आस्याविष ऋद्धि: Difference between revisions
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<span class="HindiText"><b>आस्यनिर्विष व दृष्टिनिर्विष औषध ऋद्धि</b></span> | <span class="HindiText"><b>आस्यनिर्विष व दृष्टिनिर्विष औषध ऋद्धि</b></span> | ||
<span class="SanskritText"> | <span class="SanskritText"><span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या /४/१०७४-१०७६)</span> तित्तादिविविहम्मण्णं विसुजुत्तं जीए वयणमेत्तेण। पावेदि णिव्विसत्तं सा रिद्धी वयणणिव्विसा णामा ।१०७४। अहवा बहुवाहाहिं परिभूदा झत्ति होंति णीरोगा। सोदुं वयणं जीए सा रिद्धी वयणणिव्विसा णामा ।१०७५। रोगाविसेहिं पहदा दिट्ठीए जीए झत्ति पावंति। णीरोगणिव्विसत्तं सा भणिदा दिट्ठिणिव्विसा रिद्धी ।१०७६। | ||
<span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय संख्या ३,३६,३/२०३/३०)</span> उग्रविषसंपृक्तोऽप्याहारो येषामास्यगतो निर्विषीभवति यदीयास्यनिर्गतं वचःश्रवणाद्वा महाविषपरीता अपि निर्विषीभवन्ति ते आस्याविषाः।</span> <br> | |||
= <span class="HindiText"> | = <span class="HindiText"><span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति)</span> | ||
- जिस ऋद्धि से तिक्तादिक रस व विष से युक्त विविध प्रकार का अन्न वचनमात्र से ही निर्विषता को प्राप्त हो जाता है, वह `वचननिर्विष' नामक ऋद्धि है ।१०७४। </span> | - जिस ऋद्धि से तिक्तादिक रस व विष से युक्त विविध प्रकार का अन्न वचनमात्र से ही निर्विषता को प्राप्त हो जाता है, वह `वचननिर्विष' नामक ऋद्धि है ।१०७४। </span> | ||
<span class="HindiText"> | <span class="HindiText"><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय संख्या)</span> - उग्र विष से मिला हुआ भी आहार जिनके मुख में जाकर निर्विष हो जाता है, अथवा जिनके मुख से निकले हुए वचन के सुनने मात्र से महाविष व्याप्त भी कोई व्यक्ति निर्विष हो जाता है वे '''आस्याविष''' हैं। <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२६/१)</span>। <span class="GRef">(तिलोयपण्णत्ति)</span> अथवा जिस ऋद्धि के प्रभाव से बहुत व्याधियों से युक्त जीव, ऋषि के वचन को सुनकर ही झट से नीरोग हो जाया करते हैं, वह वचन निर्विष नामक ऋद्धि है ।१०७५। रोग और विष से युक्त जीव जिस ऋद्धि के प्रभाव से झट देखने मात्र से ही निरोगता और निर्विषता को प्राप्त कर लेते हैं; वह `दृष्टिनिर्विष' ऋद्धि है ।१०७६। <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/३२)</span>; <span class="GRef">(चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२६/२)</span> | ||
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Latest revision as of 22:16, 17 November 2023
आस्यनिर्विष व दृष्टिनिर्विष औषध ऋद्धि
(तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या /४/१०७४-१०७६) तित्तादिविविहम्मण्णं विसुजुत्तं जीए वयणमेत्तेण। पावेदि णिव्विसत्तं सा रिद्धी वयणणिव्विसा णामा ।१०७४। अहवा बहुवाहाहिं परिभूदा झत्ति होंति णीरोगा। सोदुं वयणं जीए सा रिद्धी वयणणिव्विसा णामा ।१०७५। रोगाविसेहिं पहदा दिट्ठीए जीए झत्ति पावंति। णीरोगणिव्विसत्तं सा भणिदा दिट्ठिणिव्विसा रिद्धी ।१०७६।
(राजवार्तिक अध्याय संख्या ३,३६,३/२०३/३०) उग्रविषसंपृक्तोऽप्याहारो येषामास्यगतो निर्विषीभवति यदीयास्यनिर्गतं वचःश्रवणाद्वा महाविषपरीता अपि निर्विषीभवन्ति ते आस्याविषाः।
= (तिलोयपण्णत्ति)
- जिस ऋद्धि से तिक्तादिक रस व विष से युक्त विविध प्रकार का अन्न वचनमात्र से ही निर्विषता को प्राप्त हो जाता है, वह `वचननिर्विष' नामक ऋद्धि है ।१०७४।
(राजवार्तिक अध्याय संख्या) - उग्र विष से मिला हुआ भी आहार जिनके मुख में जाकर निर्विष हो जाता है, अथवा जिनके मुख से निकले हुए वचन के सुनने मात्र से महाविष व्याप्त भी कोई व्यक्ति निर्विष हो जाता है वे आस्याविष हैं। (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२६/१)। (तिलोयपण्णत्ति) अथवा जिस ऋद्धि के प्रभाव से बहुत व्याधियों से युक्त जीव, ऋषि के वचन को सुनकर ही झट से नीरोग हो जाया करते हैं, वह वचन निर्विष नामक ऋद्धि है ।१०७५। रोग और विष से युक्त जीव जिस ऋद्धि के प्रभाव से झट देखने मात्र से ही निरोगता और निर्विषता को प्राप्त कर लेते हैं; वह `दृष्टिनिर्विष' ऋद्धि है ।१०७६। (राजवार्तिक अध्याय संख्या ३/३६/३/२०३/३२); (चारित्रसार पृष्ठ संख्या २२६/२)
- अधिक जानकारी के लिए देखें ऋद्धि - 7