धवला जयधवला: Difference between revisions
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Latest revision as of 19:12, 14 August 2022
कषाय पाहुड़ तथा षट्खंडागम के आद्य पाँच खंडों पर ई.शताब्दी 3 में आ.बप्पदेव ने जो व्याख्या लिखी थी (देखें बप्पदेव ); वाटग्राम (बड़ौदा) के जिनालय में प्राप्त उस व्याख्या से प्रेरित होकर आ.वीरसेन स्वामी ने इन नामों वाली अति विस्तीर्ण टीकायें लिखीं (देखें वीरसेन )। इनमें से 72000 श्लोक प्रमाण धवला टीका षट्खंडागम के आद्य पाँच खंडों पर है, और 60,000 श्लोक प्रमाण जयधवला टीका कषाय पाहुड़ पर है। इसमें से 20,000 श्लोक प्रमाण आद्य एक तिहाई भाग आ.वीरसेन स्वामी का है और 40,000 श्लोक प्रमाण अपर दो तिहाई भाग उनके शिष्य जिनसेन द्वि.का है, जो कि उनके स्वर्गारोहण के पश्चात् ग्रंथ को पूरा करने के लिये उन्होंने रचा था। (इंद्र नंदिश्रुतावतार)।177-184। ये दोनों ग्रंथ प्राकृत तथा संस्कृत दोनों से मिश्रित भाषा में लिखे गए हैं। दर्शनोपयोग, ज्ञानोपयोग, संयम, क्षयोपशम आदि के जो स्वानुभवगम्य विशद् लक्षण इस ग्रंथ में प्राप्त होते हैं, और कषायपाहुड़ तथा षट्खंडागम की सैद्धांतिक मान्यताओं में प्राप्त पारस्परिक विरोध का जो सुयुक्ति युक्त तथा समतापूर्ण समन्वय इन ग्रंथों में प्रस्तुत किया गया है वह अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। इनके अतिरिक्त प्रत्येक विषय में स्वयं प्रश्न उठाकर उत्तर देना तथा दुर्गम विषय को भी सुगम बना देना, इत्यादि कुछ ऐसी विशिष्टतायें हैं जिनके कारण टीका रूप होते हुए भी ये आज स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रसिद्ध हो गए हैं। अपनी अंतिम प्रशस्ति के अनुसार जयधवला की पूर्ति आ.जिनसेन द्वारा राजा अमोघवर्ष के शासन काल (शक.759, ई.837) में हुई। प्रशस्ति के अर्थ में कुछ भ्रांति रह जाने के कारण धवला की पूर्ति के काल के विषय में कुछ मतभेद है। कुछ विद्वान इसे राजा जगतुंग के शासन काल (शक.738,ई.816) में पूर्ण हुई मानते हैं। और कोई वि.838 (ई.781) में मानते हैं। जयधवला की पूर्ति क्योंकि उनकी मृत्यु के पश्चात् हुई है इसलिये धवला की पूर्ति का यह काल (ई.781) ही उचित प्रतीत होता है। दूसरी बात यह भी है कि पुन्नाट संघीय आ.जिनसेन ने क्योंकि अपने हरिवंश पुराण की प्रशस्ति (शक.703,ई.781) में वीरसेन के शिष्य पंचस्तूपीय जिनसेन का नाम स्मरण किया है इसलिए इस विषय में दिये गए दोनों ही मत समन्वित हो जाते हैं। (ज./1/255); (ती./2/324)।