हरिवंश पुराण - सर्ग 7: Difference between revisions
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<span id="1" /><div class="G_HindiText"> <p> रूप, रस, गंध और | |||
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Latest revision as of 09:27, 20 January 2024
रूप, रस, गंध और स्पर्श से रहित हलका भारी और वर्तना लक्षण से युक्त कालद्रव्य है । वह मुख्य और गौण के भेद से दो प्रकार का है॥1॥ जिस प्रकार जीव और पुद्गल के गमन करने में धर्म द्रव्य, ठहरने में अधर्म द्रव्य और समस्त द्रव्यों को अवगाह देने में आकाश द्रव्य निमित्त है उसी प्रकार समस्त द्रव्यों की वर्तना-षड̖गुणी हानि-वृद्धिरूप परिणमन में निश्चय कालद्रव्य निमित्त है ॥ 2 ॥ जिस प्रकार धर्म-अधर्म और आकाशद्रव्य का आगम दृष्टि से निश्चय किया जाता है उसी प्रकार विद्वानों को काल द्रव्य का भी निश्चय करना चाहिए ॥ 3 ॥ जीव और पुद्गलों का परिणमन नाना प्रकार का होता है और गौण काल की प्रवृत्ति मुख्य काल के कारण है ॥4॥ समस्त पदार्थों में जो परिणाम क्रिया परत्व और अपरत्वरूप परिणमन होते हैं वे अपने-अपने अंतरंग तथा बहिरंग निमित्तों से ही सब ओर प्रवृत्त होते हैं ॥ 5 ॥ उन अंतरंग, बहिरंग निमित्तों में अंतरंग निमित्त तो वस्तु की अपनी योग्यता है जो सदा उसमें स्थित रहती है और बाह्य निमित्त निश्चय कालद्रव्य है ऐसा तत्त्व दर्शी आचार्यों ने निश्चित किया है ॥6॥
परस्पर के प्रवेश से रहित कालाणु पृथक्-पृथक् समस्त लोक को व्याप्त कर राशिरूप में स्थित हैं ॥7॥ द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा कालाणुओं में विकार नहीं होता इसलिए उत्पाद-व्यय से रहित होने के कारण वे कथंचित् नित्य हैं और अपने स्वरूप में स्थित हैं ॥ 8॥ अगुरु लघु गुण के कारण उन कालाणुओं में प्रत्येक समय परिणमन होता रहता है तथा परपदार्थ के संबंध से वे विकारी हो जाते हैं इसलिए पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा कथंचित् अनित्य भी है ॥9॥
भूत, भविष्य और वर्तमानरूप तीन प्रकार के समय का कारण होने से वे कालाणु तीन प्रकार के माने गये हैं और अनंत समयों के उत्पादक होने से अनंत भी कहे जाते हैं ॥10॥ उन कारणभूत कालाणुओं से समय की उत्पत्ति होती है सो ठीक ही है क्योंकि कारण के बिना कभी कार्य उत्पन्न नहीं होता ॥11॥ यदि असद्भूत कार्य की उत्पत्ति कारण के बिना स्वयं ही होती है तो फिर गधे के सींग की उत्पत्ति स्वयं ही क्यों नहीं हो जाती ? ॥12॥ काल के सिवाय अन्य कारण से कालरूप कार्य की उत्पत्ति नहीं होती क्योंकि धान के बीज से कभी जो का अंकुर उत्पन्न नहीं होता ॥13॥ जहाँ कहीं भिन्न जातीय कारण कार्य उत्पादक होता है वहाँ वह सह कारी कारण ही होता है । कार्य की उत्पत्ति में मुख्य कारण उपादान है और सहकारी कारण उसका सहायक होता है ॥14॥ इस प्रकार जो अतींद्रियदर्शी नहीं हैं अर्थात् स्थूल पदार्थ को ही जानते हैं उनके लिए युक्ति और आगम के बल से मुख्यकाल का सद्भाव बताकर उसे व्यवस्थित किया है ॥15॥
समय, आवलि, उच्छ्वास, प्राण, स्तोक और लव आदि को व्यवहार-काल जानना चाहिए ऐसा समय के ज्ञाता आचार्यों ने वर्णन किया है ॥16॥ सर्वजघन्य गति से परिणाम को प्राप्त हुआ परमाणु जितने समय में अपने द्वारा प्राप्त स्वर्गीय प्रदेश का उल्लंघन करता है उतने समय को समय-शाख के ज्ञाता आचार्यों ने समय कहा है । यह समय अविभागी होता है तथा पर की मान्यता को रोकने वाला है ॥17-18॥ असंख्यात समय की एक आवली होती है, संख्यात आवलियों का एक उच्छ्वास निश्वास होता है, दो उच्छ्वास निश्वासों का एक प्राण होता है । सात प्राणों का एक स्तोक होता है, सात स्तोकों का एक लव होता है, सत्तर लवों का एक मुहूर्त होता है, तीस मुहूर्तों का एक दिन-रात होता है, पंद्रह दिन-रात का एक पक्ष होता है, दो पक्ष का एक मास होता है, दो मास को एक ऋतु होती है, तीन ऋतुओं का एक अयन होता है, दो अयनों का एक वर्ष होता है, पांच वर्षों का एक युग होता है, दो युगों के दस वर्ष होते हैं, इसमें दस का गुणा करने पर सौ वर्ष होते हैं, इसमें दस का गुणा करने पर हजार वर्ष होते हैं, इसमें दस का गुणा करने पर दस हजार वर्ष होते हैं, इसमें दस का गुणा करने पर एक लाख वर्ष होते हैं, इसमें चौरासी का गुणा करने पर एक पूर्वांग होता है, चौरासी लाख पूर्वांगों का एक पूर्व, चौरासी लाख पूर्वो का एक नियुतांग, चौरासी लाख नियुतांगों का एक नियुत, चौरासी लाख नियुतों का एक कुमुदांग, चौरासी लाख कुमुदांगों का एक कुमुद, चौरासी लाख कुमुदों का एक पद्मांग, चौरासी लाख पद्मांगों का एक पद्म, चौरासी लाख पद्मों का एक नलिनांग, चौरासी लाख नलिनांगों का एक नलिन, चौरासी लाख नलिनों का एक कमलांग, चौरासी लाख कमलांगों का एक कमल, चौरासी लाख, कमलों का एक तुटयांग, चौरासी लाख तुटयांगों का एक तुट्य, चौरासी लाख तुटयों का एक अटटांग, चौरासी लाख अटटांगों का एक अटट, चौरासी लाख अटटों का एक अममांग, चौरासी लाख अममांगों का एक अमम, चौरासी लाख अममों का एक ऊहांग, चौरासी लाख ऊहांगों का एक ऊह, चौरासी लाख ऊहों का एक लतांग, चौरासी लाख लतांगों की एक लता, चौरासी लाख लतांगों का एक महालतांग, चौरासी लाख महालतांगों की एक महालता, चौरासी लाख महालताओं का एक शिरःप्रकंपित, चौरासी लाख शिरःप्रकंपितों की एक हस्त प्रहेलिका और चौरासी लाख हस्त प्रहेलिकाओं की एक चचिका होती है । इस प्रकार चचिका आदि को लेकर संख्यात काल कहा गया है ॥ 19-30॥ जो वर्षों की संख्या से रहित है वह असंख्येय काल माना जाता है । इसके पल्य, सागर, कल्प तथा अनंत आदि अनेक भेद हैं ॥31॥
जो आदि, मध्य और अंत से रहित है, निविभाग है, अतींद्रिय है और मूर्त होने पर भी अप्रदेश― द्वितीयादिक प्रदेशों से रहित है उसे परमाणु कहते हैं ॥32॥ वह परमाणु एक काल में एक रस, एक वर्ण, एक गंध और परस्पर में बाधा नहीं करने वाले दो स्पर्शों को धारण करता है, अभेद्य है, शब्द का कारण है और स्वयं शब्द से रहित है ॥33॥ पदार्थ के स्वरूप को जानने वाले लोगों को ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए कि सब ओर से एक समय आकाश के छह अंशों के साथ संबंध होने से परमाणु में षडंशता है ॥34॥ क्योंकि ऐसा मानने पर आकाश के छोटे-छोटे छह अंश और एक परमाणु सब मिलकर सप्तमांश हो जाते हैं । अब परमाणु में षडंशता कैसे हो सकती है ? ॥35॥ क्योंकि परमाणुरूप, गंध, रस और स्पर्श के द्वारा पूरण तथा गलन करते रहते हैं इसलिए स्कंध के समान परमाणु पुद्गल द्रव्य हैं ॥36॥
अनंतानंत परमाणुओं के समूह को अवसंज्ञ कहते हैं । ये अवसंज्ञ आदि स्कंध की ही जातियाँ हैं ॥37॥ आठ अवसंज्ञाओं की एक संज्ञा-संज्ञा कही गयी है, आठ संज्ञा-संज्ञाओं का एक त्रुटिरेणु प्रकट किया गया है ॥38॥ आठ त्रुटिरेणुओं का एक त्रसरेणु, आठ त्रसरेणुओं का एक रथरेणु, आठ रथरेणुओं का एक उत्तम भोगभूमिज मनुष्य के बाल का अग्रभाग, उत्तमभोगभूमिज मनुष्य के आठ बालाग्रभागों का एक मध्यम भोग भूमिज मनुष्य का बालाग्र और आठ मध्यम भोगभूमिज मनुष्य के बालानों का एक जघन्य भोगभूमिज मनुष्य का बालाग्र होता है जघन्य भोगभूमिज मनुष्यों के आठ बालाग्रों का एक कर्मभूमिज मनुष्य का बालाग्र होता है, इन आठ बालाग्रों की एक लीख, आठ लीखों का एक जूंआ, आठ जुंओं का एक जो और आठ जौं का एक उत्सेधांगुल होता है । इस उत्सेधांगुल से जीवों के शरीर की ऊंचाई और छोटी वस्तुओं का प्रमाण ग्रहण किया जाता है ॥39-41॥
उत्सेधांगुल में पांच सौ का गुणा करने पर एक प्रमाणांगुल होता है । यह प्रमाणांगुल अवसर्पिणी के प्रथम चक्रवर्ती का अंगुल है ॥42 ॥ इस अंगुल से बडे-बड़े द्वीप, समुद्र आदि की ऊंचाई, चौडाई आदि यथायोग्य जानी जाती है ॥43॥ अपने-अपने समय में मनुष्यों का जो अंगुल है वह स्वांगुल माना गया है । इसके द्वारा छत्र, कलश तथा नगर आदि का विस्तार नापा जाता है ॥44॥ छह अंगुलों का एक पाद होता है, दो पादों की एक वितस्ति, दो वितस्तियों का एक हाथ और दो हाथों का एक किष्कु होता है ॥ 45 ॥ दो किष्कुओं का एक दंड, धनुष अथवा नाड़ी होती है, आठ हजार दंडों का एक योजन कहा गया है ॥46॥
एक ऐसा क्षेत्र (गर्त) बनाया जाये जो एक प्रमाण योजन बराबर लंबा-चौड़ा तथा गहरा हो, जिसकी परिधि इससे कुछ अधिक तिगुनी हो तथा जिसके चारों तरफ दीवालें बनायी गयी हों ॥47॥ इस क्षेत्र को एक से लेकर सात दिन तक की भेड़ के बालों के ऐसे टुकड़ों से जिनके कि दूसरे टुकड़े न हो सकें ऊपर तक कूट-कूटकर भरा जाये । इस गर्त को व्यवहार पल्य कहते हैं ॥48॥ सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक बाल का टुकड़ा उस गर्त से निकालने पर जितने समय में वह खाली हो जाये उतने समय को व्यवहार पल्योपम काल कहते हैं ॥49॥ तदनंतर उन्हीं बाल के टुकड़ों में प्रत्येक टुकड़े के असंख्यात करोड़ वर्षों में जितने समय हैं उतने टुकड़े बुद्धि से कल्पित टुकड़ों से पूर्वोक्त प्रमाण वाले गर्त को भरा जाये । इस भरे हुए गर्त को उद्धार पल्य कहते हैं और
एक-एक समय में एक-एक टुकड़ा निकालने पर जितने समय में वह गर्त खाली हो जाये उतने समय को उद्धारपल्योपम काल कहते हैं ॥50॥ दस कोड़ाकोड़ी उद्धारपल्यों का एक उद्धार सागर होता है और ढाई उद्धार सागरोपम काल अथवा पचीस कोड़ाकोड़ी उद्धारपल्यों के बालों के जितने टुकड़े हों उतने द्वीपसागरों का प्रमाण है ॥51॥ द्वीपसागरों का जो अध्वा अर्थात एक दिशा का विस्तार है उसे दुगुना करने पर रज्जु का प्रमाण निकलता है । यह रज्जु दोनों दिशाओं के तनुवातवलय के अंत भाग को स्पर्श करती है । विद्वान् लोग इसके द्वारा तीन लोकों का प्रमाण निकालते हैं ॥52॥
उद्धार पल्य के रोम खंडों के असंख्यात करोड़ वर्षों के समय बराबर बुद्धि द्वारा खंड कल्पित किये जावें और उनसे पूर्वोक्त गर्त को भरा जाये । इस गर्त को अद्धा पल्य कहते हैं । उनमें से एक-एक समय के बाद एक-एक टुकड़ा निकालने पर जितने समय में वह खाली हो जाये उतने समय को अद्धापल्योपम काल कहते हैं । आयु का प्रमाण बतलाने के लिए इसका उपयोग होता है ॥53-54॥ दस कोड़ाकोड़ी अद्धापल्यों का अद्धासागर होता है, इसके द्वारा संसारी जीवों को आयु, कर्म तथा संसार की स्थिति जानी जाती है ॥55॥
दस कोड़ाकोड़ी अद्धासागरों की एक अवसर्पिणी तथा उतने ही सागरों की एक उत्सर्पिणी होती है । इनमें प्रत्येक के छह-छह भेद हैं ॥56॥ जिसमें वस्तुओं को शक्ति क्रम से घटती जाती है उसे अवसर्पिणी और जिसमें बढ़ती जाती है उसे उत्सर्पिणी कहते हैं । इनका अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नाम सार्थक है ॥57॥ 1 सुषमासुषमा, 2 सुषमा, 3 सुषमादुःषमा, 4 दुःषमा सुषमा, 5 दुःषमा और 6 दुःषमादुःषमा ये अवसर्पिणी के छह भेद हैं और इससे उलटे अर्थात् 1 दुःषमादुःषमा, 2 दुःषमा, 3 सुषमादुःषमा, 4 दुःषमासुषमा, 5 सुषमा और 6 सुषमासुषमा ये छह उत्सर्पिणी के भेद हैं ॥58-59॥
प्रारंभ के तीन कालों का प्रमाण क्रम से चार कोड़ाकोड़ी सागर, तीन कोड़ाकोड़ी सागर और दो कोड़ाकोड़ी सागर है ॥ 60॥ चौथे काल का प्रमाण बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर है और पांचवें तथा छठे काल का प्रमाण इक्कीस-इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण है ॥61-62 ॥ जिस प्रकार दस कोड़ाकोड़ी सागर का अवसर्पिणी काल है उसी प्रकार दस कोड़ाकोड़ी सागर का उत्सर्पिणी काल है । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी दोनों मिलकर कल्प काल कहलाते हैं । इन दोनों कालों के समय भरत-ऐरावत क्षेत्र में पदार्थों की स्थिति हानि और वृद्धि को लिये हुए होती है । इन दो क्षेत्रों के सिवाय अन्य क्षेत्रों में पदार्थों की स्थिति हानिवृद्धि से रहित-अवस्थित है ॥63॥ प्रारंभ के तीन कालों में भरत क्षेत्र की यह भूमि भोग भूमि कहलाती है जो कि यथार्थ में नाना प्रकार के भोगों की भूमि-स्थान भी है ॥64॥
उन तीनों कालों के प्रारंभ में मनुष्य क्रम से छह हजार, चार हजार और दो हजार धनुष ऊंचे रहते थे तथा स्त्री-पुरुषों की उत्पत्ति युगल रूप में-साथ ही साथ होती थी॥65॥ उस समय उनकी आयु देवकुरु, उत्तरकुरु, हरिवर्ष तथा हैमवत क्षेत्र के मनुष्यों के समान क्रम से तीन पल्य, दो पल्य और एक पल्य के तुल्य होती थी ॥66॥ उन तीन कालों में स्त्री-पुरुष क्रम से उदित होते हुए सूर्य के समान, पूर्णचंद्र के समान और प्रियंगु पुष्प के समान आभा वाले होते थे ॥67॥ उनकी पीठ की हड्डियों की संख्या पहले काल में दो सौ छप्पन, दूसरे काल में एक सौ अट्ठाईस और तीसरे काल में चौंसठ थी ॥ 68॥ उनका पहले काल में चार दिन के अंतर से बेर के बराबर, दूसरे काल में दो दिन के अंतर से बहेड़ा के बराबर और तीसरे काल में दो दिन के अंतर से आंवले के बराबर दिव्य कल्पवृक्षोत्पन्न आहार होता था ॥69॥ उन तीन कालों के नियोग से नियंत्रित यह भारत वर्ष की भूमि उस समय क्रमशः तीन प्रकार की स्थायी भोगभूमियों की रीति को ग्रहण करती थी अर्थात उस समय यहाँ की व्यवस्था शाश्वती उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमियों के समान थी ॥70॥ जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथिवी, स्थायी लगे हुए रत्नों के पटलों से सुशोभित है उसी प्रकार भरत क्षेत्र की यह भूमि भी उस समय ऊपर स्थित देदीप्यमान रत्नों के पटलों से सुशोभित होती है ॥71॥ अपनी किरणों से दिशाओं को व्याप्त करने वाले इंद्र नील आदि नीलमणि, जात्यंजन आदि कृष्णमणि, पद्मराग आदि काल मणि, हैम आदि पीले मणि और मुक्ता आदि सफेद मणि इस प्रकार पाँच वर्ण के मणियों से व्याप्त हुई यह भूमि उस समय स्वर्ग भूमि के समान सुशोभित हो रही थी ॥72-73॥ चंद्रकांतमणि जिसका मुख था, मूंगा जिसके ओठ थे तथा रत्न और स्वर्ण जिसकी चोली थे ऐसी यह भूमि उस समय किसी स्त्री के समान सुशोभित होती थी ॥ 74॥
चंद्रकांतमणि की किरणें शीतल होती हैं और सूर्य कांतमणि की उष्ण । परंतु यहाँ दोनों ही एक दूसरे से मिलकर अलग-अलग नहीं होती थीं जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो चंद्रकांत की किरणें ठंड से पीड़ित थीं इसलिए सूर्यकांत की उष्ण किरणों को नहीं छोड़ना चाहती थीं और सूर्यकांत की किरणें गर्मी से पीड़ित हैं इसलिए चंद्रकांत को शीतल किरणों को नहीं छोड़ना चाहती थीं ॥ 75॥ जिस प्रकार प्रेम के वशीभूत हुए मनुष्य परस्पर कराश्लेष अर्थात् हाथों का आलिंगन करते हैं और राग अर्थात् प्रेम से उनके शरीर मूर्छित रहते हैं, उसी प्रकार यहाँ के नाना प्रकार के मणि भी परस्पर कराश्लेष अर्थात् किरणों का आलिंगन करते हैं और राग अर्थात् रंग से उनकी आकृति मूर्छित-वृद्धिंगत होती रहती है । इस प्रकार जो प्रेम के वशीभूत के समान जान पड़ते थे, ऐसे मणियों से यह भूमि अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥76॥ जिनका वर्ण पांच प्रकार का था, स्पर्श सुखकारी था तथा गंध, रस और शब्द जिनके उत्तम थे ऐसे चार अंगुल प्रमाण तृणों से ढकी हुई यहाँ की भूमि सुशोभित हो रही थी ॥ 77॥ जो दही, मधु, दूध, घी और ईख के समान स्वाद वाले उत्तम जल से भरे हुए थे तथा जिनके तट रत्ननिर्मित थे ऐसी सुंदर-सुंदर बावड़ियों और सरोवरों से वह भूमि अत्यधिक सुशोभित थी ॥78॥ रंग-बिरंगे मणियों से आच्छादित एवं प्राणियों को सुख देने वाले सुवर्णमय सुंदर पर्वतों से यह भूमि सदा अत्यधिक सुशोभित रहती थी ॥79॥
1 ज्योतिरंग, 2 गृहांग, 3 प्रदीपांग, 4 तूर्यांग, 5 भोजनांग, 6 भाजनांग, 7 वस्त्रांग, 8 माल्यांग, 9 भूषणांग और 10 मद्यांग जाति के कल्पवृक्षों से वह भूमि सदा सुशोभित रहती थी ꠰꠰80॥ जिन्होंने अपनी कांति से चंद्रमा और सूर्य के मंडल को आच्छादित कर रखा था ऐसे ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्ष दिन-रात का भेद दूर करते हुए सदा सुशोभित रहते थे ॥81॥ जो बाग-बगीचों से सहित थे तथा जिनमें अनेक खंड थे ऐसे गृहांग जाति के कल्पवृक्षों से उत्पन्न हुए नाना प्रकार के वृक्ष आकाशरूपी आँगन को सुशोभित कर रहे थे ॥ 82॥ प्रदीपांग जाति के कल्पवृक्ष अपनी लंबी-चौड़ी शाखाओं से दीपक के समान आभा वाले कमल की बोड़ियों के आकार नये-नये पत्तों को धारण कर रहे थे ॥ 83 ॥ यहाँ जो तूर्यांग जाति के कल्पवृक्ष थे वे तत, वितत, धन और सुषिर के भेद से चार प्रकार के शुभ बाजों को सदा उत्पन्न करते रहते थे ॥84॥ भोजनांग जाति के कल्पवृक्ष भोगी मनुष्यों के लिए छह प्रकार के रसों से परिपूर्ण, अत्यंत स्वादिष्ट तथा अन्न, पान, खाद्य और लेह्य के भेद से चार भेद वाले नाना प्रकार के भोजन को उत्पन्न करते रहते थे ॥85॥ भाजनांग जाति के कल्पवृक्ष मणि एवं सुवर्णादि से निर्मित थाली, कटोरा आदि अनेक प्रकार के बर्तन उत्पन्न करते थे ॥86॥ वस्त्रांग जाति के कल्पवृक्ष अपनी पीड़ तथा शाखाओं पर पाट, चीनी तथा रेशम आदि के बने हुए नाना प्रकार के वस्त्र धारण करते हुए सुशोभित होते थे ॥ 87॥ माल्यांग जाति के कल्पवृक्ष मालती, मल्लिका आदि के ताजे फूलों से गूंथी हुई मालाओं को धारण करते हुए सुशोभित हो रहे थे ॥88॥ भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष स्त्री पुरुषों के योग्यहार, कुंडल, बाजूबंद तथा मेखला आदि आभूषणों से व्याप्त हो सुशोभित थे ॥ 89 ॥ और मद्यांग जाति के कल्पवृक्षों के द्वारा स्त्री-पुरुषों के लिए प्रिय तथा उनकी मदसक्ति को उत्पन्न करने वाले प्रसन्नता आदि नाना प्रकार के मद्य उत्पन्न किये जाते थे ॥90॥
उस समय यहाँ स्त्री-पुरुषों के युगल दस प्रकार के कल्पवृक्षों से उत्पन्न चक्रवर्ती के दशांग भोगों से भी अधिक भोगों का उपभोग करते थे ॥91॥ उस समय गर्भ से उत्पन्न हुए स्त्री-पुरुषों (युगलियों) के सात दिन तो अपना अंगूठा चूसते-चूसते व्यतीत हो जाते थे, तदनंतर सात दिन रेंगते, सात दिन लड़खड़ाती हुई गति से, सात दिन स्थिर गति से, सात दिन कला तथा अनेक गुणों के अभ्यास से और सात दिन यौवन रूप संपदा के प्राप्त करने में व्यतीत होते थे । उसके सातवें सप्ताह में उन्हें सम्यग्दर्शन ग्रहण की योग्यता आती थी ॥92-94॥ स्त्री-पुरुषों के उत्तमोत्तम लक्षणों से युक्त, विशद्ध इंद्रिय और बुद्धि के धारक, कला और गुणों में चतुर एवं रोगों से रहित उस समय के लोग आनंद से क्रीड़ा करते थे ॥ 95॥ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और वेश के द्वारा मन को आनंदित करने वाले वहाँ के लोग देवकुमारों के समान तथा वहाँ की स्त्रियां देवांगनाओं के समान जान पड़ती थीं ॥96॥ उस समय स्त्री-पुरुषों के कान परस्पर के संगीत शब्दों में, चक्षु रूप के देखने में, घ्राण सुगंधि के ग्रहण करने में, जिह्वा मुख के रसास्वाद में और स्पर्शन शरीर के उत्तम स्पर्श के ग्रहण करने में निरंतर आसक्त रहते थे । उनके मन तथा इंद्रियाँ रंचमात्र भी संतुष्ट नहीं होती थीं ॥97-98॥
जिस प्रकार मनुष्यों के जोड़े कल्पवृक्ष संबंधी आहारों से संतुष्ट हो प्रेमपूर्वक क्रीड़ा करते हैं उसी प्रकार संतुष्ट चित्त के धारक तिर्यंचों के जोड़े भी प्रेमपूर्वक क्रीड़ा करते थे ॥99 ॥ उस समय कहीं सिंहों के युगल, कहीं हाथियों के युगल, कहीं ऊंटों के युगल, कहीं शूकरों के युगल, और कहीं मद से धीमी चाल चलने वाले व्याघ्रों के युगल क्रीड़ा करते थे॥100 । कहीं मनुष्यों के बराबर आयु को धारण करने वाले गाय, घोड़े और भैंसों के जोड़े अपनी इच्छानुसार अत्यधिक क्रीड़ा करते थे॥101॥ पुरुष स्त्री को आर्या और स्त्री पुरुष को आर्य कहती थी । यथार्थ में भोगभूमिज स्त्री-पुरुषों का वह साधारण नाम है॥102॥ उस समय सबकी एक ही उत्तम जाति होती है, वहाँ न ब्राह्मणादि चार वर्ण होते हैं असि, मषि आदि छह कर्म होते हैं, न सेवक और स्वामी का संबंध होता है और न वेषधारी ही होते हैं ॥103 ॥ वहाँ के मनुष्य सब विषयों में मध्यस्थ रहते हैं, वहाँ न मित्र होते हैं और न शत्रु । एवं स्वभाव से ही अल्पकषायी होने के कारण आयु समाप्त होने पर सब नियम से देव पर्याय को ही प्राप्त होते हैं ॥104॥ जन्म से ही जिसका प्रेमभाव परस्पर में निबद्ध रहता था ऐसे पुरुष की मृत्यु छींक आने से तथा स्त्री को मृत्यु जिमहाई लेने मात्र से सुखपूर्वक हो जाती थी ॥105॥
अथानंतर गणधर देव श्रेणिक का मनोभिप्राय जानकर भोगभूमि में उत्पन्न होने के कारण इस प्रकार कहने लगे ॥106॥ कर्म-भूमि के जो मनुष्य स्वभाव से ही मंदकषाय होते हैं वे पात्रदान के प्रभाव से भोगभूमि में मनुष्य होते हैं ॥ 107॥ जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप की शुद्धि से पवित्र हैं तथा शत्रु और मित्रों पर मध्यस्थ भाव रखते हैं ऐसे साधु उत्तम पात्र कहलाते हैं ॥108॥ संयमासंयम को धारण करने वाले श्रावक मध्यम पात्र हैं और अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र कहे जाते हैं ॥109॥ उक्त तीनों प्रकार के पात्रों में यथायोग्य दान देकर बुद्धिमान् मनुष्य भोगभूमि में आर्य होकर वहाँ का दिव्य सुख भोगता है ॥110॥ जिस प्रकार उत्तम क्षेत्र में विधि-पूर्वक बोया हुआ छोटा भी बीज वृद्धि को प्राप्त होता है उसी प्रकार पात्र के लिए दिया हुआ आहार आदि दान भी वृद्धि को प्राप्त होता है ॥ 111 ॥ जिस प्रकार धान और ईख के खेत में पड़ा हुआ जल मीठा हो जाता है और गायों के द्वारा पीया हुआ पानी दूध पर्याय को प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार पात्र के लिए दिया हुआ अल्प रस वाला अन्न, पान तथा औषध्यादिक का दान परभव में अविनाशी तथा अमृत के समान स्वाद से युक्त हो जाता है ॥112-113॥
जो स्थूल हिंसा आदि से निवृत्त हैं परंतु मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र के धारक हैं वे कुपात्र कहलाते हैं और जो स्थूल हिंसा आदि से भी निवृत्त नहीं हैं उन्हें अपात्र जानना चाहिए ॥ 114 ॥ कुपात्र दान के प्रभाव से मनुष्य, भोगभूमियों में तिर्यंच होते हैं अथवा कुमानुष कुलों में उत्पन्न होकर अंतर द्वीपों का उपभोग करते हैं ॥115 ॥ जिस प्रकार खराब खेत में बोया हुआ बीज अल्प फल वाला होता है उसी प्रकार कुपात्र के लिए दिया हुआ दान भी दाता को कुभोग प्राप्त कराने वाला होता है ॥116 ॥ जिस प्रकार ऊषर क्षेत्र में बोया हुआ धान समूल नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार कुपात्र के लिए दिया हुआ दान भी निष्फल हो जाता है ॥ 117 ॥ जिस प्रकार नीम के वृक्ष में पड़ा हुआ पानी कडुआ हो जाता है, कोदों में दिया हुआ पानी मद कारक हो जाता है और सर्प के मुख में पड़ा हुआ दूध विष हो जाता है, उसी प्रकार अपात्र के लिए दिया हुआ दान विपरीत फल को करने वाला हो जाता है ॥118॥ चूंकि सुपात्र के लिए दिया हुआ दान सुफल को देने वाला है, कुपात्र के लिए दिया हुआ दान कुफल को देने वाला है और अपात्र के लिए दिया हुआ दान दुःख देने वाला है अतः पात्र के लिए ही दान देना चाहिए ॥119 ॥ जिस प्रकार निर्मल स्फटिकमणि उपाधि के वश से भेद को प्राप्त होता है उसी प्रकार पात्र के भेद से दान का फल भी भेद को प्राप्त हो जाता है ॥120॥ निर्मल अभिप्राय को धारण करने वाला सम्यग्दृष्टि गृहस्थ यदि पात्र के लिए दान देता है तो वह नियम से स्वर्ग ही जाता है ॥ 121॥
अथानंतर सुख के कारणभूत जब प्रारंभ के दो काल बीत गये और पल्य के आठवें भाग बराबर तीसरा काल बाकी रह गया तथा कल्पवृक्ष जो पहले अधिक मात्रा में थे क्रम-क्रम से कम होने लगे तब इस क्षेत्र में कुलकरों की उत्पत्ति हुई । हे श्रेणिक ! मैं इस समय उन्हीं कुलकरों की उत्पत्ति कहता हूँ तू श्रवण कर ॥122-123 ॥ गंगा और सिंधु महानदियों के बीच दक्षिण भरतक्षेत्र में क्रम से चौदह कुलकर उत्पन्न हुए थे ॥124॥ उन कुलकरों में पहला कुलकर प्रतिश्रुति था । वह महाप्रभाव से संपन्न था तथा अपने पूर्व भव के स्मरण से सहित था ॥125॥ उसके समय प्रजा के लोग पौर्णमासी के दिन आकाश में एक साथ, आकाशरूपी हाथी के दो घटाओ के समान आभा वाले चंद्र और सूर्य-मंडल को देखकर अपने ऊपर आने वाले किसी महान् उत्पात से शंकित हो आकस्मिक भय से उद्विग्न हो उठे तथा सब एकत्रित हो प्रतिश्रुति कुलकर की शरण में जाकर उससे पूछने लगे ॥126-127॥ कि हे नररत्न ! आकाश के दोनों छोरों पर, मंडलाकार तथा असमय में हम लोगों को भय उत्पन्न करने वाले ये दो कौन अपूर्व पदार्थ दिख रहे हैं ? ॥128॥ अहो ! हम लोगों के लिए यह अकस्मात् ही दुःसह भय प्राप्त हुआ है । क्या यह प्रजा के लिए दुस्तर महाप्रलय ही आ पहुंचा है ? ॥129॥
इस प्रकार पूछे जाने पर स्वामी प्रतिश्रुति ने कहा कि हे प्रजाजनो ! भय छोड़ों, हमारे लिए कुछ भी भय प्राप्त नहीं हुआ है । आप लोग स्वस्थ रहिए । ये जो दिखाई दे रहे हैं मैं उनका कथन करता हूँ ॥130॥ हे भद्र पुरुषो ! यह पश्चिम में प्रभा के समूह से व्याप्त सूर्य-मंडल और यह पूर्व दिशा में चंद्र-मंडल दिखाई दे रहा है ॥131 ॥ ये सूर्य और चंद्रमा समस्त ज्योतिश्चक्र के स्वामी हैं, भ्रमणशील हैं और निरंतर मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देते हुए घूमते रहते हैं ॥132॥ चार प्रकार के देवों में जो ज्योतिषी देवों का समूह है वह आकाश में निरंतर अपने इन दोनों स्वामियों के पीछे-पीछे भ्रमण करता है ॥133॥ पहले इनका आकार ज्योतिरंग जाति के महावृक्षों की प्रभा से आच्छादित था इसलिए ये विदेह क्षेत्र को छोड़ अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं थे ॥134॥ इस समय लोक, ज्योतिरंग वृक्षों की प्रभा क्षीण हो जाने से तेज रहित हो गया है इसलिए उसे जीतने की इच्छा से ही मानो चंद्रमा और सूर्य अपने शरीर को प्रकट कर स्थित हैं ॥135 ॥ अब पृथिवी पर सूर्य के भेद से दिन-रात का भेद होगा और चंद्रमा के द्वारा शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष प्रकट होंगे ॥136 ॥ दिन के समय चंद्रमा सूर्य के द्वारा अस्त-जैसा हो जाता है, स्पष्ट नहीं दिखाई देता और रात्रि के समय स्पष्टता को प्राप्त हो जाता है । यह चंद्रमा समस्त ज्योतिश्चक्र का सखा है ॥ 137॥ तुम लोगों ने पूर्व जन्म के समय विदेह क्षेत्र में इन्हें अच्छी तरह देखा है इसलिए आज इनका दिखना तुम्हारे लिए अपूर्व नहीं है ॥ 138॥ पहले देखी-सुनी और अनुभव में आयी वस्तु का दर्शन होने पर आप लोगों को उत्पात की आशंका नहीं होनी चाहिए । हे प्रजाजनो ! तुम सब निर्भय होओ-उत्पात का भय छोड़ों ॥139 ॥
काल के स्वभाव में भेद होने से पदार्थों का स्वभाव भिन्न रूप हो जाता है और उसी से द्रव्य-क्षेत्र तथा प्रजा के व्यवहार में विपरीतता आ जाती है ॥140 ॥ इसलिए हे प्रजाजनो ! अब इसके आगे अव्यवस्था दूर करने के लिए हा, मा और धिक् ये तीन दंड की धाराएँ स्थापित की जाती हैं ॥ 141 ॥ यदि कोई स्वजन या परजन कालदोष से मर्यादा के लाँघने की इच्छा करता है तो उसके साथ दोषी के अनुरूप उक्त तीन धाराओं का प्रयोग करना चाहिए ॥ 142 ॥ तीन धाराओं से नियंत्रण को प्राप्त हुए समस्त मनुष्य इस भय से त्रस्त रहते हैं कि हमारा कोई दोष दृष्टि में न आ जाये और इसी भय से वे दोषों से दूर हटते रहते हैं ॥143 ॥ अनर्थों से बचने के लिए तथा प्रजा की भलाई के लिए आप लोगों को ये निश्चित की हुई दंड की धाराएं स्वीकृत करनी चाहिए ॥144॥ हमारी आज्ञा का स्मरण कर अब सब युगल निर्भय हो यथास्थान महलों में निवास करें ॥145 ॥ इस प्रकार कहने पर सब लोगों ने प्रतिश्रुति कुलकर के वचन शीघ्र ही स्वीकृत किये और सब बड़ी प्रसन्नता से यथास्थान महलों में रहने लगे ॥ 146॥
जिस प्रकार गुरु के वचन स्वीकृत किये जाते हैं उसी प्रकार प्रजा ने चूंकि उसके वचन स्वीकृत किये थे इसलिए वह पृथिवी पर सर्व प्रथम प्रतिश्रुति इस नाम से प्रसिद्ध हुआ था ॥147 ॥ यह प्रतिश्रुति कुलकर, पल्य के दसवें भाग तक जीवित रहकर तथा सन्मति नाम के पुत्र को उत्पन्न कर आयु के अंत में स्वर्ग गया ॥148॥ सन्मति कुलकर पिता की मर्यादा की रक्षा करता था, प्रजा को अतिशय मान्य था और अनेक कलाओं का घर था इसलिए सन्मति इस नाम से प्रसिद्ध हुआ था ॥ 149 ॥ वह सन्मति पल्य के सोवें भाग जीवित रहकर तथा क्षेमंकर नामक पुत्र को उत्पन्न कर स्वर्ग गया ॥150॥ उसके समय में प्रजा को सिंह तथा व्याघ्रों से भय उत्पन्न होने लगा था उससे उनका कल्याण कर वह क्षेमंकर इस नाम को प्राप्त हुआ था ॥151॥ यह प्रजा का स्वामी पल्य के हजारवें भाग जीवित रहकर तथा क्षेमंधर नामक पुत्र को उत्पन्न कर स्वर्ग गया ॥152 ॥
वह क्षेमंधर पिता की आर्य मर्यादा की रक्षा करने वाला था और पल्य के दस हजारवें भाग जीवित रहकर तथा सीमंकर नामक पुत्र को उत्पन्न कर स्वर्ग गया । इसके समय में कल्पवृक्षों की संख्या कम हो गयी थी इसलिए उनकी लोभी प्रजा में परस्पर कलह होने लगी थी । इसने उनकी सीमा निर्धारित की थी इसलिए यह सीमंकर इस सार्थक नाम को धारण करता था । यह पल्य के लाखवें भाग जीवित रहकर स्वर्गगामी हुआ और इसके सीमंधर इस सार्थक नाम को धारण करने वाला पुत्र हुआ । वह पल्य के दस लाखवें भाग जीवित रहकर स्वर्ग गया । इसके विपुलवाहन नाम का पुत्र हुआ, यह बड़े-बड़े हाथियों को वाहन बनाकर उन पर अत्यधिक क्रीड़ा करता था इसलिए विपुलवाहन इस नाम का धारी हुआ था ॥153-156॥ वह पल्य के करोड़वें भाग जीवित रहकर स्वर्ग गया और उसके चक्षुष्मान् नाम का पुत्र हुआ ॥157॥ पहले माता-पिता पुत्र का मुख तथा चक्षु देखे बिना ही मर जाते थे पर इसके समय पुत्र का मुख और चक्षु देखकर मरने लगे इससे प्रजा को कुछ भय उत्पन्न हुआ परंतु इसने उन सबके भय को दूर किया इसलिए कुछ अधिक काल तक जीवित रहने वाली प्रजा ने इसे चक्षुष्मान् इस नाम से संबोधित किया ॥158॥ स्तुति को प्राप्त हुआ वह चक्षुष्मान् पल्य के दस करोड़वें भाग तक भोग भोगकर आयु समाप्त होने पर स्वर्ग गया । वह यद्यपि उदात्त = उदात्त नाम का स्वर था तो भी स्वरित =स्वरित नाम का स्वर हुआ था यह विरोध है । परिहार पक्ष में वह उदात्त-महान् था और स्वरितः स्वर् इतः― स्वर्ग गया था ॥159 ॥
चक्षुष्मान् का पुत्र यशस्वी हुआ । इसने अपने समय में प्रजा को पुत्र का नाम रखना सिखाया इसलिए प्रजा ने इसे विस्तृत यश से युक्त किया अर्थात् इसका यशस्वी यह नाम रखा ॥160॥ वह पल्य के सौ करोड़वें भाग जीवित रहकर तथा अभिचंद्र नामक उत्तम पुत्र को उत्पन्न कर स्वर्ग गया ॥161॥ उसके समय में प्रजा अपनी संतान को ऊपर उठा चंद्रमा के सामने क्रीड़ा कराती थी इसलिए वह अभिचंद्र इस नाम को प्राप्त हुआ ॥162 ॥ वह गुणवान् कुलकर पल्य के हजार करोड़वें भाग जीवित रहकर तथा चंद्राभ नामक पुत्र को उत्पन्न कर स्वर्ग गया ॥163॥ चंद्राभ ने पल्य के दस हजार करोड़वें भाग तक जीवित रहकर मरुदेव को उत्पन्न किया । वह अपने मरुदेव पुत्र को एक मास तक खिलाता रहा, अनंतर स्वर्ग को प्राप्त हुआ ॥164॥॥ मरुदेव के समय स्त्री-पुरुष अपनी संतान के मुख से हे मां, हे पिता इस प्रकार के मनोहर शब्द सुनने लगे थे ॥165 ॥
पहले यहाँ युगल संतान उत्पन्न होती थी परंतु इसके आगे युगल संतान की उत्पत्ति को दूर करने की इच्छा से ही मानो मरुदेव ने प्रसेनजित् नामक अकेले पुत्र को उत्पन्न किया था ॥166 । इसके पूर्व भोगभूमिज मनुष्यों के शरीर में पसीना नहीं आता था परंतु प्रसेनजित का शरीर जब कभी पसीना के कणों से सुशोभित हो उठता था । वीर मरुदेव ने अपने पुत्र प्रसेनजित् को विवाह-विधि के द्वारा किसी प्रधान कुल की कन्या के साथ मिलाया था ॥167 ॥ अंत में मरुदेव पल्य के लाख करोड़वें भाग तक जीवित रहकर स्वर्ग गया ॥168 ॥ तदनंतर प्रसेनजित् ने एक करोड़ पूर्व की आयु वाले, जन्मकाल में बालकों की नाल काटने की व्यवस्था करने वाले थे, तथा स्वर्गगामी नाभिराज पुत्र को उत्पन्न किया ॥169 ॥ पल्य के दस लाख करोड़वें भाग तक जीवित रहकर आयु समाप्त होने पर प्रसेनजित् स्वर्ग गया ॥170॥
प्रथम कुलकर प्रतिश्रुति की ऊंचाई अठारह सौ धनुष थी, इसके पुत्र दूसरे कुलकर सन्मति की तेरह सौ धनुष थी, प्रतिश्रुति के पौत्र-तीसरे कुलकर क्षेमंकर को आठ सौ धनुष थी और इसके आगे प्रत्येक की पचीस-पचीस धनुष कम होती गयी है । इस तरह अंतिम कुलकर नाभिराजा की ऊंचाई पांच सौ पचीस धनुष थी ॥171-172॥ ये चौदह कुलकर समचतुरस्रसंस्थान और वज्रवृषभनाराचसंहनन से युक्त गंभीर तथा उदार शरीर के धारक थे, इनको अपने पूर्व भव का स्मरण था तथा इनकी मनु संज्ञा थी ॥173 ।