अतिक्रम: Difference between revisions
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<span class="GRef">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 30 में उद्धृत </span><p class="SanskritText">"अतिक्रमो मानसशुद्धिहानिः व्यतिक्रमो यो विषयाभिलाषः। तथातिचार करणालसत्वं भंगो ह्यना चारमिह व्रतानाम्।" </p> | <span class="GRef">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 30 में उद्धृत </span><p class="SanskritText">"अतिक्रमो मानसशुद्धिहानिः व्यतिक्रमो यो विषयाभिलाषः। तथातिचार करणालसत्वं भंगो ह्यना चारमिह व्रतानाम्।" </p> | ||
<p class="HindiText">= मन की शुद्धि में हानि होना सो अतिक्रम है, विषयों की अभिलाषा सो व्यतिक्रम है, इंद्रियों की असावधानी अर्थात् व्रतों में शिथिलता सो अतिचार है और व्रत का सर्वथा भंग हो जाना सो अनाचार है। </p> | <p class="HindiText">= मन की शुद्धि में हानि होना सो अतिक्रम है, विषयों की अभिलाषा सो व्यतिक्रम है, इंद्रियों की असावधानी अर्थात् व्रतों में शिथिलता सो अतिचार है और व्रत का सर्वथा भंग हो जाना सो अनाचार है। </p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef">(अमितगति सामायिक पाठ श्लोक 9)</span></p> | ||
Latest revision as of 22:14, 17 November 2023
राजवार्तिक अध्याय 7/23,3/552/19
अतिचारः अतिक्रम इत्यनर्थांतरम्।
= अतिक्रम भी अतिचार का ही दूसरा नाम है।
राजवार्तिक अध्याय 7/27, 3/554/11
उचितान्न्याय्याद् अन्येन प्रकारेण दानग्रहणमतिक्रम इत्युच्यते।
= उचित न्याय्य भाग से अधिक भाग दूसरे उपायों से ग्रहण करना अतिक्रम है। (यह लक्षण अस्तेय के अतिचारों के अंतर्गत ग्रहण किया गया है।)
राजवार्तिक अध्याय 7/30, 1/555/16
परिमितस्य दिगवधेरतिलंघनमतिक्रम इत्युच्यते।
= दिशाओं की परिमित मर्यादा का उल्लंघन करना (दिग्व्रत का) अतिक्रम है।
राजवार्तिक अध्याय 7/31,6/556/12
स्वयमनतिक्रमन् अन्येनातिक्रामयति ततोऽतिक्रम इति व्यपदिश्यते।
= स्वयं मर्यादा का उल्लंघन न करके दूसरे से करवाता है। अतः उनको (आनयन आदि को देशव्रत को) `अतिक्रम' ऐसा कहते हैं।
राजवार्तिक अध्याय 736,5/558/28
अकाले भोजनं कालातिक्रमः।5। अनगाराणाम् अयोग्यकाले भोजनं कालातिक्रम इति कथ्यते।
= साधुओं को भिक्षा काल को टालकर अयोग्य काल में भोजन देने का भाव करना अतिथि संविभाग व्रत में काल का अतिक्रम कहलाता है।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 30 में उद्धृत
"अतिक्रमो मानसशुद्धिहानिः व्यतिक्रमो यो विषयाभिलाषः। तथातिचार करणालसत्वं भंगो ह्यना चारमिह व्रतानाम्।"
= मन की शुद्धि में हानि होना सो अतिक्रम है, विषयों की अभिलाषा सो व्यतिक्रम है, इंद्रियों की असावधानी अर्थात् व्रतों में शिथिलता सो अतिचार है और व्रत का सर्वथा भंग हो जाना सो अनाचार है।
(अमितगति सामायिक पाठ श्लोक 9)