ईर्यापथकर्म: Difference between revisions
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<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 6/4/7/508/18</span><p class="SanskritText"> ईरणमीर्या योगगतिः ।6।...उपशांतक्षीणकषाययोः सयोगिनश्च योगवशादुपात्तं कर्म कषायाभावाद् बंधाभावे शुष्ककुड्यपतितलोष्टवद् अनंतरसमये निवर्तमानमीर्यापथमित्युच्यते।</p> | <span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 6/4/7/508/18</span><p class="SanskritText"> ईरणमीर्या योगगतिः ।6।...उपशांतक्षीणकषाययोः सयोगिनश्च योगवशादुपात्तं कर्म कषायाभावाद् बंधाभावे शुष्ककुड्यपतितलोष्टवद् अनंतरसमये निवर्तमानमीर्यापथमित्युच्यते।</p> | ||
<p class="HindiText">= ईर्या की व्युत्पत्ति ईरणं होती है उसका अर्थ गति है ।6। उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, और सयोगकेवली के योग से आये हुए कर्म कषायों का चेप न होनेसे सूखी दीवार पर पड़े हुए पत्थर की तरह द्वितीय क्षण में ही झड़ जाते हैं, बंधते नहीं है। यह ईर्यापथ आस्रव कहलाता है।</p> | <p class="HindiText">= ईर्या की व्युत्पत्ति ईरणं होती है उसका अर्थ गति है ।6। उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, और सयोगकेवली के योग से आये हुए कर्म कषायों का चेप न होनेसे सूखी दीवार पर पड़े हुए पत्थर की तरह द्वितीय क्षण में ही झड़ जाते हैं, बंधते नहीं है। यह ईर्यापथ आस्रव कहलाता है।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"><span class="GRef">( तत्त्वार्थसार अधिकार 4/7)</span></p> | ||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 13/5,4,24/47/10</span> <p class="SanskritText">ईर्या योगः सः पंथा मार्गः हेतुः यस्य कर्मणः तदीर्यापथकर्म। जोगणिमित्तेणेव जं बज्झई तमीरियावहकम्मं त्ति भणिदं होदि।</p> | <span class="GRef">धवला पुस्तक 13/5,4,24/47/10</span> <p class="SanskritText">ईर्या योगः सः पंथा मार्गः हेतुः यस्य कर्मणः तदीर्यापथकर्म। जोगणिमित्तेणेव जं बज्झई तमीरियावहकम्मं त्ति भणिदं होदि।</p> | ||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 13/5,4,24/51/1 </span><p class=" PrakritText ">बंधमागयपरमाणू विदियसमए चेव णिस्सेसं णिज्ज रंति त्ति महव्वयं।</p> | <span class="GRef">धवला पुस्तक 13/5,4,24/51/1 </span><p class=" PrakritText ">बंधमागयपरमाणू विदियसमए चेव णिस्सेसं णिज्ज रंति त्ति महव्वयं।</p> |
Latest revision as of 22:16, 17 November 2023
जिन कर्मों का आस्रव होता है पर बंध नहीं होता उन्हें ईर्यापथ कर्म कहते हैं। आने के अगले क्षण में ही बिना फल दिये वे झड़ जाते हैं। अतः इनमें एक समय मात्र की स्थिति होती है अधिक नहीं। मोह का सर्वथा उपशम अथवा क्षय हो जाने पर ही ऐसे कर्म आया करते हैं। 10वें गुणस्थान तक जब तक मोह का किंचित् भी सद्भाव है तब तक ईर्यापथ कर्म संभव नहीं, क्योंकि कषाय के सद्भाव में स्थिति बंधने का नियम है।
1. ईर्यापथ कर्म का लक्षण
षट्खंडागम पुस्तक 13/5,4/सूत्र 24/47
तं छदुमत्थवीयरायाणं सजोगिकेवलीणं वा तं सव्वमीरियावहकम्मं णाम ।24।
= वह छद्मस्थ वीतरागों के और सयोगि केवलियों के होता है, वह सब ईर्यापथ कर्म है।
तत्त्वार्थसूत्र 6/4
सकषायाकषाययोः सांपरायिकेर्यापथयोः ।4।
= कषाय सहित और कषाय रहित आत्मा का योग क्रम से सांपरायिक और ईर्यापथ कर्म के आस्रव रूप है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/4/321/1
ईरणमीर्या योगो गतिरित्यर्थः। तद्द्वारकं कर्म ईर्यापथम्।
= ईर्याकी व्युत्पत्ति `ईरणं' होगी इसका अर्थ गति है। जो कर्म इसके द्वारा प्राप्त होता है वह ईर्यापथकर्म है।
राजवार्तिक अध्याय 6/4/7/508/18
ईरणमीर्या योगगतिः ।6।...उपशांतक्षीणकषाययोः सयोगिनश्च योगवशादुपात्तं कर्म कषायाभावाद् बंधाभावे शुष्ककुड्यपतितलोष्टवद् अनंतरसमये निवर्तमानमीर्यापथमित्युच्यते।
= ईर्या की व्युत्पत्ति ईरणं होती है उसका अर्थ गति है ।6। उपशांतकषाय, क्षीणकषाय, और सयोगकेवली के योग से आये हुए कर्म कषायों का चेप न होनेसे सूखी दीवार पर पड़े हुए पत्थर की तरह द्वितीय क्षण में ही झड़ जाते हैं, बंधते नहीं है। यह ईर्यापथ आस्रव कहलाता है।
( तत्त्वार्थसार अधिकार 4/7)
धवला पुस्तक 13/5,4,24/47/10
ईर्या योगः सः पंथा मार्गः हेतुः यस्य कर्मणः तदीर्यापथकर्म। जोगणिमित्तेणेव जं बज्झई तमीरियावहकम्मं त्ति भणिदं होदि।
धवला पुस्तक 13/5,4,24/51/1
बंधमागयपरमाणू विदियसमए चेव णिस्सेसं णिज्ज रंति त्ति महव्वयं।
= ईर्या का अर्थ योग है। वह जिस कार्माण शरीर का पथ, मार्ग, हेतु है वह ईर्यापथ कर्म कहलाता है। योग मात्र के कारण जो कर्म बंधता है वह ईर्यापथ कर्म है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। बंध को प्राप्त हुए कर्म परमाणु दूसरे समय में ही सामस्त्य भाव से निर्जरा को प्राप्त होते हैं, इसलिए ईर्यापथ कर्मस्कंध महान् व्यय वाले कहे गये हैं।
2. नारकियों के तथा सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान पर्यंत ईर्यापथ कर्म नहीं होता
धवला पुस्तक 13/5,4,31/91-92/5
आधाकम्म-इरियावथकम्म-तवोकम्माणि णत्थि; णेरइएसु ओरालियसरीरस्स उदयाभावादो पंचमहव्वयाभावादो।....सुहुमसांपराइएसु इरियावथकम्मं पि णत्थि, सकसाएसु तदसंभवादो।
= अधःकर्म, ईर्यापथ कर्म, और तपकर्म नहीं होते, क्योंकि नारकियों के औदारिक शरीर का उदय और पाँच महाव्रत नहीं होते।....सूक्ष्मसांपराय संयत जीवों के ईर्यापथ कर्म नहीं होता, क्योंकि कषाय सहित जीवों का ईर्यापथ कर्म नहीं हो सकता।
3. ईर्यापथ कर्म में वर्ण रसादि की अपेक्षा विशेषताएँ
धवला पुस्तक 13/5,4, 24/2-4/48
अप्प बादरं मवुअं बहुअं ल्हुक्खं च सुक्किलं चेव। मंदं महव्वयं पि य सादब्भहियं च तं कम्मं ।2। गहिदमगहिदं च तहा बद्धमबद्धं च पुट्ठमपुट्ठं च। उदिदाणुदिदं वेदिदमवेदिदं चेव तं जाणे ।3। णिज्जरिदाणिज्जरिदं उदीरिदं चेव होदि णायव्वं अणुदीरिदं त्ति य पुणो इरियावहलक्खणं एदं ।4।
धवला पुस्तक 13/5,4,24/49-50/12
इरियावहकम्मक्खंधा कक्खडादिगुणेण अवोहा मउअफासगुणेण सहिया चेव बंधमागच्छंति त्ति इरियावहकम्मं मउअं त्ति भण्णदे। सकसायजीववेयणीयसमयपबद्धादो पदेसेहि संखेज्जगुणत्तं दट्ठूण बहुअमिदि भण्णदे।.....पोग्गलपदेसेसु चिरकालावट्ठाणणिबंधणणिद्धगुणपडिवक्खगुणेण पडिग्गहियत्तादो ल्हुक्खं।....इरियावहकम्मस्स कम्मक्खंधा सुअंधा सच्छाया त्ति जाणावणफलो। इरियावहकम्मक्खंधा पंचवण्णा ण होंति, हंसधवला चेव होंति त्ति जाणावणट्ठं सुक्किलणिद्देसो कदो।....इरियाहकम्मक्खंधा रसेण सक्कारादो अहियमहुरत्तजुत्ता त्ति जाणावणट्ठं मंदणिद्देसो कदो।
= वह ईर्यापथ कर्म अल्प है, बादर है, मृदु है, बहुत है, रूक्ष है, शुक्ल है, मंद है, अर्थात् मधुर, महान् व्यय वाला है और अत्यधिक साता रूप है ।2। उसे गृहीत होकर भी अगृहीत, बद्ध होकर भी अबद्ध, स्पृष्ट होकर भी अस्पृष्ट, उदित होकर भी अनुदित, और वेदित होकर भी अवेदित जानना ।3। वह निर्जरित होकर भी निर्जरित नहीं है, और उदीरित होकर भी अनुदीरित है। इस प्रकार यह ईर्यापथकर्म का लक्षण है ।4। (इसे अल्प व बादर कहने का कारण-देखें अगला शीर्षक ) ईर्यापथकर्म स्कंध कर्कशादि गुणों से रहित है, वह मृदु स्पर्श गुण से संयुक्त होकर ही बंध को प्राप्त होता है । इसलिए इसे `मृदु' कहा गया है। कषाय सहित जीव के वेदनीय कर्म के समयबद्ध से यहाँ बंधने वाला समय प्रबद्ध प्रदेशों की अपेक्षा संख्यात गुणा होता है इसलिए ऐसा देखकर ईर्यापथ कर्म को बहुत कहा।...ईर्यापथकर्म स्कंध रूक्ष है, क्योंकि पुद्गल प्रदेशों में चिरकाल तक अवस्थान का कारण स्निग्ध गुण का प्रतिपक्षी भूत गुण उसमें स्वीकार किया गया है। ईर्यापथ कर्म के स्कंध अच्छी गंधवाले और अच्छी कांतिवाले होते हैं, यह जताना च शब्द का फल है। ईर्यापथ कर्म स्कंध पाँच वर्ण वाले नहीं होते, किंतु हंस के समान धवल वर्ण वाले ही होते हैं, इस बात का ज्ञान कराने के लिए गाथा में शुक्ल पद का निर्देश किया है। ईर्यापथ कर्म रस की अपेक्षा शक्कर से भी अधिक माधुर्ययुक्त होते हैं। इस बात का ज्ञान कराने के लिए गाथा में मंद पद का निर्देश किया है। (गृहित-अगृहीत, बंध अबंध, स्पृष्ट अस्पृष्ट कहनेका कारण-देखें शीर्षक सं - 4, शीर्षक सं - 12; निर्जरित कहनेका कारण - देखें शीर्षक सं - 5; उदीरित कहनेका कारण - देखें शीर्षक सं - 6)
4. ईर्यापथ कर्म में बंध की अपेक्षा विशेषता
धवला पुस्तक 13/5,4,24/48/10
कसायाभावेण ट्ठिदिबंधाजोग्गस्स कम्मभावेण परिणयविदियसमए चेव अकम्मभावं गच्छंतस्स जोगेणागदपोग्गलक्खंधस्स ट्ठिदिविरहिदएगसमए वट्टमाणस्स कालणिबंधणअप्पत्त दंसणादो इरियावहकम्ममप्पमिदि भणिदं।....उप्पण्णविदियादिसमयाणमवट्ठाणववएसुवलंभादो। ण उप्पत्तिसमओ अवट्ठाण होदि, उप्पत्तीए अभावप्पसंगादो।...अट्ठण्णं कम्माणं समयबद्धपदेसेहिंतो इरियावहसमयपद्धस्स पदेसा संखेज्जगुणा होंति, सादं मोत्तूण अण्णेसिं बंधाभावादो। तेण ढुक्कमाणकम्मक्खंधेहि थूलमिदि बादरं भणिदं।.....कसायाभावेण अणुभागबंधाभावादो। सकसायजीववेयणीयसमपबद्धदो पदेसेहिं संखेज्जगुणत्तं दट्ठूणबहुअमिदि भण्णदे।
धवला पुस्तक 13/5,4,24/51-52/10
इरिवहकम्मं गहिदं पि तण्ण गहिदं। कुदो। सरागकम्मगहणमेव अणंतरसंसारफलणिव्वत्तणसत्तिविरहादो।....बद्धं पि तण्ण बद्धं चेव; विदियसमए चेव णिज्जरुवलंभादो.....पुट्ठं पि तण्ण पुट्ठं चेव; इरियावहबंधस्स संतसहावेण जिणिंदम्मि अवट्ठाणाभावादो।
= कषाय का अभाव होने से स्थिति बंध के अयोग्य है। कर्म रूप से परिणत होने के दूसरे समय में ही अकर्म भाव को प्राप्त हो जाता है, और स्थिति बंध न होने से मात्र एक समय तक विद्यमान रहता है; ऐसे योग के निमित्त से आये हुए पुद्गल स्कंध में काल निमित्तक अल्पत्व देखा जाता है। इसलिए ईर्यापथ कर्म अल्प है।....क्योंकि उत्पन्न होने के पश्चात् द्वितीयादि समयों की अवस्थान संज्ञा पायी जाती है। उत्पत्ति के समय को ही अवस्थान नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि ऐसा मानने से उत्पत्ति के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। आठों कर्मों के समयप्रबद्ध प्रदेशों से ईर्यापथ कर्म के समय प्रबद्ध प्रदेश संख्यात गुणे होते हैं; क्योंकि यहाँ साता वेदनीय के सिवाय अन्य कर्मों का बंध नहीं होता। इसलिए ईर्यापथ रूप से जो कर्म आते हैं, वे स्थूल हैं, अतः उन्हें `बादर' कहा है। .....कषाय का अभाव होने से अनुभाग बंध नहीं पाया जाता है। कषाय सहित जीव के वेदनीय कर्म के समयप्रबद्ध से यहाँ बंधने वाला समयप्रबद्ध प्रदेशों की अपेक्षा संख्यात गुणा होता है। ऐसा देखकर ईर्यापथ कर्म को बहुत कहा है। गृहीत होकर भी वह गृहीत नहीं है, क्योंकि वह सरागी के द्वारा ग्रहण किये गये कर्म के समान संसार को उत्पन्न करने वाली शक्ति से रहित है। बद्ध होकर भी बद्ध नहीं है, क्योंकि दूसरे समय में ही उनकी निर्जरा देखी जाती है.....स्पृष्ट होकर भी स्पृष्ट नहीं है, कारण कि ईर्यापथ बंध का सत्त्व रूप से जिनेंद्र भगवान् के अवस्थान नहीं पाया जाता है।
(और भी-देखें ईर्यापथ - 3.1)
5. ईर्यापथ कर्म में निर्जरा की अपेक्षा विशेषता
धवला पुस्तक 13/5,4,24/41,54/1
बंधमागयपरमाणू विदियसमए च णिस्सेसं णिज्जरंति त्ति महव्वयं॥.....णिज्जरिदमपि तण्ण णिज्जरिदं, सकषायकम्मणिज्जरा इव अण्णेसिमणंताणं कम्मक्खंधाणं बंधमकाऊण णिज्जिण्णत्तादो।
बंध को प्राप्त हुए परमाणु दूसरे समय में ही सामस्त्य भाव से निर्जरा को प्राप्त होते हैं, इसलिए ईर्यापथ कर्म स्कंध महान् व्यय वाले कहे गये हैं।....निर्जरित होकर भी वह ईर्यापथ कर्म निर्जरित नहीं है, क्योंकि कषाय के सद्भाव में जैसी कर्मों की निर्जरा होती है वैसी अन्य अनंत कर्म स्कंधों की, बंध के बिना ही निर्जरा होती है।
(और भी-देखें ईर्यापथ - 4.2)
6. ईर्यापथ कर्म में उदय उदीरणा की अपेक्षा विशेषता
धवला पुस्तक 13/5,4,24/52-54/क्रमशः 7,2,6
उदिण्णमपि तण्ण उदिण्णं दद्धगोहूमरासि व्व पत्तणिव्वीयावत्तादो। (52/7) वेदिदं पि असादवेदणीयं ण वेदिदं; सगसहकारिकारणधादिकम्माभावेण दुक्खजण्णसत्तिरोहादो (53/2)। उदीरिदं पि ण उदीरिदं, बंधाभावेण जम्मंतरुप्पायणसत्तीए अभावेण च णिज्जराए फलाभावादो (54/6)।
= उदीरणा होकर भी उदीर्ण नहीं है, क्योंकि वे दग्ध गेहूं के समान निर्बीज भाव को प्राप्त हो गये हैं। (10)। असाता वेदित होकर भी वेदित नहीं है, क्योंकि अपने सहकारी कारण रूप घातिया कर्मों का अभाव हो जाने से उसमें दुःख को उत्पन्न करने की शक्ति मानने में विरोध आता है। (11)। उदीरित होकर भी वे उदीरित नहीं हैं क्योंकि बंध का अभाव होने से और जन्मांतर को उत्पन्न करने की शक्ति का अभाव होने से निर्जरा का कोई फल नहीं देखा जाता।
7. ईर्यापथ कर्म में सुख की विशेषता
धवला पुस्तक 13/5,4,24,51/3
देव-माणुससुहेहिंतो बहुयरसुहुप्पायणत्तादो इरियावहकम्मं सादब्भहियं।
= देव और मनुष्यों के सुख से अधिक सुख का उत्पादक है, इसलिए ईर्यापथ कर्म को अत्यधिक साता रूप कहा है।
8. ईर्यापथ के रूक्ष परमाणुओं का बंध कैसे संभव है
धवला पुस्तक 13/5,4,24/50/6
जइ एवं तो इरियावहकम्मम्मि ण क्खंधो, ल्हुक्खेगगुणाणं परोप्परबंधाभावादो। ण, तत्थ दुरहियाणं बंधुवलंभादो।
= प्रश्न-यहाँ पर रूक्षगुण यदि इस प्रकार है तो (ईर्यापथ कर्मबंध के नियम में कथित रूप से) ईर्यापथ कर्म का स्कंध नहीं बन सकता, क्योंकि एक मात्र रूक्ष गुणवालों का परस्पर बंध नहीं हो सकता। उत्तर-नहीं, क्योंकि वहाँ भी द्विअधिक गुणवालों का बंध पाया जाता है।
9. ईर्यापथ कर्म में स्थिति का अभाव कैसे कहते हो
धवला पुस्तक 13/5,4,24/48/13
कम्मभावेण एगसमयवट्ठिदस्स कधमवट्ठाणाभावो भण्णदे। ण, उप्पणविदियादिसमयाणवट्ठाणववएसुवलंभादो। ण, उप्पत्तिसमओ अवट्ठाणं होदि, उप्पत्तीए अभावप्पसंगादो। ण च अणुप्पण्णस्स अवट्ठाणमत्थि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो। ण च उप्पत्तिअवट्ठाणाणमेयत्तं, पुव्वुत्तरकालभावियाणमेयत्तविरोहादो।
= प्रश्न-जबकि ईर्यापथ कर्म कर्मरूप से एक समय तक अवस्थित रहता है तब उसके अवस्थान का अभाव क्यों बताया? उत्तर-नहीं क्योंकि उत्पन्न होने के पश्चात् द्वितीयादि समयों की अवस्थान संज्ञा पायी जाती है। उत्पत्तिके समय को ही अवस्थान नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने से उत्पत्ति के अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाये कि अनुत्पन्न वस्तु का अवस्थान बन जायेगा, सो भी बात नहीं है; क्योंकि अन्यत्र ऐसा देखा नहीं जाता। यदि उत्पत्ति और अवस्थान को एक कहा जाये सो भी बात नहीं क्योंकि ये दोनों पूर्वोत्तर कालभावी हैं, इसलिए इन्हें एक मानने में विरोध आता है। यही कारण है कि यहाँ ईर्यापथ कर्म के अवस्थान का अभाव है।
10. ईर्यापथ कर्म में अनुभाग का अभाव कैसे है
धवला पुस्तक 13/5,4,24/49/6
ण कसायाभावेण अणुभागबंधाभावादो। कम्मइयक्खंधाण कम्मभावेण परिणमणकालेसव्वजीवेहि अणंतगुणेण अणुभागेण होदव्वं, अण्णहा कम्मभावपरिणामाणुववत्तीदो त्ति। ण एस दोसो जहण्णाणुभागट्ठाणस्स जहण्णफद्दयादो अणंतगुणहोणाणुभागेण कम्मक्खंधो बंधमागच्छदि त्ति कादूण अणुभागबंधो णत्थि त्ति भण्णदे। तेण बंधो एगसमयट्ठिदिणिवत्तयअणुभागसहियो अत्थि चेवे त्ति घेत्तव्वो।
= प्रश्न-कार्माण स्कंधों का कर्मरूप से परिणमन करने के एक समय में ही सब जीवों से अनंतगुणा अनुभाग होना चाहिए, क्योंकि अन्यथा उनका कर्मरूप से परिणमन करना नहीं बन सकता? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ पर जघन्य अनुभाग स्थान के जघन्य स्पर्धक से अनंतगुणे हीन अनुभाग से युक्त कर्मस्कंध बंध को प्राप्त होते हैं; ऐसा समझकर अनुभाग बंध नहीं है, ऐसा कहा है। इसलिये एक समय की स्थितिका निवर्तक ईर्यापथ कर्मबंध अनुभाग सहित है ही, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए।
11. ईर्यापथ कर्म के साथ गोत्रादि का भी बंध नहीं होता
धवला पुस्तक 13/5,4,24/52/8
इरियावहकम्मस्स लक्खणे भण्णमाणे सेसकम्माणं वावारो किमिदि परूविज्जदे। ण, इरियावहकम्मसहचरिदसेसकम्माणं पि इरियावहत्तसिद्धीए तल्लक्खणस्स वि इरियावहलक्खणत्तुववत्तीदो।
= प्रश्न-ईर्यापथ कर्म का लक्षण कहते समय शेष कर्मों के (गोत्र आदि के) व्यापार का कथन क्यों किया जा रहा है? उत्तर-नहीं, क्योंकि ईर्यापथ के साथ रहने वाले शेष कर्मों में भी ईर्यापथत्व सिद्ध है। इसलिए उनके लक्षण में भी ईर्यापथ का लक्षण घटित हो जाता है।
12. ईर्यापथ कर्मों में स्थित जीवों के देवत्व कैसे है
धवला पुस्तक 13/5,4,24/51/8
जलमज्झणिवदियतत्तलोहुंडओ व्व इरियावहकम्मजलं समसव्वजीवपदेसेहि गेण्हमाणो केवली कधं परमप्पएण समाणत्तं पडिवज्जदि त्ति भणिदे तण्णिण्णयत्थमिदं वुच्चदे-इरियावह कम्मं गहिदं पि तण्ण गहिदं। कुदो। सरागकम्मगहणस्सेव अणंतसंसारफलणिव्वत्तणसत्तिविरहादो।
= प्रश्न-जल के बीच पड़े हुए तप्तलोह पिंड के समान ईर्यापथ कर्मरूपी जल को अपने सर्वप्रदेशों से ग्रहण करते हुए `केवली जिन' परमात्मा के समान कैसे हो सकते हैं? उत्तर-ऐसा पूछने पर उसका निर्णय करने के लिए यह कहा गया है कि ईर्यापथ कर्म गृहीत होकर भी गृहीत नहीं है, क्योंकि सरागी के द्वारा ग्रहण किये कर्म के समान पुनर्जन्म रूप संसार फल को उत्पन्न करनेवाली शक्ति से रहित है।
• ईर्यापथकर्म विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ-
देखें वह वह नाम ।