गोचरी वृत्ति: Difference between revisions
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<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/6/16/597/20 </span><span class="SanskritText"> यथा सलीलसालंकारवरयुवतिभिरुपनीयमानघासो गौर्नतदंगगतसौंदर्यनिरीक्षणपरः तृणमेवात्ति, यथा तृणोलूपं नानादेशस्थं यथालाभमभ्यवहरति न योजनासंपदमवेक्षते तथा भिक्षुरपि भिक्षापरिवेषजनमृदुललितरूपवेषविलासावलोकननिरुत्सुकः शुष्कद्रवाहारयोजनाविशेषं चानवेक्षमाणः यथागतमश्नाति इति गौरिव चारो गोचार इति व्यपदिश्यते, तथा गवेषणेति च। </span> | |||
<span class="HindiText">=<strong>गोचरी</strong>–जैसे गाय गहनों से सजी हुई सुंदर युवती के द्वारा लायी गयी घास को खाते समय घास को ही देखती है लाने वाली के अंग-सौंदर्य आदि को नहीं; अथवा अनेक जगह यथालाभ उपलब्ध होने वाले चारे के पूरे को ही खाती है उसकी सजावट आदि को नहीं देखती, उसी तरह भिक्षु भी परोसने वाले के मृदु ललित रूप, वेष और उस स्थान की सजावट आदि को देखने की उत्सुकता नहीं रखता और न ‘आहार सूखा है या गीला या कैसे चाँदी आदि के बरतनों में रखा है या कैसी उसकी योजना की गयी है’, आदि की ओर ही उसकी दृष्टि रहती है। वह तो जैसा भी आहार प्राप्त होता है वैसा खाता है। अतः भिक्षा को गौ की तरह चार–गोचर या '''गवेषणा''' कहते हैं।</li> | |||
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Latest revision as of 19:19, 5 February 2024
सिद्धांतकोष से
राजवार्तिक/9/6/16/597/20 यथा सलीलसालंकारवरयुवतिभिरुपनीयमानघासो गौर्नतदंगगतसौंदर्यनिरीक्षणपरः तृणमेवात्ति, यथा तृणोलूपं नानादेशस्थं यथालाभमभ्यवहरति न योजनासंपदमवेक्षते तथा भिक्षुरपि भिक्षापरिवेषजनमृदुललितरूपवेषविलासावलोकननिरुत्सुकः शुष्कद्रवाहारयोजनाविशेषं चानवेक्षमाणः यथागतमश्नाति इति गौरिव चारो गोचार इति व्यपदिश्यते, तथा गवेषणेति च।
=गोचरी–जैसे गाय गहनों से सजी हुई सुंदर युवती के द्वारा लायी गयी घास को खाते समय घास को ही देखती है लाने वाली के अंग-सौंदर्य आदि को नहीं; अथवा अनेक जगह यथालाभ उपलब्ध होने वाले चारे के पूरे को ही खाती है उसकी सजावट आदि को नहीं देखती, उसी तरह भिक्षु भी परोसने वाले के मृदु ललित रूप, वेष और उस स्थान की सजावट आदि को देखने की उत्सुकता नहीं रखता और न ‘आहार सूखा है या गीला या कैसे चाँदी आदि के बरतनों में रखा है या कैसी उसकी योजना की गयी है’, आदि की ओर ही उसकी दृष्टि रहती है। वह तो जैसा भी आहार प्राप्त होता है वैसा खाता है। अतः भिक्षा को गौ की तरह चार–गोचर या गवेषणा कहते हैं। विशेष जानने के लिए देखें भिक्षा - 1.7।
पुराणकोष से
निर्ग्रंथ मुनियों की आहार-चर्या । इसके लिए मुनि भिक्षा के लिए नियत समय में निकलते हैं, वे गृहपंक्ति का उल्लंघन नहीं करते, निःस्पृह भाव से शरीर की स्थिति के लिए ठंडा, गर्म, अलोना, सरस, नीरस जैसा प्राप्त होता है, खड़े होकर पाणि-पात्र से ग्रहण करते हैं । महापुराण 34.199-201, 205