्यादा है ही। ग्यारह गुने से लेकर 14, 15,गुने तक भी वह अभव्य जीव ज्ञान करले तो भी अंतर में आत्मज्ञान , आत्मानुभव, आत्मीय आनंद की झलक नहीं उत्पन्न होती, कितनी विचित्र बात है ? एक मूँग होती है जो कि कम चुरती है, कंकड़ पत्थर की तरह रहती है। सो सब दाल चुर जायें, पर पतेली में वह मूँग की दाल कंकड़ पत्थर की तरह ज्यों की ज्यों बनी रहती है।
कुछ वर्तना के नामों के अर्थ―बतावो पतेली जानते हो क्यों कहते हैं पतेली कहते हैं उसे जिसमें वेग के साथ साग भाजी एकदम पतित कर दें। घी डालों, जीरा डालों, जिसमें साग भाजी पतित की जाय उसका नाम पतेली है। भगोना जानते हो किसे कहते हैं ? भगोना,जो नीचे से लंबा चौड़ा होता है, जमीन पर बैठा रहता है, उसे ज्यादा हिलावो तब हिलेगा, वह इधर उधर नहीं भागता। लोटा जानते हो किसे कहते हैं? जिसे धरती पर धरो तो लोटता रहे उसका नाम लोटा है। जिसे कहते हैं बेपेंदी। गड़ई और चीज होती है। धर दो तो गड़ जाय, उसके नीचे तरी लगी रहती है। अब तो जिस चाहे को चाहे कह बैठते हैं। लोटे कोगड़ई कह दो, गड़ई को लोटा कह दो, पर शब्द शास्त्र के जानने वाले गड़ई को गड़ई ही कहेंगे।
अभव्य के न सीझने में कुरूटू मंग का दृष्टांत―जिस पतेली में मूँग की दाल कंकड़ सी बनती रहती है, उसमें क्या कमी हुयी ? वही खौलता हुआ पानी, वही आग, वही सारी चीजें, पर उपादान की ऐसी विचित्रता है कि वह मूँग नहीं सीझती। अभव्य जीव भी कितना ही शास्त्रों का अध्ययन कर लेता हैं तो भी अपने आपको ज्ञानमात्र अनुभव करने का आनंद नहीं लूट पाता। प्रकृति के स्वभाव में स्थित रहता हैं।
स्वरूप के अज्ञान की विपदा―भैया ! जगत् में विपदा ही सिर्फ एक है, दूसरी कोई विपदा नहीं है। अन्य तो पुण्य वालों के नखरे हैं। विपत्ति कोई नहीं है। जिस चाहे को विपत्ति समझ लिया। न ज्यादा धन मिला तो लखपति न होंगे, इसमें विपत्ति क्या ? अरे यहां कोई विपत्ति है क्या ? जिसकी जो बात इष्ट है उसकी प्राप्ति न हो सकने पर विपत्ति मान लिया। ये नखरे हैं क्योंकि उदय चल रहा है ना, तो असल में बात यह है कि हम अपने सही स्वरूप का भान नहीं कर पाते हैं। जो अपने स्वरूप का भान कर लेते है उन्हें फिर क्लेश नहीं रहता है। एक चक्रवर्ती जिसके 6 खंड की विभूति है उसे कितना पुण्यवान् कहते हैं ? लोक में उसे बड़ा पुण्यवान् माना जाता है। और 6 खंड की विभूति त्याग करके निर्ग्रंथ दीक्षा ले लो अब क्या हो गया पुण्यहीन ? नहीं। उससे भी अधिक पुण्यवान है। तो धन संपदा से पुण्यवान नहीं होते किंतु भीतर के संतोष से, ज्ञान के प्रकाश से पुण्यवान बोलिए। किसको दिखाना है, कौन साथी बनेगा ? सब मायामय हैं, पातकी हैं, ये संसार में रूलने वाले हैं, किसमें प्रशंसा लूटना चाहते हैं? सब प्रशंसा किसी की नहीं कर सकते हैं।
सबके तुष्ट किये जाने के उपाय का अभाव―एक सेठ जी थे। उनके चार लड़के थे। जब न्यारे हुए तो 5 लाख की जायदाद थी, एक एक लड़के को एक-एक लाख दे दी ईमानदारी से और एक लाख खुद को रख लिया। अब पिता जी बोले कि बेटा बटवारेमें लोग बरबाद तक हो जाते हैं, कोई हठ लग जाय तो एक हाथ जगह पहीलग जाये। जो कुछ मिला है वही सब उस एक हाथ जमीन के पीछे बरबाद कर दें। तुम लोग तो बड़े प्रेम से बड़ी शांति से न्यारे हो गए हो सो एक काम करो खुशी में। बिरादरी वालों को पंगत करो। तो सबसे पहिले छोटे लड़के ने पंगत की। बिरादरी वाले खाने आ गए अपनी-अपनी गड़ई में पानी भरकर। यह पुरानी प्रथा कह रहें हैं, अब कुल्हड़ चलते हैं। सब जीमने लगे। उस छोटे लड़के ने 5-7 मिठाई बनवायी थी। सो बिरादरी के लोग जीमते जायें और कहते जायें कि देखो―छोटा लड़का बाप को ज्यादा प्यारा होता है क्योंकि वह बुढ़ापे में होता है, सो सारा धन बाप ने इसे दे दिया है, इसी से खुशी में आकर 5, 7 मिठाई बनवाई है। 10, 5 दिन बाद में छोटे से जो बड़ा था उसने पंगत की। जो बिरादरी के लोग जीमने आ गये। उसने तीन मिठाई बनवायी थी सो वे खाते जायें और कहते जायें कि देखो यह कितना चालाक है―छोटे ने तो 5-7 मिठाई बनवायी थी, इसने तीन ही बनवाई। यह बोलने में भी बड़ा चतुर है। इसने चाहे कितना ही धन रख लिया हो। 10 दिन बाद उससे बड़े तीसरे ने पंगत की। उसने मिठाई ही नहीं बनवायी, सीधी पूड़ी और साग रख दिया, बिरादरी के लोग जब जीमने बैठे तो कहें कि यह तो बड़ा ही चतुर निकला। इसने तो कसम खाने को भी मिठाई नहीं रखी और है बड़ा, सो चाहे कितना ही धन रख लिया हो। अब आयी सबसे बड़े की बारी, सो उस बड़े लड़के ने चने की दाल और रोटी बनवायी। बिरादरी वाले जीमते जायें और कहते जायें कि सबसे चुस्त चालाक तो यह निकला। इसने तो पकवान का नाम ही नहीं रखा और सबसे बड़ा है और बड़ा लड़का बाप बरोबर। सो चाहे सारा ही धन समेटकर रख लिया हो। तो बतलावो कौनसा काम आप करें कि जिसमें सब खुश हो जायें। भला-भला भी करते हैं पर सभी खुश नहीं हो सकते है। आखिर जिमाया ही तो है, किसी से कुछ छिनाया तो नहीं, तिस पर भी वे दसों बातें कहते हैं। सो भैया ! इस दुनिया में किसको खुश करने के लिए विकल्प बढ़ाये जायें और अपने इस ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा पर अन्याय किया जाय ? विपत्ति है तो एक यही ही है कि हम अपने सहज स्वरूप का बोध नहीं कर पाते हैं। तो यह अभव्य जीव भली प्रकार अर्थात् खूब उपदेश दे सके, कंठस्थ हो, ऐसा शास्त्रों का अध्ययन करके भी प्रकृति के स्वभाव को नहीं छोड़ते। इस कारण यह बिल्कुल निश्चित समझो कि अज्ञानी जीव प्रकृति के स्वभाव में स्थित होने से वह वेदक ही है। गांव और नगर में देख लो, जो जितना अज्ञानी है, संकट आने पर, इष्ट वियोग होने पर वह उतना ही रूदन उतना ही दु:ख करता है, ज्ञानी जीव विपत्ति आने पर भी ज्ञाता दृष्टा रहता है। यह हो गया ऐसा। ज्ञानी की वृत्ति-पद्धति―भैया ! अपना भला चाहते हो तो यह कमाई करो, जो गुप्त ही गुप्त स्वाधीनता से बिना श्रम के अपने आपमें किया जा सकता है। कोई भी करले। धनी हो, निर्धन हो, पशु हो, पक्षी हो, इस कमाई को कर ले कि रागादिक भावों से पृथक् ज्ञानमात्र होने में इस मुझ ज्ञानमात्र आत्मा का एक परमाणुमात्र भी कुछ नहीं है। ऐसी प्रतीतिवाला ज्ञानी संत प्रकृति के स्वभाव से हटा हुआ रहता है। जैसे कोई दुष्टों के फंद में पड़ जाय और जानकारी हो जाय कि यह फुसला कर बहलाकर संकटों में डालने वाला है तो वह उससे मधुर बोलकर भी उससे हटा हुआ रहता है, और मौका तकता है कि कोई अवसर मिले कि मैं इस संग से पिंड छुड़ाऊ। इसी तरह इन इंद्रियों का बहकावा, फुसलावा हो रहा है। अज्ञानी, अविवेकी स्खलित हो होकर विषयों की और झुकता है, ऐसा कुसंग मिला है इस आत्मप्रभु को। तो यह भी ज्ञानी है, विवेकी है। सो जानता है कि फँस तो गए ही हैं हम। जीवन से जीना भी पड़ेगा, शरीर को रखना ही पड़ेगा। पर उस विषय वासना कमाई, भोग इच्छा से हटता ही रहता है। उसके अंदर में यत्न बना रहता है। जब कि अज्ञानी अजीव इंद्रियों के विषयों में टूट कर गिरता है। मुझ सा भाग्यवान् कौन है जगत में जो अन्य सब जीवों को तुच्छ मानता है।
क्लेशों की स्वापराधजन्यता―अज्ञानी जीव प्रकृति के स्वभाव में स्थित है। सो वह आकुलतावों को भोगने वाला होता है। यही सबसे बड़ा अपराध है कि हम अपने स्वरूप को नहीं जान पाते हैं। जो भी दु:खी हो रहे हैं वे अपने अपराध से दुःखी हो रहे हैं, दूसरे के अपराध से दूसरा कभी दु:खी हो ही नहीं सकता। व्यर्थ के बैर अपराध की दृष्टि रखना इससे खुद का अकल्याण है। कोई जगत में मेरा विरोधी नहीं है। दूसरे के अपराध से मुझे कभी क्लेश नहीं होता है। हम दु:खी खुद के अपराध से होते हैं। ढूंढ़ो उस अपराध को। खुद का व्यावहारिक कार्यों में अपराध मिलेगा, और न मिलेगा व्यावहारिक कार्यों में अपराध तो मानसिक विकल्पों में अपराध मिलेगा और न भी मिले मानसिक विकल्पों का अपराध तो जो गुजर रही है हम पर उसमें उपयोग जुड़ा है यह ही एक अपराध है। स्वयं के अपराध से ही जीव शंकित रहता है, आकुलित रहता है और विपत्तियों को बढ़ाता है। जो अपराध नहीं करता अर्थात् आत्मा की आराधना में लगता हैं वह आत्मा को ज्ञानमात्र मानता है।
अपराध और आराधना―अपराध का विरूद्ध शब्द आराधना। जैसे मूर्खता और विद्वत्ता विरूद्ध शब्द हैं ना, शत्रुता, मित्रता, जैसे ये दो विरूद्ध शब्द हैं, इसी प्रकार ये भी दो विरूद्ध शब्द हैं―अपराध और आराधना। आराधना नहीं है वही अपराध है और आराधना चल रही है तो अपराध नहीं है। अथवा मिलता जुलता शब्द ले लो अपराध और आराध। अप और आ ये दो उपसर्ग हुए ना, अप का अर्थ है दूर कर दिया और राध मायने राध को, जो राधा को दूर कर देता है सो अपराध है। भगवान पार्श्वनाथ के मायने―जिसका नाथ पास में ही हो सो है पार्श्वनाथ। पार्श्व मायने पास। आराधना―राधेश्याम―राधा से समन्वित जो श्याम है सो है राधेश्याम, श्यामांग पार्श्वनाथ। अथवा जो भी ज्ञानी आत्मसिद्धि से समन्वित है वह है राधेश्याम, यही निरपराध है। अपराधी वह है जिसकी राधा खो गयी। अप मायने बाहर हो गयी है राधा याने सिद्धि। अपनी-अपनी राधा ढूंढ़ लो और अपराध मिटा लो। राधा मायने सिद्धि, राधा का अर्थ है सिद्धि। ‘आ समंतात् राधा यत्र सा आराधा’ सारे प्रदेश में जहां राधा बस गयी, आत्मसिद्धि हो गयी उसका नाम है आराधना। यह सारा जगत आत्मदृष्टि से रहित होकर अपराधी बना हुआ है और जगत में रूलता है। विपत्ति में स्वरक्षा का यत्न―जब कोई विपत्ति आती है तो अपने-अपने बचाव की पड़ती है। अभी आप सब बैठे हैं, सभा है और एक तरफ से चूहा ही निकल जाय तो ऐसा भागेंगे कि चाहे चूहा ही मर जाय, कुछ नहीं देखेंगे। चाहे पास में छोटे बच्चे भी लेटे हों, उनके भी पेट में लात धर कर निकल भागेंगे। ऐसा प्राण छोड़कर भागे और निकला क्या ? एक बेचारा चूहा। जरा सी गड़बड़ हो जाय तिस पर भी अपनी-अपनी पड़ती है, अपना-अपना बचाव करते हैं और बड़ा उपद्रव आ जाय तो वहाँ सब जानते हैं अपना ही बचाव करेंगे। तो इतनी बड़ी विपत्ति हम आप पर पड़ी है कि यह राग रूपी आग निरंतर अपने को जला रही है। किंतु अपने बचाव की मन में नहीं आती। अज्ञानियों का भोगार्थ धर्म―भैया ! धर्मपालन तो दूर रहो, धर्म करेंगे तो उसे राग और सुख बढ़ाने की विधि बनायेंगे धर्म। यह तो भोग भोगने की विधि है कि जरा थोड़ी पूजा कर लें, लोगों को जरा धर्म का अपना जौहर दिखा दें तो ये सब ठाठबाट से रहने के साधन हैं। लोगों में महत्ता भी होगी और धन भी बढ़ जायेगा, सुख भी मिल जायेगा और कभी थोड़ी कमी भी हो जायेगी तो महावीर जी को चार छत्र और चढ़ा देंगे, कैसे कमी हो जायेगी, बड़ा मन में साहस बना है। यह क्या बात है ? ये भोग-भोगने की विधियाँ बना ली है, धर्म नहीं है।
धर्मपान का प्रारंभ―धर्म का प्रारंभ यहीं से है कि ऐसा ज्ञान जगे कि प्रकृति के स्वभाव में यह न टिक सके। उपद्रव आ रहे है पर उनसे हटा हुआ रहे। जिसे अपनी सावधानी है वह निराकुल रहता है। सावधान किसे कहते हैं? जो अवधान से सहित हो और अवधान किसे कहते है? अपने आपका अपने आप में सर्व ओर से धरण हो जाना इसका नाम है अवधान । जरा शब्दों के भी पीछे पड़ते जायें तो ये सब हमें शिक्षा देंगे। तुम्हें यों करना है।
अविवेकी मनुष्य उल्टा पेड़―भैया ! यदि कोई मनुष्य न विवेक बनाए तो वह आदमी क्या है? उल्टा पेड़ है। इन पेड़ों की जड़ें तो नीचे होती हैं और शाखाएं ऊपर होती हैं दो शाखाएँ फैल गयीं, चार शाखाएं फैल गयीं, मगर इस मनुष्यरूपी पेड़ की जड़ मस्तक तो ऊपर है और ये टाँगे आदि शाखायें नीचे को लटक गयी। पेड़ जड़ से आहार ग्रहण करता है, यह पुरूष मस्तक मुख जड़ से आहार ग्रहण करता है। ये मनुष्य जिनके विवेक न जगा, वे चलते फिरते पेड़ हैं। तो यह श्रद्धान करना चाहिए कि हम रागद्वेष से न्यारे मात्र ज्ञानमात्र हैं, ऐसी सावधानी हम आपकी बनी रहे।
ज्ञानी के अभोक्तृत्व का नियम―अज्ञानी पुरूष को वीतराग स्वसम्वेदन ज्ञान नहीं होता है, सो कर्मों का उदय होने पर मिथ्यात्व रागादिक भावों में तन्मय होता है, इस कारण ज्ञानी कर्मों के फल का नियम से वेदक होता है। ज्ञानी जीव ऐसा अनुभव करता है कि मैं अनंत ज्ञानादिकरूप हूँ, सर्व से विविक्त अपने स्वरूप मात्र हूँ। यह ऐसा है और सतत परिणमता रहता है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई विसम्वाद इस मुझ आत्मा का मेरे स्वभाव के कारण नहीं है। मैं स्वभाव मात्र हूँ, ऐसे निज की प्रतीति के बल से सहज स्वभावमय निज आत्मतत्त्व को लक्ष्य में लेकर शुद्ध आत्मा को भली प्रकार जानता हुआ परम समता रस रूप अपना अनुभवन किया करता है। अत: ज्ञानी कर्मफल का भोक्ता नहीं है, इस नियम को अब इस गाथा में कह रहे हैं।