पूजा सामान्य निर्देश व उसका महत्त्व: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">नंदीश्वर व पंचमेरु पूजा निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">नंदीश्वर व पंचमेरु पूजा निर्देश</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/83, 101, 103 </span><span class="PrakritGatha">वरिसे वरिसे चउविहदेवा णंदीसरम्मि दीवम्मि। आसाढकत्तिएसुं फग्गुणमासे समायंति। 83। पुव्वाए कप्पवासी भवणसुरा दक्खिणाए वेंतरया। पच्छिमदिसाए तेसुं जोइसिया उत्तरदिसाए। 100। णियणियविभूदिजोग्गं महिमं कुव्वंति थोत्त-बहलमुहा। णंदीसरजिणमंदिरजत्तासुं विउलभत्तिजुदा। 101। पुव्वण्हे अवरण्हे पुव्वणिसाए वि पच्छिमणिसाए। पहराणि दोण्णि-दोण्णिं वरभत्तीए पसत्तमणा। 102। कमसो पदाहिणेणं पुण्णिमयं जाव अट्ठमीदु। तदो देवा विविहं पूजा जिणिंदपडिमाण कुव्वंति। 103।</span> = <span class="HindiText">चारों प्रकार के देव नंदीश्वरद्वीप में प्रत्येक वर्ष | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/83, 101, 103 </span><span class="PrakritGatha">वरिसे वरिसे चउविहदेवा णंदीसरम्मि दीवम्मि। आसाढकत्तिएसुं फग्गुणमासे समायंति। 83। पुव्वाए कप्पवासी भवणसुरा दक्खिणाए वेंतरया। पच्छिमदिसाए तेसुं जोइसिया उत्तरदिसाए। 100। णियणियविभूदिजोग्गं महिमं कुव्वंति थोत्त-बहलमुहा। णंदीसरजिणमंदिरजत्तासुं विउलभत्तिजुदा। 101। पुव्वण्हे अवरण्हे पुव्वणिसाए वि पच्छिमणिसाए। पहराणि दोण्णि-दोण्णिं वरभत्तीए पसत्तमणा। 102। कमसो पदाहिणेणं पुण्णिमयं जाव अट्ठमीदु। तदो देवा विविहं पूजा जिणिंदपडिमाण कुव्वंति। 103।</span> = <span class="HindiText">चारों प्रकार के देव नंदीश्वरद्वीप में प्रत्येक वर्ष आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन मास में आते हैं। 83। नंदीश्वरद्वीपस्थ जिन-मंदिरों की यात्रा में बहुत भक्ति से युक्त कल्पवासी देव पूर्व दिशा में, भवनवासी दक्षिण में, व्यंतर पश्चिम दिशा में और ज्योतिषदेव उत्तर दिशा में मुख से बहुत स्तोत्रों का उच्चारण करते हुए अपनी-अपनी विभूति के योग्य महिमा को करते हैं। 100-101 । ये देव आसक्त चित्त होकर अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक पूर्वाह्न, अपराह्न, पूर्वरात्रि और पश्चिमरात्रि में दो-दो पहर तक उत्तम भक्ति पूर्वक प्रदक्षिण क्रम से जिनेंद्र प्रतिमाओं की विविध प्रकार से पूजा करते हैं। 102-103। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/5/112 </span><span class="PrakritGatha">एवं आगंतूणं अट्ठमिदिवसेसु मंदरगिरिस्स। जिण-भवणेसु य पडिमा जिणिंदइंदाण पूयंति। 112।</span> =<span class="HindiText"> इस प्रकार अर्थात् | <span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/5/112 </span><span class="PrakritGatha">एवं आगंतूणं अट्ठमिदिवसेसु मंदरगिरिस्स। जिण-भवणेसु य पडिमा जिणिंदइंदाण पूयंति। 112।</span> =<span class="HindiText"> इस प्रकार अर्थात् बड़े उत्सव सहित आकर वे (चतुर्निकाय के देव) अष्टाह्निक दिनों में मंदर (सुमेरु) पर्वत के जिन भवनों में जिनेंद्र प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। 112। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/9/63 </span><span class="SanskritText">कुर्वंतु सिद्धनंदीश्वरगुरुशांतिस्तवैः क्रियामष्टौ। शुच्यूर्जतपस्यसिताष्टम्यादिदिनानि मध्याह्ने। </span>= <span class="HindiText"> | <span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/9/63 </span><span class="SanskritText">कुर्वंतु सिद्धनंदीश्वरगुरुशांतिस्तवैः क्रियामष्टौ। शुच्यूर्जतपस्यसिताष्टम्यादिदिनानि मध्याह्ने। </span>= <span class="HindiText">आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन शुक्ला अष्टमी से लेकर पूर्णिमा पर्यंत के आठ दिनों तक पौर्वाह्णिक स्वाध्याय ग्रहण के अनंतर सब संघ मिला कर, सिद्ध-भक्ति, नंदीश्वर चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति द्वारा अष्टाह्निक क्रिया करें। 63। </span><br /> | ||
<span class="HindiText">सर्व पूजा की पुस्तकों में अष्टाह्निकपूजा </span><span class="SanskritText">‘संवौषडाहूय निवेश्य ठाभ्यां सांनिध्यमनीय वषड्पदेन। श्रीपंचमेरुस्थजिनालयानां यजाम्यशीति-प्रतिमाः समस्ताः। 1। आहूय संवौषडिति प्रणीत्य ताभ्यां प्रतिष्ठाप्य सुनिष्ठितार्थान्। वषड्पदेनैव च संनिधाय नंदीश्वरद्वीपजिनांसमर्चे। 2।</span> = <span class="HindiText">‘संवौषट्’ पद के द्वारा बुलाकर, ‘ठः ठः’ पद के द्वारा ठहराकर, तथा ‘वषट्’ पद के द्वारा अपने निकट करके पाँचों मेरु-पर्वतों पर स्थित अस्सी चैत्यालयों की समस्त प्रतिमाओं की मैं पूजा करता हूँ। 1। इसी प्रकार ‘संवौषट्’ पद के द्वारा बुलाकर, ‘ठः ठः’ पद के द्वारा ठहराकर, तथा ‘वषट्’ के द्वारा अपने निकट करके हम नंदीश्वरद्वीप के जिनेंद्रों की पूजा करते हैं। <br /> | <span class="HindiText">सर्व पूजा की पुस्तकों में अष्टाह्निकपूजा </span><span class="SanskritText">‘संवौषडाहूय निवेश्य ठाभ्यां सांनिध्यमनीय वषड्पदेन। श्रीपंचमेरुस्थजिनालयानां यजाम्यशीति-प्रतिमाः समस्ताः। 1। आहूय संवौषडिति प्रणीत्य ताभ्यां प्रतिष्ठाप्य सुनिष्ठितार्थान्। वषड्पदेनैव च संनिधाय नंदीश्वरद्वीपजिनांसमर्चे। 2।</span> = <span class="HindiText">‘संवौषट्’ पद के द्वारा बुलाकर, ‘ठः ठः’ पद के द्वारा ठहराकर, तथा ‘वषट्’ पद के द्वारा अपने निकट करके पाँचों मेरु-पर्वतों पर स्थित अस्सी चैत्यालयों की समस्त प्रतिमाओं की मैं पूजा करता हूँ। 1। इसी प्रकार ‘संवौषट्’ पद के द्वारा बुलाकर, ‘ठः ठः’ पद के द्वारा ठहराकर, तथा ‘वषट्’ के द्वारा अपने निकट करके हम नंदीश्वरद्वीप के जिनेंद्रों की पूजा करते हैं। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">जिनपूजा का फल निर्जरा व मोक्ष</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">जिनपूजा का फल निर्जरा व मोक्ष</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/746, 750 </span><span class="PrakritGatha">एया वि सा समत्था जिणभत्ती दुग्गइं णिवारेण। पुण्णाणि य पूरेदु आसिद्धिः परंपरसुहाणं। 746। बीएण विणा सस्सं इच्छदि सो वासमब्भएण विणा। आराधणमिच्छंतो आरा-धणभत्तिमकरंतो। 750।</span> = <span class="HindiText">अकेली जिनभक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है, इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है और मोक्ष-प्राप्ति होने तक इससे इंद्रपद, चक्रवर्तीपद, अहमिंद्रपद और तीर्थंकरपद के सुखों की प्राप्ति होती है। 746। आराधनारूप भक्ति न करके ही जो रत्नत्रय सिद्धिरूप फल चाहता है वह पुरुष बीज के बिना धान्य प्राप्ति की इच्छा रखता है, अथवा मेघ के बिना जलवृष्टि की इच्छा करता है। 750। (<span class="GRef"> भगवती आराधना/755 </span>), (<span class="GRef"> रयणसार/12-14 </span>); (<span class="GRef"> | <span class="GRef"> भगवती आराधना/746, 750 </span><span class="PrakritGatha">एया वि सा समत्था जिणभत्ती दुग्गइं णिवारेण। पुण्णाणि य पूरेदु आसिद्धिः परंपरसुहाणं। 746। बीएण विणा सस्सं इच्छदि सो वासमब्भएण विणा। आराधणमिच्छंतो आरा-धणभत्तिमकरंतो। 750।</span> = <span class="HindiText">अकेली जिनभक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है, इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है और मोक्ष-प्राप्ति होने तक इससे इंद्रपद, चक्रवर्तीपद, अहमिंद्रपद और तीर्थंकरपद के सुखों की प्राप्ति होती है। 746। आराधनारूप भक्ति न करके ही जो रत्नत्रय सिद्धिरूप फल चाहता है वह पुरुष बीज के बिना धान्य प्राप्ति की इच्छा रखता है, अथवा मेघ के बिना जलवृष्टि की इच्छा करता है। 750। (<span class="GRef"> भगवती आराधना/755 </span>), (<span class="GRef"> रयणसार/12-14 </span>); (<span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/8/132 </span>पर उद्धृत); (<span class="GRef"> वसुनंदी श्रावकाचार/489-493 </span>)। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> | <span class="GRef"> भावपाहुड़/ </span>मू./153<span class="PrakritGatha"> जिणवरचरणंबुरुहं णमंति जे परमभत्तिराएण। ते जम्मवेलिमूलं खणंति वरभावसत्थेण। 153। </span>= <span class="HindiText">जे पुरुष परम भक्ति से जिनवर के चरणकूं नमें हैं ते श्रेष्ठ भावरूप शस्त्रकरि संसाररूप वेलि का जो मूल मिथ्यात्व आदिकर्म ताहिं खणैं है। </span><br /> | ||
मू.आ./506 <span class="PrakritGatha">अरहंतणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण। 506। </span>= <span class="HindiText">जो विवेकी जीव भाव पूर्वक अरहंत को नमस्कार करता है वह अति शीघ्र समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। 506। (<span class="GRef"> | मू.आ./506 <span class="PrakritGatha">अरहंतणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण। 506। </span>= <span class="HindiText">जो विवेकी जीव भाव पूर्वक अरहंत को नमस्कार करता है वह अति शीघ्र समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। 506। (<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1/ </span>गा. 2/9), (<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/79/100 </span>पर उद्धृत)। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> | <span class="GRef"> कषायपाहुड़ 1/1/9/2 </span><span class="PrakritText">अरहंतणमोक्कारो संपहियबंधादो असंखेज्जगुणकम्मक्खयकारओ त्ति।</span> = <span class="HindiText">अरहंत नमस्कार तत्कालीन बंध की अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा का कारण है। (<span class="GRef"> धवला 10/4,2,4,66/289/4 </span>)। </span><br /> | ||
<strong><span class="GRef"> धवला 6/1,9 </span></strong>-9,22/गा.1/428 <span class="PrakritText">दर्शनेन जिनेंद्राणां पापसंघातकुंजरम्। शतधा भेदमायाति गिरिर्वज्रहतो यथा। </span><br /> | <strong><span class="GRef"> धवला 6/1,9 </span></strong>-9,22/गा.1/428 <span class="PrakritText">दर्शनेन जिनेंद्राणां पापसंघातकुंजरम्। शतधा भेदमायाति गिरिर्वज्रहतो यथा। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 6/1,9-9,22/427/9 </span><span class="PrakritText">जिणबिंबदसंणेण णिधत्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसणादो।</span> = <span class="HindiText">जिनेंद्रों के दर्शन से पाप संघात रूपी कुंजर के सौ | <span class="GRef"> धवला 6/1,9-9,22/427/9 </span><span class="PrakritText">जिणबिंबदसंणेण णिधत्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसणादो।</span> = <span class="HindiText">जिनेंद्रों के दर्शन से पाप संघात रूपी कुंजर के सौ टुकड़े हो जाते हैं, जिस प्रकार कि वज्र के आघात से पर्वत के सौ टुकड़े हो जाते हैं। 1। जिन बिंब के दर्शन से निधत्त और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्म कलाप का क्षय देखा जाता है। </span><br /> | ||
पं.वि./10/42 <span class="SanskritText">नाममात्रकथया परात्मनो भूरिजन्मकृतपापसंक्षयः। 42।</span> = <span class="HindiText">परमात्मा के नाममात्र की कथा से ही अनेक जन्मों के संचित्त किये पापों का नाश होता है। </span><br /> | पं.वि./10/42 <span class="SanskritText">नाममात्रकथया परात्मनो भूरिजन्मकृतपापसंक्षयः। 42।</span> = <span class="HindiText">परमात्मा के नाममात्र की कथा से ही अनेक जन्मों के संचित्त किये पापों का नाश होता है। </span><br /> | ||
पं. वि./6/14 <span class="SanskritGatha">प्रपश्यंति जिनं भक्त्या पूजयंति स्तुवंति ये। ते च दृश्याश्च पूज्याश्च स्तुत्याश्च भुवनत्रये। 14।</span> =<span class="HindiText"> जो भव्य प्राणी भक्ति से जिन भगवान् का पूजन, दर्शन और स्तुति करते हैं वे तीनों लोकों में स्वयं ही दर्शन, पूजन और स्तुति के योग्य हो जाते हैं अर्थात् स्वयं भी परमात्मा बन जाते हैं। </span><br /> | पं. वि./6/14 <span class="SanskritGatha">प्रपश्यंति जिनं भक्त्या पूजयंति स्तुवंति ये। ते च दृश्याश्च पूज्याश्च स्तुत्याश्च भुवनत्रये। 14।</span> =<span class="HindiText"> जो भव्य प्राणी भक्ति से जिन भगवान् का पूजन, दर्शन और स्तुति करते हैं वे तीनों लोकों में स्वयं ही दर्शन, पूजन और स्तुति के योग्य हो जाते हैं अर्थात् स्वयं भी परमात्मा बन जाते हैं। </span><br /> | ||
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Revision as of 21:40, 9 September 2022
- पूजा सामान्य निर्देश व उसका महत्त्व
- पूजा करना श्रावक का नित्य कर्तव्य है
वसुनंदी श्रावकाचार/478 एसा छव्विहा पूजा णिच्चं धम्माणुरायरत्तेहिं। जह जोग्गं कायव्वा सव्वेहिं पि देसविरएहिं। 478। = इस प्रकार यह छह प्रकार (नाम, स्थापनादि) की पूजा धर्मानुरागरक्त सर्व देशव्रती श्रावकों को यथायोग्य नित्य ही करना चाहिए। 478।
पं. वि./6/15-16 ये जिनेंद्रं न पश्यंति पूजयंति स्तुवंति न। निष्फलं जीवितं तेषां तेषां धिक् च गृहाश्रमम्। 15। प्रातरुत्थाय कर्तव्यं देवतागुरुदर्शनम्। भंक्त्या तद्वंदना कार्या धर्मश्रुतिरुपासकैः। 16। = जो जीव भक्ति से जिनेंद्र भगवान् का न दर्शन करते हैं, न पूजन करते हैं, और न ही स्तुति करते हैं, उनका जीवन निष्फल है, तथा उनके गृहस्थ को धिक्कार है। 15। श्रावकों को प्रातःकाल में उठ करके भक्ति से जिनेंद्रदेव तथा निर्ग्रंथ गुरु का दर्शन और उनकी वंदना करके धर्मश्रवण करना चाहिए। तत्पश्चात् अन्य कार्यों को करना चाहिए। 16।
बी.पा./टी./17/85 पर उद्धृत - उक्तं सोमदेव स्वामिना - अपूजयित्वा यो देवान् मुनीननुपचर्य च। यो भुंजीत गृहस्थः सन् स भुंजीत परं तमः। = आचार्य सोमदेव ने कहा है कि जो गृहस्थ जिनदेव की पूजा और मुनियों की उपचर्या किये बिना अन्न का भक्षण करता है वह सातवें नरक के कुंभीपाक बिल में दुःख को भोगता है। ( अमितगति श्रावकाचार/1/55 )।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/732-733 पूजामप्यर्हतां कुर्याद्यद्वा प्रतिमासु तद्धिया। स्वरव्यंजनानि संस्थाप्य सिद्धानप्यर्चयेत्सुधीः। 732। सूर्युपाध्याय-साधूनां पुरस्तत्पादयोः स्तुतिम्। प्राग्विधायाष्टधा पूजां विदध्यात्स त्रिशुद्धितः। 733। = उत्तम बुद्धिवाला श्रावक प्रतिमाओं में अर्हंत की बुद्धि से अर्हंत भगवान् की और सिद्ध यंत्र में स्वर व्यंजन आदि रूप से सिद्धों की स्थापना करके पूजन करे। 732। तथा आचार्य उपाध्याय साधु के सामने जाकर उनके चरणों की स्तुति करके त्रिकरण की शुद्धिपूर्वक उनकी भी अष्ट द्रव्य से पूजा करे। 733। (इस प्रकार नित्य होनेवाले जिनबिंब महोत्सव में शिथिलता नहीं करना चाहिए। (739)।
- नंदीश्वर व पंचमेरु पूजा निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/5/83, 101, 103 वरिसे वरिसे चउविहदेवा णंदीसरम्मि दीवम्मि। आसाढकत्तिएसुं फग्गुणमासे समायंति। 83। पुव्वाए कप्पवासी भवणसुरा दक्खिणाए वेंतरया। पच्छिमदिसाए तेसुं जोइसिया उत्तरदिसाए। 100। णियणियविभूदिजोग्गं महिमं कुव्वंति थोत्त-बहलमुहा। णंदीसरजिणमंदिरजत्तासुं विउलभत्तिजुदा। 101। पुव्वण्हे अवरण्हे पुव्वणिसाए वि पच्छिमणिसाए। पहराणि दोण्णि-दोण्णिं वरभत्तीए पसत्तमणा। 102। कमसो पदाहिणेणं पुण्णिमयं जाव अट्ठमीदु। तदो देवा विविहं पूजा जिणिंदपडिमाण कुव्वंति। 103। = चारों प्रकार के देव नंदीश्वरद्वीप में प्रत्येक वर्ष आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन मास में आते हैं। 83। नंदीश्वरद्वीपस्थ जिन-मंदिरों की यात्रा में बहुत भक्ति से युक्त कल्पवासी देव पूर्व दिशा में, भवनवासी दक्षिण में, व्यंतर पश्चिम दिशा में और ज्योतिषदेव उत्तर दिशा में मुख से बहुत स्तोत्रों का उच्चारण करते हुए अपनी-अपनी विभूति के योग्य महिमा को करते हैं। 100-101 । ये देव आसक्त चित्त होकर अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक पूर्वाह्न, अपराह्न, पूर्वरात्रि और पश्चिमरात्रि में दो-दो पहर तक उत्तम भक्ति पूर्वक प्रदक्षिण क्रम से जिनेंद्र प्रतिमाओं की विविध प्रकार से पूजा करते हैं। 102-103।
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/5/112 एवं आगंतूणं अट्ठमिदिवसेसु मंदरगिरिस्स। जिण-भवणेसु य पडिमा जिणिंदइंदाण पूयंति। 112। = इस प्रकार अर्थात् बड़े उत्सव सहित आकर वे (चतुर्निकाय के देव) अष्टाह्निक दिनों में मंदर (सुमेरु) पर्वत के जिन भवनों में जिनेंद्र प्रतिमाओं की पूजा करते हैं। 112।
अनगारधर्मामृत/9/63 कुर्वंतु सिद्धनंदीश्वरगुरुशांतिस्तवैः क्रियामष्टौ। शुच्यूर्जतपस्यसिताष्टम्यादिदिनानि मध्याह्ने। = आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन शुक्ला अष्टमी से लेकर पूर्णिमा पर्यंत के आठ दिनों तक पौर्वाह्णिक स्वाध्याय ग्रहण के अनंतर सब संघ मिला कर, सिद्ध-भक्ति, नंदीश्वर चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति द्वारा अष्टाह्निक क्रिया करें। 63।
सर्व पूजा की पुस्तकों में अष्टाह्निकपूजा ‘संवौषडाहूय निवेश्य ठाभ्यां सांनिध्यमनीय वषड्पदेन। श्रीपंचमेरुस्थजिनालयानां यजाम्यशीति-प्रतिमाः समस्ताः। 1। आहूय संवौषडिति प्रणीत्य ताभ्यां प्रतिष्ठाप्य सुनिष्ठितार्थान्। वषड्पदेनैव च संनिधाय नंदीश्वरद्वीपजिनांसमर्चे। 2। = ‘संवौषट्’ पद के द्वारा बुलाकर, ‘ठः ठः’ पद के द्वारा ठहराकर, तथा ‘वषट्’ पद के द्वारा अपने निकट करके पाँचों मेरु-पर्वतों पर स्थित अस्सी चैत्यालयों की समस्त प्रतिमाओं की मैं पूजा करता हूँ। 1। इसी प्रकार ‘संवौषट्’ पद के द्वारा बुलाकर, ‘ठः ठः’ पद के द्वारा ठहराकर, तथा ‘वषट्’ के द्वारा अपने निकट करके हम नंदीश्वरद्वीप के जिनेंद्रों की पूजा करते हैं।
- पूजा में अंतरंग भावों की प्रधानता
धवला 9/4, 1,1/8/7 ण ताव जिणो सगवंदणाए परिणयाणं चेव जीवाणं पावस्स पणासओ, वीयरायत्तस्साभावप्पसंगादो। ...परिसेसत्तणेण जिणपरिणयभावो च पावपणासओ त्ति इच्छियव्वो, अण्णहा कम्म-क्खयाणुववत्तीदो। = जिन देव वंदन... जीवों के पाप के विनाशक नहीं हैं, क्योंकि ऐसा होने पर वीतरागता के अभाव का प्रसंग आवेगा। ...तब पारिशेष रूप से जिन परिणत भाव और जिनगुण परिणाम को पाप का विनाशक स्वीकार करना चाहिए।
- जिनपूजा का फल निर्जरा व मोक्ष
भगवती आराधना/746, 750 एया वि सा समत्था जिणभत्ती दुग्गइं णिवारेण। पुण्णाणि य पूरेदु आसिद्धिः परंपरसुहाणं। 746। बीएण विणा सस्सं इच्छदि सो वासमब्भएण विणा। आराधणमिच्छंतो आरा-धणभत्तिमकरंतो। 750। = अकेली जिनभक्ति ही दुर्गति का नाश करने में समर्थ है, इससे विपुल पुण्य की प्राप्ति होती है और मोक्ष-प्राप्ति होने तक इससे इंद्रपद, चक्रवर्तीपद, अहमिंद्रपद और तीर्थंकरपद के सुखों की प्राप्ति होती है। 746। आराधनारूप भक्ति न करके ही जो रत्नत्रय सिद्धिरूप फल चाहता है वह पुरुष बीज के बिना धान्य प्राप्ति की इच्छा रखता है, अथवा मेघ के बिना जलवृष्टि की इच्छा करता है। 750। ( भगवती आराधना/755 ), ( रयणसार/12-14 ); ( भावपाहुड़ टीका/8/132 पर उद्धृत); ( वसुनंदी श्रावकाचार/489-493 )।
भावपाहुड़/ मू./153 जिणवरचरणंबुरुहं णमंति जे परमभत्तिराएण। ते जम्मवेलिमूलं खणंति वरभावसत्थेण। 153। = जे पुरुष परम भक्ति से जिनवर के चरणकूं नमें हैं ते श्रेष्ठ भावरूप शस्त्रकरि संसाररूप वेलि का जो मूल मिथ्यात्व आदिकर्म ताहिं खणैं है।
मू.आ./506 अरहंतणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण। 506। = जो विवेकी जीव भाव पूर्वक अरहंत को नमस्कार करता है वह अति शीघ्र समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है। 506। ( कषायपाहुड़ 1/1/ गा. 2/9), ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/79/100 पर उद्धृत)।
कषायपाहुड़ 1/1/9/2 अरहंतणमोक्कारो संपहियबंधादो असंखेज्जगुणकम्मक्खयकारओ त्ति। = अरहंत नमस्कार तत्कालीन बंध की अपेक्षा असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा का कारण है। ( धवला 10/4,2,4,66/289/4 )।
धवला 6/1,9 -9,22/गा.1/428 दर्शनेन जिनेंद्राणां पापसंघातकुंजरम्। शतधा भेदमायाति गिरिर्वज्रहतो यथा।
धवला 6/1,9-9,22/427/9 जिणबिंबदसंणेण णिधत्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसणादो। = जिनेंद्रों के दर्शन से पाप संघात रूपी कुंजर के सौ टुकड़े हो जाते हैं, जिस प्रकार कि वज्र के आघात से पर्वत के सौ टुकड़े हो जाते हैं। 1। जिन बिंब के दर्शन से निधत्त और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्म कलाप का क्षय देखा जाता है।
पं.वि./10/42 नाममात्रकथया परात्मनो भूरिजन्मकृतपापसंक्षयः। 42। = परमात्मा के नाममात्र की कथा से ही अनेक जन्मों के संचित्त किये पापों का नाश होता है।
पं. वि./6/14 प्रपश्यंति जिनं भक्त्या पूजयंति स्तुवंति ये। ते च दृश्याश्च पूज्याश्च स्तुत्याश्च भुवनत्रये। 14। = जो भव्य प्राणी भक्ति से जिन भगवान् का पूजन, दर्शन और स्तुति करते हैं वे तीनों लोकों में स्वयं ही दर्शन, पूजन और स्तुति के योग्य हो जाते हैं अर्थात् स्वयं भी परमात्मा बन जाते हैं।
सागार धर्मामृत/2/32 दृक्पूतमपि यष्टारमर्हतोऽभ्युदयश्रियः। श्रयंत्यहंपूर्विकया, किं पुनर्व्रतभूषितम्। 32। = अर्हंत भगवान् की पूजा के माहात्म्य से सम्यग्दर्शन से पवित्र भी पूजक को पूजा, आज्ञा, आदि उत्कर्षकारक संपत्तियाँ ‘मैं पहले, मैं पहले’ इस प्रकार ईर्ष्या से प्राप्त होती हैं, फिर व्रत सहित व्यक्ति का तो कहना ही क्या है। 32।
देखें धर्म - 7.9 (दान, पूजा आदि सम्यक् व्यवहारधर्म कमो की निर्जरा तथा परंपरा मोक्ष का कारण है।)
- पूजा करना श्रावक का नित्य कर्तव्य है