क्षपकश्रेणी: Difference between revisions
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<p><span class="GRef"> धवला 1/1,1,16/182/6 </span><span class="SanskritText">सम्यक्त्वापेक्षया तु क्षपकस्य क्षायिको वा भाव: दर्शनमोहनीयक्षयमविधाय क्षपकश्रेण्यारोहणानुपपत्ते:।</span> =<span class="HindiText">सम्यक्दर्शन की अपेक्षा तो क्षपक के क्षायिकभाव होता है, क्योंकि, जिसने दर्शनमोहनीय का क्षय नहीं किया है वह क्षपक श्रेणी पर नहीं चढ़ सकता है। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,18/188/2 )</span>।</span></p> | |||
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<span class="HindiText"> मुक्ति सोपान । इस पर आरूढ़ वे जीव होते हैं जो उत्कृष्ट विशुद्धि को प्राप्त होकर अप्रमत्त रहते हैं तथा कर्म प्रकृतियों में क्षोभ उत्पन्न करके उन्हें योगबल से मूलोच्छिन्न कर देते हैं । ऐसा जीव अप्रवृत्तकरण (अध:प्रवृत्तकरण) को करके अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानों में पहुंचता है । फिर पृथक्त्व वितर्क शुक्लध्यानाग्नि से अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ, इन आठ कषायों, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, छ: नौ कषाय, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया को दग्ध कर और लोभ को सूक्ष्म कर सूक्ष्मसांपराय नाम के दसवें गुणस्थान को प्राप्त करता है । इसके पश्चात् संज्वलन लोभ का अंत करके वह मोहनीय कर्म का सर्वथा अभाव करता है । फिर वह बारहवें क्षणिकषाय नामक गुणस्थान को प्राप्त कर एकत्व वितर्क शुक्लध्यान से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्मों का भी नाश कर देता हे । <span class="GRef"> महापुराण 20.241-242, 47. 246, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_56#88|हरिवंशपुराण - 56.88-98]] </span> | |||
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Latest revision as of 14:41, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
राजवार्तिक/9/1/18/590/1 यत्र मोहनीयं कर्मोपशमयन्नात्मा आरोहति सोपशमकश्रेणी। यत्र तत्क्षयमुपगमयन्नुद्गच्छति सा क्षपकश्रेणी। =जहाँ मोहनीयकर्म का उपशम करता हुआ आत्मा आगे बढ़ता है वह उपशम श्रेणी है, और जहाँ क्षय करता हुआ आगे जाता है वह क्षपक श्रेणी है।
धवला 1/1,1,16/182/6 सम्यक्त्वापेक्षया तु क्षपकस्य क्षायिको वा भाव: दर्शनमोहनीयक्षयमविधाय क्षपकश्रेण्यारोहणानुपपत्ते:। =सम्यक्दर्शन की अपेक्षा तो क्षपक के क्षायिकभाव होता है, क्योंकि, जिसने दर्शनमोहनीय का क्षय नहीं किया है वह क्षपक श्रेणी पर नहीं चढ़ सकता है। ( धवला 1/1,1,18/188/2 )।
देखें श्रेणी - 2।
पुराणकोष से
मुक्ति सोपान । इस पर आरूढ़ वे जीव होते हैं जो उत्कृष्ट विशुद्धि को प्राप्त होकर अप्रमत्त रहते हैं तथा कर्म प्रकृतियों में क्षोभ उत्पन्न करके उन्हें योगबल से मूलोच्छिन्न कर देते हैं । ऐसा जीव अप्रवृत्तकरण (अध:प्रवृत्तकरण) को करके अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानों में पहुंचता है । फिर पृथक्त्व वितर्क शुक्लध्यानाग्नि से अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ, इन आठ कषायों, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, छ: नौ कषाय, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, मान, माया को दग्ध कर और लोभ को सूक्ष्म कर सूक्ष्मसांपराय नाम के दसवें गुणस्थान को प्राप्त करता है । इसके पश्चात् संज्वलन लोभ का अंत करके वह मोहनीय कर्म का सर्वथा अभाव करता है । फिर वह बारहवें क्षणिकषाय नामक गुणस्थान को प्राप्त कर एकत्व वितर्क शुक्लध्यान से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्मों का भी नाश कर देता हे । महापुराण 20.241-242, 47. 246, हरिवंशपुराण - 56.88-98