केवलज्ञानलोचन: Difference between revisions
From जैनकोष
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<span class="HindiText"> केवली मुनि-भगवान् वृषभदेव को सभा के सप्तविध मुक्ति का एक भेद । ये प्रश्न के बिना ही प्रश्नकर्ता के अभिप्राय को जानते हुए भी श्रोताओं के अनुरोध से प्रश्न के पूर्ण होने की प्रतीक्षा करते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 1.182 </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 12. 74, </span><br> | <span class="HindiText"> केवली मुनि-भगवान् वृषभदेव को सभा के सप्तविध मुक्ति का एक भेद । ये प्रश्न के बिना ही प्रश्नकर्ता के अभिप्राय को जानते हुए भी श्रोताओं के अनुरोध से प्रश्न के पूर्ण होने की प्रतीक्षा करते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 1.182 </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_12#74|हरिवंशपुराण - 12.74]], </span><br> | ||
ये पृथक्त्ववितर्क नामक शुक्लव्यास से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन तीन घातियाकर्मों का क्षय कर ज्योति स्वरूप केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं । योगों का निरोध करने के लिए समुद्घात दशा में इनके आत्मा के प्रदेश पहले समय में चौदह राजु ऊँचे दंडाकार, दूसरे समय में कपटाकार, तीसरे समय मे प्रतर रूप और चौथे समय में लोकपूरण रूप हो जाते हैं । इसके पश्चात् ये आत्मप्रदेश इसी क्रम से चार समयों में लोकपूरण, प्रतर, कपाट तथा दंड अवस्था को प्राप्त स्वशरीर मे प्रविष्ट हो जाते हैं । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 21.175,184-192 </span> | ये पृथक्त्ववितर्क नामक शुक्लव्यास से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन तीन घातियाकर्मों का क्षय कर ज्योति स्वरूप केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं । योगों का निरोध करने के लिए समुद्घात दशा में इनके आत्मा के प्रदेश पहले समय में चौदह राजु ऊँचे दंडाकार, दूसरे समय में कपटाकार, तीसरे समय मे प्रतर रूप और चौथे समय में लोकपूरण रूप हो जाते हैं । इसके पश्चात् ये आत्मप्रदेश इसी क्रम से चार समयों में लोकपूरण, प्रतर, कपाट तथा दंड अवस्था को प्राप्त स्वशरीर मे प्रविष्ट हो जाते हैं । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_21#175|हरिवंशपुराण - 21.175]],184-192 </span> | ||
<noinclude> | <noinclude> |
Latest revision as of 14:41, 27 November 2023
केवली मुनि-भगवान् वृषभदेव को सभा के सप्तविध मुक्ति का एक भेद । ये प्रश्न के बिना ही प्रश्नकर्ता के अभिप्राय को जानते हुए भी श्रोताओं के अनुरोध से प्रश्न के पूर्ण होने की प्रतीक्षा करते हैं । महापुराण 1.182 हरिवंशपुराण - 12.74,
ये पृथक्त्ववितर्क नामक शुक्लव्यास से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन तीन घातियाकर्मों का क्षय कर ज्योति स्वरूप केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं । योगों का निरोध करने के लिए समुद्घात दशा में इनके आत्मा के प्रदेश पहले समय में चौदह राजु ऊँचे दंडाकार, दूसरे समय में कपटाकार, तीसरे समय मे प्रतर रूप और चौथे समय में लोकपूरण रूप हो जाते हैं । इसके पश्चात् ये आत्मप्रदेश इसी क्रम से चार समयों में लोकपूरण, प्रतर, कपाट तथा दंड अवस्था को प्राप्त स्वशरीर मे प्रविष्ट हो जाते हैं । हरिवंशपुराण - 21.175,184-192