तत्त्वार्थसूत्र: Difference between revisions
From जैनकोष
J2jinendra (talk | contribs) No edit summary |
(Imported from text file) |
||
(2 intermediate revisions by 2 users not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"><strong name="6.1" id="6.1"> सामान्य परिचय</strong><br> दश अध्यायों में विभक्त छोटे छोटे 357 सूत्रों वाले इस ग्रंथ ने जैनागम के सकल मूल तथ्यों का अत्यंत संक्षिप्त परंतु विशद विवेचन करके गागर में सागर की उक्ति को चरितार्थ कर दिया है इसलिये जैन संप्रदाय में इस ग्रंथ का स्थान आगम ग्रंथों की अपेक्षा किसी प्रकार भी कम नहीं। सूत्र संस्कृत भाषा में रचे गए हैं। सांप्रदायिकता से ऊपर होने के कारण दिगंबर तथा श्वेतांबर दोनों ही आम्नायों में इसको सम्मान प्राप्त है। जैनाम्नाय में यह संस्कृत का आद्य ग्रंथ माना जाता है क्योंकि इससे पहले के सर्व ग्रंथ मागधी अथवा शौरसैनी प्राकृत में लिखे गए हैं। द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग इन तीनों अनुयोगों का सकल सार इसमें गर्भित है। | <li class="HindiText"><strong name="6.1" id="6.1"> सामान्य परिचय</strong><br> दश अध्यायों में विभक्त छोटे छोटे 357 सूत्रों वाले इस ग्रंथ ने जैनागम के सकल मूल तथ्यों का अत्यंत संक्षिप्त परंतु विशद विवेचन करके गागर में सागर की उक्ति को चरितार्थ कर दिया है इसलिये जैन संप्रदाय में इस ग्रंथ का स्थान आगम ग्रंथों की अपेक्षा किसी प्रकार भी कम नहीं। सूत्र संस्कृत भाषा में रचे गए हैं। सांप्रदायिकता से ऊपर होने के कारण दिगंबर तथा श्वेतांबर दोनों ही आम्नायों में इसको सम्मान प्राप्त है। जैनाम्नाय में यह संस्कृत का आद्य ग्रंथ माना जाता है क्योंकि इससे पहले के सर्व ग्रंथ मागधी अथवा शौरसैनी प्राकृत में लिखे गए हैं। द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग इन तीनों अनुयोगों का सकल सार इसमें गर्भित है। <span class="GRef">(तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा 2/155-156)</span>। <span class="GRef">(जैन साहित्य और इतिहास /2/247)</span>। सर्वार्थ सिद्धि राजवार्तिक तथा श्लोक वार्तिक इस ग्रंथ की सर्वाधिक मान्य टीकायें हैं। इसके अनुसार इस ग्रंथ का प्राचीन नाम तत्त्वार्थ सूत्र न होकर ‘तत्त्वार्थ’ अथवा ‘तत्त्वार्थ शास्त्र’ है। सूत्रात्मक होने के कारण बाद में यह तत्त्वार्थ सूत्र के नाम से प्रसिद्ध हो गया। मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करने के कारण ‘मोक्ष शास्त्र’ भी कहा जाता है। <span class="GRef">(तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/2/153)</span> <span class="GRef">(जैन साहित्य और इतिहास/2/246,247)</span>। जैनाम्नाय में यह आद्य संस्कृत ग्रंथ माना जाता है क्योंकि इससे पहले के सकल शास्त्र प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं। <span class="GRef">(जैन साहित्य और इतिहास/2/248)</span>।</li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="6.2" id="6.2"> दिगंबर ग्रंथ</strong><br>यद्यपि यह ग्रंथ दिगंबर व श्वेतांबर दोनों को मान्य है परंतु दोनों आम्नायों में इसके जो पाठ प्राप्त होते हैं उनमें बहुत कुछ भेद पाया जाता है <span class="GRef">(तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/2/162)</span>, <span class="GRef">(जैन साहित्य और इतिहास/2/251)</span>। दिगंबरांनाय वाले पाठ के अध्ययन से पता चलता है कि सूत्रकार ने अपने गुरु कुंदकुंद के प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार आदि ग्रंथों का इस ग्रंथ में पूरी तरह अनुसरण किया है, जैसे द्रव्य के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाले </span><span class="SanskritText">सद्रव्य लक्षणम्, उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्, गुण पर्ययवद्द्रव्यम्</span><span class="HindiText"> ये तीन सूत्र पंचास्तिकाय की दशमी गाथा का पूरा अनुसरण करते हैं। <span class="GRef">(तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/2/151,159,160)</span> <span class="GRef">(जैन साहित्य और इतिहास/2/159)</span>। इसलिए श्वेतांबर मान्य तत्त्वार्थाधिगम से यह भिन्न है। यह वास्तव में कोई स्वतंत्र ग्रंथ न होकर मूल तत्त्वार्थ सूत्र पर रचित भाष्य है <span class="GRef">(तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/2/150)</span>। दूसरी बात यह भी कि दिगंबर आम्नाय में इसका जितना प्रचार है उतना श्वेतांबर आम्नाय में नहीं है। वहाँ इसे आगम साहित्य से कुछ छोटा समझा जाता है। <span class="GRef">(जैन साहित्य और इतिहास/2/247)</span> दिगंबर आम्नाय में इसकी महत्ता इस बात से भी सिद्ध है कि जितने भाष्य या टीकायें इस ग्रंथ पर लिखे गए उतने अन्य किसी ग्रंथ पर नहीं हैं। </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> आचार्य समंतभद्र (वि.श.2-3) कृत गंधहस्ति महाभाष्य; </li> | <li class="HindiText"> आचार्य समंतभद्र (वि.श.2-3) कृत गंधहस्ति महाभाष्य; </li> | ||
Line 27: | Line 27: | ||
</ol> | </ol> | ||
<li class="HindiText"><strong name="6.3" id="6.3"> कथा</strong><br>सर्वार्थसिद्धि के प्रारंभ में इस ग्रंथ की रचना के विषय में एक संक्षिप्त सा इतिवृत्त दिया गया है, जिसे पश्चाद्वर्ती आचार्यों ने भी अपनी टीकाओं में दोहराया है। तदनुसार इस ग्रंथ की रचना सौराष्ट्र देश में गिरनार पर्वत के निकट रहने वाले किसी एक आसन्न भव्य शास्त्रवेत्ता श्वेतांबर विद्वान के निमित्त से हुई थी। उसने ‘दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:’ यह सूत्र बनाकर अपने घर के बाहर किसी पाटिये पर लिख दिया था। कुछ दिनों पश्चात् चर्या के लिए गुजरते हुए भगवान् उमास्वामी की दृष्टि उस पर पड़ गई और उन्होंने उस सूत्र के आगे ‘सम्यक्’ पद जोड़ दिया। यह देखकर वह आसन्न भव्य खोज करता हुआ उनकी शरण को प्राप्त हुए। आत्महित के विषय में कुछ चर्चा करने के पश्चात् उसने इनसे इस विषय में सूत्र ग्रंथ रचने की प्रार्थना की, जिससे प्रेरित होकर आचार्य प्रवर ने यह ग्रंथ रचा। सर्वार्थ सिद्धिकार ने उस भव्य के नाम का उल्लेख नहीं किया, परंतु पश्चाद्वर्ती टीकाकारों ने अपनी-अपनी कृतियों में उसका नाम कल्पित कर लिया है। उपर्युक्त टीकाओं में से अष्टम तथा दशम टीकाओं में उसका नाम ‘सिद्धमय’ कहा गया है, जबकि चतुर्दशतम में उसे ‘द्वैपायन’ बताया गया है। इस कथा में कितना तथ्य है यह तो नहीं कहा जा सकता। परंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यह ग्रंथ किसी आसन्न भव्य के लिये लिखा गया था। | <li class="HindiText"><strong name="6.3" id="6.3"> कथा</strong><br>सर्वार्थसिद्धि के प्रारंभ में इस ग्रंथ की रचना के विषय में एक संक्षिप्त सा इतिवृत्त दिया गया है, जिसे पश्चाद्वर्ती आचार्यों ने भी अपनी टीकाओं में दोहराया है। तदनुसार इस ग्रंथ की रचना सौराष्ट्र देश में गिरनार पर्वत के निकट रहने वाले किसी एक आसन्न भव्य शास्त्रवेत्ता श्वेतांबर विद्वान के निमित्त से हुई थी। उसने ‘दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:’ यह सूत्र बनाकर अपने घर के बाहर किसी पाटिये पर लिख दिया था। कुछ दिनों पश्चात् चर्या के लिए गुजरते हुए भगवान् उमास्वामी की दृष्टि उस पर पड़ गई और उन्होंने उस सूत्र के आगे ‘सम्यक्’ पद जोड़ दिया। यह देखकर वह आसन्न भव्य खोज करता हुआ उनकी शरण को प्राप्त हुए। आत्महित के विषय में कुछ चर्चा करने के पश्चात् उसने इनसे इस विषय में सूत्र ग्रंथ रचने की प्रार्थना की, जिससे प्रेरित होकर आचार्य प्रवर ने यह ग्रंथ रचा। सर्वार्थ सिद्धिकार ने उस भव्य के नाम का उल्लेख नहीं किया, परंतु पश्चाद्वर्ती टीकाकारों ने अपनी-अपनी कृतियों में उसका नाम कल्पित कर लिया है। उपर्युक्त टीकाओं में से अष्टम तथा दशम टीकाओं में उसका नाम ‘सिद्धमय’ कहा गया है, जबकि चतुर्दशतम में उसे ‘द्वैपायन’ बताया गया है। इस कथा में कितना तथ्य है यह तो नहीं कहा जा सकता। परंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यह ग्रंथ किसी आसन्न भव्य के लिये लिखा गया था। <span class="GRef">(तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/2/153)</span> <span class="GRef">(जैन साहित्य और इतिहास/2/245)</span>।</li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="6.4" id="6.4"> समय</strong><br>ग्रंथ में निबद्ध <span class="SanskritText">‘सत्संख्याक्षेत्र स्पर्शन कालांतरभावाल्पबहुत्वैश्च।1/8।‘</span> सूत्र षट्खण्डागम/1/1/7 का रूपांतरण मात्र है। दूसरी ओर कुंदकुंद के ग्रंथों का इसमें अनुसरण किया गया है, तीसरी ओर आचार्य पूज्यपाद देवनंदि ने इस पर सर्वार्थसिद्धि नामक टीका लिखी है। इसलिये इस ग्रंथ का रचनाकाल षट्खंडागम (वि.श.5) और आचार्य कुंदकुंद (वि.श.2-3) के पश्चात् तथा आचार्य पूज्यपाद (वि.श.2) से पूर्व कहीं होना चाहिये। पं.कैलाशचंद जी वि.श.3 का अंत स्वीकार करते हैं। | <li class="HindiText"><strong name="6.4" id="6.4"> समय</strong><br>ग्रंथ में निबद्ध <span class="SanskritText">‘सत्संख्याक्षेत्र स्पर्शन कालांतरभावाल्पबहुत्वैश्च।1/8।‘</span> सूत्र षट्खण्डागम/1/1/7 का रूपांतरण मात्र है। दूसरी ओर कुंदकुंद के ग्रंथों का इसमें अनुसरण किया गया है, तीसरी ओर आचार्य पूज्यपाद देवनंदि ने इस पर सर्वार्थसिद्धि नामक टीका लिखी है। इसलिये इस ग्रंथ का रचनाकाल षट्खंडागम (वि.श.5) और आचार्य कुंदकुंद (वि.श.2-3) के पश्चात् तथा आचार्य पूज्यपाद (वि.श.2) से पूर्व कहीं होना चाहिये। पं.कैलाशचंद जी वि.श.3 का अंत स्वीकार करते हैं। <span class="GRef">(जैन साहित्य और इतिहास/2/269-270)</span>। </li> | ||
</ol> | |||
<noinclude> | <noinclude> |
Latest revision as of 15:10, 27 November 2023
- सामान्य परिचय
दश अध्यायों में विभक्त छोटे छोटे 357 सूत्रों वाले इस ग्रंथ ने जैनागम के सकल मूल तथ्यों का अत्यंत संक्षिप्त परंतु विशद विवेचन करके गागर में सागर की उक्ति को चरितार्थ कर दिया है इसलिये जैन संप्रदाय में इस ग्रंथ का स्थान आगम ग्रंथों की अपेक्षा किसी प्रकार भी कम नहीं। सूत्र संस्कृत भाषा में रचे गए हैं। सांप्रदायिकता से ऊपर होने के कारण दिगंबर तथा श्वेतांबर दोनों ही आम्नायों में इसको सम्मान प्राप्त है। जैनाम्नाय में यह संस्कृत का आद्य ग्रंथ माना जाता है क्योंकि इससे पहले के सर्व ग्रंथ मागधी अथवा शौरसैनी प्राकृत में लिखे गए हैं। द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग इन तीनों अनुयोगों का सकल सार इसमें गर्भित है। (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा 2/155-156)। (जैन साहित्य और इतिहास /2/247)। सर्वार्थ सिद्धि राजवार्तिक तथा श्लोक वार्तिक इस ग्रंथ की सर्वाधिक मान्य टीकायें हैं। इसके अनुसार इस ग्रंथ का प्राचीन नाम तत्त्वार्थ सूत्र न होकर ‘तत्त्वार्थ’ अथवा ‘तत्त्वार्थ शास्त्र’ है। सूत्रात्मक होने के कारण बाद में यह तत्त्वार्थ सूत्र के नाम से प्रसिद्ध हो गया। मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करने के कारण ‘मोक्ष शास्त्र’ भी कहा जाता है। (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/2/153) (जैन साहित्य और इतिहास/2/246,247)। जैनाम्नाय में यह आद्य संस्कृत ग्रंथ माना जाता है क्योंकि इससे पहले के सकल शास्त्र प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं। (जैन साहित्य और इतिहास/2/248)। - दिगंबर ग्रंथ
यद्यपि यह ग्रंथ दिगंबर व श्वेतांबर दोनों को मान्य है परंतु दोनों आम्नायों में इसके जो पाठ प्राप्त होते हैं उनमें बहुत कुछ भेद पाया जाता है (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/2/162), (जैन साहित्य और इतिहास/2/251)। दिगंबरांनाय वाले पाठ के अध्ययन से पता चलता है कि सूत्रकार ने अपने गुरु कुंदकुंद के प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार आदि ग्रंथों का इस ग्रंथ में पूरी तरह अनुसरण किया है, जैसे द्रव्य के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाले सद्रव्य लक्षणम्, उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्, गुण पर्ययवद्द्रव्यम् ये तीन सूत्र पंचास्तिकाय की दशमी गाथा का पूरा अनुसरण करते हैं। (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/2/151,159,160) (जैन साहित्य और इतिहास/2/159)। इसलिए श्वेतांबर मान्य तत्त्वार्थाधिगम से यह भिन्न है। यह वास्तव में कोई स्वतंत्र ग्रंथ न होकर मूल तत्त्वार्थ सूत्र पर रचित भाष्य है (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/2/150)। दूसरी बात यह भी कि दिगंबर आम्नाय में इसका जितना प्रचार है उतना श्वेतांबर आम्नाय में नहीं है। वहाँ इसे आगम साहित्य से कुछ छोटा समझा जाता है। (जैन साहित्य और इतिहास/2/247) दिगंबर आम्नाय में इसकी महत्ता इस बात से भी सिद्ध है कि जितने भाष्य या टीकायें इस ग्रंथ पर लिखे गए उतने अन्य किसी ग्रंथ पर नहीं हैं।- आचार्य समंतभद्र (वि.श.2-3) कृत गंधहस्ति महाभाष्य;
- आचार्य पूज्यपाद (ई.श.5) कृत सर्वार्थसिद्धि;
- आचार्य योगींद्रदेव (ई.श.6) विरचित तत्त्व प्रकाशिका;
- आचार्य अकलंक भट्ट (ई.620-680) विरचित तत्त्वार्थ राजवार्तिकालंकार;
- आचार्य विद्यानंदि (ई.775-840) रचित श्लोकवार्तिक;
- अभयनंदि (ई.श.10-11) कृत तत्त्वार्थवृत्ति;
- आचार्य शिवकोटि (ई.श.11) कृत रत्नमाला;
- आचार्य प्रभाचंद्र (वि.श.11) कृत तत्त्वार्थ वृत्ति पद;
- आचार्य भास्करानंदि (वि.श.12-13) कृत सुखबोधिनी;
- मुनि बालचंद्र (वि.श.13 का अंत) कृत तत्त्वार्थ सूत्रवृत्ति (कन्नड़);
- योगदेव भट्टारक (वि.1636) रचित सुखबोध वृत्ति;
- विबुध सेनाचार्य (?) विरचित तत्त्वार्थ टीका;
- प्रभाचंद्र नं.8 (वि.1489) कृत तत्त्वार्थ रत्न प्रभाकर;
- भट्टारक श्रुतसागर (वि.श.16) कृत तत्त्वार्थ वृत्ति।
जबकि श्वेतांबर आम्नाय में केवल 3 टीकायें प्रचलित हैं।
- वाचक उमास्वाति कृत तत्त्वार्थाधिगम भाष्य;
- सिद्धसेन गणी (वि.श.5) कृत तत्त्वार्थ भाष्य वृत्ति;
- हरिभद्र सुनुकृत तत्त्वार्थ भाष्य वृत्ति (वि.श./8-9)।
सर्वार्थसिद्धि के प्रारंभ में इस ग्रंथ की रचना के विषय में एक संक्षिप्त सा इतिवृत्त दिया गया है, जिसे पश्चाद्वर्ती आचार्यों ने भी अपनी टीकाओं में दोहराया है। तदनुसार इस ग्रंथ की रचना सौराष्ट्र देश में गिरनार पर्वत के निकट रहने वाले किसी एक आसन्न भव्य शास्त्रवेत्ता श्वेतांबर विद्वान के निमित्त से हुई थी। उसने ‘दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:’ यह सूत्र बनाकर अपने घर के बाहर किसी पाटिये पर लिख दिया था। कुछ दिनों पश्चात् चर्या के लिए गुजरते हुए भगवान् उमास्वामी की दृष्टि उस पर पड़ गई और उन्होंने उस सूत्र के आगे ‘सम्यक्’ पद जोड़ दिया। यह देखकर वह आसन्न भव्य खोज करता हुआ उनकी शरण को प्राप्त हुए। आत्महित के विषय में कुछ चर्चा करने के पश्चात् उसने इनसे इस विषय में सूत्र ग्रंथ रचने की प्रार्थना की, जिससे प्रेरित होकर आचार्य प्रवर ने यह ग्रंथ रचा। सर्वार्थ सिद्धिकार ने उस भव्य के नाम का उल्लेख नहीं किया, परंतु पश्चाद्वर्ती टीकाकारों ने अपनी-अपनी कृतियों में उसका नाम कल्पित कर लिया है। उपर्युक्त टीकाओं में से अष्टम तथा दशम टीकाओं में उसका नाम ‘सिद्धमय’ कहा गया है, जबकि चतुर्दशतम में उसे ‘द्वैपायन’ बताया गया है। इस कथा में कितना तथ्य है यह तो नहीं कहा जा सकता। परंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यह ग्रंथ किसी आसन्न भव्य के लिये लिखा गया था। (तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा/2/153) (जैन साहित्य और इतिहास/2/245)।
ग्रंथ में निबद्ध ‘सत्संख्याक्षेत्र स्पर्शन कालांतरभावाल्पबहुत्वैश्च।1/8।‘ सूत्र षट्खण्डागम/1/1/7 का रूपांतरण मात्र है। दूसरी ओर कुंदकुंद के ग्रंथों का इसमें अनुसरण किया गया है, तीसरी ओर आचार्य पूज्यपाद देवनंदि ने इस पर सर्वार्थसिद्धि नामक टीका लिखी है। इसलिये इस ग्रंथ का रचनाकाल षट्खंडागम (वि.श.5) और आचार्य कुंदकुंद (वि.श.2-3) के पश्चात् तथा आचार्य पूज्यपाद (वि.श.2) से पूर्व कहीं होना चाहिये। पं.कैलाशचंद जी वि.श.3 का अंत स्वीकार करते हैं। (जैन साहित्य और इतिहास/2/269-270)।