पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 66 - समय-व्याख्या - हिंदी: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 13:08, 19 August 2021
निश्चय से जीव और कर्म को एक का (निज-निज रूप का ही) कर्तृत्व होने पर भी, व्यवहार से जीव को कर्म के द्वारा दिए गए फल का उपभोग विरोध को प्राप्त नहीं होता (अर्थात् 'कर्म जीव को फल देता है और जीव उसे भोगता है' यह बात भी व्यवहार से घटित होती है) ऐसा यहाँ कहा है ।
जीव मोह-राग-द्वेष से स्निग्ध होने के कारण तथा पुद्गल-स्कन्ध स्वभाव से स्निग्ध होने के कारण, (वे) बन्ध अवस्था में, १परमाणु-द्वंदों की भाँति, (विशिष्ट प्रकार से) अन्योन्य-अवगाह के ग्रहण द्वारा बद्ध-रूप से रहते हैं । जब वे परस्पर पृथक होते हैं तब (पुद्गल-स्कन्ध निम्नानुसार फल देते हैं और जीव उसे भोगते हैं), उदय पाकर खिर जाने वाले पुद्गल-काय सुख-दुःख-रूप आत्म-परिणामों के निमित्त-मात्र होनेकी अपेक्षा से २निश्चय से, और इष्टानिष्ट विषयों के निमित्त-मात्र होने की अपेक्षा से २व्यवहार से सुख-दुःख-रूप फल देते हैं; तथा जीव निमित्त-मात्र-भूत द्रव्य-कर्म से निष्पन्न होने वाले सुख-दुःख-रूप आत्म-परिणामों को भोक्ता होने की अपेक्षा से निश्चय से, और (निमित्त-मात्र-भूत) द्रव्य-कर्म के उदय से संपादित इष्टानिष्ट विषयों के भोक्ता होने की अपेक्षा से व्यवहार से, उस प्रकार का (सुख-दुःख-रूप) फल भोगते हैं (अर्थात् निश्चय से सुख-दुःख-परिणाम-रूप और व्यवहार से इष्टानिष्ट विषयरूप फल भोगते हैं) ।
इससे (इस कथन से) जीव के भोक्तृत्व-गुण का भी व्याख्यान हुआ ॥६६॥
१परमाणु-द्वंद्व = दो परमाणुओं का जोड़ा; दो परमाणुओं से निर्मित स्कन्ध; द्वि-अणुक स्कन्ध
२सुख-दुःख के दो अर्थ होते हैं; १. सुख-दुःख परिणाम, और २. इष्टानिष्ट विषय । जहां 'निश्चय' से कहा है वहाँ 'सुख-दुःख परिणाम' ऐसा अर्थ समझना चाहिए और जहां 'व्यवहार' से कहा है वहाँ 'इष्टानिष्ट विषय' ऐसा अर्थ लेना चाहिए ।