आदिपुराण - पर्व 3: Difference between revisions
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तृतीयं पर्व
मैं उन वृषभनाथ स्वामी को नमस्कार करके इस महापुराण की पीठिका का व्याख्यान करता हूँ जो कि इस अवसर्पिणी युग के सबसे प्राचीन मुनि हैं, जिन्होंने कर्मरूपी शत्रुओं को जीत लिया है और विनाश से रहित हैं ।।1।।
कालद्रव्य अनादिनिधन है, वर्तना उसका लक्षण माना गया है (जो द्रव्यों की पर्यायों के बदलने में सहायक हो उसे वर्तना कहते हैं) यह कालद्रव्य अत्यंत सूक्ष्म परमाणु बराबर है और असंख्यात होने के कारण समस्त लोकाकाश में भरा हुआ है । भावार्थ―कालद्रव्य का एक-एक परमाणु लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर स्थित है ।।2।। उस कालद्रव्य में अनंत पदार्थों के परिणमन कराने की सामर्थ्य है अत: वह स्वयं असंख्यात होकर भी अनंत पदार्थों के परिणमन में सहकारी होता है ।।3।। जिस प्रकार कुम्हार के चाक के घूमने में उसके नीचे लगी हुई कील कारण है उसी प्रकार पदार्थों के परिणमन होने में काल द्रव्य सहकारी कारण है । संसार के समस्त पदार्थ अपने-अपने गुणपर्यायों द्वारा स्वयमेव ही परिणमन को प्राप्त होते रहते हैं और कालद्रव्य उनके उस परिणमन में मात्र सहकारी कारण होता है । जब कि पदार्थों का परिणमन अपने-अपने गुणपर्याय रूप होता है तब अनायास ही सिद्ध हो जाता है कि वे सब पदार्थ सर्वदा पृथक्-पृथक् रहते है अर्थात् अपना स्वरूप छोड़कर परस्पर में मिलते नहीं हैं ।।4।। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश ये पाँच अस्तिकाय हैं अर्थात् सत्स्वरूप होकर बहुप्रदेशी है । इनमें कालद्रव्य का पाठ नहीं है, इसलिए वह है ही नहीं इस प्रकार कितने ही लोग मानते हैं परंतु उनका वह मानना ठीक नहीं है क्योंकि यद्यपि एक प्रदेशी होने के कारण काल द्रव्य का पंचास्तिकायों में पाठ नहीं है तथापि छह द्रव्यों में तो उसका पाठ किया गया है । इसके सिवाय युक्ति से भी काल द्रव्य का सद्धाव सिद्ध होता है । वह युक्ति इस प्रकार है कि संसार में जो घड़ी, घाटा आदि व्यवहार काल प्रसिद्ध है वह पर्याय है । पर्याय का मूलभूत कोई न कोई पर्यायी अवश्य होता है क्योंकि बिना पर्यायी के पर्याय नहीं हो सकती इसलिए व्यवहार काल का मूलभूत मुख्य काल द्रव्य है । मुख्य पदार्थ के बिना व्यवहार―गौण पदार्थ की सत्ता सिद्ध नहीं होती । जैसे कि वास्तविक सिंह के बिना किसी प्रतापी बालक में सिंह का व्यवहार नहीं किया जा सकता, वैसे ही मुख्य काल के बिना घड़ी, घाटा आदि में काल द्रव्य का व्यवहार नहीं किया जा सकता । परंतु होता अवश्य है इससे काल द्रव्य का अस्तित्व अवश्य मानना पड़ता है ।।5-7।। यद्यपि इनमें एक से अधिक बहुप्रदेशों का अभाव है इसलिए इसे अस्तिकायों में नहीं गिना जाता है तथापि इसमें अगुरुलघु आदि अनेक गुण तथा उनके विकारस्वरूप अनेक पर्याय अवश्य हैं क्योंकि यह द्रव्य है, जो-जो द्रव्य होता है उसमें गुणपर्यायों का समूह अवश्य रहता है । द्रव्यत्व का गुणपर्यायों के साथ जैसा संबंध है वैसा बहुप्रदेशों के साथ नहीं है । अत: बहुप्रदेशों का अभाव होने पर भी काल पदार्थ द्रव्य माना जा सकता है और इस तरह काल नामक पृथक् पदार्थ की सत्ता सिद्ध हो जाती है ।।8।। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश को अस्तिकाय कहने से ही यह सब होता है कि काल द्रव्य अस्तिकाय नहीं है क्योंकि विपक्षी के रहते हुए ही विशेषण की सार्थकता सिद्ध हो सकती है । जिस प्रकार छह द्रव्यों में चेतनरूप आत्मद्रव्य को जीव कहना ही पुद्गलादि पाँच द्रव्यों को अजीव सिद्ध कर देता है उसी प्रकार जीवादि को अस्तिकाय कहना ही काल को अनस्तिकाय सिद्ध कर देता है ।।9।। इस मुख्य काल के अतिरिक्त जो घड़ी, घाटा आदि है वह व्यवहारकाल कहलाता है । यहाँ यह याद रखना आवश्यक होगा कि व्यवहारकाल मुख्य काल से सर्वथा स्वतंत्र नहीं है वह उसी के आश्रय से उत्पन्न हुआ उसकी पर्याय ही है । यह छोटा है, यह बड़ा है आदि बातों से व्यवहारकाल स्पष्ट जाना जाता है ऐसा सर्वज्ञदेव ने वर्णन किया है ।।10।। यह व्यवहारकाल वर्तना लक्षणरूप निश्चय काल द्रव्य के द्वारा ही प्रवर्तित होता है और वह भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान रूप होकर संसार का व्यवहार चलाने के लिए समर्थ होता है अथवा कल्पित किया जाता है ।।11।। वह व्यवहारकाल समय, आवलि, उच्छ्वास, नाड़ी आदि के भेद से अनेक प्रकार का होता है । यह व्यवहारकाल सूर्यादि ज्योतिश्चक्र के घूमने से ही प्रकट होता है ऐसा विद्वान् लोग जानते हैं ।।12।। यदि भव, आयु, काय और शरीर आदि की स्थिति का समय जोड़ा जाये तो वह अगत समयरूप होता है और उसका परिवर्तन भी अनंत प्रकार से होता है ।।13।।
उस व्यवहारकाल के दो भेद कहे जाते हैं―1. उत्सर्पिणी और 2. अवसर्पिणी । जिसमें मनुष्यों के बल, आयु और शरीर का प्रमाण क्रम-क्रम से बढ़ता जाये उसे उत्सर्पिणी कहते हैं और जिसमें वे क्रम-क्रम से घटते जायें उसे अवसर्पिणी कहते हैं ।।14।। उत्सर्पिणी काल का प्रमाण दस कोड़ाकोड़ी सागर है तथा अवसर्पिणी काल का प्रमाण भी इतना ही है । इन दोनों को मिलाकर बीस कोड़ाकोड़ी सागर का एक कल्प काल होता है ।।15।। हे राजन् इन उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीकाल के प्रत्येक के छह-छह भेद होते हैं । अब क्रमपूर्वक उनके नाम कहे जाते हैं सो सुनो ।।16।। अवसर्पिणी काल के छह भेद ये हैं―पहला सुषमासुषमा, दूसरा सुषमा, तीसरा सुषमादुःषमा, चौथा दुःषमासुषमा, पाँचवाँ दु:षमा और छठा अतिदु:षमा अथवा दुःषमदुःषमा ये अवसर्पिणी के भेद जानना चाहिए । उत्सर्पिणी काल के भी छह भेद होते हैं जो कि उक्त भेदों से विपरीत रूप हैं, जैसे 1. दुःषमादुःषमा, 2. दुःषमा, 3. दुःषमासुषमा, 4. सुषमादुःषमा, 5. सुषमा और 6. सुषमासुषमा ।।17-18।। समा काल के विभाग को कहते हैं तथा सु और दुर् उपसर्ग-क्रम से अच्छे और बुरे अर्थ में आते हैं । सु और दूर् उपसर्गों को पृथक्-पृथक् समा के साथ जोड़ देने तथा व्याकरण के नियमानुसार सको ष कर देने से सुषमा तथा दुःषमा शब्दों की सिद्धि होती है । जिनका अर्थ क्रम से अच्छा काल और बुरा काल होता है, इस तरह उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के छहों भेद सार्थक नाम वाले हैं ।।19।। इसी प्रकार अपने अवांतर भेदों से सहित उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल भी सार्थक नाम से युक्त हैं क्योंकि जिसमें स्थिति आदि की वृद्धि होती रहे उसे उत्सर्पिणी और जिसमें घटती होती रहे उसे अवसर्पिणी कहते हैं ।।20।। ये उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी नामक दोनों ही भेद कालचक्र के परिभ्रमण से अपने छहों कालों के साथ-साथ कृष्णपक्ष और शुक्रपक्ष की तरह घूमते रहते हैं अर्थात् जिस तरह कृष्णपक्ष के बाद शुक्लपक्ष और शुक्लपक्ष के बाद कृष्णपक्ष बदलता रहता है उसी तरह अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी और उत्सर्पिणी के बाद अवसर्पिणी बदलती रहती है ।।21।।
पहले इस भरतक्षेत्र के मध्यवर्ती आर्यखंड में अवसर्पिणी का पहला भेद सुषमा-सुषमा नाम का काल बीत रहा था उस काल का परिमाण चार कोडाकोडी सागर था, उस समय यहाँ नीचे लिखे अनुसार व्यवस्था थी ।।22-23।। देवकुरु और उत्तरकुरु नामक उत्तर भोगभूमियों में जैसी स्थिति रहती है ठीक वैसी ही स्थिति इस भरतक्षेत्र में युग के प्रारंभ अर्थात् अवसर्पिणी के पहले काल में थी ।।24।। उस समय मनुष्यों की आयु तीन पल्य की होती थी और शरीर की ऊँचाई छह हजार धनुष की थी ।।25।। उस समय यहाँ जो मनुष्य थे जनक शरीर के अस्थिबंधन वज्र के समान सुदृढ़ थे, वे अत्यंत सौम्य और सुंदर आकार के धारक थे । उनका शरीर तपाये हुए सुवर्ण के समान दैदीप्यमान था ।।26।। मुकुट, कुंडल, हार, करधनी, कड़ा, बाजूबंद और यज्ञोपवीत इन आभूषणों को वे सर्वदा धारण किये रहते थे ।।27।। वहाँ के मनुष्यों को पुण्य के उदय से अनुपम रूप सौंदर्य तथा अन्य संपदाओं की प्राप्ति होती रहती है इसलिए वे स्वर्ग में देवों के समान अपनी-अपनी खियों के हाथ चिरकाल तक क्रीड़ा करते रहते हैं ।।28।। वे पुरुष सबके सब बड़े बलवान् बड़े धीरवीर, बड़े तेजस्वी, बड़े प्रतापी, बड़े सामर्थ्यवान् और बड़े पुण्यशाली होते है । उनके वक्षःस्थल बहुत ही विस्तृत होते हैं तथा वे सब पूज्य समझे जाते हैं ।।29।। उन्हें तीन दिन बाद भोजन की इच्छा होती है सौ कल्पवृक्षों से प्राप्त हुए बदरीफल बराबर उत्तम भोजन ग्रहण करते हैं ।।30।। उन्हें न तो कोई परिश्रम करना पड़ता है, न कोई रोग होता है, न मलमृत्रादि की बाधा होती है, न मानसिक पीड़ा होती है, न पसीना ही आता है और न अकाल में उनकी मृत्यु ही होती है । वे बिना किसी बाधा के सुखपूर्वक जीवन बिताते हैं ।।31।। वहाँ की स्त्रियाँ भी उतनी ही आयु की धारक होती है, उनका शरीर भी उतना ही ऊँचा होता है और वे अपने पुरुषों के साथ ऐसी शोभायमान होती हैं जैसी कल्पवृक्षों पर लगी हुई कल्पलताएँ ।।32।। वे स्त्रियाँ अपने पुरुषों में अनुरक्त रहती है और पुरुष अपनी खियों में अनुरक्त रहते हैं । वे दोनों ही अपने जीवन पर्यंत बिना किसी क्लेश के भोग-संपदाओं का उपभोग करते रहते है ।।33।। देवों के समान उनका रूप स्वभाव से सुंदर होता है, उनके वचन स्वभाव से मीठे होते हैं और उनकी चेष्टाएँ भी स्वभाव से चतुर होती हैं ।।34।। इच्छानुसार मनोहर आहार, घर, बाजे, माला, आभूषण और वस्त्र आदिक समस्त भोगोपभोग की सामग्री इन्हें इच्छा करते ही कल्पवृक्षों से प्राप्त हो जाती है ।।35।। जिनके पल्लवरूपी वस्त्र मंद सुगंधित वायु के द्वारा हमेशा हिलते रहते हें । ऐसे सदा प्रकाशमान रहने वाले वहाँ के कल्पवृक्ष अत्यंत शोभायमान रहते हैं ।।36।। सुषमासुषमा नामक काल के प्रभाव से उत्पन्न हुई क्षेत्र की सामर्थ्य से वृद्धि को प्राप्त हुए वे कल्पवृक्ष वहाँ के जीवों को मनोवांछित पदार्थ देने के लिए सदा समर्थ रहते हैं ।।37।। वे कल्पवृक्ष पुण्यात्मा पुरुषों को मनचाहे भोग देते रहते हैं इसलिए जानकार पुरुषों ने उनका कल्पवृक्ष यह नाम सार्थक ही कहा है ।।38।। वे कल्पवृक्ष दस प्रकार के हैं―1. मद्यांग, 2. तुर्यांग, 3. विभूषांग, 4. स्रगंग (माल्यांग), 5. ज्योतिरंग, 6. दीपांग, 7. गृहांग, 8. भोजनांग, 9. पात्रांग और 10. वस्त्रांग । वे सब अपने-अपने नाम के अनुसार ही कार्य करते हैं इसलिए इनके नाम मात्र कह दिये है; अधिक विस्तार के साथ उनका कथन नहीं किया है ।।39-40।। इस प्रकार वहाँ के मनुष्य अपने पूर्व पुण्य के उदय से चिरकाल तक भोगों को भोगकर आयु समाप्त होते ही शरदूऋतु के मेघों के समान विलीन हो जाते हैं ।।41।। आयु के अंत में पुरुष को जम्हाई आती है और स्त्री को छींक । उसी से पुण्यात्मा पुरुष अपना-अपना शरीर छोड़कर स्वर्ग चले जाते हैं ।।42।। उस समय के मनुष्य स्वभाव से ही कोमल परिणामी होते है, इसलिए वे भद्रपुरुष मरकर स्वर्ग ही जाते हैं । स्वयं के सिवाय उनकी और कोई गति नहीं होती ।।43।। इस प्रकार अवसर्पिणी काल के प्रथम सुषमासुषमा नामक काल का कुछ वर्णन किया है । यहाँ की और समस्त विधि उत्तरकुरु के समान समझना चाहिए ।।44।। इसके अनंतर जब क्रम-क्रम से प्रथम काल पूर्ण हुआ और कल्पवृक्ष, मनुष्यों का बल, आयु तथा शरीर की ऊंचाई आदि सब घटती को प्राप्त हो चले तब सुषमा नामक दूसरा काल प्रवृत्त हुआ । इसका प्रमाण तीन कोड़ाकोड़ी सागर था ।।45-46।। उस समय इस भारतवर्ष में कल्पवृक्षों के द्वारा उत्कष्ट विभूति को विस्तृत करती हुई मध्यम भोगभूमि की अवस्था प्रचलित हुई ।।47।। उस वक्त यहाँ के मनुष्य देवों के समान कांति के धारक थे, उनकी आयु दो पल्य की
थी, उनका शरीर चार हजार-धनुष ऊँचा था तथा उनकी सभी चेष्टाएँ शुभ थीं ।।48।। उनके शरीर की कांति चंद्रमा की कलाओं के साथ स्पर्धा करती थी अर्थात् उनसे भी कहीं अधिक सुंदर थी, उनकी मुसकान बड़ी ही उज्ज्वल थी । वे दो दिन बाद कल्पवृक्ष से प्राप्त हुए बहेड़े के बराबर उत्तम अन्न खाते थे ।।49।। उस समय यहाँ की शेष सब व्यवस्था हरिक्षेत्र के समान थी फिर क्रम से जब द्वितीय काल पूर्ण हो गया और कल्पवृक्ष तथा मनुष्यों के बल, विक्रम आदि घट गये तब जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था प्रकट हुई ।।50-51।। उस समय न्यायवान् राजा के सदृश मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता हुआ तीसरा सुषमादुःषमा नाम का काल यथाक्रम से प्रवृत्त हुआ ।।52।। उसकी स्थिति दो कोड़ाकोड़ी सागर की थी । उस समय इस भारतवर्ष में मनुष्यों की स्थिति एक पल्य की थी । उनके शरीर एक कोश ऊँचे थे, वे प्रियंगु के समान श्यामवर्ण थे और एक दिन के अंतर से आँवले के बराबर भोजन ग्रहण करते थे ।।52-54।। इस प्रकार क्रम-क्रम से तीसरा काल व्यतीत होने पर जब इसमें पल्य का आठवाँ भाग शेष रह गया तब कल्पवृक्षों की सामर्थ्य घट गयी और ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्षों का प्रकाश अत्यंत मंद हो गया ।।55-56।। तदनंतर किसी समय आषाढ़ सुदी पूर्णिमा के दिन सायंकाल के समय आकाश के दोनों भागों में अर्थात् पूर्व दिशा में उदित होता हुआ चमकीला चंद्रमा और पश्चिम में अस्त होता हुआ सूर्य दिखलायी पड़ा ।।57।। उस समय वे सूर्य और चंद्रमा ऐसे शोभायमान हो रहे थे मानो आकाशरूपी समुद्र में सोने के बने हुए दो जहाज ही हों अथवा आकाशरूपी हस्ती के गंडस्थल के समीप सिंदूर से बने हुए दो चंद्रक (गोलाकार चिह्न) ही हों । अथवा पूर्णिमारूपी स्त्री के दोनों हाथों पर रखे हुए खेलने के मनोहर लाख निर्मित दो गोले ही हों । अथवा आगे होने वाले दुःषम-सुषमा नामक कालरूपी नवीन राजा के प्रवेश के लिए जगत्रूपी धर के विशाल दरवाजे पर रखे हुए मानो दो सुवर्णकलश ही हों । अथवा तारारूपी फेन और बुध, मंगल आदि ग्रहरूपी मगरमच्छों से भरे हुए आकाशरूपी समुद्र के मध्य में सुवर्ण के दो मनोहर जलक्रीड़ागृह ही बने हों । अथवा सद्वृत्त-गोलाकार (पक्ष में सदाचारी) और असंग-अकेले (पक्ष में परिग्रहरहित) होने के कारण साधुसमूह का अनुकरण कर रहे हों अथवा शीतकर-शीतल किरणों से युक्त (पक्ष में अल्प टैक्स लेने वाला) और तीव्रकर―उष्ण किरणों से युक्त (पक्ष में अधिक टैक्स से लेने वाला) होने के कारण क्रम से न्यायी और अन्यायी राजा का ही अनुकरण कर रहे हों ।।58-62।। उस समय वहाँ प्रतिश्रुति नाम से प्रसिद्ध पहले कुलकर विद्यमान थे जो कि सबसे अधिक तेजस्वी थे और प्रजाजनों के नेत्र के समान शोभायमान थे अर्थात् नेत्र के समान प्रजाजनों को हितकारी मार्ग बतलाते थे ।।63।। जिनेंद्रदेव ने उनकी आयु पल्य के दसवें भाग और ऊँचाई एक हजार आठ सौ धनुष बतलायी है ।।64।। उनके मस्तक पर प्रकाशमान मुकुट शोभायमान हो रहा था, कानों में सुवर्णमय कुंडल चमक रहे थे और वे स्वयं मेरु पर्वत के समान ऊँचे थे इसलिए उनके वक्षःस्थल पर पड़ा हुआ रत्नों का हार झरने के समान मालूम होता था । उनका उन्नत और श्रेष्ठ शरीर नाना प्रकार के आभूषणों की कांति के भार से अतिशय प्रकाशमान हो रहा था, उन्होंने अपने बढ़ते हुए तेज से सूर्य को भी तिरस्कृत कर दिया था । वे बहुत ही ऊँचे थे इसलिए ऐसे मालूम होते थे मानो जगत्रूपी घर की ऊँचाई को नापने के लिए खड़े किये गये मापदंड ही हों । इसके सिवाय बे जंमांतर के संस्कार से प्राप्त हुए अवधिज्ञान को भी धारण किये हुए थे इसलिए वही सबमें उत्कृष्ट बुद्धिमान् गिने जाते थे ।।65-67।। वे दैदीप्यमान दातों की किरणोंरूपी जल से दिशाओं का बार-बार प्रक्षालन करते हुए जब प्रजा को संतुष्ट करने वाले वचन बोलते थे तब ऐसे मालूम होते थे मानो अमृत का रस ही प्रकट कर रहे हों । पहले कभी नहीं दिखने वाले सूर्य और चंद्रमा को देखकर भयभीत हुए भोगभूमिज मनुष्यों को उन्होंने उनका निम्नलिखित स्वरूप बतलाकर भयरहित किया था ।।68-69।। उन्होंने कहा―हे भद्र पुरुषो, तुम्हें जो ये दिख रहे हैं वे सूर्य, चंद्रमा नाम के ग्रह हैं, ये महाकांति के धारक है तथा आकाश में सर्वदा घूमते रहते हैं । अभी तक इनका प्रकाश ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्षों के प्रकाश से तिरोहित रहता था इसलिए नहीं दिखते थे परंतु अब चूँकि कालदोष के वश से ज्योतिरंग वृक्षों का प्रभाव कम हो गया है अत: दिखने लगे हैं । इनसे तुम लोगों को कोई भय नहीं है अत: भयभीत नहीं होओ ।।70-71।। प्रतिश्रुति के इन वचनों से उन लोगों को बहुत ही आश्वासन हुआ । इसके बाद प्रतिश्रुति ने इस भरतक्षेत्र में होने वाली व्यवस्थाओं का निरूपण किया ।।72।। इन धीर-वीर प्रतिश्रुति ने हमारे वचन सुने है इसलिए प्रसन्न होकर उन भोगभूमिजों ने प्रतिश्रुति इसी नाम से स्तुति की और कहा कि―अहो महाभाग, अहो बुद्धिमान् आप चिरंजीव रहें तथा हम पर प्रसन्न हों क्योंकि आपने हमारे दुःखरूपी समुद्र में नौका का काम दिया है अर्थात् हित का उपदेश देकर हमें दुःखरूपी समुद्र से उद्धृत किया है ।।73-74।। इस प्रकार प्रतिश्रुति का स्तवन तथा बार-बार सत्कार कर वे सब आर्य उनकी आज्ञानुसार अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ अपने-अपने घर चले गये ।।75।। इसके बाद क्रम-क्रम से समय के व्यतीत होने तथा प्रतिश्रुति कुलकर के स्वर्गवास हो जाने पर जब असंख्यात करोड़ वर्षों का मंवंतर (एक कुलकर के बाद दूसरे कुलकर के उत्पन्न होने तक बीच का काल) व्यतीत हो गया तब समीचीन बुद्धि के धारक सन्मति नाम के द्वितीय कुलकर का जन्म हुआ । उनके वस्त्र बहुत ही शोभायमान थे तथा वे स्वयं अत्यंत ऊँचे थे इसलिए चलते-फिरते कल्पवृक्ष के समान मालूम होते थे ।।76-77।। उनके केश बड़े ही सुंदर थे, वे अपने मस्तक पर मुकुट बाँधे हुए थे, कानों में कुंडल पहिने थे, उनका वक्षःस्थल हार से सुशोभित था, इन सब कारणों से वे अत्यंत शोभायमान हो रहे थे ।।78।। उनकी आयु अमम के बराबर संख्यात वर्षों की थी और शरीर की ऊँचाई एक हजार तीन सौ धनुष थी ।।79।। इनके समय में ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्षों की प्रभा बहुत ही मंद पड़ गयी थी तथा उनका तेज बुझते हुए दीपक के समान नष्ट होने के सम्मुख ही था ।।80।। एक दिन रात्रि के प्रारंभ में जब थोड़ा-थोड़ा अंधकार था तब तारागण आकाशरूपी अंगण को व्याप्त कर―सब ओर प्रकाशमान होने लगे ।।81।। उस समय अकस्मात् तारों को देखकर भोगभूमिज मनुष्य अत्यंत भ्रम में पड़ गये अथवा अत्यंत व्याकुल हो गये । उन्हें भय ने इतना कंपायमान कर दिया जितना कि प्राणियों की हिंसा मुनिजनों को कंपायमान कर देती है ।।82।। सन्मति कुलकर ने क्षण-भर विचार कर उन आर्य पुरुषों से कहा कि हे भद्र पुरुषो, यह कोई उत्पात नहीं है इसलिए आप व्यर्थ ही भय के वशीभूत न हों ।।83।। ये तारे हैं, यह नक्षत्रों का समूह है, ये सदा प्रकाशमान रहने वाले सूर्य, चंद्र आदि ग्रह हैं और यह तारों से भरा हुआ आकाश है ।।84।। यह ज्योतिश्चक्र सर्वदा आकाश में विद्यमान रहता है, अब से पहले भी विद्यमान था, परंतु ज्योतिरंग जाति के वृक्षों के प्रकाश से तिरोभूत था । अब उन वृक्षों की प्रभा क्षीण हो गयी है इसलिए स्पष्ट दिखायी देने लगा है ।।85।। आज से लेकर सूर्य, चंद्रमा, तारे आदि का उदय और अस्त होता रहेगा और उससे रात-दिन का विभाग होता रहेगा ।।86।। उन बुद्धिमान् सन्मति ने सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण, ग्रहों का एक राशि से दूसरी राशि पर जाना, दिन और अयन आदि का संक्रमण बतलाते हुए ज्योतिष विद्या के मूल कारणों का भी उल्लेख किया था ।।87।। वे आर्य लोग भी उनके वचन सुनकर शीघ्र ही भयरहित हो गये । वास्तव में वे सन्मति प्रजा का उपकार करने वाली कोई सर्वश्रेष्ठ ज्योति ही थे ।।88।। समीचीन बुद्धि के देने वाले यह सन्मति ही हमारे स्वामी हों इस प्रकार उनकी प्रशंसा और पूजा कर वे आर्य पुरुष अपने-अपने स्थानों पर चले गये ।।89।। इनके बाद असंख्यात करोड़ वर्षों का अंतराल काल बीत जाने पर इस भरतक्षेत्र में क्षेमंकर नाम के तीसरे मनु हुए ।।90।। उनकी भुजाएँ युग के समान लंबी थीं । शरीर ऊँचा था, वक्षस्थल विशाल था, आभा चमक रही थी तथा मस्तक मुकुट से शोभायमान था । इन सब बातों से वे मेरु पर्वत से भी अधिक शोभायमान हो रहे थे ।।91।। इस महाप्रतापी मनु की आयु अटट बराबर थी और शरीर की ऊँचाई आठ सौ धनुष की थी ।।92।। पहले जो पशु, सिंह, व्याघ्र आदि अत्यंत भद्रपरिणामी थे जिनका लालन-पालन प्रजा अपने हाथ से हीं किया करती थी वे अब इनके समय विकार को प्राप्त होने लगे मुंह फाड़ने लगे और भयंकर शब्द करने लगे ।।93।। उनकी इस भयंकर गर्जना से मिले हुए विकार भाव को देखकर प्रजाजन डरने लगे तथा बिना किसी आश्चर्य के निश्चल बैठे हुए क्षेमंकर मनु के पास जाकर उनसे पूछने लगे ।।94।। हे देव, सिंह व्याघ्र आदि जो पशु पहले बड़े शांत थे, जो अत्यंत स्वादिष्ट घास खाकर और तालाबों का रसायन के समान रसीला पानी पीकर पुष्ट हुए थे, जिन्हें हम लोग अपनी गोदी में बैठाकर अपने हाथों से खिलाते थे, हम जिन पर अत्यंत विश्वास करते थे और जो बिना किसी उपद्रव के हम लोगों के साथ-साथ रहा करते थे आज वे ही पशु बिना किसी कारण के हम लोगों को सींगों से मारते हैं, दाढ़ों और नखों से हमें विदारण किया चाहते हैं और अत्यंत भयंकर दिख पड़ते हैं । हे महाभाग, आप हमारा कल्याण करने वाला कोई उपाय बतलाइए । चूँकि आप सकल संसार का क्षेम―कल्याण सोचते रहते हैं इसलिए सच्चे क्षेमंकर हैं ।।95-98।। इस प्रकार उन आर्यों के वचन सुनकर क्षेमंकर मनु को भी उनसे मित्रभाव उत्पन्न हो गया और वे कहने लगे कि आपका कहना ठीक है । ये पशु पहले वास्तव में शांत थे परंतु अब भयंकर हो गये हैं इसलिए इन्हें छोड़ देना चाहिए । ये काल के दोष से विकार को प्राप्त हुए हैं अब इनका विश्वास नहीं करना चाहिए । यदि तुम इनकी उपेक्षा करोगे तो ये अवश्य ही बाधा करेंगे ।।99-100।। क्षेमंकर के उक्त वचन सुनकर उन लोगों ने सींग वाले और दाढ़ वाले दुष्ट पशुओं का साथ छोड़ दिया, केवल निरुपद्वी गाय-भैंस आदि पशुओं के साथ रहने लगे ।।101।। क्रम-क्रम से समय बीतने पर क्षेमंकर मनु की आयु पूर्ण हो गयी । उसके बाद जब असंख्यात करोड़ वर्षों का मंवंतर व्यतीत हो गया तब अत्यंत ऊँचे शरीर के धारक, दोषों का निग्रह करने वाले और सज्जनों में अग्रसर क्षेमंकर नामक चौथे मनु हुए । उन महात्मा की आयु तुटिक प्रमाण वर्षों की थी और शरीर की ऊँचाई सात सौ पचहत्तर धनुष थी । इनके समय में जब सिंह, व्याघ्र आदि दुष्ट पशु अतिशय प्रबल और क्रोधी हो गये तब इन्होंने लकड़ी लाठी आदि उपायों से इनसे बचने का उपदेश दिया । चूँकि इन्होंने दुष्ट जीवों से रक्षा करने के उपायों का उपदेश देकर प्रजा का कल्याण किया था इसलिए इनका क्षेमंधर यह सार्थक नाम प्रसिद्ध हुआ था ।।102-106।। इनके बाद पहले की भाँति फिर भी असंख्यात करोड़ वर्षों का मंवंतर पड़ा । फिर क्रम से प्रजा के पुण्योदय से सीमंकर नाम के कुलकर उत्पन्न हुए । इनका शरीर चित्र-विचित्र वस्त्रों तथा माला आदि से शोभायमान था । जैसे इंद्र स्वर्ग की लक्ष्मी का उपभोग करता है वैसे ही यह भी अनेक प्रकार की भोगलक्ष्मी का उपभोग करते थे । महाबुद्धिमान् आचार्यों ने उनकी आयु कमल प्रमाण वर्षों की बतलायी है तथा शरीर की ऊँचाई सात सौ पचास धनुष की । इनके समय में जब कल्पवृक्ष अल्प रह गये और फल भी अल्प देने लगे तथा इसी कारण से जब लोगों में विवाद होने लगा तब सीमंकर मनु ने सोच-विचारकर वचनों द्वारा कल्पवृक्षों की सीमा नियत कर दी अर्थात् इस प्रकार की व्यवस्था कर दी कि इस जगह के कल्पवृक्ष से इतने काम लें और उस जगह के कल्पवृक्ष से इतने लोग काम लें । प्रजा ने उक्त व्यवस्था से ही उन मनु का सीमंकर यह सार्थक नाम रख लिया था ।।107-111।। इनके बाद पहले की भाँति मंवंतर व्यतीत होने पर सीमंधर नाम के छठे मनु उत्पन्न हुए । उनकी बुद्धि बहुत ही पवित्र थी । वह नलिन प्रमाण आयु के धारक ये, उनके मुख और नेत्रों की कांति कमल के समान थी तथा शरीर की ऊँचाई सात सौ पच्चीस धनुष की थी । इनके समय में जब कल्पवृक्ष अत्यंत थोड़े रह गये तथा फल भी बहुत थोड़े देने लगे और उस कारण से जब लोगों में भारी कलह होने लगा, कलह ही नहीं, एक-दूसरे को बाल पकड़-पकड़कर मारने लगे तब उन सीमंधर मनु ने कल्याण स्थापना की भावना से कल्पवृक्षों की सीमाओं को अन्य अनेक वृक्ष तथा छोटी-छोटी झाड़ियों से चिह्नित कर दिया था ।।112-115।। इनके बाद फिर असंख्यात करोड़ वर्षों का अंतर हुआ और कल्पवृक्षों की शक्ति आदि हर एक उत्तम वस्तुओं में क्रम-क्रम से घटती होने लगी तब मंवंतर को व्यतीत कर विमलवाहन नाम के सातवें मनु हुए । उनका शरीर भोगलक्ष्मी से आलिंगित था, उनकी आयु पद्म-प्रमाण वर्षों की थी । शरीर सात सौ धनुष ऊँचा और लक्ष्मी से विभूषित था । इन्होंने हाथी, घोड़ा आदि सवारी के योग्य पशुओं पर कुथार, अंकुश, पलान, तोबरा आदि लगाकर सवारी करने का उपदेश दिया था ।।116-119।। इनके बाद असंख्यात करोड़ वर्षों का अंतराल रहा । फिर चक्षुष्मान् नाम के आठवें मनु उत्पन्न हुए, वे पद्मांग प्रमाण आयु के धारक थे और छह-सौ पचहत्तर धनुष ऊँचे थे । उनके शरीर की शोभा बड़ी ही सुंदर थी । इनके समय से पहले के लोग अपनी संतान का मुख नहीं देख पाते थे, उत्पन्न होते ही माता-पिता की मृत्यु हो जाती थी परंतु अब वे क्षण-भर पुत्र का मुख देखकर मरने लगे । उनके लिए यह नयी बात थी इसलिए भय का कारण हुई । उस समय भयभीत हुए आर्य पुरुषों को चक्षुष्मान् मनु ने यथार्थ उपदेश देकर उनका भय छुड़ाया था । चूँकि उनके समय माता पिता अपने पुत्रों को क्षण-भर देख सके थे इसलिए उनका चक्षुष्मान् यह सार्थक नाम प्रसिद्ध हुआ ।।120-124।। तदनंतर करोड़ों वर्षों का अंतर व्यतीत कर यशस्वान् नाम के नौवें मनु हुए । वे बड़े ही यशस्वी थे । उन महापुरुष की आयु कुमुद प्रमाण वर्षों की थी । उनके शरीर की ऊँचाई छह सौ पचास धनुष की थी । उनके समय में प्रजा अपनी संतानों का मुख देखने के साथ-साथ उन्हें आशीर्वाद देकर तथा क्षण-भर ठहर कर परलोक गमन करती थी―मृत्यु को प्राप्त होती थी । इनके उपदेश से प्रजा अपनी संतानों को आशीर्वाद देने लगी थी इसलिए उत्तम संतान वाली प्रजा ने प्रसन्न होकर इनको यश वर्णन किया इसी कारण उनका यशस्वान् यह सार्थक नाम पड़ गया था ।।125-128।। इनके बाद करोड़ों वर्षों का अंतर व्यतीत कर अभिचंद्र नाम के दसवें मनु उत्पन्न हुए । उनका मुख चंद्रमा के समान सौम्य था, कुमुदा में प्रमाण उनकी आयु थी, उनका मुकुट और कुंडल अतिशय दैदीप्यमान था । वे छह सौ पच्चीस धनुष ऊँचे तथा दैदीप्यमान शरीर के धारक थे । यथायोग्य अवयवों में अनेक प्रकार के आभूषणरूप मंजरियों को धारण किये हुए थे । उनका शरीर महाकांतिमां था और स्वयं पुण्य के फल से शोभायमान थे इसलिए फूले-फले तथा ऊँचे कल्पवृक्ष के समान शोभायमान होते थे । उनके समय प्रजा अपनी-अपनी संतानों का मुख देखने लगी―उन्हें आशीर्वाद देने लगी तथा रात के समय कौतुक के साथ चंद्रमा दिखला-दिखलाकर उनके साथ कुछ क्रीड़ा भी करने लगी । उस समय प्रजा ने उनके उपदेश से चंद्रमा के सम्मुख खड़ा होकर अपनी संतानों को क्रीड़ा करायी थी―उन्हें खिलाया था इसलिए उनका अभिचंद्र यह सार्थक नाम प्रसिद्ध हुआ ।।129-133।। फिर उतना ही अंतर व्यतीत कर चंद्राभ नाम के ग्यारहवें मनु हुए । उनका मुख चंद्रमा के समान था, ये समय की गतिविधि के जानने वाले थे । इनकी आयु नयुत प्रमाण वर्षों की थी । ये अनेक शोभायमान सामुद्रिक लक्षणों से उज्ज्वल थे । इनका शरीर छह सौ धनुष ऊँचा था तथा उदय होते हुए सूर्य के समान दैदीप्यमान था । ये समस्त कलाओं-विद्याओं को धारण किये हुए ही उत्पन्न हुए थे, जनता को अतिशय प्रिय थे, तथा अपनी मंद मुसकान से सबको आह्लादित करते थे इसलिए उदित होते ही सोलह कलाओं को धारण करने वाले लोकप्रिय और चंद्रिका से युक्त चंद्रमा के समान शोभायमान होते थे । इनके समय में प्रजाजन अपनी संतानों को आशीर्वाद देकर अत्यंत प्रसन्न तो होते ही थे, परंतु कुछ दिनों तक उनके साथ जीवित भी रहने लगे थे, तदनंतर सुखपूर्वक परलोक को प्राप्त होते थे । उन्होंने चंद्रमा के समान सब जीवों को आह्लादित किया था इसलिए उनका चंद्राभ यह सार्थक नाम प्रसिद्ध हुआ था ।।134-138।। तदनंतर अपने योग्य अंतर को व्यतीत कर प्रजा के नेत्रों को आनंद देने वाले, मनोहर शरीर के धारक मरुदेव नाम के बारहवें कुलकर उत्पन्न हुए । उनके शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पचहत्तर धनुष की थी और आयु नयुत प्रमाण वर्षों की थी । वे सूर्य के समान दैदीप्यमान थे अथवा वह स्वयं ही एक विलक्षण सूर्य थे, क्योंकि सूर्य के समान तेजस्वी होने पर भी लोग उन्हें सुखपूर्वक देख सकते थे जब कि चकाचौंध के कारण सूर्य को कोई देख नहीं सकता । सूर्य के समान उदय होने पर भी वे कभी अस्त नहीं होते थे―उनका कभी पराभव नहीं होता था जब कि सूर्य अस्त हो जाता है और जमीन में स्थित रहते हुए भी वे आकाश को प्रकाशित करते थे जब कि सूर्य आकाश में स्थित रहकर ही उसे प्रकाशित करता है (पक्ष में वस्त्रों से शोभायमान थे) । इनके समय में प्रजा अपनी-अपनी संतानों के साथ बहुत दिनों तक जीवित रहने लगी थी तथा उनके मुख देखकर और शरीर को स्पर्श कर सुखी होती थी । वे मरुदेव ही वहाँ के लोगों के प्राण थे क्योंकि उनका जीवन मरुदेव के ही अधीन था अथवा यों समझिए―अब उनके द्वारा ही जीवित रहते थे इसलिए प्रजाने उन्हें मरुदेव इस सार्थक नाम से पुकारा था । इन्हीं मरुदेव ने उस समय जलरूप दुर्गम स्थानों में गमन करने के लिए छोटी-बड़ी नाव चलाने का उपदेश दिया था तथा पहाड़ रूप दुर्गम स्थान पर चढ़ने के लिए इन्होंने सीढ़ियाँ बनवायी थीं । इन्हीं के समय में अनेक छोटे-छोटे पहाड़, उपसमुद्र तथा छोटी-छोटी नदियाँ उत्पन्न हुई थीं तथा नीच राजाओं के समान अस्थिर रहने वाले मेघ भी जब कभी बरसने लगे थे ।।139-145।। इनके बाद समय व्यतीत होने पर जब कर्मभूमि की स्थिति धीरे-धीरे समीप आ रही थी―अर्थात् कर्मभूमि की रचना होने के लिए जब थोड़ा ही समय बाकी रह गया था तब बड़े प्रभावशाली प्रसेनजित् नाम के तेरहवें कुलकर उत्पन्न हुए । इनकी आयु एक पर्व प्रमाण थी और शरीर की ऊँचाई पाँच-सौ पचास धनुष की थी । वे प्रसेनजित् महाराज मार्ग-प्रदर्शन करने के लिए प्रजा के तीसरे नेत्र के समान थे, अज्ञानरूपी दोष से रहित थे और उदय होते ही पद्मा-लक्ष्मी के करग्रहण से अतिशय शोभायमान थे, इन सब बातों से वे सूर्य के समान मालूम होते थे क्योंकि सूर्य भी मार्ग दिखाने के लिए तीसरे नेत्र के समान होता है, अंधकार से रहित होता है और उदय होते ही कमलों के समूह को आनंदित करता है । इनके समय में बालकों की उत्पत्ति जरायु से लिपटी हुई होने लगी अर्थात् उत्पन्न हुए बालकों के शरीर पर मांस की एक पतली झिल्ली रहने लगी । इन्होंने अपनी प्रजा को उस जरायु के खींचने अथवा फाड़ने आदि का उपदेश दिया था । मनुष्यों के शरीर पर जो आवरण होता है उसे जरायुपटल अथवा प्रसेन कहते हैं । तेरहवें मनु ने उसे जीतने दूर करने आदि का उपदेश दिया था इसलिए वे प्रसेनजित् कहलाते थे । अथवा प्रसा शब्द का अर्थ प्रसूति―जन्म लेना है तथा इन शब्द का अर्थ स्वामी होता है । जरायु उत्पत्ति को रोक लेती है अत: उसी को प्रसेन-जन्म का स्वामी कहते हैं (प्रज्ञा+इति=प्रसेन) इन्होंने उस प्रसेन के नष्ट करने अथवा जीतने के उपाय बतलाये थे इसलिए इनका प्रसेनजित् नाम पड़ा था ।।146-151। इनके बाद ही नाभिराज नाम के कुलकर हुए थे, ये महाबुद्धिमान् थे । इनसे पूर्ववती युग-श्रेष्ठ कुलकरों ने जिस लोकव्यवस्था के भार को धारण किया था यह भी उसे अच्छी तरह धारण किये हुए थे । उनकी आयु एक करोड़ पूर्व की थी और शरीर की ऊँचाई पाँच-सौ पच्चीस धनुष थी । इनका मस्तक मुकुट से शोभायमान था और दोनों कान कुंडलों से अलंकृत थे इसलिए वे नाभिराज उस मेरु पर्वत के समान शोभायमान हो रहे थे जिसका ऊपरी भाग दोनों तरफ घूमते हुए सूर्य और चंद्रमा से शोभायमान हो रहा है । उनका मुखकमल अपने सौंदर्य से गर्वपूर्वक पौर्णमासी के चंद्रमा का तिरस्कार कर रहा था तथा मंद मुसकान से जो दाँतों की किरणें निकल रही थी वे उसमें केसर की भाँति शोभायमान हो रही थीं । जिस प्रकार हिमवान पर्वत गंगा के जल-प्रवाह से युक्त अपने तट को धारण करता है उसी प्रकार नाभिराज अनेक आभरणों से उज्ज्वल और रत्नहार से भूषित अपने वक्षःस्थल को धारण कर रहे थे । वे उत्तम अँगुलियों और हथेलियों से युक्त जिन दो भुजाओं को धारण किये हुए थे वे ऊपर को फण उठाये हुए सर्पों के समान शोभायमान हो रहे थे । तथा बाजूबंदों से सुशोभित उनके दोनों कंधे ऐसे मालूम होते थे मानो सर्पसहित निधियों के दो घोड़े ही हों । वे नाभिराज जिस कटि भाग को धारण किये हुए थे वह अत्यंत सुदृढ़ और स्थिर था, उसके अस्थिबंध वज्रमय थे तथा उसके पास ही सुंदर नाभि शोभायमान हो रही थी । उस कटि भाग को धारण कर वे ऐसे मालूम होते थे मानो मध्यलोक को धारण कर ऊर्ध्व और अधोभाग में विस्तार को प्राप्त हुआ लोक स्कंध ही हो । वे करधनी से शोभायमान कमर को धारण किये थे जिससे ऐसे मालूम होते थे मानो सब ओर फैले हुए रत्नों से युक्त रत्नद्वीप को धारण किये हुए समुद्र ही हो । वे वज्र के समान मजबूत, गोलाकार और एक-दूसरे से सटी हुई जिन जंघाओं को धारण किये हुए थे वे ऐसी मालूम होती थीं मानो जगद्रूपी घर के भीतर लगे हुए दो मजबूत खंभे हों । उनके शरीर का ऊर्ध्व भाग वक्षःस्थलरूपी शिला से युक्त होने के कारण अत्यंत वजनदार था मानो यह समझकर ही ब्रह्मा ने उसे निश्चलरूप से धारण करने के लिए उनकी ऊरुओं (घुटनों से ऊपर का भाग) सहित जंघाओं (पिंडरियों को बहुत ही मजबूत बनाया या । वे जिस चरणतल को धारण किये हुए थे वह चंद्र, सूर्य, नदी, समुद्र, मच्छ, कच्छप आदि अनेक शुभलक्षणों से सहित था जिससे वह ऐसा मालूम होता था मानो यह चर-अचर रूप सभी संसार सेवा करने के लिए उसके आश्रय में आ पड़ा हो । इस प्रकार स्वाभाविक मधुरता और सुंदरता से बना हुआ नाभिराज का जैसा शरीर था, मैं मानता हूँ कि वैसा शरीर देवों के अधिपति इंद्र को भी मिलना कठिन है ।।152-163।। इनके समय में उत्पन्न होते वक्त बालक की नाभि में नाल दिखायी देने लगा था और नाभिराज ने उसके काटने की आज्ञा दी थी इसलिए इनका ‘नाभि’ यह सार्थक नाम पड़ गया था ।।164।। उन्हीं के समय आकाश में कुछ सफेदी लिये हुए काले रंग के सघन मेघ प्रकट हुए थे । वे मेघ इंद्रधनुष से सहित थे ।।165।। उस समय काल के प्रभाव से पुद्गल परमाणुओं में मेघ बनाने की सामर्थ्य उत्पन्न हो गयी थी, इसलिए सूक्ष्म पुद्गलों द्वारा बने हुए मेघों के समूह छिद्ररहित लगातार समस्त आकाश को घेर कर जहाँ-जहाँ फैल गये थे ।।166।। वे मेघ बिजली से युक्त थे, गंभीर गर्जना कर रहे थे और पानी बरसा रहे थे जिससे ऐसे शोभायमान होते थे मानो सुवर्ण की मालाओं से सहित, मद बरसाने वाले और गरजते हुए हस्ती ही हों ।।167।। उस समय मेघों की गंभीर गर्जना से टकरायी हुई पहाड़ों की दीवालों से जो प्रतिध्वनि निकल रही थी उससे ऐसा मालूम होता था मानो वे पर्वत की दीवालें कुपित होकर प्रतिध्वनि के बहाने आक्रोश वचन (गालियाँ) ही कह रही हों ।।164।। उस समय मेघमाला द्वारा बरसाये हुए जलकणों को धारण करने वाला ठंडा वायु मयूरों के पंखों को फैलाता हुआ बह रहा था ।।165।। आकाश में बादलों का आगमन देखकर हर्षित हुए चातक पक्षी मनोहर शब्द बोलने लगे और मोरों के समूह अकस्मात् तांडव नृत्य करने लगे ।।167।। उस समय धाराप्रवाह बरसते हुए मेघों के समूह ऐसे मालूम होते थे मानो जिनसे धातुओं के निर्झर निकल रहे हैं ऐसे पर्वतों का अभिषेक करने के लिए तत्पर हुए हों ।।171।। पहाड़ों पर कहीं-कहीं गेरू के रंग से लाल हुए नदियों के जो पूर बड़े वेग से बह रहे थे वे ऐसे मालूम होते थे मानो मेघों के प्रहार से निकले हुए पहाड़ों के रक्त के प्रवाह ही हों ।।172।। वे बादल गरजते हुए मोटी धार से बरस रहे थे जिससे ऐसा मालूम होता था मानो कल्पवृक्षों का क्षय हो जाने से शोक से पीड़ित हो रुदन ही कर रहे हों―रो-रोकर आँसू बहा रहे हों ।।173।। वायु के आघात से उन मेघों से ऐसा गंभीर शब्द होता था मानो बजाने वाले के हाथ की चोट से मृदंग का ही शब्द हो रहा हो । उसी समय आकाश में बिजली चमक रही थी, जिससे ऐसा मालूम होता था मानो आकाशरूपी रंगभूमि में अनेक रूप धारण करती हुई तथा क्षण-क्षण में यहाँ-वहाँ अपना शरीर घुमाती हुई कोई नटी नृत्य कर रही हो ।।174-175।। उस समय चातक पक्षी ठीक बालकों के समान आचरण कर रहे थे क्योंकि जिस प्रकार बालक पयोधर―माता के स्तन में आसक्त होते हैं उसी प्रकार चातक पक्षी भी पयोधर―मेघों में आसक्त थे, बालक जिस तरह कठिनाई से प्राप्त हुए पय―दूध को पीते हुए तृप्त नहीं होते उसी तरह चातक पक्षी भी कठिनाई से प्राप्त हुए पय―जल को पीते हुए तृप्त नहीं होते थे, और बालक जिस प्रकार माता से प्रेम रखते हैं उसी प्रकार चातक पक्षी भी मेघों से प्रेम रखते थे ।।176।। अथवा वे बादल पामर मनुष्यों के सर के समान आचरण करते थे क्योंकि जिस प्रकार पामर मनुष्य स्त्री में आसक्त हुआ करते हैं उसी प्रकार वे भी बिजलीरूपी स्त्री में आसक्त थे, पामर मनुष्य जिस प्रकार खेती के योग्य वर्षाकाल की अपेक्षा रखते हैं उसी प्रकार वे भी वर्षाकाल की अपेक्षा रखते थे, पामर मनुष्य जिस प्रकार महाजड़ अर्थात् महामूर्ख होते हैं उसी प्रकार वे भी महाजल अर्थात भारी जल से भरे हुए थे (संस्कृत-साहित्य में श्लेष आदि के समय ड और ल में अभेद होता है) और पामर मनुष्य जिस प्रकार खेती करने में तत्पर रहते हैं उसी प्रकार मेघ भी खेती कराने में तत्पर थे ।।177।। यद्यपि वे बादल बुद्धिरहित थे तथापि पुद्गल परमाणुओं की विचित्र परिणति होने के कारण शीघ्र ही बरसकर अनेक प्रकार की विकृति को प्राप्त हो जाते थे ।।178।। उस समय मेघों से जो पानी की बूँदें गिर रही थीं वे मोतियों के समान सुंदर थीं तथा उन्होंने सूर्य की किरणों के ताप से तपी हुई पृथ्वी को शांत कर दिया था ।।179।। इसके अनंतर मेघों से पड़े हुए जल की आर्द्रता, पृथ्वी का आधार, आकाश का अवगाहन, वायु का अंतर्नीहार अर्थात् शीतल परमाणुओं का संचय करना और धूप की उष्णता इन सब गुणों के आश्रय से उत्पन्न हुई द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूपी सामग्री को पाकर खेतों में अनेक अंकुर पैदा हुए, वे अंकुर पास-पास जमे हुए थे तथापि अंकुर अवस्था से लेकर फल लगने तक निरंतर धीरे-धीरे बढ़ते जाते थे । इसी प्रकार और भी अनेक प्रकार के धान्य बिना बोये ही सब ओर पैदा हुए थे । वे सब धान्य प्रजा के पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के उदय से अथवा उस समय के प्रभाव से ही समय पाकर पक गये तथा फल देने के योग्य हो गये ।।180-183।। जिस प्रकार पिता के मरने पर पुत्र उनके स्थान पर आरूढ़ होता है उसी प्रकार कल्पवृक्षों का अभाव होने पर वे धान्य उनके स्थान पर आरूढ़ हुए थे ।।184।। उस समय न तो अधिक वृष्टि होती थी और न कम, किंतु मध्यम दरजे की होती थी इसलिए सब धान्य बिना किसी विघ्न-बाधा के फलसहित हो गये थे ।।185।। साठी, चावल, कलम, व्रीहि, जौ, गेहूँ, कांगनी, सामा, कोदो, नीवार (तिन्नी) बटाने, तिल, अलसी, मसूर, सरसों, धनियाँ जीरा, मूँग, उड़द, अरहर, रोंसा, मोठ, चना, कुलथी और तेवरा आदि अनेक प्रकार के धान्य तथा कुसुंभ (जिसकी कुसुमानी―लाल रंग बनता है) और कपास आदि प्रजा की आजीव का के हेतु उत्पन्न हुए थे ।।186-188।। इस प्रकार भोगोपभोग के योग्य इन धान्यों के मौजूद रहते हुए भी उनके उपयोग को नहीं जानने वाली प्रजा बार-बार मोह को प्राप्त होती थी―वह उन्हें देखकर बार-बार भ्रम में पड़ जाती थी ।।189।। इस युग परिवर्तन के समय कल्पवृक्ष बिल्कुल ही नष्ट हो गये थे इसलिए प्रजाजन निराश्रय होकर अत्यंत व्याकुल होने लगे ।।190।। उस समय आहार संज्ञा के उदय से उन्हें तीव्र भूख लग रही थी परंतु उनके शांत करने का कुछ उपाय नहीं जानते थे इसलिए जीवित रहने के संदेह से उनके चित्त अत्यंत व्याकुल हो उठे । अंत में वे सब लोग उस युग के मुख्य नायक अंतिम कुलकर भी नाभिराज के पास जाकर बड़ी दीनता से इस प्रकार प्रार्थना करने लगे ।।191-192।। हे नाथ, मनवांछित फल देने वाले तथा कल्पांत काल तक नहीं भुलाये जाने के योग्य कल्पवृक्षों के बिना अब हम पुण्यहीन अनाथ लोग किस प्रकार जीवित रहें ।।193।। हे देव, इस ओर ये अनेक वृक्ष उत्पन्न हुए हैं जो कि फलों के बोझ से झुकी हुई अपनी शाखाओं द्वारा इस समय मानो हम लोगों को बुला ही रहे हों ।।194।। क्या ये वृक्ष छोड़ने योग्य हैं ? अथवा इनके फल सेवन करने योग्य हैं यदि हम इनके फल ग्रहण करें तो ये हमें मारेंगे या हमारी रक्षा करेंगे ।।195।। तथा इन वृक्षों के समीप ही सब दिशाओं में ये कोई छोटी-छोटी झाड़ियाँ जम रही हैं, उनकी शिखाए फलों के भार से झुक रही हैं जिससे ये अत्यंत शोभायमान हो रही है ।।196।। इनका क्या उपयोग है ? इन्हें किस प्रकार उपयोग में लाना चाहिए ? और इच्छानुसार इसका संग्रह किया जा सकता है अथवा नहीं ? हे स्वामिन् आज यह सब बातें हमसे कहिए ।।197।।। हे देव नाभिराज, आप यह सब जानते हैं और हम लोग अनभिज्ञ हैं―मूर्ख हैं अतएव दु:खी होकर आप से पूछ रहे हैं इसलिए हम लोगों पर प्रसन्न होइए और कहिए ।।198।। इस प्रकार जो आर्य पुरुष हमें क्या करना चाहिए इस विषय में मूढ़ थे तथा अत्यंत घबड़ाये हुए थे ‘उनसे डरो मत’ ऐसा कहकर महाराज नाभिराज नीचे लिखे वाक्य कहने लगे ।।199।। चूँकि अब कल्पवृक्ष नष्ट हो गये हैं इसलिए पके हुए फलों के भार से नम्र हुए ये साधारण वृक्ष ही अब तुम्हारा वैसा उपकार करेंगे जैसा कि पहले कल्पवृक्ष करते थे ।।200।। हे भद्रपुरुषो, ये वृक्ष तुम्हारे भोग्य हैं इस विषय में तुम्हें कोई संशय नहीं करना चाहिए । परंतु (हाथ का इशारा कर) इन विषवृक्षों को दूर से ही छोड़ देना चाहिए ।।201।। ये स्तंबकारी आदि कोई ओषधियाँ हैं, इनके मसाले आदि के साथ पकाये गये अन्न आदि खाने योग्य पदार्थ अत्यंत स्वादिष्ट हो जाते हैं ।।202।। और ये स्वभाव से ही मीठे तथा लंबे-लंबे पौंड़े और इसके पेड़ लगे हुए हैं । इन्हें दाँतों से अथवा यंत्रों से पेलकर इनका रस निकालकर पीना चाहिए ।।203।। उन दयालु महाराज नाभिराज ने थाली आदि अनेक प्रकार के बरतन हाथी के गंडस्थल पर मिट्टी द्वारा बनाकर उन आर्य पुरुषों को दिये तथा इसी प्रकार बनाने का उपदेश दिया ।।204।। इस प्रकार महाराज नाभिराज द्वारा बताये हुए उपायों से प्रजा बहुत ही प्रसन्न हुई । उसने नाभिराज मनु का बहुत ही सत्कार किया तथा उन्होंने उस काल के योग्य जिस वृत्ति का उपदेश दिया था वह उसी के अनुसार अपना कार्य चलाने लगी ।।205।। उस समय यहाँ भोगभूमि की व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी, प्रजा का हित करने वाले केवल नाभिराज ही उत्पन्न हुए थे इसलिए वे ही कल्पवृक्ष की स्थिति को प्राप्त हुए थे अर्थात् कल्पवृक्ष के समान प्रजा का हित करते थे ।।206।। ऊपर प्रतिश्रुति को आदि लेकर नाभिराज पर्यंत जिन चौदह मनुओं का क्रम-क्रम से वर्णन किया है वे सब अपने पूर्वभव में विदेह क्षेत्रों में उच्च कुलीन महापुरुष थे ।।207।। उन्होंने उस भव में पुण्य बढ़ाने वाले पात्रदान तथा यथायोग्य व्रताचरणरूपी अनुष्ठानों के द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त होने से पहले ही भोगभूमि की आयु बाँध ली थी, बाद में श्री जिनेंद्र के समीप रहने से उन्हें क्षायिक सम्यग्दर्शन तथा श्रुतज्ञान की प्राप्ति हुई थी और जिसके फलस्वरूप आयु के अंत में मरकर वे इस भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए थे ।।208-209।। इन चौदह में से कितने ही कुलकरों को जातिस्मरण था और कितने ही अवधिज्ञानरूपी नेत्र के धारक थे इसलिए उन्होंने विचार कर प्रजा के लिए ऊपर कहे गये नियोगों-कार्यों का उपदेश दिया था ।।210।। ये प्रजा के जीवन का उपाय जानने से मनु तथा आर्य पुरुषों को कुल की भाँति इकट्ठे रहने का उपदेश देने से कुलकर कहलाते थे । इन्होंने अनेक वंश स्थापित किये थे इसलिए कुलधर कहलाते थे तथा युग के आदि में होने से ये युगादि पुरुष भी कहे जाते थे ।।211-212।। भगवान् वृषभदेव तीर्थंकर भी थे और कुलकर भी माने गये थे । इसी प्रकार भरत महाराज चक्रवर्ती भी थे और कुलधर भी कहलाते थे ।।213।। उन कुलकरों में से आदि के पाँच कुलकरों ने अपराधी मनुष्यों के लिए ‘हा’ इस दंड की व्यवस्था की थी अर्थात् खेद है कि तुमने ऐसा अपराध किया । उनके आगे के पाँच कुलकरों ने ‘हा’ और ‘मा’ इन दो प्रकार के दंडों की व्यवस्था की थी अर्थात् खेद है जो तुमने ऐसा अपराध किया, अब आगे ऐसा नहीं करना । शेष कुलकरों ने ‘हा’ ‘मा’ और ‘धिक’ इन तीन प्रकार के दंडों की व्यवस्था की थी अर्थात् खेद है, अब ऐसा नहीं करना और तुम्हें धिक्कार है जो रोकने पर भी अपराध करते हो ।।214-215।। भरत चक्रवर्ती के समय लोग अधिक दोष या अपराध करने लगे थे इसलिए उन्होंने वध, बंधन आदि शारीरिक दंड देने की भी रीति चलायी थी ।।216।। इन मनुओं की आयु ऊपर अमम आदि की संख्या द्वारा बतलायी गयी है इसलिए अब उनका निश्चय करने के लिए उनकी परिभाषाओं का निरूपण करते हैं ।।217।। चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वांग होता है । चौरासी लाख का वर्ग करने अर्थात् परस्पर गुणा करने से जो संख्या आती है उसे पर्व कहते हैं (84000008400000 =70560000000000) इस संख्या में एक करोड़ का गुणा करने से जो लब्ध आवे उतना एक पूर्व कोटि कहलाता है । पूर्व की संख्या में चौरासी का गुणा करने पर जो लब्ध हो उसे पर्वांग कहते हैं तथा पर्वांग में पूर्वांग अर्थात् चौरासी लाख का गुणा करने से पर्व कहलाता है ।।218-219।। इसके आगे जो नयुतांग नयुत आदि संख्याएँ कही हैं उनके लिए भी क्रम से यही गुणाकार करना चाहिए । भावार्थ―पर्व को चौरासी से गुणा करने पर नयुतांग, नयुतांग को चौरासी लाख से गुणा करने पर नयुत; नयुत को चौरासी से गुणा करने पर कुमुदांग, कुमुदांग को चौरासी लाख से गुणा करने पर कुमुद्; कुमुद को चौरासी से गुणा करने पर पद्मांग, और पद्मांग को चौरासी लाख से गुणा करने पर पद्म; पद्म को चौरासी से गुणा करने पर नलिनांग, और नलिनांग को चौरासी लाख से गुणा करने पर नलिन होता है । इसी प्रकार गुणा करने पर आगे की संख्याओं का प्रमाण निकलता है ।।220।। अब क्रम से उन संख्या के भेदों के नाम कहे जाते हैं जो कि अनादिनिधन जैनागम में रूढ़ हैं ।।221।। पूर्वांग, पूर्व, पर्वांग, पर्व, नयुतांग, नयुत, कुमुदांग, कुमुद, पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, कमलांग, कमल, तुव्यंग, तुटिक, अटटांग, अटट, अममांग अमम, हाहांग, हाहा, हूह्वंग, हूहू, लतांग, लता, महालतांग, महालता, शिर:प्रकंपित, हस्तप्रहेलित और अचल ये सब उक्त संख्या के नाम हैं जो कि कालद्रव्य की पर्याय हैं । यह सब संख्येय हैं―संख्यात के भेद हैं इसके आगे का संख्या से रहित है―असंख्यात है ।।222-227।। ऊपर मनुओं-कुलकरों की जो आयु कही है उसे इन भेदों में ही यथासंभव समझ लेना चाहिए । जो बुद्धिमान् पुरुष इस संख्या ज्ञान को जानता है वही पौराणिक-पुराण का जानकार विद्वान् हो सकता है ।।228।। ऊपर जिन कुलकरों का वर्णन कर चुके हैं यथाक्रम से उनके नाम इस प्रकार हैं―पहले प्रतिश्रुति, दूसरे सन्मति, तीसरे क्षेमंकर, चौथे क्षेमंधर, पाँचवें सीमंकर, छठे सीमंधर, सातवें विमलवाहन, आठवें चक्षुष्मान् नौवें यशस्वान् दसवें अभिचंद्र, ग्यारहवें चंद्राभ, बारहवें, मरुद्देव, तेरहवें प्रसेनजित् और चौदहवें नाभिराज । इनके सिवाय भगवान् वृषभदेव तीर्थंकर भी थे और मनु भी तथा भरत चक्रवर्ती भी थे और मनु भी ।।229-232।। अब संक्षेप में उन कुलकरों के कार्य का वर्णन करता हूँ―प्रतिश्रुति ने सूर्य चंद्रमा के देखने से भयभीत हुए मनुष्यों के भय को दूर किया था, तारों से भरे हुए आकाश के देखने से लोगों को जो भय हुआ था उसे सन्मति ने दूर किया था, क्षेमंकर ने प्रजा में क्षेम-कल्याण का प्रचार किया था, क्षेमंधर ने कल्याण धारण किया था, सीमंकर ने आर्य पुरुषों की सीमा नियत की थी, सीमंधर ने कल्पवृक्षों की सीमा निश्चित की थी, विमलवाहन ने हाथी आदि पर सवारी करने का उपदेश दिया था, सबसे अग्रसर रहने वाले चक्षुष्मान् ने पुत्र के मुख देखने की परंपरा चलायी थी, यशस्वान् का सब कोई यशोगान करते थे, अभिचंद्र ने बालकों की चंद्रमा के साथ क्रीड़ा कराने का उपदेश दिया था, चंद्राभ के समय माता-पिता अपने पुत्रों के साथ कुछ दिनों तक जीवित रहने लगे थे, मरुदेव के समय माता-पिता अपने पुत्रों के साथ बहुत दिनों तक जीवित रहने लगे थे, प्रसेनजित् ने गर्भ के ऊपर रहने वाले जरायु रूपी मल के हटाने का उपदेश दिया था और नाभिराज ने नाभि-नाल काटने का उपदेश देकर प्रजा को आश्वासन दिया था । उन नाभिराज ने वृषभदेव को उत्पन्न किया था ।।233-237।। इस प्रकार जब गौतम गणधर ने बड़े आदर के साथ युग के आदिपुरुषों-कुलकरों की उत्पत्ति का कथन किया तव वह मुनियों की समस्त सभा राजा श्रेणिक के साथ परम आनंद को प्राप्त हुई ।।238।। उस समय महावीर स्वामी की शिष्य परंपरा के सर्वश्रेष्ठ आचार्य गौतम स्वामी काल के छह भेदों का तथा कुलकरों के कार्यों का वर्णन कर भगवान् आदिनाथ का पवित्र पुराण कहने के लिए तत्पर हुए और मगधेश्वर से बोले कि हे श्रेणिक, सुनो ।।235।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत त्रिषष्टि लक्षण महापुराण
संग्रह में पीठिकावर्णन नामक तृतीय पर्व समाप्त हुआ ।।3।।