पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 112 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:08, 19 August 2021
शंबूक, मातृवाह, शंख, शुक्ति (सीप) अपादग / बिना पैरों की चलने वाली कृमी -- ये जीव-रूप कर्ता क्योंकि स्पर्श और रस-दो को जानते हैं; इसलिए दो इन्द्रिय हैं ।
वह इसप्रकार -- शुद्ध-नय की अपेक्षा दो-इन्द्रिय के स्वरूप से पृथग्भूत और केवल ज्ञान-दर्शन दो से अपृथग्भूत जो शुद्ध जीवास्तिकाय का स्वरूप है, उसकी भावना से उत्पन्न सदा आनन्द एक लक्षण सुख-रस के आस्वाद से रहित और स्पर्शन, रसना इन्द्रिय आदि के विषय-सुख सम्बंधी रस के आस्वाद सहित जीवों द्वारा जो उपार्जित (बाँधा गया) दो-इन्द्रिय जाति नाम-कर्म, उसके उदय के समय वीर्यान्तराय, स्पर्शन-रसना इन्द्रियावरण के क्षयोपशम का लाभ होने से तथा शेष इन्द्रियों सम्बन्धी आवरण का उदय होने पर और नोइन्द्रियावरण का उदय होने पर दोइन्द्रिय मन रहित होते हैं, ऐसा सूत्रार्थ है ॥१२२॥