निषीधिका: Difference between revisions
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<p><span class="GRef"> भगवती आराधना/1967-1970/1735 </span><span class="SanskritText">समणाणं ठिदिकप्पो वासावासे तहेव उड्ढबंधे। पडिलिहिदव्वा णियमा णिसीहिया सव्वसाधूहिं।1967। एगंता सालोगा णादिविकिट्ठा ण चावि आसण्णा। वित्थिण्णा विद्धत्ता णिसीहिया दूरमागाढा।1968। अभिसुआ असुसिरा अघसा अज्जीवा बहुसमा य असिणिद्धा। णिज्जंतुगा अहरिदा अविला य तहा अणाबाधा।1969। जा अवरदक्खिणाए व दक्खिणाए व अध व अवराए। वसधीदो वण्णिजजदि णिसीधिया सा पसत्थत्ति।1970। <span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/143/326/1 </span>णिसिहीओ निषिधीर्योगिवृत्तिर्यस्यां भूमौ सा निषिधी इत्युच्यते।</span>=<span class="HindiText">अर्हदादिकों के व मुनिराज के समाधिस्थान को निषिद्धिका या निषीधिका कहते हैं <span class="GRef">( भगवती आराधना / विजयोदया टीका )</span>। चातुर्मासिकयोग के प्रारंभकाल में तथा ऋतु प्रारंभ में निषीधिका की प्रतिलेखना सर्व साधुओं को नियम से करने चाहिए, अर्थात् उस स्थान का दर्शन करना तथा उसे पीछी से साफ करना चाहिए। ऐसा यह मुनियों का स्थित कल्प है।1967। वह निषीधिका एकांत प्रदेश में, अन्य जनों को दीख न पड़े ऐसे प्रदेश में हो। प्रकाश सहित हो। वह नगर आदिकों से अतिदूर न हो। न अति समीप भी हो। वह टूटी हुर्इ, विध्वस्त की गयी ऐसी न हो। वह विस्तीर्ण प्रासुक और दृढ़ होनी चाहिए।1968। वह निषीधिका चींटियों से रहित हो, छिद्रों से रहित हो, घिसी हुई न हो, प्रकाश सहित हो, समान भूमि में स्थित हो, निर्जंतुक व बाधारहित हो, गीली तथा इधर-उधर हिलने वाली न हो। वह निषीधिका क्षपक की वसतिका से नैऋत दिशा में, दक्षिण दिशा में अथवा पश्चिम दिशा में होनी चाहिए। इन्हीं दिशाओं में निषीधिका की रचना करना पूर्व आचार्यों ने प्रशस्त माना है।1967-1970।</span></p> | |||
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<li class="HindiText"><strong> निषीधिका की दिशाओं पर से शुभाशुभ फल विचार–देखें [[ सल्लेखना#6.3 | सल्लेखना - 6.3]]।</strong></li> | |||
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Latest revision as of 22:21, 17 November 2023
भगवती आराधना/1967-1970/1735 समणाणं ठिदिकप्पो वासावासे तहेव उड्ढबंधे। पडिलिहिदव्वा णियमा णिसीहिया सव्वसाधूहिं।1967। एगंता सालोगा णादिविकिट्ठा ण चावि आसण्णा। वित्थिण्णा विद्धत्ता णिसीहिया दूरमागाढा।1968। अभिसुआ असुसिरा अघसा अज्जीवा बहुसमा य असिणिद्धा। णिज्जंतुगा अहरिदा अविला य तहा अणाबाधा।1969। जा अवरदक्खिणाए व दक्खिणाए व अध व अवराए। वसधीदो वण्णिजजदि णिसीधिया सा पसत्थत्ति।1970। भगवती आराधना / विजयोदया टीका/143/326/1 णिसिहीओ निषिधीर्योगिवृत्तिर्यस्यां भूमौ सा निषिधी इत्युच्यते।=अर्हदादिकों के व मुनिराज के समाधिस्थान को निषिद्धिका या निषीधिका कहते हैं ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका )। चातुर्मासिकयोग के प्रारंभकाल में तथा ऋतु प्रारंभ में निषीधिका की प्रतिलेखना सर्व साधुओं को नियम से करने चाहिए, अर्थात् उस स्थान का दर्शन करना तथा उसे पीछी से साफ करना चाहिए। ऐसा यह मुनियों का स्थित कल्प है।1967। वह निषीधिका एकांत प्रदेश में, अन्य जनों को दीख न पड़े ऐसे प्रदेश में हो। प्रकाश सहित हो। वह नगर आदिकों से अतिदूर न हो। न अति समीप भी हो। वह टूटी हुर्इ, विध्वस्त की गयी ऐसी न हो। वह विस्तीर्ण प्रासुक और दृढ़ होनी चाहिए।1968। वह निषीधिका चींटियों से रहित हो, छिद्रों से रहित हो, घिसी हुई न हो, प्रकाश सहित हो, समान भूमि में स्थित हो, निर्जंतुक व बाधारहित हो, गीली तथा इधर-उधर हिलने वाली न हो। वह निषीधिका क्षपक की वसतिका से नैऋत दिशा में, दक्षिण दिशा में अथवा पश्चिम दिशा में होनी चाहिए। इन्हीं दिशाओं में निषीधिका की रचना करना पूर्व आचार्यों ने प्रशस्त माना है।1967-1970।
- निषीधिका की दिशाओं पर से शुभाशुभ फल विचार–देखें सल्लेखना - 6.3।