पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 115 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 13:08, 19 August 2021
देव, मनुष्य, नारकी, तिर्यंच रूप कर्ता जिस कारण वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, शब्द को जानते हैं; उस कारण पंचेन्द्रिय जीव हैं । उनमें से जो तिर्यंच हैं, वे कुछ जलचर हैं, कुछ थलचर हैं और कुछ नभचर हैं तथा बलशाली हैं । वे बलशाली कौन हैं ? जल-चरों में ग्राह नाम वाले, स्थल-चरों में अष्टापद नाम वाले और नभ-चरों में भेरुण्ड आदि बलशाली हैं ।
वह इसप्रकार -- निर्दोषी परमात्मा के ध्यान से उत्पन्न निर्विकार तात्त्विक आनन्द एक लक्षण सुख से विपरीत जो इन्द्रिय सुख, उसमें आसक्त बहिर्मुख जीवों द्वारा उपार्जित पंचेन्द्रिय जाति नामकर्म, उसके उदय को पाकर वीर्यान्तराय, स्पर्शन-रसना-घ्राण-चक्षु-कर्ण इन्द्रियों सम्बन्धी आवरण के क्षयोपशम का लाभ होने से तथा नोइन्द्रिय आवरण का उदय होने पर कुछ शिक्षा, आलाप, उपदेश ग्रहण की शक्ति से रहित / शून्य असंज्ञी पंचेन्द्रिय होते हैं तथा कुछ नोइन्द्रिय आवरण के भी क्षयोपशम का लाभ होने से संज्ञी होते हैं । उनमें से नारकी, मनुष्य, देव संज्ञी ही हैं; पंचेन्द्रिय तिर्यंच संज्ञी भी होते हैं और असंज्ञी भी; परन्तु एकेन्द्रिय आदि से चार इन्द्रिय पर्यंत असंज्ञी ही होते हैं ।
यहाँ कोई कहता है कि -- मन वास्तव में क्षयोपशम के विकल्प / भेदरूप कहा गया है, वह उनके भी है; अत: वे असंज्ञी कैसे हो सकते हैं? इसका उत्तर देते हैं -- जैसे चींटी के गंध विषय में जातिगत स्वभाव से ही आहारादि संज्ञा-रूप चतुरता है; परन्तु अन्यत्र कार्य-कारण व्याप्ति ज्ञान के विषय में नहीं है; उसीप्रकार अन्य भी असंज्ञियों को जानना; तथा मन तो तीन लोक, तीन काल सम्बन्धी विषय का व्याप्ति ज्ञान-रूप से और केवल-ज्ञान प्रणीत परमात्मा आदि तत्त्वों का परोक्ष जानकारी रूप से परिच्छेदक / ज्ञायक होने के कारण केवल-ज्ञान के समान है, ऐसा भावार्थ है ॥१२५॥