एवंभूतनय निर्देश: Difference between revisions
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<li> <span class="HindiText" name="III.8" id="III.8">एवंभूतनय निर्देश<br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.8" id="III.8"><strong>एवंभूतनय निर्देश</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.8.1" id="III.8.1"> तत्क्रियापरिणत द्रव्य ही शब्द का वाच्य है </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.8.1" id="III.8.1"><strong> तत्क्रियापरिणत द्रव्य ही शब्द का वाच्य है </strong></span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/3 <span class="SanskritText"> येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसायतीति एवंभूत:। स्वाभिप्रेतक्रियापरिणतिक्षणे एव स शब्दो युक्तो नान्यथेति। यदैवेंदति तदैवेंद्रो नाभिषेचको न पूजक इति। यदैव गच्छति तदैव गौर्न स्थितो न शयित इति।</span> =<span class="HindiText">जो वस्तु जिस पर्याय को प्राप्त हुई है उसी रूप निश्चय करने वाले (नाम देने वाले) नय को एवंभूत नय कहते हैं। आशय यह है कि जिस शब्द का जो वाच्य है उस रूप क्रिया के परिणमन के समय ही उस शब्द का प्रयोग करना युक्त है, अन्य समयों में नहीं। जैसे‒जिस समय आज्ञा व ऐश्वर्यवान् हो उस समय ही इंद्र है, अभिषेक या पूजा करने वाला नहीं। जब गमन करती हो तभी गाय है, बैठी या सोती हुई नहीं। ( राजवार्तिक/1/33/11/99/5 ); ( श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लो.78-79/262); ( हरिवंशपुराण/58/49 ); ( आलापपद्धति/5 व9); ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.19 पर उद्धत श्लोक); ( तत्त्वसार/1/50 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/277 ); ( स्याद्वादमंजरी/28/315/3 )।</span><br /> | |||
धवला 1/1,1,1/90/3 <span class="SanskritText">एवं भेदे भवनादेवंभूत:। </span>=<span class="HindiText">एवंभेद अर्थात् जिस शब्द का जो वाच्य है वह तद्रूप क्रिया से परिणत समय में ही पाया जाता है। उसे जो विषय करता है उसे एवंभूतनय कहते हैं। ( कषायपाहुड़ 1/13-14/201/242/1 )।</span><br /> | |||
नयचक्र बृहद्/216 <span class="SanskritText">जं जं करेइ कम्मं देही मणवयणकायचेवादो। तं तं खु णामजुत्तो एवंभूदो हवे स णओ।216।</span><br /> | |||
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.19 <span class="SanskritText">य: कश्चित्पुरुष: रागपरिणतो परिणमनकाले रागीति भवति। द्वेषपरिणतो परिणमनकाले द्वेषीति कथ्यते।...शेषकाले तथा न कथ्यते। इति तप्ताय: पिंडवत् तत्काले यदाकृतिस्तद्विशेषे वस्तुपरिणमनं तदा काले ‘तक्काले तम्मपत्तादो’ इति वचनमस्तीति क्रियाविशेषाभिदानं स्वीकरोति अथवा अभिदानं न स्वीकरोतीति व्यवहरणमेवंभूतनयो भवति।</span>=<span class="HindiText">1. यह जीव मन वचन काय से जब जो-जो चेष्टा करता है, तब उस-उस नाम से युक्त हो जाता है, ऐसा एवंभूत नय कहता है। 2. जैसे राग से परिणत जीव रागपरिणति के काल में ही रागी होता है और द्वेष परिणत जीव द्वेष परिणति के काल में ही द्वेष्टा कहलाता है। अन्य समयों में वह वैसा नहीं कहा जाता। इस प्रकार अग्नि से तपे हुए लोहे के गोलेवत्, उस-उस काल में जिस-जिस आकृति विशेष में वस्तु का परिणमन होता है, उस काल में उस रूप से तन्मय होता है। इस प्रकार आगम का वचन है। अत: क्रियाविशेष के नामकथन को स्वीकार करता है, अन्यथा नामकथन को ग्रहण नहीं करता। इस प्रकार से व्यवहार करना एवंभूत होता है। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="III.8.2" id="III.8.2"> तज्ज्ञानपरिणत आत्मा उस शब्द का वाच्य है | <li><span class="HindiText" name="III.8.2" id="III.8.2"><strong> तज्ज्ञानपरिणत आत्मा उस शब्द का वाच्य है </strong> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.8.2.1" id="III.8.2.1"> निर्देश </span><br> | <li><span class="HindiText" name="III.8.2.1" id="III.8.2.1"> निर्देश </span><br> सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/5 <span class="SanskritText">अथवा येनात्मना येन ज्ञानेन भूत: परिणतस्तेनैवाध्यवसाययति। यथेंद्राग्निज्ञानपरिणत आत्मैवेंद्रोऽग्निश्चेति। </span>=<span class="HindiText">अथवा जिस रूप से अर्थात् जिस ज्ञान से आत्मा परिणत हो उसी रूप से उसका निश्चय कराने वाला नय एवंभूतनय है। यथा‒इंद्ररूप ज्ञान से परिणत आत्मा इंद्र है और अग्निरूप ज्ञान से परिणत आत्मा अग्नि है। ( राजवार्तिक 1/33/11/99/10 )।</span><br /> | ||
राजवार्तिक/1/1/5/5/1 <span class="SanskritText">यथा...आत्मा तत्परिणामादग्निव्यपदेशभाग् भवति, स एवंभूतनयवक्तव्यतया उष्णपर्यायादनन्य:, तथा एवंभूतनयवक्तव्यवशाज् ज्ञानदर्शनपर्यायपरिणत आत्मैव ज्ञानं दर्शनं च तत्स्वभाव्यात् ।</span>=<span class="HindiText">एवंभूतनय की दृष्टि से ज्ञान क्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है और दर्शनक्रिया में परिणत आत्मा दर्शन है; जैसे कि उष्णपर्याय में परिणत आत्मा अग्नि है। </span> राजवार्तिक/1/33/12/99/13 <span class="SanskritText">स्यादेतत्-अग्न्यादिव्यपदेशो यद्यात्मनि क्रियते दाहकत्वाद्यतिप्रसज्यते इति; उच्यते-तदव्यतिरेकादप्रसंग:। तानि नामादीनि येन रूपेण व्यपदिश्यंते ततस्तेषामव्यतिरेक: प्रतिनियतार्थवृत्तित्वाद्धर्माणाम् । ततो नो आगमभावाग्नौ वर्तमानं दाहकत्वं कथमागमभावाग्नौ वर्तेत। </span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒ज्ञान या आत्मा में अग्नि व्यपदेश यदि किया जायेगा तो उसमें दाहकत्व आदि का अतिप्रसंग प्राप्त होगा ? उत्तर‒नहीं; क्योंकि, नाम स्थापना आदि निक्षेपों में पदार्थ के जो-जो धर्म वाच्य होते हैं, वे ही उनमें रहेंगे, नोआगमभाव (भौतिक) अग्नि में ही दाहकत्व आदि धर्म होते हैं उनका प्रसंग आगमभाव (ज्ञानात्मक) अग्नि में देना उचित नहीं है। </span></li> | |||
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<li> <span class="HindiText" name="III.8.3" id="III.8.3">अर्थभेद से शब्दभेद और शब्दभेद से अर्थभेद करता है</span> <br> | <li> <span class="HindiText" name="III.8.3" id="III.8.3"><strong>अर्थभेद से शब्दभेद और शब्दभेद से अर्थभेद करता है</strong></span> <br> राजवार्तिक 1/4/42/17/261/13 <span class="SanskritText">एवंभूतेषु प्रवृत्तिनिमित्तस्य भिन्नस्यैकस्यैवार्थस्याभिधानात् भेदेनाभिधानम् । ...एवंभूवर्तमाननिमित्तशब्द एकवाच्य एक:। </span>=<span class="HindiText">एवंभूतनय में प्रवृत्तिनिमित्त से भिन्न एक ही अर्थ का निरूपण होता है, इसलिए यहाँ सब शब्दों में अर्थभेद है। एवंभूतनय वर्तमान निमित्त को पकड़ता है, अत: उसके मत से एक शब्द का वाच्य एक ही है। </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,1/90/5 <span class="SanskritText"> तत: पदमेकमेकार्थस्य वाचकमित्यध्यवसाय: इत्येवंभूतनय:। एतस्मिन्नये एको गोशब्दो नानार्थे न वर्तते एकस्यैकस्वभावस्य बहुषु वृत्तिविरोधात् ।</span>=<span class="HindiText">एक पद एक ही अर्थ का वाचक होता है, इस प्रकार के विषय करने वाले नय को एवंभूतनय कहते हैं। इस नय की दृष्टि में एक ‘गो’ शब्द नाना अर्थों में नहीं रहता, क्योंकि एक स्वभाववाले एक पद का अनेक अर्थों में रहना विरुद्ध है।</span> धवला 9/4,1,45/180/7 <span class="SanskritText">गवाद्यर्थभेदेन गवादिशब्दस्य च भेदक: एवंभूत:। क्रियाभेदे न अर्थभेदक: एवंभूत:, ‘शब्दनयांतर्भूतस्य एवंभूतस्य अर्थनयत्वविरोधात् ।</span>=<span class="HindiText">गौ आदि शब्द का भेदक है, वह एवंभूतनय है। क्रिया का भेद होने पर एवंभूतनय अर्थ का भेदक नहीं है; क्योंकि शब्द नयों के अंतर्गत आने वाले एवंभूतनय के अर्थनय होने का विरोध है। </span><br /> | |||
स्याद्वादमंजरी/28/316/ उद्धृत श्लो.नं.7 <span class="SanskritText">एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं सदा तन्नोत्पद्यते। क्रियाभेदेन भिन्नत्वाद् एवंभूतोऽभिमन्यते । </span>=<span class="HindiText">वस्तु अमुक क्रिया करने के समय ही अमुक नाम से कही जा सकती है, वह सदा एक शब्द का वाच्य नहीं हो सकती, इसे एवंभूतनय कहते हैं। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="III.8.4" id="III.8.4"> इस नय की दृष्टि में वाक्य | <li><span class="HindiText" name="III.8.4" id="III.8.4"><strong> इस नय की दृष्टि में वाक्य संभव नहीं है। </strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,1/90/3 <span class="SanskritText">न पदानां...परस्परव्यपेक्षाप्यस्ति वर्णार्थसंख्याकालादिभिर्भिन्नानां पदानां भिन्नपदापेक्षायोगात् । ततो न वाक्यमप्यस्तीति सिद्धम् । </span>=<span class="HindiText">शब्दों में परस्पर सापेक्षता भी नहीं है, क्योंकि वर्ण अर्थ संख्या और काल आदि के भेद से भेद को प्राप्त हुए पदों के दूसरे पदों की अपेक्षा नहीं बन सकती। जब कि एक पद दूसरे पद की अपेक्षा नहीं रखता है, तो इस नय की दृष्टि में वाक्य भी नहीं बन सकता है यह बात सिद्ध हो जाती है। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="III.8.5" id="III.8.5"> इस नय में पदसमास | <li><span class="HindiText" name="III.8.5" id="III.8.5"><strong> इस नय में पदसमास संभव नहीं </strong></span><br /> | ||
कषायपाहुड़/1/13-14/201/242/1 <span class="SanskritText">अस्मिन्नये न पदानां समासोऽस्ति; स्वरूपत: कालभेदेन च भिन्नानामेकत्वविरोधात् । न पदानामेककालवृत्तिसमास: क्रमोत्पन्नानां क्षणक्षयिणां तदनुपपत्ते:। नैकार्थे वृत्ति: समास: भिन्नपदानामेकार्थे वृत्त्यनुपपत्ते:। </span>=<span class="HindiText">इस नय में पदों का समास नहीं होता है; क्योंकि, जो पद काल व स्वरूप की अपेक्षा भिन्न हैं, उन्हें एक मानने में विरोध आता है। एककालवृत्तिसमास कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पद क्रम से उत्पन्न होते हैं और क्षणध्वंसी हैं। एकार्थवृत्तिसमास कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न पदों का एक अर्थ में रहना बन नहीं सकता। ( धवला 1/1,1,1/90/3 ) </span></li> | |||
<li><span class="HindiText" name="III.8.6" id="III.8.6"> इस नय में वर्णसमास तक भी | <li><span class="HindiText" name="III.8.6" id="III.8.6"><strong> इस नय में वर्णसमास तक भी संभव नहीं | ||
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<br> | <br> धवला 1/4,1,45/190/7 <span class="SanskritText"> वाचकगतवर्णभेदेनार्थस्य...भेदक: एवंभूत:।</strong></span> =<span class="HindiText">जो शब्दगत ‘घ’ ‘ट’ आदि वर्णों के भेद से अर्थ का भेदक है, वह एवंभूतनय है। </span> कषायपाहुड़/1/13-14/201/242/4 <span class="SanskritText"> न वर्णसमासोऽप्यस्ति तत्रापि पदसमासोक्तदोषप्रसंगात् । तत एक एव वर्ण एकार्थवाचक इति पदगतवर्णमात्रार्थ: एकार्थ इत्येवंभूताभिप्रायवान् एवंभूतनय:। </span>=<span class="HindiText">इस नय में जिस प्रकार पदों का समास नहीं बन सकता, उसी प्रकार ‘घ’ ‘ट’ आदि अनेक वर्णों का भी समास नहीं बन सकता है, क्योंकि ऊपर पदसमास मानने में जो दोष कह आये हैं, वे सब दोष यहाँ भी प्राप्त होते हैं। इसलिए एवंभूतनय की दृष्टि में एक ही वर्ण एक अर्थ का वाचक है। अत: ‘घट’ आदि पदों में रहने वाला घ्, अ, ट्, अ आदि वर्णमात्र अर्थ ही एकार्थ हैं, इस प्रकार के अभिप्राय वाला एवंभूतनय समझना चाहिए। (विशेष तथा समन्वय देखें [[ आगम#4.4 | आगम - 4.4]]) <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.8.7" id="III.8.7"> समभिरूढ व एवंभूत में | <li><span class="HindiText" name="III.8.7" id="III.8.7"><strong> समभिरूढ व एवंभूत में अंतर </strong></span><br /> | ||
श्लोकवार्तिक/4/1/33/78/266/7 <span class="SanskritText"> समभिरूढो हि शकनक्रियायां सत्यामसत्यां च देवराजार्थस्य शक्रव्यपदेशमभिप्रैति, पशोर्गमनक्रियायां सत्यामसत्यां च गोव्यपदेशवत्तथारूढे: सद्भावात् । एवंभूतस्तु शकनक्रियापरिणतमेवार्थं तत्क्रियाकाले शक्रमभिप्रैति नान्यदा।</span> =<span class="HindiText">समभिरूढनय तो सामर्थ्य धारनरूप क्रिया के होने पर अथवा नहीं होने पर भी देवों के राजा इंद्र को ‘शक्र’ कहने का, तथा गमन क्रिया के होने पर अथवा न होने पर भी अर्थात् बैठी या सोती हुई अवस्था में भी पशुविशेष को ‘गो’ कहने का अभिप्राय रखता है, क्योंकि तिस प्रकार रूढि का सद्भाव पाया जाता है। किंतु एवंभूतनय तो सामर्थ्य धारनरूप क्रिया से परिणत ही देवराज को ‘शक्र’ और गमन क्रिया से परिणत ही पशुविशेष को ‘गौ’ कहने का अभिप्राय रखता है, अन्य अवस्थाओं में नहीं। <br /> | |||
नोट‒(यद्यपि दोनों ही नयें व्युत्पत्ति भेद से शब्द के अर्थ में भेद मानती हैं, | नोट‒(यद्यपि दोनों ही नयें व्युत्पत्ति भेद से शब्द के अर्थ में भेद मानती हैं, परंतु समभिरूढनय तो उस व्युत्पत्ति को सामान्य रूप से अंगीकार करके वस्तु की हर अवस्था में उसे स्वीकार कर लेता है। परंतु एवंभूत तो उस व्युत्पत्ति का अर्थ तभी ग्रहण करता है, जब कि वस्तु तत्क्रिया परिणत होकर साक्षात् रूप से उस व्युत्पत्ति की विषय बन रही हो ( स्याद्वादमंजरी/28/315 .3) </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="III.8.8" id="III.8.8"> एवंभूतनयाभास का लक्षण </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.8.8" id="III.8.8"><strong> एवंभूतनयाभास का लक्षण </strong></span><br /> | ||
स्याद्वादमंजरी/28/319/3 <span class="SanskritText"> क्रियानाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपंस्तु तदाभास:। यथा विशिष्टचेष्टाशून्यं घटाख्यं वस्तु न घटशब्दवाच्यम्, घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तक्रियाशून्यत्वात् पटवद् इत्यादि:। </span>=<span class="HindiText">क्रियापरिणति के समय से अतिरिक्त अन्य समय में पदार्थ को उस शब्द का वाच्य सर्वथा न समझना एवंभूतनयाभास है। जैसे‒जल लाने आदि की क्रियारहित खाली रखा हुआ घड़ा बिलकुल भी ‘घट’ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पट की भाँति वह भी घटन क्रिया से शून्य है।</span></li> | |||
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Latest revision as of 10:40, 14 September 2022
- तत्क्रियापरिणत द्रव्य ही शब्द का वाच्य है
सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/3 येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसायतीति एवंभूत:। स्वाभिप्रेतक्रियापरिणतिक्षणे एव स शब्दो युक्तो नान्यथेति। यदैवेंदति तदैवेंद्रो नाभिषेचको न पूजक इति। यदैव गच्छति तदैव गौर्न स्थितो न शयित इति। =जो वस्तु जिस पर्याय को प्राप्त हुई है उसी रूप निश्चय करने वाले (नाम देने वाले) नय को एवंभूत नय कहते हैं। आशय यह है कि जिस शब्द का जो वाच्य है उस रूप क्रिया के परिणमन के समय ही उस शब्द का प्रयोग करना युक्त है, अन्य समयों में नहीं। जैसे‒जिस समय आज्ञा व ऐश्वर्यवान् हो उस समय ही इंद्र है, अभिषेक या पूजा करने वाला नहीं। जब गमन करती हो तभी गाय है, बैठी या सोती हुई नहीं। ( राजवार्तिक/1/33/11/99/5 ); ( श्लोकवार्तिक 4/1/33/ श्लो.78-79/262); ( हरिवंशपुराण/58/49 ); ( आलापपद्धति/5 व9); ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.19 पर उद्धत श्लोक); ( तत्त्वसार/1/50 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा/277 ); ( स्याद्वादमंजरी/28/315/3 )।
धवला 1/1,1,1/90/3 एवं भेदे भवनादेवंभूत:। =एवंभेद अर्थात् जिस शब्द का जो वाच्य है वह तद्रूप क्रिया से परिणत समय में ही पाया जाता है। उसे जो विषय करता है उसे एवंभूतनय कहते हैं। ( कषायपाहुड़ 1/13-14/201/242/1 )।
नयचक्र बृहद्/216 जं जं करेइ कम्मं देही मणवयणकायचेवादो। तं तं खु णामजुत्तो एवंभूदो हवे स णओ।216।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/ पृ.19 य: कश्चित्पुरुष: रागपरिणतो परिणमनकाले रागीति भवति। द्वेषपरिणतो परिणमनकाले द्वेषीति कथ्यते।...शेषकाले तथा न कथ्यते। इति तप्ताय: पिंडवत् तत्काले यदाकृतिस्तद्विशेषे वस्तुपरिणमनं तदा काले ‘तक्काले तम्मपत्तादो’ इति वचनमस्तीति क्रियाविशेषाभिदानं स्वीकरोति अथवा अभिदानं न स्वीकरोतीति व्यवहरणमेवंभूतनयो भवति।=1. यह जीव मन वचन काय से जब जो-जो चेष्टा करता है, तब उस-उस नाम से युक्त हो जाता है, ऐसा एवंभूत नय कहता है। 2. जैसे राग से परिणत जीव रागपरिणति के काल में ही रागी होता है और द्वेष परिणत जीव द्वेष परिणति के काल में ही द्वेष्टा कहलाता है। अन्य समयों में वह वैसा नहीं कहा जाता। इस प्रकार अग्नि से तपे हुए लोहे के गोलेवत्, उस-उस काल में जिस-जिस आकृति विशेष में वस्तु का परिणमन होता है, उस काल में उस रूप से तन्मय होता है। इस प्रकार आगम का वचन है। अत: क्रियाविशेष के नामकथन को स्वीकार करता है, अन्यथा नामकथन को ग्रहण नहीं करता। इस प्रकार से व्यवहार करना एवंभूत होता है। - तज्ज्ञानपरिणत आत्मा उस शब्द का वाच्य है
- निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/1/33/145/5 अथवा येनात्मना येन ज्ञानेन भूत: परिणतस्तेनैवाध्यवसाययति। यथेंद्राग्निज्ञानपरिणत आत्मैवेंद्रोऽग्निश्चेति। =अथवा जिस रूप से अर्थात् जिस ज्ञान से आत्मा परिणत हो उसी रूप से उसका निश्चय कराने वाला नय एवंभूतनय है। यथा‒इंद्ररूप ज्ञान से परिणत आत्मा इंद्र है और अग्निरूप ज्ञान से परिणत आत्मा अग्नि है। ( राजवार्तिक 1/33/11/99/10 )।
राजवार्तिक/1/1/5/5/1 यथा...आत्मा तत्परिणामादग्निव्यपदेशभाग् भवति, स एवंभूतनयवक्तव्यतया उष्णपर्यायादनन्य:, तथा एवंभूतनयवक्तव्यवशाज् ज्ञानदर्शनपर्यायपरिणत आत्मैव ज्ञानं दर्शनं च तत्स्वभाव्यात् ।=एवंभूतनय की दृष्टि से ज्ञान क्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है और दर्शनक्रिया में परिणत आत्मा दर्शन है; जैसे कि उष्णपर्याय में परिणत आत्मा अग्नि है। राजवार्तिक/1/33/12/99/13 स्यादेतत्-अग्न्यादिव्यपदेशो यद्यात्मनि क्रियते दाहकत्वाद्यतिप्रसज्यते इति; उच्यते-तदव्यतिरेकादप्रसंग:। तानि नामादीनि येन रूपेण व्यपदिश्यंते ततस्तेषामव्यतिरेक: प्रतिनियतार्थवृत्तित्वाद्धर्माणाम् । ततो नो आगमभावाग्नौ वर्तमानं दाहकत्वं कथमागमभावाग्नौ वर्तेत। =प्रश्न‒ज्ञान या आत्मा में अग्नि व्यपदेश यदि किया जायेगा तो उसमें दाहकत्व आदि का अतिप्रसंग प्राप्त होगा ? उत्तर‒नहीं; क्योंकि, नाम स्थापना आदि निक्षेपों में पदार्थ के जो-जो धर्म वाच्य होते हैं, वे ही उनमें रहेंगे, नोआगमभाव (भौतिक) अग्नि में ही दाहकत्व आदि धर्म होते हैं उनका प्रसंग आगमभाव (ज्ञानात्मक) अग्नि में देना उचित नहीं है।
- निर्देश
- अर्थभेद से शब्दभेद और शब्दभेद से अर्थभेद करता है
राजवार्तिक 1/4/42/17/261/13 एवंभूतेषु प्रवृत्तिनिमित्तस्य भिन्नस्यैकस्यैवार्थस्याभिधानात् भेदेनाभिधानम् । ...एवंभूवर्तमाननिमित्तशब्द एकवाच्य एक:। =एवंभूतनय में प्रवृत्तिनिमित्त से भिन्न एक ही अर्थ का निरूपण होता है, इसलिए यहाँ सब शब्दों में अर्थभेद है। एवंभूतनय वर्तमान निमित्त को पकड़ता है, अत: उसके मत से एक शब्द का वाच्य एक ही है।
धवला 1/1,1,1/90/5 तत: पदमेकमेकार्थस्य वाचकमित्यध्यवसाय: इत्येवंभूतनय:। एतस्मिन्नये एको गोशब्दो नानार्थे न वर्तते एकस्यैकस्वभावस्य बहुषु वृत्तिविरोधात् ।=एक पद एक ही अर्थ का वाचक होता है, इस प्रकार के विषय करने वाले नय को एवंभूतनय कहते हैं। इस नय की दृष्टि में एक ‘गो’ शब्द नाना अर्थों में नहीं रहता, क्योंकि एक स्वभाववाले एक पद का अनेक अर्थों में रहना विरुद्ध है। धवला 9/4,1,45/180/7 गवाद्यर्थभेदेन गवादिशब्दस्य च भेदक: एवंभूत:। क्रियाभेदे न अर्थभेदक: एवंभूत:, ‘शब्दनयांतर्भूतस्य एवंभूतस्य अर्थनयत्वविरोधात् ।=गौ आदि शब्द का भेदक है, वह एवंभूतनय है। क्रिया का भेद होने पर एवंभूतनय अर्थ का भेदक नहीं है; क्योंकि शब्द नयों के अंतर्गत आने वाले एवंभूतनय के अर्थनय होने का विरोध है।
स्याद्वादमंजरी/28/316/ उद्धृत श्लो.नं.7 एकस्यापि ध्वनेर्वाच्यं सदा तन्नोत्पद्यते। क्रियाभेदेन भिन्नत्वाद् एवंभूतोऽभिमन्यते । =वस्तु अमुक क्रिया करने के समय ही अमुक नाम से कही जा सकती है, वह सदा एक शब्द का वाच्य नहीं हो सकती, इसे एवंभूतनय कहते हैं। - इस नय की दृष्टि में वाक्य संभव नहीं है।
धवला 1/1,1,1/90/3 न पदानां...परस्परव्यपेक्षाप्यस्ति वर्णार्थसंख्याकालादिभिर्भिन्नानां पदानां भिन्नपदापेक्षायोगात् । ततो न वाक्यमप्यस्तीति सिद्धम् । =शब्दों में परस्पर सापेक्षता भी नहीं है, क्योंकि वर्ण अर्थ संख्या और काल आदि के भेद से भेद को प्राप्त हुए पदों के दूसरे पदों की अपेक्षा नहीं बन सकती। जब कि एक पद दूसरे पद की अपेक्षा नहीं रखता है, तो इस नय की दृष्टि में वाक्य भी नहीं बन सकता है यह बात सिद्ध हो जाती है। - इस नय में पदसमास संभव नहीं
कषायपाहुड़/1/13-14/201/242/1 अस्मिन्नये न पदानां समासोऽस्ति; स्वरूपत: कालभेदेन च भिन्नानामेकत्वविरोधात् । न पदानामेककालवृत्तिसमास: क्रमोत्पन्नानां क्षणक्षयिणां तदनुपपत्ते:। नैकार्थे वृत्ति: समास: भिन्नपदानामेकार्थे वृत्त्यनुपपत्ते:। =इस नय में पदों का समास नहीं होता है; क्योंकि, जो पद काल व स्वरूप की अपेक्षा भिन्न हैं, उन्हें एक मानने में विरोध आता है। एककालवृत्तिसमास कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पद क्रम से उत्पन्न होते हैं और क्षणध्वंसी हैं। एकार्थवृत्तिसमास कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न पदों का एक अर्थ में रहना बन नहीं सकता। ( धवला 1/1,1,1/90/3 ) - इस नय में वर्णसमास तक भी संभव नहीं
धवला 1/4,1,45/190/7 वाचकगतवर्णभेदेनार्थस्य...भेदक: एवंभूत:। =जो शब्दगत ‘घ’ ‘ट’ आदि वर्णों के भेद से अर्थ का भेदक है, वह एवंभूतनय है। कषायपाहुड़/1/13-14/201/242/4 न वर्णसमासोऽप्यस्ति तत्रापि पदसमासोक्तदोषप्रसंगात् । तत एक एव वर्ण एकार्थवाचक इति पदगतवर्णमात्रार्थ: एकार्थ इत्येवंभूताभिप्रायवान् एवंभूतनय:। =इस नय में जिस प्रकार पदों का समास नहीं बन सकता, उसी प्रकार ‘घ’ ‘ट’ आदि अनेक वर्णों का भी समास नहीं बन सकता है, क्योंकि ऊपर पदसमास मानने में जो दोष कह आये हैं, वे सब दोष यहाँ भी प्राप्त होते हैं। इसलिए एवंभूतनय की दृष्टि में एक ही वर्ण एक अर्थ का वाचक है। अत: ‘घट’ आदि पदों में रहने वाला घ्, अ, ट्, अ आदि वर्णमात्र अर्थ ही एकार्थ हैं, इस प्रकार के अभिप्राय वाला एवंभूतनय समझना चाहिए। (विशेष तथा समन्वय देखें आगम - 4.4)
- समभिरूढ व एवंभूत में अंतर
श्लोकवार्तिक/4/1/33/78/266/7 समभिरूढो हि शकनक्रियायां सत्यामसत्यां च देवराजार्थस्य शक्रव्यपदेशमभिप्रैति, पशोर्गमनक्रियायां सत्यामसत्यां च गोव्यपदेशवत्तथारूढे: सद्भावात् । एवंभूतस्तु शकनक्रियापरिणतमेवार्थं तत्क्रियाकाले शक्रमभिप्रैति नान्यदा। =समभिरूढनय तो सामर्थ्य धारनरूप क्रिया के होने पर अथवा नहीं होने पर भी देवों के राजा इंद्र को ‘शक्र’ कहने का, तथा गमन क्रिया के होने पर अथवा न होने पर भी अर्थात् बैठी या सोती हुई अवस्था में भी पशुविशेष को ‘गो’ कहने का अभिप्राय रखता है, क्योंकि तिस प्रकार रूढि का सद्भाव पाया जाता है। किंतु एवंभूतनय तो सामर्थ्य धारनरूप क्रिया से परिणत ही देवराज को ‘शक्र’ और गमन क्रिया से परिणत ही पशुविशेष को ‘गौ’ कहने का अभिप्राय रखता है, अन्य अवस्थाओं में नहीं।
नोट‒(यद्यपि दोनों ही नयें व्युत्पत्ति भेद से शब्द के अर्थ में भेद मानती हैं, परंतु समभिरूढनय तो उस व्युत्पत्ति को सामान्य रूप से अंगीकार करके वस्तु की हर अवस्था में उसे स्वीकार कर लेता है। परंतु एवंभूत तो उस व्युत्पत्ति का अर्थ तभी ग्रहण करता है, जब कि वस्तु तत्क्रिया परिणत होकर साक्षात् रूप से उस व्युत्पत्ति की विषय बन रही हो ( स्याद्वादमंजरी/28/315 .3) - एवंभूतनयाभास का लक्षण
स्याद्वादमंजरी/28/319/3 क्रियानाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपंस्तु तदाभास:। यथा विशिष्टचेष्टाशून्यं घटाख्यं वस्तु न घटशब्दवाच्यम्, घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तक्रियाशून्यत्वात् पटवद् इत्यादि:। =क्रियापरिणति के समय से अतिरिक्त अन्य समय में पदार्थ को उस शब्द का वाच्य सर्वथा न समझना एवंभूतनयाभास है। जैसे‒जल लाने आदि की क्रियारहित खाली रखा हुआ घड़ा बिलकुल भी ‘घट’ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पट की भाँति वह भी घटन क्रिया से शून्य है।