आत्मभूत कारण: Difference between revisions
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<span class="GRef">राजवार्तिक/2/8/1/118/14 </span> <span class="SanskritText">तत्रात्मना संबंधमापंनविशिष्टनामकर्मोपात्तचक्षुरादिकरणग्राम आत्मभूत:। प्रदीपादिरनात्मभूत:।....तत्र मनोवाक्कायवर्गणालक्षणो द्रव्ययोग: चिंताद्यालंबनभूत अंतरभिनिविष्टत्वादाभ्यंतर इति व्यपदिश्यमान आत्मनोऽन्यत्वादनात्मभूत इत्यभिधीयते। तन्निमित्तो भावयोगो वीर्यांतरायज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमनिमित्त आत्मन: प्रसादश्चात्मभूत इत्याख्यामर्हति।</span> =<span class="HindiText">(ज्ञान दर्शनरूप उपयोग के प्रकरण में) आत्मा से संबद्ध शरीर में निर्मित चक्षु आदि इंद्रियाँ '''आत्मभूत''' बाह्यहेतु हैं और प्रदीप आदि अनात्मभूत बाह्य हेतु हैं। मनवचनकाय की वर्गणाओं के निमित्त से होनेवाला आत्मप्रदेश परिस्पंदन रूप द्रव्य योग अंत:प्रविष्ट होने से आभ्यंतर अनात्मभूतहेतु है तथा द्रव्ययोगनिमित्तक ज्ञानादिरूप भावयोग तथा वीर्यांतराय तथा ज्ञानदर्शनावरण के क्षयोपशम के निमित्त से उत्पन्न आत्मा की विशुद्धि आभ्यंतर '''आत्मभूत''' हेतु है। <br /> | <span class="GRef">राजवार्तिक/2/8/1/118/14 </span> <span class="SanskritText">तत्रात्मना संबंधमापंनविशिष्टनामकर्मोपात्तचक्षुरादिकरणग्राम आत्मभूत:। प्रदीपादिरनात्मभूत:।....तत्र मनोवाक्कायवर्गणालक्षणो द्रव्ययोग: चिंताद्यालंबनभूत अंतरभिनिविष्टत्वादाभ्यंतर इति व्यपदिश्यमान आत्मनोऽन्यत्वादनात्मभूत इत्यभिधीयते। तन्निमित्तो भावयोगो वीर्यांतरायज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमनिमित्त आत्मन: प्रसादश्चात्मभूत इत्याख्यामर्हति।</span> =<span class="HindiText">(ज्ञान दर्शनरूप उपयोग के प्रकरण में) आत्मा से संबद्ध शरीर में निर्मित चक्षु आदि इंद्रियाँ '''आत्मभूत''' बाह्यहेतु हैं और प्रदीप आदि अनात्मभूत बाह्य हेतु हैं। मनवचनकाय की वर्गणाओं के निमित्त से होनेवाला आत्मप्रदेश परिस्पंदन रूप द्रव्य योग अंत:प्रविष्ट होने से आभ्यंतर अनात्मभूतहेतु है तथा द्रव्ययोगनिमित्तक ज्ञानादिरूप भावयोग तथा वीर्यांतराय तथा ज्ञानदर्शनावरण के क्षयोपशम के निमित्त से उत्पन्न आत्मा की विशुद्धि आभ्यंतर '''आत्मभूत''' हेतु है। <br /> | ||
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<p class="HindiText"> कारणों के सम्बन्ध में विशेष जानने हेतु देखें [[ कारण ]]।</p> | <p class="HindiText"> कारणों के सम्बन्ध में विशेष जानने हेतु देखें [[ कारण ]]।</p> | ||
Latest revision as of 16:34, 26 February 2023
राजवार्तिक/2/8/1/118/12 द्विविधो हेतुर्बाह्य आभ्यंतरश्च। ....तत्र बाह्यो हेतुर्द्विविध:–आत्मभूतोऽनात्मभूतश्चेति। ....आभ्यंतरश्च द्विविध:–अनात्मभूत आत्मभूतश्चेति। =हेतु दो प्रकार का है—बाह्य और आभ्यंतर। बाह्य हेतु भी दो प्रकार का है—अनात्मभूत और आत्मभूत और अभ्यंतर हेतु भी दो प्रकार का होता है–आत्मभूत और अनात्मभूत। (और भी देखें निमित्त - 1)
राजवार्तिक/2/8/1/118/14 तत्रात्मना संबंधमापंनविशिष्टनामकर्मोपात्तचक्षुरादिकरणग्राम आत्मभूत:। प्रदीपादिरनात्मभूत:।....तत्र मनोवाक्कायवर्गणालक्षणो द्रव्ययोग: चिंताद्यालंबनभूत अंतरभिनिविष्टत्वादाभ्यंतर इति व्यपदिश्यमान आत्मनोऽन्यत्वादनात्मभूत इत्यभिधीयते। तन्निमित्तो भावयोगो वीर्यांतरायज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमनिमित्त आत्मन: प्रसादश्चात्मभूत इत्याख्यामर्हति। =
(ज्ञान दर्शनरूप उपयोग के प्रकरण में) आत्मा से संबद्ध शरीर में निर्मित चक्षु आदि इंद्रियाँ आत्मभूत बाह्यहेतु हैं और प्रदीप आदि अनात्मभूत बाह्य हेतु हैं। मनवचनकाय की वर्गणाओं के निमित्त से होनेवाला आत्मप्रदेश परिस्पंदन रूप द्रव्य योग अंत:प्रविष्ट होने से आभ्यंतर अनात्मभूतहेतु है तथा द्रव्ययोगनिमित्तक ज्ञानादिरूप भावयोग तथा वीर्यांतराय तथा ज्ञानदर्शनावरण के क्षयोपशम के निमित्त से उत्पन्न आत्मा की विशुद्धि आभ्यंतर आत्मभूत हेतु है।कारणों के सम्बन्ध में विशेष जानने हेतु देखें कारण ।