मतिज्ञानावरण: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p> मतिज्ञान को रोकने वाला कर्म । इसके उदय से जोव विकलांगी होते हैं । इस कर्म का उदय उन जीवों के होता है जो हिंसा आदि पाँच पापों में अपनी इच्छा से प्रवृत होते हैं । श्रीजिनेंद्र द्वारा उपदिष्ट तत्त्वार्थ को उन्मत्त पुरुष के समान यद्वा-तद्वा रूप से ग्रहण करते हैं और सच्चे तथा झूठे दोनों देव, शास्त्र, गुरु, धर्म, प्रतिमा आदि को समान मानते हैं । दूसरों को छल से ठगने से उद्यत जो पुरुष खोटी शिक्षा देते हैं और जो अज्ञानी पुरुष सद्-असद् विचार के बिना धर्म के लिए सच्चे और झूठे देव-शास्त्र-गुरुओं की भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं वे इस कर्म के उदय से दुर्बुद्धि और अशुभ प्रवृत्ति के होते हैं । <span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 17.111-112, 129-130 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> मतिज्ञान को रोकने वाला कर्म । इसके उदय से जोव विकलांगी होते हैं । इस कर्म का उदय उन जीवों के होता है जो हिंसा आदि पाँच पापों में अपनी इच्छा से प्रवृत होते हैं । श्रीजिनेंद्र द्वारा उपदिष्ट तत्त्वार्थ को उन्मत्त पुरुष के समान यद्वा-तद्वा रूप से ग्रहण करते हैं और सच्चे तथा झूठे दोनों देव, शास्त्र, गुरु, धर्म, प्रतिमा आदि को समान मानते हैं । दूसरों को छल से ठगने से उद्यत जो पुरुष खोटी शिक्षा देते हैं और जो अज्ञानी पुरुष सद्-असद् विचार के बिना धर्म के लिए सच्चे और झूठे देव-शास्त्र-गुरुओं की भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं वे इस कर्म के उदय से दुर्बुद्धि और अशुभ प्रवृत्ति के होते हैं । <span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 17.111-112, 129-130 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:20, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
(देखें ज्ञानावरण-1.3.2 )।
पुराणकोष से
मतिज्ञान को रोकने वाला कर्म । इसके उदय से जोव विकलांगी होते हैं । इस कर्म का उदय उन जीवों के होता है जो हिंसा आदि पाँच पापों में अपनी इच्छा से प्रवृत होते हैं । श्रीजिनेंद्र द्वारा उपदिष्ट तत्त्वार्थ को उन्मत्त पुरुष के समान यद्वा-तद्वा रूप से ग्रहण करते हैं और सच्चे तथा झूठे दोनों देव, शास्त्र, गुरु, धर्म, प्रतिमा आदि को समान मानते हैं । दूसरों को छल से ठगने से उद्यत जो पुरुष खोटी शिक्षा देते हैं और जो अज्ञानी पुरुष सद्-असद् विचार के बिना धर्म के लिए सच्चे और झूठे देव-शास्त्र-गुरुओं की भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं वे इस कर्म के उदय से दुर्बुद्धि और अशुभ प्रवृत्ति के होते हैं । वीरवर्द्धमान चरित्र 17.111-112, 129-130