पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 138 - समय-व्याख्या - हिंदी: Difference between revisions
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<p>यह, पापास्रव-भूत भावों के विस्तार का कथन है । <ul><li>तीव्र मोह के विपाक से उत्पन्न होने वाली आहार-भय-मैथुन-परिग्रह | <p>यह, पापास्रव-भूत भावों के विस्तार का कथन है । <ul><li>तीव्र मोह के विपाक से उत्पन्न होने वाली आहार-भय-मैथुन-परिग्रह <span class="DarkFont">संज्ञाएँ</span>, <li>तीव्र कषाय के उदय से <sup>१</sup>अनुरंजित योग-प्रवृत्ति रूप कृष्ण-नील-कापोत नाम की तीन <span class="DarkFont">लेश्याएँ</span>, <li>रागद्वेष के उदय के <sup>२</sup>प्रकर्ष के कारण वर्तता हुआ <span class="DarkFont">इन्द्रियाधीनपना</span>, <li>राग-द्वेष के <sup>३</sup>उद्रेक के कारण प्रिय के संयोग की, अप्रिय के वियोग की, वेदना से छुटकारा की तथा निदान की इच्छा-रूप आर्त-ध्यान, <li>कषाय द्वारा <sup>४</sup>क्रूर ऐसे परिणाम के कारण होने वाला हिंसानंद, असत्यानन्द, स्तेयानन्द एवं विषय-संरक्षणानन्द-रूप रौद्र-ध्यान, <li>निष्प्रयोजन (व्यर्थ) शुभ कर्म से अन्यत्र (अशुभ कार्य में ) दुष्ट-रूप से लगा हुआ ज्ञान, और <li>सामान्य-रूप से दर्शन-चारित्र मोहनीय के उदय से उत्पन्न अविवेक-रूप <span class="DarkFont">मोह</span>, </ul>-- यह, भाव-पापास्रव का विस्तार द्रव्य-पापास्रव के विस्तार को प्रदान करने वाला है (उपरोक्त भाव-पापास्रव रूप अनेकविध भाव वैसे-वैसे अनेकविध द्रव्य-पापास्रव में निमित्त-भूत हैं) ॥१३८॥</p> | ||
<p>इस प्रकार आस्रव-पदार्थ का व्याख्यान समाप्त हुआ ।</p> | <p>इस प्रकार आस्रव-पदार्थ का व्याख्यान समाप्त हुआ ।</p> | ||
<p>अब, संवर-पदार्थ का व्याख्यान है ।</p> | <p>अब, संवर-पदार्थ का व्याख्यान है ।</p> |
Latest revision as of 16:51, 24 August 2021
यह, पापास्रव-भूत भावों के विस्तार का कथन है ।
- तीव्र मोह के विपाक से उत्पन्न होने वाली आहार-भय-मैथुन-परिग्रह संज्ञाएँ,
- तीव्र कषाय के उदय से १अनुरंजित योग-प्रवृत्ति रूप कृष्ण-नील-कापोत नाम की तीन लेश्याएँ,
- रागद्वेष के उदय के २प्रकर्ष के कारण वर्तता हुआ इन्द्रियाधीनपना,
- राग-द्वेष के ३उद्रेक के कारण प्रिय के संयोग की, अप्रिय के वियोग की, वेदना से छुटकारा की तथा निदान की इच्छा-रूप आर्त-ध्यान,
- कषाय द्वारा ४क्रूर ऐसे परिणाम के कारण होने वाला हिंसानंद, असत्यानन्द, स्तेयानन्द एवं विषय-संरक्षणानन्द-रूप रौद्र-ध्यान,
- निष्प्रयोजन (व्यर्थ) शुभ कर्म से अन्यत्र (अशुभ कार्य में ) दुष्ट-रूप से लगा हुआ ज्ञान, और
- सामान्य-रूप से दर्शन-चारित्र मोहनीय के उदय से उत्पन्न अविवेक-रूप मोह,
इस प्रकार आस्रव-पदार्थ का व्याख्यान समाप्त हुआ ।
अब, संवर-पदार्थ का व्याख्यान है ।
१अनुरंजित= रंगी हुई। (कषाय के उदय से अनुरंजित योगप्रवृत्ति वह लेश्या है। वहाँ, कृष्णादि तीन लेश्याएँ तीव्र कषाय के उदय से अनुरंजित योगप्रवृत्तिरूप है। )
२प्रकर्ष= उत्कर्ष, उग्रता ।
३उद्रेक= बहुलता, अधिकता ।
४क्रूर= निर्दय, कठोर, उग्र ।