असंयतसम्यग्दृष्टि: Difference between revisions
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<p class=HindiText> अन्य परिभाषाओं और सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में विशेष जानकारी हेतु देखें [[ सम्यग्दर्शन ]]।</p> | <p class=HindiText> अन्य परिभाषाओं और सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में विशेष जानकारी हेतु देखें [[ सम्यग्दर्शन ]]।</p> | ||
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<div class="HindiText"> <p> चौथा गुणस्थान । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 3.80 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> चौथा गुणस्थान । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#80|हरिवंशपुराण - 3.80]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 14:40, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
पंचसंग्रह / प्राकृत/11 णो इंदियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे चावि। जो सद्दहइ जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो।11। =जो पाँचों इंद्रियों के विषयों में विरत नहीं है और न त्रस तथा स्थावर जीवों के घात से ही विरक्त है, किंतु केवल जिनोक्त तत्त्व का श्रद्धान करता है, वह चतुर्थगुणस्थानवर्ती अविरत या असंयत सम्यग्दृष्टि है।11। ( धवला 1/1,1,12/गा.111/173 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/29/58 ); (अधिक जानकारी हेतु देखें असंयम )
अन्य परिभाषाओं और सम्यग्दर्शन के सम्बन्ध में विशेष जानकारी हेतु देखें सम्यग्दर्शन ।
पुराणकोष से
चौथा गुणस्थान । हरिवंशपुराण - 3.80