समयसार - गाथा 352: Difference between revisions
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<div class="PravachanText">जह सिप्पि उ कम्मफलं भुंजदि ण य सो उ तम्म्मओ | <div class="PravachanText"><p><strong>जह सिप्पि उ कम्मफलं भुंजदि ण य सो उ तम्म्मओ होइ।तह जीवो कम्मफलं भुंजइ ण य तम्मओ होइ।।352।।</strong> </p> | ||
<p><strong>कर्ता व कर्मफल की अभिन्नता</strong>―जैसे शिल्पकार स्वर्ण बनाने के प्रसंग में वह भोग किसे रहा है ? अपनी चेष्टा के फल को, लेकिन व्यवहारी लोग कहते हैं कि जब वह आभूषण बना चुका तो उन्हें बाजार में बेच दिया―10―12 रूपये मुनाफे में मिल गए तो उनसे उसने भोजन किया, कपड़े पहिना, तो लोग कहते हैं कि इसने आभूषण के फल को भोगा। किसी राजा को भेंट किया तो उसे गांव इनाम में मिल गया, सो लोग कहते हैं कि इसने कुंडल ग्रामादिक फल को भोगा, परंतु बात यह है ही नहीं। </p> | |||
<p><strong>कर्मफल का कर्मकाल में ही उपभोग</strong>―जिस समय इसने चेष्टा की उसी समय उसने अपनी करनी का फल भोगा, बाद में नहीं भोगा। जो चेष्टा करते समय में परिणाम बनाया उस परिणाम में जो कुछ सुख या दु:ख रूप उसका संकल्प है उसको भोगा, गहने को नहीं भोगा। विद्यार्थी लोग साल भर पढ़ते हैं और अंत में परीक्षा देते हैं, और परीक्षा देने के 1।। माह बाद रिजल्ट आता है तो लोग कहते हैं रिजल्ट आने पर कि इस विद्यार्थी ने वर्ष भर की पढ़ाई का फल आज पाया। सारे वर्ष सिर मारा और फल पाया एक सेकेंड में, क्या ऐसा है ? जिस समय जो कार्य किया उस कार्य का फल उस बालक ने उसी समय पाया क्योंकि कर्मफल भी भोक्ता से अभिन्न है। </p> | |||
कर्ता व कर्मफल की | <p><strong>भिन्न वस्तु के भोगने का अभाव</strong>―शिल्पी गहने का फल नहीं भोग सकता। गहना तो भिन्न वस्तु है, वह तो जो परिणाम बनायेगा, जो यत्न करेगा, उसका फल भोगेगा अथवा व्यवहार में जैसे लोग कहते हैं कि इस स्वर्णकार ने उस गहने के करने का फल भोगा, पर वह उस गहने के व्यवहार में तन्मय नहीं होता। इसी प्रकार यह जीव कर्म का फल भोगता है परंतु कर्मफल में तन्मय नहीं होता। यहां तक इस प्रसंग में क्या बात कही गयी कि जैसे शिल्पी स्वर्णकार कुंडल बनाता है तो कुंडल परद्रव्य है, कुंडल परद्रव्य के परिणमन को करता है―सुनार, यह व्यवहार भाषा का वचन है और हथौड़ी आदिक परद्रव्यों के परिणमनरूप साधन के द्वारा करता है और हथौड़ी आदिक परद्रव्यों के परिणमनरूप साधनों को ग्रहण करता है, और जब उसे बेचेगा तो इनाम में गांव मिलेगा या फिर धन मिलेगा तो लोग कहते हैं कि ग्रामादिक परद्रव्य के परिणमनरूप कुंडल करने का फल भोगता है। ये सब व्यवहार वचन है। अज्ञान अवस्था में ऐसी ही व्यवहार दृष्टि परमार्थ बन रही है, परंतु यथार्थ बात क्या है इसका अब आचार्यदेव निरूपण करने का संकल्प करते हैं।</p> | ||
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कर्मफल का कर्मकाल में ही | |||
भिन्न वस्तु के भोगने का | |||
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Latest revision as of 12:32, 20 September 2021
जह सिप्पि उ कम्मफलं भुंजदि ण य सो उ तम्म्मओ होइ।तह जीवो कम्मफलं भुंजइ ण य तम्मओ होइ।।352।।
कर्ता व कर्मफल की अभिन्नता―जैसे शिल्पकार स्वर्ण बनाने के प्रसंग में वह भोग किसे रहा है ? अपनी चेष्टा के फल को, लेकिन व्यवहारी लोग कहते हैं कि जब वह आभूषण बना चुका तो उन्हें बाजार में बेच दिया―10―12 रूपये मुनाफे में मिल गए तो उनसे उसने भोजन किया, कपड़े पहिना, तो लोग कहते हैं कि इसने आभूषण के फल को भोगा। किसी राजा को भेंट किया तो उसे गांव इनाम में मिल गया, सो लोग कहते हैं कि इसने कुंडल ग्रामादिक फल को भोगा, परंतु बात यह है ही नहीं।
कर्मफल का कर्मकाल में ही उपभोग―जिस समय इसने चेष्टा की उसी समय उसने अपनी करनी का फल भोगा, बाद में नहीं भोगा। जो चेष्टा करते समय में परिणाम बनाया उस परिणाम में जो कुछ सुख या दु:ख रूप उसका संकल्प है उसको भोगा, गहने को नहीं भोगा। विद्यार्थी लोग साल भर पढ़ते हैं और अंत में परीक्षा देते हैं, और परीक्षा देने के 1।। माह बाद रिजल्ट आता है तो लोग कहते हैं रिजल्ट आने पर कि इस विद्यार्थी ने वर्ष भर की पढ़ाई का फल आज पाया। सारे वर्ष सिर मारा और फल पाया एक सेकेंड में, क्या ऐसा है ? जिस समय जो कार्य किया उस कार्य का फल उस बालक ने उसी समय पाया क्योंकि कर्मफल भी भोक्ता से अभिन्न है।
भिन्न वस्तु के भोगने का अभाव―शिल्पी गहने का फल नहीं भोग सकता। गहना तो भिन्न वस्तु है, वह तो जो परिणाम बनायेगा, जो यत्न करेगा, उसका फल भोगेगा अथवा व्यवहार में जैसे लोग कहते हैं कि इस स्वर्णकार ने उस गहने के करने का फल भोगा, पर वह उस गहने के व्यवहार में तन्मय नहीं होता। इसी प्रकार यह जीव कर्म का फल भोगता है परंतु कर्मफल में तन्मय नहीं होता। यहां तक इस प्रसंग में क्या बात कही गयी कि जैसे शिल्पी स्वर्णकार कुंडल बनाता है तो कुंडल परद्रव्य है, कुंडल परद्रव्य के परिणमन को करता है―सुनार, यह व्यवहार भाषा का वचन है और हथौड़ी आदिक परद्रव्यों के परिणमनरूप साधन के द्वारा करता है और हथौड़ी आदिक परद्रव्यों के परिणमनरूप साधनों को ग्रहण करता है, और जब उसे बेचेगा तो इनाम में गांव मिलेगा या फिर धन मिलेगा तो लोग कहते हैं कि ग्रामादिक परद्रव्य के परिणमनरूप कुंडल करने का फल भोगता है। ये सब व्यवहार वचन है। अज्ञान अवस्था में ऐसी ही व्यवहार दृष्टि परमार्थ बन रही है, परंतु यथार्थ बात क्या है इसका अब आचार्यदेव निरूपण करने का संकल्प करते हैं।