पुद्गल: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1">पुद्गल सामान्य का लक्षण</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="1.1" id="1.1"><strong>निरुक्तयर्थ</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.1" id="1.1"><strong>निरुक्तयर्थ</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/1/24,26/434/12 </span><span class="SanskritText">पूरणगलनान्वर्थसंज्ञत्वात् पुद्गलाः। 24। भेदसंघाताम्यां च पूर्यंते गलंते चेति पूरणगलनात्मिकां क्रियामंतर्भाव्य पुद्गलशब्दोऽन्वर्थ:....पुद्गलानाद्वा। 26। अथवा पुमांसो जीवाः, तैः शरीराहार-विषयकरणोपकरणादिभावेन गिल्यंत इति पुद्गलाः।</span> = <span class="HindiText">भेद और संघात से पूरण और गलन को प्राप्त हों वे पुद्गल हैं यह पुद्गल द्रव्य की अन्वयर्थ संज्ञा है। 24। अथवा पुरुष यानी जीव जिनको शरीर, आहार विषय और इंद्रिय-उपकरण आदि के रूप में निगलें अर्थात् ग्रहण करें वे पुद्गल हैं। 26। </span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/5/1/24,26/434/12 </span><span class="SanskritText">पूरणगलनान्वर्थसंज्ञत्वात् पुद्गलाः। 24। भेदसंघाताम्यां च पूर्यंते गलंते चेति पूरणगलनात्मिकां क्रियामंतर्भाव्य पुद्गलशब्दोऽन्वर्थ:....पुद्गलानाद्वा। 26। अथवा पुमांसो जीवाः, तैः शरीराहार-विषयकरणोपकरणादिभावेन गिल्यंत इति पुद्गलाः।</span> = <span class="HindiText">भेद और संघात से पूरण और गलन को प्राप्त हों वे पुद्गल हैं यह पुद्गल द्रव्य की अन्वयर्थ संज्ञा है। 24। अथवा पुरुष यानी जीव जिनको शरीर, आहार विषय और इंद्रिय-उपकरण आदि के रूप में निगलें अर्थात् ग्रहण करें वे पुद्गल हैं। 26। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 </span><span class="SanskritText">गलनपूरणस्वभावसनाथः पुद्गलः।</span> =<span class="HindiText"> जो गलन-पूरण स्वभाव सहित है, वह पुद्गल है। | <span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 </span><span class="SanskritText">गलनपूरणस्वभावसनाथः पुद्गलः।</span> =<span class="HindiText"> जो गलन-पूरण स्वभाव सहित है, वह पुद्गल है। <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/15/50/12 )</span>; <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/26/74/1 )</span>। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">गुणों की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/5/23 </span><span class="SanskritText">स्पर्शरसगंधवर्णवंतः पुद्गलाः। 23। </span>=<span class="HindiText"> स्पर्श, रस, गंध और वर्ण वाले पुद्गल होते हैं। <br /> | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/5/23 </span><span class="SanskritText">स्पर्शरसगंधवर्णवंतः पुद्गलाः। 23। </span>=<span class="HindiText"> स्पर्श, रस, गंध और वर्ण वाले पुद्गल होते हैं। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2">पुद्गल के भेद</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">अणु व स्कंध</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/5/25 </span><span class="SanskritText">अणवः स्कंधाश्च। 25।</span> = <span class="HindiText">पुद्गल के दो भेद हैं - अणु और स्कंध। <br /> | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/5/25 </span><span class="SanskritText">अणवः स्कंधाश्च। 25।</span> = <span class="HindiText">पुद्गल के दो भेद हैं - अणु और स्कंध। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">स्वभाव व विभाव</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/20 </span><span class="SanskritText">पुद्गलद्रव्यं तावद् विकल्पद्वयसनाथम्। स्वभाव-पुद्गलो विभावपुद्गलश्चेति। </span>= <span class="HindiText">पुद्गल द्रव्य के दो भेद हैं - स्वभाव-पुद्गल और विभाव पुद्ल। <br /> | <span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/20 </span><span class="SanskritText">पुद्गलद्रव्यं तावद् विकल्पद्वयसनाथम्। स्वभाव-पुद्गलो विभावपुद्गलश्चेति। </span>= <span class="HindiText">पुद्गल द्रव्य के दो भेद हैं - स्वभाव-पुद्गल और विभाव पुद्ल। <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3">स्वभाव विभाव पद्गल के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/ </span><span class="SanskritText">तत्र स्वभावपुद्गलः परमाणुः विभावपुद्गलः स्कंधः।</span> = <span class="HindiText">उनमें, परमाणु वह स्वभावपुद्गल है और स्कंध वह विभाव पुद्गल है। <br /> | <span class="GRef"> नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/ </span><span class="SanskritText">तत्र स्वभावपुद्गलः परमाणुः विभावपुद्गलः स्कंधः।</span> = <span class="HindiText">उनमें, परमाणु वह स्वभावपुद्गल है और स्कंध वह विभाव पुद्गल है। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> अनुपचरितस्वभाव, </li> | <li class="HindiText"> अनुपचरितस्वभाव, </li> | ||
<li class="HindiText"> एकांतस्वभाव, और </li> | <li class="HindiText"> एकांतस्वभाव, और </li> | ||
<li class="HindiText"> अनेकांत स्वभाव | <li class="HindiText"> अनेकांत स्वभाव <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/70 </span>की टीका) ये द्रव्यों के विशेष स्वभाव हैं। उपरोक्त कुल 24 स्वभावों में से अमूर्त, चैतन्य व अभव्य स्वभाव से रहित पुद्गल के 21 सामान्य विशेष स्वभाव हैं <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/70 )</span>। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong>पुद्गल द्रव्य के विशेष गुण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong>पुद्गल द्रव्य के विशेष गुण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/5/23 </span><span class="SanskritText">स्पर्शरसगंधवर्णवंतः पुद्गलाः। 23। </span>=<span class="HindiText"> पुद्गल स्पर्श, रस, गंध और वर्णवाले होते हैं। | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/5/23 </span><span class="SanskritText">स्पर्शरसगंधवर्णवंतः पुद्गलाः। 23। </span>=<span class="HindiText"> पुद्गल स्पर्श, रस, गंध और वर्णवाले होते हैं। <span class="GRef">( नयचक्र बृहद्/13 )</span>; <span class="GRef">( धवला 15/33/6 )</span>; <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/132 )</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/14 </span><span class="PrakritText"> वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णायव्वा। 14।</span> = <span class="HindiText">पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध और आठ स्पर्श ये पुद्गल के विशेष गुण हैं। </span><br /> | <span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/14 </span><span class="PrakritText"> वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णायव्वा। 14।</span> = <span class="HindiText">पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध और आठ स्पर्श ये पुद्गल के विशेष गुण हैं। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> आलापपद्धति/2 </span><span class="SanskritText">पुद्गलस्य स्पर्शरसगंधवर्णाः मूर्त्तत्वमचेतनत्वमिति षट्।</span> = <span class="HindiText">पुद्ल द्रव्य के स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, मूर्तत्व और अचेतनत्व, ये छह विशेष गुण हैं। </span><br /> | <span class="GRef"> आलापपद्धति/2 </span><span class="SanskritText">पुद्गलस्य स्पर्शरसगंधवर्णाः मूर्त्तत्वमचेतनत्वमिति षट्।</span> = <span class="HindiText">पुद्ल द्रव्य के स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, मूर्तत्व और अचेतनत्व, ये छह विशेष गुण हैं। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/129, 136 </span><span class="SanskritText">भाववंतौ क्रियावंतौ च पुद्गलजीवौ परिणामाद्भेदसंघाताभ्यां चौत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्य-मानत्वात्। 129। पुद्गलस्य बंधहेतुभूतस्निग्धरुक्षगुणधर्मत्वाच्च। 136।</span> = <span class="HindiText">पुद्गल तथा जीव भाववाले तथा क्रियावाले हैं। क्योंकि परिणाम द्वारा तथा संघात और भेद के द्वारा वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं। 129। | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/129, 136 </span><span class="SanskritText">भाववंतौ क्रियावंतौ च पुद्गलजीवौ परिणामाद्भेदसंघाताभ्यां चौत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्य-मानत्वात्। 129। पुद्गलस्य बंधहेतुभूतस्निग्धरुक्षगुणधर्मत्वाच्च। 136।</span> = <span class="HindiText">पुद्गल तथा जीव भाववाले तथा क्रियावाले हैं। क्योंकि परिणाम द्वारा तथा संघात और भेद के द्वारा वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं। 129। <span class="GRef">( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/57/9 )</span>; <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/25 )</span>। बंध के हेतुभूत स्निग्ध व रुक्षगुण पुद्गल का धर्म हैं। 136। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong>पुद्गल के प्रदेश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong>पुद्गल के प्रदेश</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> नियमसार/35 </span><span class="SanskritText">संखेज्जासंखेज्जाणंतप्रदेशा हवंति मुत्तस्स। 35। </span>=<span class="HindiText"> पुद्गलों के संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेश हैं। 10। | <span class="GRef"> नियमसार/35 </span><span class="SanskritText">संखेज्जासंखेज्जाणंतप्रदेशा हवंति मुत्तस्स। 35। </span>=<span class="HindiText"> पुद्गलों के संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेश हैं। 10। <span class="GRef">( तत्त्वार्थसूत्र/5/10 )</span>; <span class="GRef">( परमात्मप्रकाश/ </span>मूल/2/24); <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह/25 )</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/135 </span><span class="SanskritText">द्रव्येण प्रदेशमात्रत्वादप्रदेशत्वेऽपि द्विप्रदेशादिसंख्येयासंख्येयानंतप्रदेशपर्यायेणानवधारित- प्रदेशत्वात्पुद्गलस्य।</span> = <span class="HindiText">पुद्गल द्रव्य यद्यपि द्रव्य अपेक्षा से प्रदेशमात्र होने से अप्रदेशी है। तथापि दो प्रदेशों से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेशोंवाली पर्यायों की अपेक्षा से अनिश्चित प्रदेशवाला होने से प्रदेशवान् है। | <span class="GRef"> प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/135 </span><span class="SanskritText">द्रव्येण प्रदेशमात्रत्वादप्रदेशत्वेऽपि द्विप्रदेशादिसंख्येयासंख्येयानंतप्रदेशपर्यायेणानवधारित- प्रदेशत्वात्पुद्गलस्य।</span> = <span class="HindiText">पुद्गल द्रव्य यद्यपि द्रव्य अपेक्षा से प्रदेशमात्र होने से अप्रदेशी है। तथापि दो प्रदेशों से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेशोंवाली पर्यायों की अपेक्षा से अनिश्चित प्रदेशवाला होने से प्रदेशवान् है। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/585/1025 )</span>। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="7" id="7"><strong>शब्दादि पुद्गल द्रव्य की पर्याय हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="7" id="7"><strong>शब्दादि पुद्गल द्रव्य की पर्याय हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/5/24 </span><span class="SanskritText">शब्दबंधसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायाऽऽतपोद्योतवंतश्च। 24। </span>= <span class="HindiText">तथा वे पुद्गल शब्द, बंध, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, संस्थान, भेद, अंधकार, छाया, आतप और उद्योतवाले होते हैं। 24। अर्थात् ये पुद्गल द्रव्य की पर्याय हैं। | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/5/24 </span><span class="SanskritText">शब्दबंधसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायाऽऽतपोद्योतवंतश्च। 24। </span>= <span class="HindiText">तथा वे पुद्गल शब्द, बंध, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, संस्थान, भेद, अंधकार, छाया, आतप और उद्योतवाले होते हैं। 24। अर्थात् ये पुद्गल द्रव्य की पर्याय हैं। <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह/16 )</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/24/24/490/24 </span><span class="SanskritText">स्पर्शादयः परमाणूनां स्कंधानां च भवंति शब्दादयस्तु स्कंधानामेव व्यक्तिरूपेण भवंति। ...सौक्ष्म्यं तु अंत्यमणुष्वेव आपेक्षिकं स्कंधेषु। </span>= <span class="HindiText">स्पर्शादि परमाणुओं के भी होते हैं स्कंधों के भी पर शब्दादि व्यक्त रूप से स्कंधों के ही होते हैं। ...सौक्ष्म्य पर्याय तो अणु में ही होती है, स्कंधों में तो सौक्ष्म्यपना आपेक्षिक है। (और भी देखें [[ स्कंध#1.7 |स्कंध - 1.7 ]])। <br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/5/24/24/490/24 </span><span class="SanskritText">स्पर्शादयः परमाणूनां स्कंधानां च भवंति शब्दादयस्तु स्कंधानामेव व्यक्तिरूपेण भवंति। ...सौक्ष्म्यं तु अंत्यमणुष्वेव आपेक्षिकं स्कंधेषु। </span>= <span class="HindiText">स्पर्शादि परमाणुओं के भी होते हैं स्कंधों के भी पर शब्दादि व्यक्त रूप से स्कंधों के ही होते हैं। ...सौक्ष्म्य पर्याय तो अणु में ही होती है, स्कंधों में तो सौक्ष्म्यपना आपेक्षिक है। (और भी देखें [[ स्कंध#1.7 |स्कंध - 1.7 ]])। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="10" id="10"><strong>पृथिवी जल आदि सभी में सर्वगुणों की सिद्धि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="10" id="10"><strong>पृथिवी जल आदि सभी में सर्वगुणों की सिद्धि</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> प्रवचनसार/132 </span><span class="PrakritGatha">वण्णरसगंधफासा विज्जंते पुग्गलस्स सुहुमादो। पुढवीपरियत्तस्स य सद्दो सो पोग्गलो चित्तो। 132।</span> = <span class="HindiText">वर्ण, रस, गंध और स्पर्श (गुण) सूक्ष्म से लेकर पृथ्वी पर्यंत के (सर्व) पुद्गल के होते हैं, जो विविध प्रकार का शब्द है वह पुद्गल अर्थात् पौद्गलिक पर्याय है। 132। </span><br /> | <span class="GRef"> प्रवचनसार/132 </span><span class="PrakritGatha">वण्णरसगंधफासा विज्जंते पुग्गलस्स सुहुमादो। पुढवीपरियत्तस्स य सद्दो सो पोग्गलो चित्तो। 132।</span> = <span class="HindiText">वर्ण, रस, गंध और स्पर्श (गुण) सूक्ष्म से लेकर पृथ्वी पर्यंत के (सर्व) पुद्गल के होते हैं, जो विविध प्रकार का शब्द है वह पुद्गल अर्थात् पौद्गलिक पर्याय है। 132। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/25/16/493/9 </span><span class="SanskritText">पृथिवी तावत् घटादिलक्षणा स्पर्शादि-शब्दाद्यात्मिका सिद्धा। अंभोऽपि तद्विकारत्वात् तदात्मकम्, साक्षात् गंधोपलब्धेश्च। तत्संयोगिनां पार्थिवद्रव्याणां गंधः तद्गुण इवोपलभ्यत इति चेत्ः नः साध्यत्वात्। तद्वियोगकालादर्शनात् तदविनाभावाच्च तद्गुण एवेति निश्चयः कर्तव्यः-गंधव-दंभः रसवत्त्वात् आम्रफलवत्। तथा तेजोऽपि स्पर्शादिशब्दादि-स्वभावकं तद्वत्कार्यत्वात् घटवत्। स्पर्शादिमतां हि काष्ठादीनां काय तेजः। किंच तत्परिणामात्। उपयुक्तस्य हि आहारस्य स्पर्शादिगुणस्य वातपित्तश्लेष्मविपरिणामः। पित्तं च जठराग्निः, तस्मात् स्पर्शादिमत्तेजः। तथा स्पर्शादिशब्दादिपरिणामो वायुः स्पर्शवत्त्वात् घटादिवत्। किंच, तत्परिणामात्। उपयुक्तस्य हि आहारस्य स्पर्शादिगुणस्य वातपित्तश्लेष्मविपरिणामः। वातश्च प्राणादिः, ततो वायुरपि स्पर्शादिमान् इत्यवसेयः। एतेन ‘चतुस्त्रिद्वयेकगुणाः पृथिव्यादयः पार्थिवादिजातिभिन्नाः’ इति दर्शनं प्रत्युक्तम्। </span>= <span class="HindiText">घट, पट आदि स्पर्शादिमान् पदार्थ पृथिवी हैं। जल भी पुद्गल का विकार होने से पुद्गलात्मक है। उनमें गंध भी पायी जाती है। ‘जल में संयुक्त पार्थिव द्रव्यों की गंध आती है, जल स्वयं निर्गंध है’ यह पक्ष असिद्ध है। क्योंकि कभी भी गंध रहित जल उपलब्ध नहीं होता और न पार्थिव द्रव्यों के संयोग से रहित ही। गंध स्पर्श का अविनाभावी है। अर्थात् पुद्गल का अविनाभावी है। अतः वह जल का गुण है। जल गंधवाला है, क्योंकि वह रसवाला है जैसे कि आम। अग्नि भी स्पर्शादि और शब्दादि स्वभाववाली है क्योंकि वह पृथिवीत्ववाली पृथ्वी का कार्य है जैसे कि घड़ा। स्पर्शादिवाली लकड़ी से अग्नि उत्पन्न होती है यह सर्व विदित है। पुद्गल परिणाम होने से खाये गये स्पर्शादिगुणवाले आहार का वात पित्त और कफरूप से परिणाम होता है। पित्त अर्थात् जठराग्नि। अतः तेज को स्पर्श आदि गुणवाला ही मानना ठीक है। इसी तरह वायु भी स्पर्शादि और शब्दादि पर्यायवाली है, क्योंकि उसमें स्पर्श गुण पाया जाता है जैसे कि घट में। खाये हुए अन्न का वात पित्त श्लेष्म रूप से परिणमन होता है। वात अर्थात् वायु। अतः वायु को भी स्पर्शादिमान मानना चाहिए। इस प्रकार नैयायिकों का यह मत खंडित हो जाता है कि पृथ्वी में चार गुण, जल में गंध रहित तीन गुण, अग्नि में गंध रस रहित दो गुण, तथा वायु में केवल स्पर्श गुण है। | <span class="GRef"> राजवार्तिक/5/25/16/493/9 </span><span class="SanskritText">पृथिवी तावत् घटादिलक्षणा स्पर्शादि-शब्दाद्यात्मिका सिद्धा। अंभोऽपि तद्विकारत्वात् तदात्मकम्, साक्षात् गंधोपलब्धेश्च। तत्संयोगिनां पार्थिवद्रव्याणां गंधः तद्गुण इवोपलभ्यत इति चेत्ः नः साध्यत्वात्। तद्वियोगकालादर्शनात् तदविनाभावाच्च तद्गुण एवेति निश्चयः कर्तव्यः-गंधव-दंभः रसवत्त्वात् आम्रफलवत्। तथा तेजोऽपि स्पर्शादिशब्दादि-स्वभावकं तद्वत्कार्यत्वात् घटवत्। स्पर्शादिमतां हि काष्ठादीनां काय तेजः। किंच तत्परिणामात्। उपयुक्तस्य हि आहारस्य स्पर्शादिगुणस्य वातपित्तश्लेष्मविपरिणामः। पित्तं च जठराग्निः, तस्मात् स्पर्शादिमत्तेजः। तथा स्पर्शादिशब्दादिपरिणामो वायुः स्पर्शवत्त्वात् घटादिवत्। किंच, तत्परिणामात्। उपयुक्तस्य हि आहारस्य स्पर्शादिगुणस्य वातपित्तश्लेष्मविपरिणामः। वातश्च प्राणादिः, ततो वायुरपि स्पर्शादिमान् इत्यवसेयः। एतेन ‘चतुस्त्रिद्वयेकगुणाः पृथिव्यादयः पार्थिवादिजातिभिन्नाः’ इति दर्शनं प्रत्युक्तम्। </span>= <span class="HindiText">घट, पट आदि स्पर्शादिमान् पदार्थ पृथिवी हैं। जल भी पुद्गल का विकार होने से पुद्गलात्मक है। उनमें गंध भी पायी जाती है। ‘जल में संयुक्त पार्थिव द्रव्यों की गंध आती है, जल स्वयं निर्गंध है’ यह पक्ष असिद्ध है। क्योंकि कभी भी गंध रहित जल उपलब्ध नहीं होता और न पार्थिव द्रव्यों के संयोग से रहित ही। गंध स्पर्श का अविनाभावी है। अर्थात् पुद्गल का अविनाभावी है। अतः वह जल का गुण है। जल गंधवाला है, क्योंकि वह रसवाला है जैसे कि आम। अग्नि भी स्पर्शादि और शब्दादि स्वभाववाली है क्योंकि वह पृथिवीत्ववाली पृथ्वी का कार्य है जैसे कि घड़ा। स्पर्शादिवाली लकड़ी से अग्नि उत्पन्न होती है यह सर्व विदित है। पुद्गल परिणाम होने से खाये गये स्पर्शादिगुणवाले आहार का वात पित्त और कफरूप से परिणाम होता है। पित्त अर्थात् जठराग्नि। अतः तेज को स्पर्श आदि गुणवाला ही मानना ठीक है। इसी तरह वायु भी स्पर्शादि और शब्दादि पर्यायवाली है, क्योंकि उसमें स्पर्श गुण पाया जाता है जैसे कि घट में। खाये हुए अन्न का वात पित्त श्लेष्म रूप से परिणमन होता है। वात अर्थात् वायु। अतः वायु को भी स्पर्शादिमान मानना चाहिए। इस प्रकार नैयायिकों का यह मत खंडित हो जाता है कि पृथ्वी में चार गुण, जल में गंध रहित तीन गुण, अग्नि में गंध रस रहित दो गुण, तथा वायु में केवल स्पर्श गुण है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/2/20/4/133/17 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/5/3/3/442/6 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/5/23/3/484/20 )</span>। </span><br /> | ||
प्रवचनसार/तत्त्वप्रदीपिका/132 <span class="SanskritText">सर्वपुद्गलानां स्पर्शादिचंतुष्कोपेतत्वाभ्युपगमात्। व्यक्तस्पर्शादिचतुष्कानां च चंद्रकांतारणियवाना-मारंभकैरेव पुद्गलैरव्यक्तगनधाव्यक्तगंधरसाव्यक्तगंधरसवर्णानामब्ज्योतिरुदरमरुता-मारंभदर्शनात्।</span> = <span class="HindiText">सभी पुद्गल स्पर्शादि चतुष्क युक्त स्वीकार किये गये हैं क्योंकि जिनके स्पर्शादि चतुष्क व्यक्त हैं ऐसे चंद्रकांत मणि को, अरणिको और जौ को पुद्गल उत्पन्न करते हैं; उन्हीं के द्वारा जिसकी गंध अव्यक्त है ऐसे पानी की, जिसकी गंध तथा रस अव्यक्त है ऐसी अग्नि की, और जिसकी गंध, रस तथा वर्ण अव्यक्त है ऐसी उदर वायु की उत्पत्ति होती देखी जाती है। <br /> | प्रवचनसार/तत्त्वप्रदीपिका/132 <span class="SanskritText">सर्वपुद्गलानां स्पर्शादिचंतुष्कोपेतत्वाभ्युपगमात्। व्यक्तस्पर्शादिचतुष्कानां च चंद्रकांतारणियवाना-मारंभकैरेव पुद्गलैरव्यक्तगनधाव्यक्तगंधरसाव्यक्तगंधरसवर्णानामब्ज्योतिरुदरमरुता-मारंभदर्शनात्।</span> = <span class="HindiText">सभी पुद्गल स्पर्शादि चतुष्क युक्त स्वीकार किये गये हैं क्योंकि जिनके स्पर्शादि चतुष्क व्यक्त हैं ऐसे चंद्रकांत मणि को, अरणिको और जौ को पुद्गल उत्पन्न करते हैं; उन्हीं के द्वारा जिसकी गंध अव्यक्त है ऐसे पानी की, जिसकी गंध तथा रस अव्यक्त है ऐसी अग्नि की, और जिसकी गंध, रस तथा वर्ण अव्यक्त है ऐसी उदर वायु की उत्पत्ति होती देखी जाती है। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>पुद्गल अनंत व क्रियावान है। - </strong>देखें [[ द्रव्य ]]। <br /> | <li class="HindiText"><strong>पुद्गल अनंत व क्रियावान है। - </strong>देखें [[ द्रव्य ]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong>अनंतों पुद्गलों का लोक में अवस्थान व अवगाह। -</strong> देखें [[ आकाश#3. | <li class="HindiText"><strong>अनंतों पुद्गलों का लोक में अवस्थान व अवगाह। -</strong> देखें [[ आकाश#3.2 | आकाश - 3.2]]। <br /> | ||
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<div class="HindiText"> <p> उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त द्रव्य । यह मूर्तिक जड़ पदार्थ वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त एक द्रव्य है । इसके दो भेद होते हैं― स्कंध और अणु । इस द्रव्य का विस्तार दो परमाणु वाले द्वयणुक स्कंध से लेकर अनंतानंत परमाणु वाले महास्कंध तक होता है । इसके छ: भेद हैं― सूक्ष्मसूक्ष्म, सूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, स्थूल सूक्ष्म, स्थूल और स्थूल स्थूल । अदृश्य और अस्पृश्य रहने वाला अणु सूक्ष्म-सूक्ष्म है । अनंत प्रदेशों के समुदाय रूप होने से कर्म-स्कंध सूक्ष्म पुद्गल कहलाते हैं । शब्द, स्पर्श, रस और गंध सूक्ष्मस्थूल हैं, क्योंकि चक्षु इंद्रिय के द्वारा इनका ज्ञान नहीं होता इसलिए तो ये सूक्ष्म है और कर्ण आदि इंद्रियों द्वारा ग्रहण हो जाने से ये स्थूल है । छाया, चाँदनी और आतप स्थूल सूक्ष्म है क्योंकि चक्षु इंद्रिय द्वारा दिखायी देने के कारण ये स्थूल है और विघात रहित होने के कारण सूक्ष्म हैं अंत: ये स्थूलसूक्ष्म है । पानी आदि तरल पदार्थ जो पृथक् करने पर मिल जाते हैं, स्थूल है । पृथिवी आदि स्कंध भेद किये जाने पर फिर नहीं मिलते इसलिये स्थूल-स्थूल है । <span class="GRef"> महापुराण 24.144-153, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.108,58. 55, 4.3 </span>शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छ्वास और पाँच इंद्रियां आदि सब इसी की पर्याय है । एक अणु से शरीर की रचना नहीं होती, किंतु अणुओं के समूह से शरीर बनता है । इसकी गति और स्थिति में क्रमश: धर्म और अधर्म द्रव्य सहकारी होते हैं । <span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.126-130 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त द्रव्य । यह मूर्तिक जड़ पदार्थ वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त एक द्रव्य है । इसके दो भेद होते हैं― स्कंध और अणु । इस द्रव्य का विस्तार दो परमाणु वाले द्वयणुक स्कंध से लेकर अनंतानंत परमाणु वाले महास्कंध तक होता है । इसके छ: भेद हैं― सूक्ष्मसूक्ष्म, सूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, स्थूल सूक्ष्म, स्थूल और स्थूल स्थूल । अदृश्य और अस्पृश्य रहने वाला अणु सूक्ष्म-सूक्ष्म है । अनंत प्रदेशों के समुदाय रूप होने से कर्म-स्कंध सूक्ष्म पुद्गल कहलाते हैं । शब्द, स्पर्श, रस और गंध सूक्ष्मस्थूल हैं, क्योंकि चक्षु इंद्रिय के द्वारा इनका ज्ञान नहीं होता इसलिए तो ये सूक्ष्म है और कर्ण आदि इंद्रियों द्वारा ग्रहण हो जाने से ये स्थूल है । छाया, चाँदनी और आतप स्थूल सूक्ष्म है क्योंकि चक्षु इंद्रिय द्वारा दिखायी देने के कारण ये स्थूल है और विघात रहित होने के कारण सूक्ष्म हैं अंत: ये स्थूलसूक्ष्म है । पानी आदि तरल पदार्थ जो पृथक् करने पर मिल जाते हैं, स्थूल है । पृथिवी आदि स्कंध भेद किये जाने पर फिर नहीं मिलते इसलिये स्थूल-स्थूल है । <span class="GRef"> महापुराण 24.144-153, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_2#108|हरिवंशपुराण - 2.108]],58. 55, 4.3 </span>शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छ्वास और पाँच इंद्रियां आदि सब इसी की पर्याय है । एक अणु से शरीर की रचना नहीं होती, किंतु अणुओं के समूह से शरीर बनता है । इसकी गति और स्थिति में क्रमश: धर्म और अधर्म द्रव्य सहकारी होते हैं । <span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.126-130 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:15, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
जो एक दूसरे के साथ मिलकर बिछुड़ता रहे, ऐसा पूरण-गलन स्वभावी मूर्तीक जड़ पदार्थ ‘पुद्गल’ ऐसी अन्वर्थ संज्ञा को प्राप्त होता है। तहाँ भी मूलभूत पुद्गल पदार्थ तो अविभागी परमाणु ही है। उनके परस्पर बंध से ही जगत् के चित्र विचित्र पदार्थों का निर्माण होता है, जो स्कंध कहलाते हैं। स्पर्श, रस, गंध, वर्ण ये पुद्गल के प्रसिद्ध गुण हैं।
- पुद्गल सामान्य का लक्षण
- निरुक्तयर्थ
राजवार्तिक/5/1/24,26/434/12 पूरणगलनान्वर्थसंज्ञत्वात् पुद्गलाः। 24। भेदसंघाताम्यां च पूर्यंते गलंते चेति पूरणगलनात्मिकां क्रियामंतर्भाव्य पुद्गलशब्दोऽन्वर्थ:....पुद्गलानाद्वा। 26। अथवा पुमांसो जीवाः, तैः शरीराहार-विषयकरणोपकरणादिभावेन गिल्यंत इति पुद्गलाः। = भेद और संघात से पूरण और गलन को प्राप्त हों वे पुद्गल हैं यह पुद्गल द्रव्य की अन्वयर्थ संज्ञा है। 24। अथवा पुरुष यानी जीव जिनको शरीर, आहार विषय और इंद्रिय-उपकरण आदि के रूप में निगलें अर्थात् ग्रहण करें वे पुद्गल हैं। 26।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/9 गलनपूरणस्वभावसनाथः पुद्गलः। = जो गलन-पूरण स्वभाव सहित है, वह पुद्गल है। ( द्रव्यसंग्रह टीका/15/50/12 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/26/74/1 )।
- गुणों की अपेक्षा
तत्त्वार्थसूत्र/5/23 स्पर्शरसगंधवर्णवंतः पुद्गलाः। 23। = स्पर्श, रस, गंध और वर्ण वाले पुद्गल होते हैं।
- निरुक्तयर्थ
- पुद्गल के भेद
- अणु व स्कंध
तत्त्वार्थसूत्र/5/25 अणवः स्कंधाश्च। 25। = पुद्गल के दो भेद हैं - अणु और स्कंध।
- स्वभाव व विभाव
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/20 पुद्गलद्रव्यं तावद् विकल्पद्वयसनाथम्। स्वभाव-पुद्गलो विभावपुद्गलश्चेति। = पुद्गल द्रव्य के दो भेद हैं - स्वभाव-पुद्गल और विभाव पुद्ल।
- देश प्रदेशादि चार भेद - देखें स्कंध - 1.2।
- अणु व स्कंध
- स्वभाव विभाव पद्गल के लक्षण
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/ तत्र स्वभावपुद्गलः परमाणुः विभावपुद्गलः स्कंधः। = उनमें, परमाणु वह स्वभावपुद्गल है और स्कंध वह विभाव पुद्गल है।
- पुद्गल के 21 सामान्य विशेष स्वभाव
आलापपद्धति/4 स्वभावाः कथ्यंते। अस्ति स्वभावः नास्तिस्वभावः नित्यस्वभावः अनित्यस्वभावः एकस्वभावः अनेकस्वभावः भेदस्वभावः अभेदस्वभावः भव्यस्वभावः अभव्यस्वभावः परमस्वभावः द्रव्याणामेकादशसामान्य-स्वभावाः। चेतनस्वभावः, अचेतनस्वभावः मूर्त्तस्वभावः अमूर्तस्वभावः एकप्रदेशस्वभावः अनेकप्रदेशस्वभावः विभावस्वभावः शुद्धस्वभावः अशुद्धस्वभावः उपचरितस्वभावः एते द्रव्याणां दश विशेषस्वभावाः। जीवपुद्गलयोरेकविंशतिः। = स्वभावों को कहते हैं।- अस्तिस्वभाव,
- नास्तिस्वभाव,
- नित्यस्वभाव,
- अनित्यस्वभाव,
- एकस्वभाव,
- अनेकस्वभाव,
- भेदस्वभाव,
- अभेदस्वभाव,
- भव्य-स्वभाव,
- अभव्यस्वभाव, और
- परमस्वभाव, ये द्रव्यों के 11 सामान्य स्वभाव हैं।
- चेतनस्वभाव,
- अचेतनस्वभाव,
- मूर्तस्वभाव,
- अमूर्तस्वभाव,
- एकप्रदेशस्वभाव,
- अनेकप्रदेशस्वभाव,
- विभावस्वभाव,
- शुद्धस्वभाव,
- अशुद्धस्वभाव, और
- उपचरितस्वभाव। (तथा
- अनुपचरितस्वभाव,
- एकांतस्वभाव, और
- अनेकांत स्वभाव ( नयचक्र बृहद्/70 की टीका) ये द्रव्यों के विशेष स्वभाव हैं। उपरोक्त कुल 24 स्वभावों में से अमूर्त, चैतन्य व अभव्य स्वभाव से रहित पुद्गल के 21 सामान्य विशेष स्वभाव हैं ( नयचक्र बृहद्/70 )।
- पुद्गल द्रव्य के विशेष गुण
तत्त्वार्थसूत्र/5/23 स्पर्शरसगंधवर्णवंतः पुद्गलाः। 23। = पुद्गल स्पर्श, रस, गंध और वर्णवाले होते हैं। ( नयचक्र बृहद्/13 ); ( धवला 15/33/6 ); ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/132 )।
नयचक्र बृहद्/14 वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णायव्वा। 14। = पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध और आठ स्पर्श ये पुद्गल के विशेष गुण हैं।
आलापपद्धति/2 पुद्गलस्य स्पर्शरसगंधवर्णाः मूर्त्तत्वमचेतनत्वमिति षट्। = पुद्ल द्रव्य के स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, मूर्तत्व और अचेतनत्व, ये छह विशेष गुण हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/129, 136 भाववंतौ क्रियावंतौ च पुद्गलजीवौ परिणामाद्भेदसंघाताभ्यां चौत्पद्यमानावतिष्ठमानभज्य-मानत्वात्। 129। पुद्गलस्य बंधहेतुभूतस्निग्धरुक्षगुणधर्मत्वाच्च। 136। = पुद्गल तथा जीव भाववाले तथा क्रियावाले हैं। क्योंकि परिणाम द्वारा तथा संघात और भेद के द्वारा वे उत्पन्न होते हैं, टिकते हैं और नष्ट होते हैं। 129। ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/27/57/9 ); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/25 )। बंध के हेतुभूत स्निग्ध व रुक्षगुण पुद्गल का धर्म हैं। 136।
- पुद्गल के प्रदेश
नियमसार/35 संखेज्जासंखेज्जाणंतप्रदेशा हवंति मुत्तस्स। 35। = पुद्गलों के संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेश हैं। 10। ( तत्त्वार्थसूत्र/5/10 ); ( परमात्मप्रकाश/ मूल/2/24); ( द्रव्यसंग्रह/25 )।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/135 द्रव्येण प्रदेशमात्रत्वादप्रदेशत्वेऽपि द्विप्रदेशादिसंख्येयासंख्येयानंतप्रदेशपर्यायेणानवधारित- प्रदेशत्वात्पुद्गलस्य। = पुद्गल द्रव्य यद्यपि द्रव्य अपेक्षा से प्रदेशमात्र होने से अप्रदेशी है। तथापि दो प्रदेशों से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेशोंवाली पर्यायों की अपेक्षा से अनिश्चित प्रदेशवाला होने से प्रदेशवान् है। ( गोम्मटसार जीवकांड/585/1025 )।
- शब्दादि पुद्गल द्रव्य की पर्याय हैं
तत्त्वार्थसूत्र/5/24 शब्दबंधसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायाऽऽतपोद्योतवंतश्च। 24। = तथा वे पुद्गल शब्द, बंध, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, संस्थान, भेद, अंधकार, छाया, आतप और उद्योतवाले होते हैं। 24। अर्थात् ये पुद्गल द्रव्य की पर्याय हैं। ( द्रव्यसंग्रह/16 )।
राजवार्तिक/5/24/24/490/24 स्पर्शादयः परमाणूनां स्कंधानां च भवंति शब्दादयस्तु स्कंधानामेव व्यक्तिरूपेण भवंति। ...सौक्ष्म्यं तु अंत्यमणुष्वेव आपेक्षिकं स्कंधेषु। = स्पर्शादि परमाणुओं के भी होते हैं स्कंधों के भी पर शब्दादि व्यक्त रूप से स्कंधों के ही होते हैं। ...सौक्ष्म्य पर्याय तो अणु में ही होती है, स्कंधों में तो सौक्ष्म्यपना आपेक्षिक है। (और भी देखें स्कंध - 1.7 )।
- शरीरादि पुद्गल के उपकार हैं
तत्त्वार्थसूत्र/5/19-20 शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलनाम्। 19। सुख-दुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च। 20।
सर्वार्थसिद्धि/5/20/289/2 एतानि सुखादीनि जीवस्य पुद्गलकृत उपकारः, मूर्तिमद्धेतुसंनिधाने सति तदुत्पत्तेः। = शरीर, वचन, मन और प्राणापन यह पुद्गलों का उपकार है। 19। सुख, दुख, जीवन और मरण ये भी पुद्गलों के उपकार हैं। 20। ये सुखादि जीव के पुद्गलकृत उपकार हैं, क्योंकि मूर्त कारणों के रहने पर ही इनकी उत्पत्ति होती है।
- पुद्गल में अनंत शक्ति है
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/925 नैवं यवोऽनभिज्ञोऽसि पुद्गलाचिंत्यशक्तिषु। प्रतिकर्म प्रकृता यैर्नानारूपासु वस्तुतः। 925। = इस प्रकार कथन ठीक नहीं है क्योंकि वास्तव में प्रत्येक कर्म की प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग के द्वारा अनेक रूप पुद्गलों की अचिंत्य शक्तियों के विषय में तुम अनभिज्ञ हो। 925।
- पृथिवी जल आदि सभी में सर्वगुणों की सिद्धि
प्रवचनसार/132 वण्णरसगंधफासा विज्जंते पुग्गलस्स सुहुमादो। पुढवीपरियत्तस्स य सद्दो सो पोग्गलो चित्तो। 132। = वर्ण, रस, गंध और स्पर्श (गुण) सूक्ष्म से लेकर पृथ्वी पर्यंत के (सर्व) पुद्गल के होते हैं, जो विविध प्रकार का शब्द है वह पुद्गल अर्थात् पौद्गलिक पर्याय है। 132।
राजवार्तिक/5/25/16/493/9 पृथिवी तावत् घटादिलक्षणा स्पर्शादि-शब्दाद्यात्मिका सिद्धा। अंभोऽपि तद्विकारत्वात् तदात्मकम्, साक्षात् गंधोपलब्धेश्च। तत्संयोगिनां पार्थिवद्रव्याणां गंधः तद्गुण इवोपलभ्यत इति चेत्ः नः साध्यत्वात्। तद्वियोगकालादर्शनात् तदविनाभावाच्च तद्गुण एवेति निश्चयः कर्तव्यः-गंधव-दंभः रसवत्त्वात् आम्रफलवत्। तथा तेजोऽपि स्पर्शादिशब्दादि-स्वभावकं तद्वत्कार्यत्वात् घटवत्। स्पर्शादिमतां हि काष्ठादीनां काय तेजः। किंच तत्परिणामात्। उपयुक्तस्य हि आहारस्य स्पर्शादिगुणस्य वातपित्तश्लेष्मविपरिणामः। पित्तं च जठराग्निः, तस्मात् स्पर्शादिमत्तेजः। तथा स्पर्शादिशब्दादिपरिणामो वायुः स्पर्शवत्त्वात् घटादिवत्। किंच, तत्परिणामात्। उपयुक्तस्य हि आहारस्य स्पर्शादिगुणस्य वातपित्तश्लेष्मविपरिणामः। वातश्च प्राणादिः, ततो वायुरपि स्पर्शादिमान् इत्यवसेयः। एतेन ‘चतुस्त्रिद्वयेकगुणाः पृथिव्यादयः पार्थिवादिजातिभिन्नाः’ इति दर्शनं प्रत्युक्तम्। = घट, पट आदि स्पर्शादिमान् पदार्थ पृथिवी हैं। जल भी पुद्गल का विकार होने से पुद्गलात्मक है। उनमें गंध भी पायी जाती है। ‘जल में संयुक्त पार्थिव द्रव्यों की गंध आती है, जल स्वयं निर्गंध है’ यह पक्ष असिद्ध है। क्योंकि कभी भी गंध रहित जल उपलब्ध नहीं होता और न पार्थिव द्रव्यों के संयोग से रहित ही। गंध स्पर्श का अविनाभावी है। अर्थात् पुद्गल का अविनाभावी है। अतः वह जल का गुण है। जल गंधवाला है, क्योंकि वह रसवाला है जैसे कि आम। अग्नि भी स्पर्शादि और शब्दादि स्वभाववाली है क्योंकि वह पृथिवीत्ववाली पृथ्वी का कार्य है जैसे कि घड़ा। स्पर्शादिवाली लकड़ी से अग्नि उत्पन्न होती है यह सर्व विदित है। पुद्गल परिणाम होने से खाये गये स्पर्शादिगुणवाले आहार का वात पित्त और कफरूप से परिणाम होता है। पित्त अर्थात् जठराग्नि। अतः तेज को स्पर्श आदि गुणवाला ही मानना ठीक है। इसी तरह वायु भी स्पर्शादि और शब्दादि पर्यायवाली है, क्योंकि उसमें स्पर्श गुण पाया जाता है जैसे कि घट में। खाये हुए अन्न का वात पित्त श्लेष्म रूप से परिणमन होता है। वात अर्थात् वायु। अतः वायु को भी स्पर्शादिमान मानना चाहिए। इस प्रकार नैयायिकों का यह मत खंडित हो जाता है कि पृथ्वी में चार गुण, जल में गंध रहित तीन गुण, अग्नि में गंध रस रहित दो गुण, तथा वायु में केवल स्पर्श गुण है। ( राजवार्तिक/2/20/4/133/17 ); ( राजवार्तिक/5/3/3/442/6 ); ( राजवार्तिक/5/23/3/484/20 )।
प्रवचनसार/तत्त्वप्रदीपिका/132 सर्वपुद्गलानां स्पर्शादिचंतुष्कोपेतत्वाभ्युपगमात्। व्यक्तस्पर्शादिचतुष्कानां च चंद्रकांतारणियवाना-मारंभकैरेव पुद्गलैरव्यक्तगनधाव्यक्तगंधरसाव्यक्तगंधरसवर्णानामब्ज्योतिरुदरमरुता-मारंभदर्शनात्। = सभी पुद्गल स्पर्शादि चतुष्क युक्त स्वीकार किये गये हैं क्योंकि जिनके स्पर्शादि चतुष्क व्यक्त हैं ऐसे चंद्रकांत मणि को, अरणिको और जौ को पुद्गल उत्पन्न करते हैं; उन्हीं के द्वारा जिसकी गंध अव्यक्त है ऐसे पानी की, जिसकी गंध तथा रस अव्यक्त है ऐसी अग्नि की, और जिसकी गंध, रस तथा वर्ण अव्यक्त है ऐसी उदर वायु की उत्पत्ति होती देखी जाती है।
- अन्य संबंधित विषय
- पुद्गल का स्वपर के साथ उपकार्य उपकारक भाव। - देखें कारण - III.1।
- पुद्गल द्रव्य का अस्तिकायपना। - देखें अस्तिकाय ।
- वास्तव में परमाणु ही पुद्गल द्रव्य है। - देखें परमाणु - 2.1।
- पुद्गल मूर्त है। - देखें मूर्त - 4।
- पुद्गल अनंत व क्रियावान है। - देखें द्रव्य ।
- अनंतों पुद्गलों का लोक में अवस्थान व अवगाह। - देखें आकाश - 3.2।
- पुद्गल की स्वभाव व विभाव गति। - देखें गति - 1.6।
- पुद्गल में स्वभाव व विभाव दोनों पर्यायों की संभावना। - देखें पर्याय - 3।
- पुद्गल के सर्वगुणों का परिणमन स्व जाति को उल्लंघन नहीं कर सकता। - देखें गुण - 2।
- संसारी जीव व उसके भाव भी पुद्गल कहे जाते हैं। - देखें मूर्त - 10 ।
- जीव को कथंचित् पुद्गल व्यपदेश। - देखें जीव - 1.3।
- पुद्गल विपाकी कर्म प्रकृतियाँ। - देखें प्रकृति बंध - 2.2।
- द्रव्यभावकर्म, कार्मणशरीर, द्रव्यभाव मन, व वचन में पुद्गलपना। - देखें मूर्त - 5 मूर्त - 6 मूर्त - 7।
- पुद्गल का स्वपर के साथ उपकार्य उपकारक भाव। - देखें कारण - III.1।
पुराणकोष से
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त द्रव्य । यह मूर्तिक जड़ पदार्थ वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त एक द्रव्य है । इसके दो भेद होते हैं― स्कंध और अणु । इस द्रव्य का विस्तार दो परमाणु वाले द्वयणुक स्कंध से लेकर अनंतानंत परमाणु वाले महास्कंध तक होता है । इसके छ: भेद हैं― सूक्ष्मसूक्ष्म, सूक्ष्म, सूक्ष्मस्थूल, स्थूल सूक्ष्म, स्थूल और स्थूल स्थूल । अदृश्य और अस्पृश्य रहने वाला अणु सूक्ष्म-सूक्ष्म है । अनंत प्रदेशों के समुदाय रूप होने से कर्म-स्कंध सूक्ष्म पुद्गल कहलाते हैं । शब्द, स्पर्श, रस और गंध सूक्ष्मस्थूल हैं, क्योंकि चक्षु इंद्रिय के द्वारा इनका ज्ञान नहीं होता इसलिए तो ये सूक्ष्म है और कर्ण आदि इंद्रियों द्वारा ग्रहण हो जाने से ये स्थूल है । छाया, चाँदनी और आतप स्थूल सूक्ष्म है क्योंकि चक्षु इंद्रिय द्वारा दिखायी देने के कारण ये स्थूल है और विघात रहित होने के कारण सूक्ष्म हैं अंत: ये स्थूलसूक्ष्म है । पानी आदि तरल पदार्थ जो पृथक् करने पर मिल जाते हैं, स्थूल है । पृथिवी आदि स्कंध भेद किये जाने पर फिर नहीं मिलते इसलिये स्थूल-स्थूल है । महापुराण 24.144-153, हरिवंशपुराण - 2.108,58. 55, 4.3 शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छ्वास और पाँच इंद्रियां आदि सब इसी की पर्याय है । एक अणु से शरीर की रचना नहीं होती, किंतु अणुओं के समूह से शरीर बनता है । इसकी गति और स्थिति में क्रमश: धर्म और अधर्म द्रव्य सहकारी होते हैं । वीरवर्द्धमान चरित्र 16.126-130