तप ऋद्धि: Difference between revisions
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<span class="GRef">धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२२/८७-५; ८९-६</span><span class="PrakritText">उग्गतवा दुविहा उग्गुग्गतवा अवट्ठिदुग्गतवा चेदि। तत्थ जो एक्कोववासं काऊण पारिय दो उववासो करेदि, पुणरवि पारिय तिण्णि उववासे करेदि। एवमेगुत्तरवड्डीए जाव जीविदं तं तिगुत्तिगुत्तो होदूण उववासे करेंतो उग्गगतवो णाम। एदस्सुववास पारणाणयणे सुत्तं-"उत्तरगुणिते तु धने पुनरप्यष्टापितेऽत्र गुणमादिम्। उत्तरविशेषितं वर्ग्गितं च योज्यान्येन्मूलम् ।२३। इत्यादि....तत्थ दिक्खट्ठेमेगोववासं काऊण पारिय पुणो-एक्कहंतरेण गच्छंतस्स किंचिणिमित्तेण छट्ठोववासो जादो। पुणो तेण छट्ठोववासेण विहरंतस्स अट्ठमोववासो जादो। एवं दसमदुवालसादिक्कमेण हेट्ठा ण पदंतो जाव जीविदंतं जो विहरदि अवट्ठिदुग्गतवो णाम। एदं पि तवोविहाणं वीरियंतराइयक्खओवसमेण होदि।</span> | |||
<span class="HindiText">= '''उग्रतप ऋद्धि''' के धारक दो प्रकार हैं-उग्रोग्रतप ऋद्धि धारक और अवस्थित उग्रतप ऋद्धि धारक। उनमें जो एक उपवास को करके पारणा कर दो उपवास करता है, पश्चात् फिर पारणा कर तीन उपवास करता है। इस प्रकार एक अधिक वृद्धि के साथ जीवन पर्यन्त तीन गुप्तियों से रक्षित होकर उपवास करनेवाला `उग्रोग्रतप' ऋद्धि का धारक है। इसके उपवास और पारणाओं का प्रमाण लाने के लिए सूत्र-(यहाँ चार गाथाएँ दी हैं जिनका भावार्थ यह है कि १४ दिन में १० उपवास व ४ पारणाएँ आते हैं। इसी क्रम से आगे भी जानना) (<span class="GRef">तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०५०-१०५१</span>) दीक्षा के लिए एक उपवास करके पारणा करे, पश्चात् एक दिन के अंतर से ऐसा करते हुए किसी निमित्त से षष्टोपवास (बेला) हो गया। फिर (पूर्वाक्तवत् ही) उस षष्ठोपवास से विहार करने वाले के (कदाचित्) अष्टमोपवास (तेला) हो गया। इस प्रकार दशमद्वादशम आदि क्रम से नीचे न गिरकर जो जीवन पर्यन्त विहार करता है, वह अवस्थित उग्रतप ऋद्धि का धारक कहा जाता है। यह भी तप का अनुष्ठान वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से होता है।</span> | |||
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धवला पुस्तक संख्या ९/४,१,२२/८७-५; ८९-६उग्गतवा दुविहा उग्गुग्गतवा अवट्ठिदुग्गतवा चेदि। तत्थ जो एक्कोववासं काऊण पारिय दो उववासो करेदि, पुणरवि पारिय तिण्णि उववासे करेदि। एवमेगुत्तरवड्डीए जाव जीविदं तं तिगुत्तिगुत्तो होदूण उववासे करेंतो उग्गगतवो णाम। एदस्सुववास पारणाणयणे सुत्तं-"उत्तरगुणिते तु धने पुनरप्यष्टापितेऽत्र गुणमादिम्। उत्तरविशेषितं वर्ग्गितं च योज्यान्येन्मूलम् ।२३। इत्यादि....तत्थ दिक्खट्ठेमेगोववासं काऊण पारिय पुणो-एक्कहंतरेण गच्छंतस्स किंचिणिमित्तेण छट्ठोववासो जादो। पुणो तेण छट्ठोववासेण विहरंतस्स अट्ठमोववासो जादो। एवं दसमदुवालसादिक्कमेण हेट्ठा ण पदंतो जाव जीविदंतं जो विहरदि अवट्ठिदुग्गतवो णाम। एदं पि तवोविहाणं वीरियंतराइयक्खओवसमेण होदि। = उग्रतप ऋद्धि के धारक दो प्रकार हैं-उग्रोग्रतप ऋद्धि धारक और अवस्थित उग्रतप ऋद्धि धारक। उनमें जो एक उपवास को करके पारणा कर दो उपवास करता है, पश्चात् फिर पारणा कर तीन उपवास करता है। इस प्रकार एक अधिक वृद्धि के साथ जीवन पर्यन्त तीन गुप्तियों से रक्षित होकर उपवास करनेवाला `उग्रोग्रतप' ऋद्धि का धारक है। इसके उपवास और पारणाओं का प्रमाण लाने के लिए सूत्र-(यहाँ चार गाथाएँ दी हैं जिनका भावार्थ यह है कि १४ दिन में १० उपवास व ४ पारणाएँ आते हैं। इसी क्रम से आगे भी जानना) (तिलोयपण्णत्ति अधिकार संख्या ४/१०५०-१०५१) दीक्षा के लिए एक उपवास करके पारणा करे, पश्चात् एक दिन के अंतर से ऐसा करते हुए किसी निमित्त से षष्टोपवास (बेला) हो गया। फिर (पूर्वाक्तवत् ही) उस षष्ठोपवास से विहार करने वाले के (कदाचित्) अष्टमोपवास (तेला) हो गया। इस प्रकार दशमद्वादशम आदि क्रम से नीचे न गिरकर जो जीवन पर्यन्त विहार करता है, वह अवस्थित उग्रतप ऋद्धि का धारक कहा जाता है। यह भी तप का अनुष्ठान वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से होता है।
अधिक जानकारी के लिये देखें ऋद्धि - 5।