हरिवंश पुराण - सर्ग 47: Difference between revisions
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<div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर कीचक के छोटे भाइयों का वृत्तांत और उसके बाद जिसमें भीम तथा अर्जुन की कोपाग्नि से शत्रुरूपी वन का अंतराल भस्म हो गया था ऐसा गायों का पकड़ना आदि घटनाएं हो चुकी तब अपनी मर्यादा को खंडित न करने वाले होकर भी दुःशासन (खोटा शासन अथवा दुःशासन नामक कौरव) के अंतर को विदीर्ण करने वाले पांडव समीचीन नयों के समान एक-दूसरे के अनुकूल रहते हुए अपने पिता पांडु के भवन में एकत्रित हुए ॥1-2॥ अबतक उनकी अज्ञात निवास की अवधि पूर्ण हो चुकी थी इसलिए धर्मराज-युधिष्ठिर की आज्ञा से वे भीमसेन आदि<strong>, </strong>युद्ध में दुर्योधन के साथ जा खडे हुए और जिस प्रकार मुनि सबको सम्मत-इष्ट होते हैं उसी प्रकार वे पांडव भी सबको सम्मत-इष्ट थे ॥3॥ तदनंतर जिस प्रकार समस्त दिशाओं को पूर्ण कर के और सर्वहितकारी जल की वर्षा करने वाले वर्षा कालिक मेघ अत्यंत उन्नत उत्तम पद को प्राप्त कर लेते हैं उसी प्रकार सबके मनोरथों को पूर्ण करने वाले एवं समस्त अर्थरूपी अमृत की वर्षा करने वाले वे पांडव भी अत्यंत उच्च पद को प्राप्त हुए । भावार्थ― पांडव हस्तिनापुर आकर रहने लगे और सबकी दृष्टि में उच्च माने जाने लगे ॥4॥</p> | <span id="1" /><span id="2" /><div class="G_HindiText"> <p>अथानंतर कीचक के छोटे भाइयों का वृत्तांत और उसके बाद जिसमें भीम तथा अर्जुन की कोपाग्नि से शत्रुरूपी वन का अंतराल भस्म हो गया था ऐसा गायों का पकड़ना आदि घटनाएं हो चुकी तब अपनी मर्यादा को खंडित न करने वाले होकर भी दुःशासन (खोटा शासन अथवा दुःशासन नामक कौरव) के अंतर को विदीर्ण करने वाले पांडव समीचीन नयों के समान एक-दूसरे के अनुकूल रहते हुए अपने पिता पांडु के भवन में एकत्रित हुए ॥1-2॥<span id="3" /> अबतक उनकी अज्ञात निवास की अवधि पूर्ण हो चुकी थी इसलिए धर्मराज-युधिष्ठिर की आज्ञा से वे भीमसेन आदि<strong>, </strong>युद्ध में दुर्योधन के साथ जा खडे हुए और जिस प्रकार मुनि सबको सम्मत-इष्ट होते हैं उसी प्रकार वे पांडव भी सबको सम्मत-इष्ट थे ॥3॥<span id="4" /> तदनंतर जिस प्रकार समस्त दिशाओं को पूर्ण कर के और सर्वहितकारी जल की वर्षा करने वाले वर्षा कालिक मेघ अत्यंत उन्नत उत्तम पद को प्राप्त कर लेते हैं उसी प्रकार सबके मनोरथों को पूर्ण करने वाले एवं समस्त अर्थरूपी अमृत की वर्षा करने वाले वे पांडव भी अत्यंत उच्च पद को प्राप्त हुए । भावार्थ― पांडव हस्तिनापुर आकर रहने लगे और सबकी दृष्टि में उच्च माने जाने लगे ॥4॥<span id="5" /></p> | ||
<p> तदनंतर दुर्योधनादिक सौ भाई ऊपर से उन्हें प्रसन्न रखकर हृदय में पुनः क्षोभ को प्राप्त होने लगे― भीतर-ही-भीतर उन्हें परास्त करने के उपाय करने लगे सो ठीक ही है क्योंकि इधर उधर बहने वाले जल में स्वच्छता कितने समय तक रह सकती है ? ॥5॥ दुर्योधनादिक ने पहले के समान फिर से संधि में दोष उत्पन्न करना शुरू कर दिया और उससे भीम<strong>, </strong>अर्जुन आदि छोटे भाई फिर से उत्तेजित होने लगे परंतु युधिष्ठिर उन्हें शांत करते रहे ॥6॥ स्वच्छ बुद्धि के धारक<strong>, </strong>धीर-वीर एवं दयालु युधिष्ठिर कौरवों का कभी अहित नहीं विचारते थे इसलिए वे माता तथा भाई आदि परिवार के साथ पुनः दक्षिण दिशा की ओर चले गये | <p> तदनंतर दुर्योधनादिक सौ भाई ऊपर से उन्हें प्रसन्न रखकर हृदय में पुनः क्षोभ को प्राप्त होने लगे― भीतर-ही-भीतर उन्हें परास्त करने के उपाय करने लगे सो ठीक ही है क्योंकि इधर उधर बहने वाले जल में स्वच्छता कितने समय तक रह सकती है ? ॥5॥<span id="6" /> दुर्योधनादिक ने पहले के समान फिर से संधि में दोष उत्पन्न करना शुरू कर दिया और उससे भीम<strong>, </strong>अर्जुन आदि छोटे भाई फिर से उत्तेजित होने लगे परंतु युधिष्ठिर उन्हें शांत करते रहे ॥6॥<span id="7" /> स्वच्छ बुद्धि के धारक<strong>, </strong>धीर-वीर एवं दयालु युधिष्ठिर कौरवों का कभी अहित नहीं विचारते थे इसलिए वे माता तथा भाई आदि परिवार के साथ पुनः दक्षिण दिशा की ओर चले गये ॥ 7॥<span id="9" /> चलते-चलते युधिष्ठिर विंध्यवन में पहुंचे । वहाँ अपने आश्रम में रहकर तपस्या करने वाले विदुर को देखकर उन्होंने अपने सब भाइयों के साथ उन्हें नमस्कार किया और उनकी इस प्रकार स्तुति की हे पूज्य ! आपका ही जन्म सफल है जो आप संपदाओं का परित्याग कर जिनेंद्रोक्त मोक्षमार्ग में महातप करते हुए निर्भय स्थित हैं ॥9॥<span id="10" /><span id="11" /> जिस मार्ग में तत्त्वश्रद्धानरूप निर्मल सम्यग्दर्शन<strong>, </strong>समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाला ज्ञान और निर्दोष चारित्र प्रतिपादित है एवं व्रत<strong>, </strong>गुप्ति<strong>, </strong>समिति तथा इंद्रिय और कषाय को जीतने वाले संयम का निरूपण किया गया है उस मार्ग में स्थित हो आप जैसे महानुभाव शीघ्र ही सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं ॥10-11 ॥<span id="12" /> इस प्रकार जिनेंद्रोक्त मार्ग तथा महामुनि विदुर को स्तुति कर युधिष्ठिर द्वारिका पहुंचे । यादवों को पांडवों के आगमन का जब पता चला तो उन्होंने इनका बड़ा स्वागत किया और छोटे भाइयों के साथ युधिष्ठिर ने द्वारिका में प्रवेश किया ॥12॥<span id="13" /> समुद्रविजय आदि दशों भाइयों ने बहन तथा अपने भानजों को बहुत समय के बाद देखा था इसलिए इन सबके समागम से उन्हें परम हर्ष हुआ ॥13॥<span id="94" /><span id="14" /> भगवान् नेमिनाथ<strong>, </strong>कृष्ण<strong>, </strong>बलदेव आदि समस्त यादव कुमार<strong>, </strong>समस्त अंतःपुर और प्रजा के सब लोग उस समय बहुत ही संतुष्ट हुए ॥14॥<span id="15" /> नेत्रों को आनंद देने वाला पांडवों तथा समस्त स्वजनों का वह दर्शन--परस्पर का मिलना सबके लिए सुखदायी हुआ ॥ 15 ॥<span id="16" /> यादव और पांडव परस्पर मिलकर हर्ष से ऐसा मानने लगे कि शत्रुओं ने हमारा अपकार नहीं उपकार ही किया है । भावार्थ-यदि दुर्योधनादिक अपकार न करते तो हम लोग इस तरह परस्पर मिलकर आनंद का अनुभव नहीं कर सकते थे<strong>, </strong>अतः उनका किया अपकार अपकार नहीं प्रत्युत उपकार है ऐसा सब लोग मानने लगे ॥16॥<span id="17" /></p> | ||
<p> तदनंतर श्रीकृष्ण के द्वारा दिखलाये हुए भोगोपभोग की सब सामग्री से युक्त पाँच उत्तमोत्तम महलों में पांचों पांडव पृथक्<strong>-</strong>पृथक् रहने लगे | <p> तदनंतर श्रीकृष्ण के द्वारा दिखलाये हुए भोगोपभोग की सब सामग्री से युक्त पाँच उत्तमोत्तम महलों में पांचों पांडव पृथक्<strong>-</strong>पृथक् रहने लगे ॥17॥<span id="18" /> युधिष्ठिर ने लक्ष्मीमती<strong>, </strong>भीम ने शेषवती<strong>, </strong>अर्जुन ने सुभद्रा<strong>, </strong>सहदेव ने विजया और नकुल ने रति नामक कन्या को प्राप्त किया ॥18॥<span id="19" /> यथा<strong>-</strong>क्रम से पूर्वोक्त यादव<strong>-</strong>कन्याओं को विवाहकर देवों की उपमा को धारण करने वाले पांडव उन इष्ट स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करने लगे ॥19॥<span id="20" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इस प्रकार मैंने तेरे लिए संक्षेप से कुरुवीर की कथा कही । अब मैं प्रद्युम्न की चेष्टाएं कहता हूँ सो सुन ॥20॥<span id="21" /></p> | ||
<p> अत्यंत रमणीय विजयार्ध पर्वत पर कलारूपी गुणों के द्वारा बंधु<strong>-</strong>जनों के हर्षरूपी सागर को बढ़ाता हुआ प्रद्युम्न चंद्रमा के समान बढ़ने लगा ॥21॥ विद्याधर पुत्र प्रद्युम्न ने बड़े उद्यम के साथ बाल्यकाल में ही आकाशगामिनी आदि विद्याधरों के योग्य विद्याओं को शीघ्र ही सीख लिया था | <p> अत्यंत रमणीय विजयार्ध पर्वत पर कलारूपी गुणों के द्वारा बंधु<strong>-</strong>जनों के हर्षरूपी सागर को बढ़ाता हुआ प्रद्युम्न चंद्रमा के समान बढ़ने लगा ॥21॥<span id="22" /> विद्याधर पुत्र प्रद्युम्न ने बड़े उद्यम के साथ बाल्यकाल में ही आकाशगामिनी आदि विद्याधरों के योग्य विद्याओं को शीघ्र ही सीख लिया था ॥22॥<span id="23" /> वह बाल्य अवस्था से ही लेकर अस्त्र के समान अपने लावण्य<strong>, </strong>रूप<strong>, </strong>सौभाग्य और पौरुष के द्वारा शत्रु<strong>-</strong>मित्र पुरुष तथा स्त्रियों के मन को हरण करता था ॥ 23 ॥<span id="24" /> यौवन को प्राप्त होते ही प्रद्युम्न समस्त अस्त्र<strong>-</strong>शस्त्रों में कुशल हो गया । अपने सौंदर्य के कारण तरुण प्रद्युम्न यद्यपि अन्य युवाओं के हृदय पर प्रहार करता था― उनमें मात्सर्य उत्पन्न करता था तथापि वह सबको प्रिय था ॥24॥<span id="25" /> मन्मथ<strong>, </strong>मदन<strong>, </strong>काम<strong>, </strong>कामदेव और मनोभव इत्यादि सार्थक नामों से वह युक्त था । यद्यपि वह अनंग-शरीर से रहित नहीं था तथापि लोग उसे अनंग कहते थे । भावार्थ― प्रद्युम्न कामदेव पद का धारक था । साहित्य में काम का एक नाम अनंग है इसलिए प्रद्युम्न भी अनंग कहलाता था ॥25॥<span id="26" /> अतिशय कुशल प्रद्युम्न ने<strong>, </strong>पांच-सौ पुत्रों को जीतने वाले सिंहरथ को युद्ध में जीतकर कालसंवर को दिखा दिया । भावार्थ― उस समय एक सिंहरथ नाम का विद्याधर कालसंवर के विरुद्ध था उसे जीतने के लिए उसने अपने पाँच-सौ पुत्र भेजे थे परंतु सिंहरथ ने उन सबको पराजित कर दिया था । प्रद्युम्न ऐसा कुशल शूरवीर था कि उसने उसे युद्ध में जीतकर कालसंवर के आगे डाल दिया ॥26॥<span id="27" /> ऐसे वीर पुत्र को देखकर कालसंवर बड़ा संतुष्ट हुआ और विजया की दोनों श्रेणियों को अपने वशीभूत मानने लगा ॥27॥<span id="28" /> इसी से प्रभावित हो राजा ने प्रद्युम्न के लिए विधि-विधानपूर्वक युवराज पद का वह महापट्ट बांध दिया जो महाराज्यपदरूपी उत्कृष्ट फल के लिए पुष्प के समान था ॥28॥<span id="30" /> इस घटना से राजा काल संवर के जो पाँच-सौ पुत्र थे वे सब ओर से प्रद्युम्न के नाश का उपाय सोचने लगे ॥ 29 ꠰꠰ वे निरंतर छल के खोजने में तत्पर रहने लगे । परंतु बैठने<strong>, </strong>सोने<strong>, </strong>वस्त्र<strong>, </strong>पान तथा भोजन<strong>, </strong>पानी आदि के समय वे उसे छलने के लिए समर्थ नहीं हो सके ॥30॥<span id="31" /><span id="32" /></p> | ||
<p> किसी एक समय नीति के अनुकूल आचरण करने वाले कुमारों के समू<u>ह</u><strong>, </strong>विनीत प्रद्युम्न कुमार को सिद्धायतन के गोपुर के समीप ले गये और इस प्रकार की प्रेरणा करने लगे कि जो इस गोपुर के अग्रभाग पर चढ़ेगा वह उस पर रहने वाले देव से विद्याओं का खजाना तथा मुकुट प्राप्त करेगा । साथियों से इस प्रकार प्रेरित हो कुमार वेग से गोपुर के अग्रभाग पर चढ़ गया और वहाँ के निवासी देव से विद्याओं का खजाना तथा मुकुट ले आया | <p> किसी एक समय नीति के अनुकूल आचरण करने वाले कुमारों के समू<u>ह</u><strong>, </strong>विनीत प्रद्युम्न कुमार को सिद्धायतन के गोपुर के समीप ले गये और इस प्रकार की प्रेरणा करने लगे कि जो इस गोपुर के अग्रभाग पर चढ़ेगा वह उस पर रहने वाले देव से विद्याओं का खजाना तथा मुकुट प्राप्त करेगा । साथियों से इस प्रकार प्रेरित हो कुमार वेग से गोपुर के अग्रभाग पर चढ़ गया और वहाँ के निवासी देव से विद्याओं का खजाना तथा मुकुट ले आया ॥31-32॥<span id="33" /> तदनंतर भाइयों से प्रेरित हो वेग से महाकाल नामक गुहा में घुस गया और वहाँ से तलवार<strong>, </strong>ढाल<strong>, </strong>छत्र तथा चमर ले आया ॥33॥<span id="34" /> वहाँ से निकलकर नाग गुहा में गया और वहाँ के निवासी देव से उत्तम पादपीठ<strong>, </strong>नागशय्या<strong>, </strong>आसन<strong>, </strong>वीणा तथा भवन बना देने वाली विद्या ले आया ॥34॥<span id="35" /> वहाँ से आकर किसी वापिका में गया और युद्ध में जीते हुए देव से मकर के चिह्न से चिह्नित ऊंची ध्वजा प्राप्त कर निकला । तदनंतर अग्निकुंड में प्रविष्ट हुआ सो वहाँ से अग्नि से शुद्ध किये दो वस्त्र ले आया ॥35॥<span id="36" /> तत्पश्चात् मेषा कृति पर्वत में प्रवेश कर कानों के दो कुंडल ले आया । उसके बाद पांडुक नामक वन में प्रवेश कर वहाँ के निवासी मर्कट नामक देव से मुकुट और अमृतमयी माला लेकर लौटा ॥36॥<span id="37" /> कपित्थ नामक वन में गया तो वहाँ के निवासी देव से विद्यामय हाथी ले आया । वल्मीक वन में प्रवेश कर वहाँ के निवासी देव से छुरी<strong>, </strong>कवच तथा मुद्रिका आदि ले आया ॥37॥<span id="38" /> शराव नामक पर्वत में वहाँ के निवासी देव से कटिसूत्र<strong>, </strong>कवच<strong>, </strong>कड़ा<strong>, </strong>बाजूबंद और कंठाभरण आदि प्राप्त किये ॥38॥<span id="39" /> शूकर नामक वन में शूकरदेव से शंख और सुंदर धनुष प्राप्त किया तथा वहीं पर कीले हुए मनोवेग नामक विद्याधर से हार और इंद्रजाल प्राप्त किया ॥39॥<span id="40" /> मनोवेग का वैरी वसंत विद्याधर था<strong>, </strong>कुमार ने उन दोनों की मित्रता करा दी इसलिए उससे एक कन्या तथा नरेंद्रजाल प्राप्त किया ॥40॥<span id="41" /> आगे चलकर एक भवन में प्रवेश कर उसके अधिपति देव से पुष्पमय धनुष और उन्माद<strong>, </strong>मोह<strong>, </strong>संताप<strong>, </strong>मद तथा शोक उत्पन्न करने वाले बाण प्राप्त किये ॥41 ॥<span id="42" /> तदनंतर एक दूसरी नागगुहा में गया तो वहाँ के स्वामी देव से चंदन तथा अगुरु की मालाएँ<strong>, </strong>फूलों का छत्र और फूलों की शय्या प्राप्त की ॥ 42 ॥<span id="43" /> तदनंतर जयंतगिरि पर वर्तमान दुर्जय नामक वन में गया और वहाँ से विद्याधर वायु तथा उसकी सरस्वती नामक स्त्री से उत्पन्न रति नामक पुत्री लेकर लौटा ॥43॥<span id="44" /><span id="45" /> इस प्रकार इन सोलहों लाभ के स्थानों में जिसे अनेक महा लाभों को प्राप्ति हुई थी ऐसे प्रद्युम्न कुमार को देखकर संवर आदि कुमारों के चित्त आश्चर्य से चकित हो गये । तदनंतर पुण्य का माहात्म्य समझ शांति धारण कर वे प्रद्युम्न के साथ अपने नगर वापस आ गये ॥44-45॥<span id="46" /><span id="47" /> जो प्राप्त हुए सफेद बैलों से जुते दिव्य रथ पर आरूढ़ था<strong>, </strong>धनुष<strong>, </strong>पांच बाण<strong>, </strong>छत्र<strong>, </strong>ध्वजा और दिव्य आभूषणों से आभूषित था तथा काम के बाणों से पुरुष और स्त्रियों के मन को हर रहा था ऐसे प्रद्युम्न ने सैकड़ों कुमारों से परिवृत हो मेघकूट नामक नगर में प्रवेश किया ॥46-47॥<span id="48" /></p> | ||
<p> पहुंचते ही उसने नमस्कार कर कालसंवर के दर्शन किये और उसके बाद उसी भांति रथ पर बैठा हुआ कनकमाला के घर की ओर प्रस्थान किया ॥48॥ उस प्रकार की वेषभूषा युक्त तथा नेत्रों के लिए आनंददायी प्रद्युम्न को समीप आया देख कनकमाला किसी दूसरे ही भाव को प्राप्त हो गयी | <p> पहुंचते ही उसने नमस्कार कर कालसंवर के दर्शन किये और उसके बाद उसी भांति रथ पर बैठा हुआ कनकमाला के घर की ओर प्रस्थान किया ॥48॥<span id="49" /> उस प्रकार की वेषभूषा युक्त तथा नेत्रों के लिए आनंददायी प्रद्युम्न को समीप आया देख कनकमाला किसी दूसरे ही भाव को प्राप्त हो गयी ॥49॥<span id="50" /> रथ से नीचे उतरकर नम्रीभूत हुए प्रद्युम्न की कनकमाला ने बहुत प्रशंसा की<strong>, </strong>उसका मस्तक सूंघा<strong>, </strong>उसे पास में बैठाया और कोमल हाथ से उसका स्पर्श किया ॥50॥<span id="51" /> तदनंतर मोह का तीव्र उदय होने से उसको आत्मा विवश हो गयी और हृदयरूपी भूमि को खोदते हुए अनेक खोटे विचार उसके मन में उठने लगे ॥51॥<span id="52" /> वह विचारने लगी कि जो स्त्री शय्या पर अपने अंगों से इसके अंगों के स्पर्श को एक बार भी प्राप्त कर लेती है संसार में वही एक स्त्री है अन्य स्त्रियाँ तो स्त्री की आकृति मात्र हैं ॥52॥<span id="53" /> यदि मुझे प्रद्युम्न का आलिंगन प्राप्त होता है तो मेरा रूप<strong>, </strong>लावण्य<strong>, </strong>सौभाग्य तथा चातुर्य सफल है और दुर्लभ रहता है तो यह सब मेरे लिए तृण के समान तुच्छ है ॥53॥<span id="54" /> जिसके मन में कनकमाला के ऐसे विचारों की कल्पना भी नहीं थी ऐसा प्रद्युम्न<strong>, </strong>पूर्वोक्त संकल्प-विकल्प करने वाली कनकमाला को प्रणाम कर तथा आशीर्वाद प्राप्त कर अपने घर चला गया ॥54॥<span id="55" /></p> | ||
<p>उधर प्रद्युम्न के आलिंगन जन्य सुख को प्राप्त करने की जिसको लालसा लग रही थी ऐसी विद्याधरी कनकमाला प्रबल दुःख से दुःखी हो सब काम-काज भूल गयी ॥55॥ दूसरे दिन उसके अस्वस्थ होने का समाचार पा प्रद्युम्न उसे देखने गया तो क्या देखता है कि कनकमाला कमलिनी के पत्तों की शय्या पर पड़ी हुई बहुत व्याकुल हो रही है | <p>उधर प्रद्युम्न के आलिंगन जन्य सुख को प्राप्त करने की जिसको लालसा लग रही थी ऐसी विद्याधरी कनकमाला प्रबल दुःख से दुःखी हो सब काम-काज भूल गयी ॥55॥<span id="56" /> दूसरे दिन उसके अस्वस्थ होने का समाचार पा प्रद्युम्न उसे देखने गया तो क्या देखता है कि कनकमाला कमलिनी के पत्तों की शय्या पर पड़ी हुई बहुत व्याकुल हो रही है ॥ 56॥<span id="57" /> प्रद्युम्न ने उससे शरीर की अस्वस्थता का कारण पूछा तो उसने शरीर और वचन संबंधी चेष्टाओं से अपना अभिप्राय प्रकट किया ॥57॥<span id="59" /> तदनंतर इस विपरीत बात को जानकर और कर्म की चेष्टाओं की निंदा कर प्रद्युम्न उसे माता और पुत्र का संबंध बतलाने में तत्पर हुआ ॥58 ꠰। इसके उत्तर में कनकमाला ने भी उसे आदि<strong>, </strong>मध्य और अंत तक जैसा वृत्तांत हुआ था वह सब बतलाते हुए कहा कि तू मुझे अटवी में किस प्रकार मिला<strong>, </strong>किस प्रकार तेरा लालन-पालन हुआ और किस प्रकार मुझे विद्याओं का लाभ हुआ ॥59॥<span id="60" /><span id="61" /> कनक माला से अपना संबंध सुन प्रद्युम्न के मन में संशय उत्पन्न हआ जिससे वह स्पष्ट पूछने के लिए जिन-मंदिर में विद्यमान सागरचंद्र मुनिराज के पास गया और हर्षपूर्वक उन्हें नमस्कार कर उसने उनसे अपने सब पूर्वभव पूछे । पूर्वभव ज्ञात कर उसे यह भी मालूम हो गया कि यह कनकमाला पूर्वभव में चंद्राभा थी॥60-61॥<span id="62" /> शुद्ध सम्यग्दर्शन के धारक प्रद्युम्न को मुनिराज से यह भी विदित हुआ कि तुझे कनकमाला से प्रज्ञप्ति विद्या का लाभ होने वाला है । तदनंतर शीलरूपी धन को धारण करने वाले प्रद्युम्न ने जाकर काम से पीड़ित कनकमाला से प्रज्ञप्ति विद्या के विषय में पूछा ॥62॥<span id="63" /></p> | ||
<p> प्रद्युम्न को आया देख कनकमाला ने उससे कहा कि हे काम ! मैं एक बात कहती हूँ सुन<strong>, </strong>यदि तू मुझे चाहता है तो मैं तुझे गौरी और प्रज्ञप्ति नामक विद्याएं कहती हूँ― बतलाती हूँ― तू ग्रहण कर ॥63 | <p> प्रद्युम्न को आया देख कनकमाला ने उससे कहा कि हे काम ! मैं एक बात कहती हूँ सुन<strong>, </strong>यदि तू मुझे चाहता है तो मैं तुझे गौरी और प्रज्ञप्ति नामक विद्याएं कहती हूँ― बतलाती हूँ― तू ग्रहण कर ॥63 ॥<span id="64" /> तदनंतर यह आपकी प्रसन्नता है<strong>, </strong>मैं आपको चाहता हूँ<strong>, </strong>विद्याएं मुझे दीजिए इस प्रकार कहने वाले प्रद्युम्न के लिए कनकमाला ने विद्याधरों को दुष्प्राप्य दोनों विद्याएं विधिपूर्वक दे दी ॥64॥<span id="65" /><span id="66" /> हाथ फैलाकर दोनों विद्याओं को ग्रहण करता हुआ प्रद्युम्न बड़ा प्रसन्न हुआ । जब वह विद्याएं ले चुका तब इस प्रकार के उत्तम वचन बोला कि पहले अटवी से लाकर आपने मेरी रक्षा की अतः प्राणदान दिया और अभी विद्यादान दिया― इस तरह प्राणदान और विद्यादान देने से आप मेरी गुरु हैं । इस प्रकार के उत्तम वचन कह तीन प्रदक्षिणाएँ दे वह हाथ जोड़ सिर से लगा कर सामने खड़ा हो गया और पुत्र के उचित जो भी आज्ञा मेरे योग्य हो सो दीजिए<strong>, </strong>इस प्रकार याचना करने लगा । कनकमाला चुप रह गयी और प्रद्युम्न थोड़ी देर वहाँ रुककर चला गया ॥65-66॥<span id="67" /> मैं इस तरह इसके द्वारा छली गयी हूँ यह जान कनकमाला ने तीव्र क्रोधवश अपने कक्ष, वक्षःस्थल तथा स्तनों को स्वयं ही नखों के आघात से युक्त कर लिया ॥67॥<span id="68" /> और पति के लिए अपना शरीर दिखाते हुए कहा कि हे नाथ ! अपत्यजनों के योग्य (?) यह प्रद्युम्न की करतूत देखो । पति ने भी स्त्री के इस प्रपंच पर विश्वास कर लिया ॥68॥<span id="69" /> राजा कालसंवर इस घटना से बहुत ही क्रुद्ध हुआ । उसने एकांत में बुलाकर अपने पाँच सौ पुत्रों से कहा कि जिस तरह किसी अन्य को पता न चल सके उस तरह इस प्रद्युम्न को मार डाला जाये ॥69॥<span id="70" /></p> | ||
<p> तदनंतर पिता की आज्ञा पा हर्ष से फूले हुए वे पापी कुमार बड़े आदर से दूसरे दिन प्रद्युम्न को साथ लेकर कालांबु नामक वापि का पर गये ॥70 | <p> तदनंतर पिता की आज्ञा पा हर्ष से फूले हुए वे पापी कुमार बड़े आदर से दूसरे दिन प्रद्युम्न को साथ लेकर कालांबु नामक वापि का पर गये ॥70 ॥<span id="71" /> और एक साथ सब प्रद्युम्न पर कूदकर उसके घात की इच्छा रखते हुए उसे बार-बार प्रेरित करने लगे कि चलो वापी में जलक्रीड़ा करें ॥71॥<span id="72" /><span id="73" /> उसी समय प्रज्ञप्ति विद्या ने प्रद्युम्न के कान में सब बात ज्यों की-त्यों कह दी । सुनकर प्रद्युम्न को बहुत क्रोध आया और वह उसी क्षण माया से अपना मूल शरीर कहीं छिपा कृत्रिम शरीर से वापिका में कूद पड़ा । उसके कूदते ही वज्र के समान निर्दय एवं मारने के इच्छुक सब कुमार एक साथ उसके ऊपर कूद पड़े ॥72-73॥<span id="74" /> प्रद्युम्न ने एक को शेष बचा सभी कुमारों को ऊपर पैर और नीचे मुख कर कील दिया और एक भाई को पांच चोटियों का धारक बना खबर देने के लिए कालसंवर के पास भेज दिया ॥ 74 ॥<span id="75" /> </p> | ||
<p> <strong> </strong>तदनंतर पुत्रों का समाचार सुन द्विगुणित क्रोध से देदीप्यमान होता हुआ कालसंवर युद्ध को तैयारी कर सब सेना के साथ वहाँ पहुंचा ॥75 | <p> <strong> </strong>तदनंतर पुत्रों का समाचार सुन द्विगुणित क्रोध से देदीप्यमान होता हुआ कालसंवर युद्ध को तैयारी कर सब सेना के साथ वहाँ पहुंचा ॥75 ॥<span id="76" /><span id="77" /> उधर प्रद्युम्न ने भी विद्या के प्रभाव से एक सेना बना ली सो उसके साथ चिर काल तक युद्ध कर कालसंवर हार गया और जीवन को आशा छोड़ जाकर कनकमाला से बोला कि तू मुझे शीघ्र ही प्रज्ञप्ति नामक विद्या दे । कनकमाला ने कहा कि मैं तो बाल्य अवस्था में दूध के साथ वह विद्या प्रद्युम्न के लिए दे चुकी हूँ ॥76-77॥<span id="78" /> तदनंतर स्त्री की मायापूर्ण दुश्चेष्टा को जानकर मानी कालसंवर पुनः युद्ध के मैदान में आकर युद्ध करने लगा और प्रद्युम्न ने उसे बांधकर एक शिलातल पर रख दिया ॥78 ।<span id="72" /> उसी समय अत्यंत निपुण नारदजी वहाँ आ पहुंचे । प्रद्युम्न ने उनका सम्मान किया । तदनंतर नारद ने सब संबंध कहा ॥ 72 ॥<span id="80" /> तदनंतर राजा कालसंवर को बंधन से मुक्त कर प्रद्युम्न ने क्षमा मांगते हुए उनसे कहा कि माता कनकमाला ने जो भी किया है वह पूर्व कर्म के वशीभूत होकर ही किया है अतः उसे क्षमा कीजिए ॥80॥<span id="81" /> उपाय के ज्ञाता प्रद्युम्न ने जिनका कुछ भी उपाय नहीं चल रहा था ऐसे पाँच सौ कुमारों को भी छोड़ दिया और भ्रातृ स्नेह के प्रकट करने में तत्पर हो उनसे बार-बार क्षमा मांगी ॥ 81॥<span id="82" /></p> | ||
<p> तदनंतर रुक्मिणी और कृष्ण के दर्शन के लिए जिसका मन अत्यंत उत्सुक हो रहा था ऐसे प्रद्युम्न ने जाने के लिए राजा कालसंवर से आज्ञा मांगी और उसने भी संतुष्ट होकर उसे विदा कर दिया | <p> तदनंतर रुक्मिणी और कृष्ण के दर्शन के लिए जिसका मन अत्यंत उत्सुक हो रहा था ऐसे प्रद्युम्न ने जाने के लिए राजा कालसंवर से आज्ञा मांगी और उसने भी संतुष्ट होकर उसे विदा कर दिया ॥ 82॥<span id="83" /> तत्पश्चात् स्नेह पूर्वक पिता को प्रणाम कर प्रद्युम्न<strong>, </strong>द्वारिका जाने के लिए नारद के साथ-साथ विमान द्वारा आकाश में आरूढ़ हुआ ॥83॥<span id="84" /> नाना प्रकार की कथाओं के द्वारा आकाश में आते हुए दोनों जब हस्तिनापुर को पार कर कुछ आगे निकल आये तब एक सेना उनके दृष्टि पथ में आयी-एक सेना उन्हें दिखाई दी ॥84॥<span id="85" /><span id="86" /> सेना को देख प्रद्युम्न ने नारद से पूछा कि हे पूज्य ! यह अटवी के बीच नीचे किसकी बड़ी भारी सेना विद्यमान है ? इस सेना का मुख पश्चिम दिशा को ओर है । यह बड़ी तेजी से कहां और किसलिए जा रही है ? इस प्रकार प्रद्युम्न के पूछने पर नारद ने कहा कि हे प्रद्युम्न ! सुनो<strong>, </strong>मैं इस समय तुझ से एक कथा का कुछ अंश कहता हूँ ॥ 85-86 ॥<span id="87" /> </p> | ||
<p> कुरुवंश का अलंकार भूत एक दुर्योधन नाम का राजा है जो युद्ध में शत्रुओं के लिए सचमुच ही दुर्योधन है (जिसके साथ युद्ध करना कठिन है) और वह हस्तिनापुर नाम के उत्तम नगर में रहता है | <p> कुरुवंश का अलंकार भूत एक दुर्योधन नाम का राजा है जो युद्ध में शत्रुओं के लिए सचमुच ही दुर्योधन है (जिसके साथ युद्ध करना कठिन है) और वह हस्तिनापुर नाम के उत्तम नगर में रहता है ॥87॥<span id="88" /> एक बार पहले प्रसन्न होकर उसने कृष्ण से प्रतिज्ञा की थी कि यदि मेरे कन्या हुई और आपकी रुक्मिणी तथा सत्यभामा रानियों के पुत्र हुए तो जो पुत्र पहले होगा उसके लिए मैं अपनी कन्या दूंगा ॥88॥<span id="89" /> तदनंतर रुक्मिणी के तुम और सत्यभामा के भानु साथ ही साथ उत्पन्न हुए परंतु रुक्मिणी के सेवकों ने कृष्ण महाराज के लिए पहले तुम्हारी खबर दी इसलिए तुम अग्रज घोषित किये गये और सत्यभामा के स्वजनों ने पीछे खबर दी इसलिए उसका पुत्र भानु अनुज घोषित किया गया ॥89॥<span id="90" /> तदनंतर अकस्मात् कहीं जाता हुआ धूमकेतु नाम का असुर तुम्हें हर ले गया इसलिए तुम्हारी माता रुक्मिणी बहुत दुःखी हुई और सत्यभामा संतुष्ट हुई ॥90॥<span id="91" /> जब आपका कुछ समाचार नहीं मिला तब यशरूपी धन को धारण करने वाले दुर्योधन ने अपनी उदधिकुमारी नाम की कन्या सत्यभामा के पुत्र भानु के लिए भेज दी ॥91॥<span id="92" /> हे स्वामिन् ! नाना भावों को धारण करने वाली यह वही कन्या बड़ी भारी सेना से सुरक्षित हो द्वारिका को जा रही है तथा सत्यभामा के पुत्र भानु को स्त्री होने वाली है ॥ 92 ॥<span id="13" /> </p> | ||
<p> यह सुन प्रद्युम्न ने नारद को तो वहीं आकाश में खडा रखा और आप उसी क्षण नीचे उतर कर भील का वेष रख सेना के सामने खड़ा हो गया ॥13॥ वह कहने लगा कि कृष्ण महाराज ने मेरे लिए जो शुल्क देना निश्चित किया है वह देकर जाइए । भील के इस प्रकार कहने पर कुछ लोगों ने कहा कि मांग क्या चाहता है<strong>? </strong>॥94॥ | <p> यह सुन प्रद्युम्न ने नारद को तो वहीं आकाश में खडा रखा और आप उसी क्षण नीचे उतर कर भील का वेष रख सेना के सामने खड़ा हो गया ॥13॥<span id="94" /><span id="14" /> वह कहने लगा कि कृष्ण महाराज ने मेरे लिए जो शुल्क देना निश्चित किया है वह देकर जाइए । भील के इस प्रकार कहने पर कुछ लोगों ने कहा कि मांग क्या चाहता है<strong>? </strong>॥94॥<span id="95" /><span id="96" /><span id="97" /><span id="98" /> भील ने उत्तर दिया कि इस समस्त सेना में जो वस्तु सारभूत हो वही चाहता हूँ । उसके इस प्रकार कहने पर लोगों ने क्रोध दिखाते हुए कहा कि सेना में सारभूत तो कन्या है । भील ने फिर कहा कि यदि ऐसा है तो वही कन्या मुझे दी जाये । यह सुन लोगों ने कहा कि तू विष्णु-कृष्ण से उत्पन्न नहीं हुआ है― कन्या उसे दी जायेगी जो विष्णु से उत्पन्न होगा । भील ने जोर देकर कहा कि मैं विष्णु से उत्पन्न हुआ हूँ । इस असंबद्ध बकने वाले की धृष्टता तो देखो यह कह उसे धनुष की कोटी से अलग हटाकर लोग ज्योंही आगे जाने के लिए उद्यत हुए त्योंही वह विद्या के द्वारा निर्मित भीलों की सेना से दुर्योधन की सेना को जीत कर तथा कन्या लेकर आकाश में जा पहुंचा ॥95-98॥<span id="99" /> विमान में पहुंचकर प्रद्युम्न ने अपना असली रूप रख लिया अतः सुंदर रूप को धारण करने वाले उसको देखकर कन्या निर्भय हो गयो और नारद के कहने से यथार्थ बात को जान हर्षित हो सुख को सांस लेने लगी ॥99॥<span id="100" /> </p> | ||
<p> अथानंतर कन्या उदधिकुमारी और नारद मुनि के साथ<strong>, </strong>इच्छानुकूल गमन करने वाले विमान पर आरूढ़ होकर प्रद्युम्न<strong>, </strong>द्वारों से सुंदर द्वारिका नगरी जा पहुँचा | <p> अथानंतर कन्या उदधिकुमारी और नारद मुनि के साथ<strong>, </strong>इच्छानुकूल गमन करने वाले विमान पर आरूढ़ होकर प्रद्युम्न<strong>, </strong>द्वारों से सुंदर द्वारिका नगरी जा पहुँचा ॥100॥<span id="101" /> दूर से ही उसने विशाल सागर और कोट से सुरक्षित एवं गोपुर और अट्टालिकाओं से व्याप्त द्वारिका को देखा ॥101 ॥<span id="102" /><span id="103" /> उसी समय सत्यभामा का पुत्र भानुकुमार<strong>, </strong>घोड़े को व्यायाम कराने के लिए नगरी के बाह्य मैदान में आया था उसे प्रद्युम्न ने देखा । देखते ही वह विमान को आकाश में खड़ा रख पृथिवी पर आया और वृद्ध का रूप रख सुंदर घोड़ा लेकर भानुकुमार के पास पहुंचा । बोला कि मैं यह घोड़ा भानुकुमार के लिए लाया हूँ । देखते ही भानुकुमार उस सुंदर घोड़ा पर सवार हो गया ॥102-103 ॥<span id="104" /><span id="105" /> इच्छानुकूल रूप को धारण करने वाले उस घोड़े ने भानुकुमार को बहुत देर तक तंग किया और बाद में वह भानुकुमार को साथ ले अपनी इच्छानुसार उस वृद्ध के पास ले आया । भानुकुमार घोड़ा से नीचे उतर आया और वृद्ध ने अट्टहास कर तथा हाथ से घोड़ा का आस्फालन कर व्यंग्यपूर्ण भाषा में हंसी उड़ाते हुए भानुकुमार से कहा कि अहो ! घोड़ा के चलाने में आपकी बड़ी चतुराई है ? ॥104-105 ॥<span id="106" /> साथ ही वृद्ध ने यह भी कहा कि मैं बहुत बूढ़ा हो गया हूँ स्वयं मुझ से घोड़ा पर बैठते नहीं बनता । यदि कोई मुझे बैठा दे तो मैं अपना कौशल दिखाऊँ । साथ ही भानुकुमार के लोग उसे घोड़ा पर चढ़ाने के लिए उद्यम करने लगे परंतु प्रद्युम्न ने अपना शरीर इतना भारी कर लिया कि उन अनेक लोगों को उसका उठाना दुर्भर हो गया । इस प्रकार अपनी माया से उन सब लोगों को तंग कर वह वृद्ध रूपधारी प्रद्युम्न उस घोड़े पर स्वयं चढ़ गया और अपना कौशल दिखाता हुआ चला गया ॥ 106 ॥<span id="107" /> तदनंतर उसने मायामयी वानरों और मायामयी घोड़ों से सत्यभामा का उपवन उजाड़ डाला तथा माया से उसकी बड़ी भारी वापि का सुखा दी ॥107॥<span id="108" /> नगर के द्वार पर राजा श्रीकृष्ण आ रहे थे उन्हें देख उसने मायामयी मक्खियों और डांस-मच्छरों को इतनी अधिक संख्या में छोड़ा कि उनका आगे बढ़ना कठिन हो गया और हाथ हिलाते हुए उनसे लौटते ही बना । तदनंतर वह गधे और मेढ़े के रथ पर सवार हो नगर में चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा ॥108॥<span id="109" /> इस प्रकार नाना तरह की क्रीड़ाओं से नगरवासियों को मोहित कर उसने बड़ी प्रसन्नता से अपने बाबा वसुदेव के साथ मेष युद्ध से क्रीड़ा की ॥ 109 ॥<span id="110" /> </p> | ||
<p> तदनंतर सत्यभामा के महल में पहुँचा । वहाँ ब्राह्मणों का भोज होने वाला था सो प्रद्युम्न एक ब्राह्मण का रूप रख सबसे आगे के आसन पर जा बैठा । एक अपरिचित ब्राह्मण को आगे बैठा देख सब ब्राह्मण कुपित हो गये तब लगे हुए आसनों से उसने उन ब्राह्मणों को खूब तंग किया । तत्पश्चात् उस विप्र भोज में जितना भोजन बना था वह सब प्रद्युम्न ने खा लिया । जब कुछ भी न बचा तो सत्यभामा को कृपण बता खाये हुए भोजन को वमन द्वारा वहीं उगल वह वहाँ से बाहर चला गया ॥110॥ अब वह क्षुल्लक का वेष रख माता रुक्मिणी के महल में गया<strong>, </strong>वहाँ उसने माता रुक्मिणी के द्वारा दिये हुए लड्डू खाये । उसी समय सत्यभामा का आज्ञाकारी नाई रुक्मिणी के सिर के बाल लेने के लिए उसके घर आया सो प्रद्युम्न ने सब समाचार जान उसका खुब तिरस्कार किया ॥111 | <p> तदनंतर सत्यभामा के महल में पहुँचा । वहाँ ब्राह्मणों का भोज होने वाला था सो प्रद्युम्न एक ब्राह्मण का रूप रख सबसे आगे के आसन पर जा बैठा । एक अपरिचित ब्राह्मण को आगे बैठा देख सब ब्राह्मण कुपित हो गये तब लगे हुए आसनों से उसने उन ब्राह्मणों को खूब तंग किया । तत्पश्चात् उस विप्र भोज में जितना भोजन बना था वह सब प्रद्युम्न ने खा लिया । जब कुछ भी न बचा तो सत्यभामा को कृपण बता खाये हुए भोजन को वमन द्वारा वहीं उगल वह वहाँ से बाहर चला गया ॥110॥<span id="111" /> अब वह क्षुल्लक का वेष रख माता रुक्मिणी के महल में गया<strong>, </strong>वहाँ उसने माता रुक्मिणी के द्वारा दिये हुए लड्डू खाये । उसी समय सत्यभामा का आज्ञाकारी नाई रुक्मिणी के सिर के बाल लेने के लिए उसके घर आया सो प्रद्युम्न ने सब समाचार जान उसका खुब तिरस्कार किया ॥111 ॥<span id="112" /> सत्यभामा की शिकायत सुन बलदेव रुक्मिणी के महल पर आने को उद्यत हुए तो प्रद्युम्न एक ब्राह्मण का रूप रख द्वार पर पैर फैलाकर पड़ रहा । बलदेव ने उसे दूर हटने के लिए कहा पर वह टस से मस नहीं हुआ और कहने लगा कि आज सत्यभामा के घर बहुत भोजन कर आया हूँ हम से उठते नहीं बनता । कुपित हो बलदेव ने उसको टांग पकड़कर खींचना चाहा पर उसने विद्याबल से टांग को इतना मजबूत कर लिया कि वे खींचते-खींचते तंग आ गये । इस प्रकार नाना विद्याओं में कुशल प्रद्युम्न अपनी इच्छानुसार लोगों को आश्चर्य उत्पन्न करता हुआ चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा ॥112 ॥<span id="113" /> </p> | ||
<p> उसी समय<strong>, </strong>प्रद्युम्न के आने के जो चिह्न पहले नारद ने कहे थे वे माता रुक्मिणी को प्रत्यक्ष दिखने लगे और उसके स्तनरूपी कलशों से अत्यधिक दूध झरने लगा ॥113॥ अत्यंत आश्चर्य में पड़कर वह विचार करने लगी कि कहीं सोलह वर्ष व्यतीत होने के बाद मेरा पुत्र ही तो रूप बदलकर नहीं आ गया है ? | <p> उसी समय<strong>, </strong>प्रद्युम्न के आने के जो चिह्न पहले नारद ने कहे थे वे माता रुक्मिणी को प्रत्यक्ष दिखने लगे और उसके स्तनरूपी कलशों से अत्यधिक दूध झरने लगा ॥113॥<span id="114" /> अत्यंत आश्चर्य में पड़कर वह विचार करने लगी कि कहीं सोलह वर्ष व्यतीत होने के बाद मेरा पुत्र ही तो रूप बदलकर नहीं आ गया है ? ॥114॥<span id="115" /> उसी क्षण प्रद्युम्न ने भी अपने असली रूप में प्रकट हो पुत्र का स्नेह प्रकट कर माता को प्रणाम किया ॥115 ॥<span id="116" /> पुत्र को देखते ही रुक्मिणी आनंद से भर गयी<strong>, </strong>उसके नेत्र हर्ष के आँसुओं से व्याप्त हो गये और वह नम्रीभूत पुत्र का आलिंगन कर चिरसंचित दुःख को आंसुओं के द्वारा तत्काल छोड़ने लगी ॥116॥<span id="117" /> पुत्र के दर्शनरूपी अमृत से सींची हुई रुक्मिणी के शरीर में प्रत्येक रोम<strong>-</strong>कूप से रोमांच निकल आये थे उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो पुत्र का स्नेह ही फट<strong>-</strong>फट कर प्रकट हो रहा हो ॥117॥<span id="120" /> तदनंतर जब माता और पुत्र परस्पर कुशल समाचार पूछ चुके तब माता ने चित्त के लिए अत्यधिक संतोष प्रदान करने वाले पुत्र से कहा कि हे पुत्र ! वह कनकमाला धन्य है जिसने तेरी बाल्य अवस्था को बाल<strong>-</strong>क्रीड़ाओं के देखने रूप पुत्र जन्म के फल का उपभोग किया ॥118<strong>-</strong>119॥ माता के इतना कहते ही नेत्रों को आनंद प्रदान करने वाले प्रद्युम्न ने नमस्कार कर कहा कि हे मातः ! मैं यहाँ ही अपनी बाल<strong>-</strong>चेष्टाएँ दिखलाता हूँ<strong>, </strong>देख ॥120॥<span id="121" /> तदनंतर वह उसी क्षण एक दिन का बालक बन गया और नेत्ररूपी नीलकमल को फुला-फुलाकर हाथ का अंगूठा चूसने लगा ॥121 ॥<span id="122" /> कुछ देर बाद वह माता के स्तन का चूसक मुँह में दाबकर दूध पीने लगा तथा चित्त लेटकर माता के कर-पल्लवों को सुख उपजाने लगा ॥ 122॥<span id="123" /> फिर छाती के बल सरकने लगा । पुनः उठने का प्रयत्न करता परंतु फिर नीचे गिर पड़ता । तदनंतर माता की हाथ की अंगुली पकड़ मणिमय फर्श पर चलने लगा ॥123 ॥<span id="124" /> तदनंतर धूलि में खेलता-खेलता आकर माता के कंठ से लिपटकर उसे सुख उपजाने लगा और कभी माता के मुख की ओर नेत्र लगा मुसकराता हुआ तोतली बोली बोलने लगा ॥124 ॥<span id="125" /> इस प्रकार मनोहर बाल क्रीड़ाओं से माता का मनोरथ पूर्ण कर वह अपने असली रूप में आ गया और नमस्कार कर बोला कि मैं तुझे आकाश में लिये चलता हूँ ॥125॥<span id="126" /><span id="127" /></p> | ||
<p> तदनंतर वह दोनों भुजाओं से शीघ्र ही रुक्मिणी को ऊपर उठा आकाश में खड़ा हो कहने लगा कि समस्त यादव राजा सुनें । मैं तुम लोगों के देखते-देखते लक्ष्मी की भाँति सुंदर श्रीकृष्ण की प्रिया रुक्मिणी को हरकर ले जा रहा हूँ । हे यादवो ! शक्ति हो तो उसकी रक्षा करो ॥126-127॥ इस प्रकार कहकर तथा शंख फूंककर उसने रुक्मिणी को तो विमान में नारद और उदधि कुमारों के पास बैठा दिया और स्वयं युद्ध के लिए आकाश में आ खड़ा हुआ ॥128॥ तदनंतर चतुरंग सेनाओं से सहित और पांचों प्रकार के शस्त्र चलाने में निपुण यादव राजा<strong>, </strong>युद्ध के लिए तैयार हो नगरी से बाहर निकले ॥129॥ प्रद्युम्न विद्याबल से यादवों की सब सेना को मोहित कर आकाश में स्थित कृष्ण के साथ चिरकाल तक युद्ध करता रहा | <p> तदनंतर वह दोनों भुजाओं से शीघ्र ही रुक्मिणी को ऊपर उठा आकाश में खड़ा हो कहने लगा कि समस्त यादव राजा सुनें । मैं तुम लोगों के देखते-देखते लक्ष्मी की भाँति सुंदर श्रीकृष्ण की प्रिया रुक्मिणी को हरकर ले जा रहा हूँ । हे यादवो ! शक्ति हो तो उसकी रक्षा करो ॥126-127॥<span id="128" /> इस प्रकार कहकर तथा शंख फूंककर उसने रुक्मिणी को तो विमान में नारद और उदधि कुमारों के पास बैठा दिया और स्वयं युद्ध के लिए आकाश में आ खड़ा हुआ ॥128॥<span id="129" /> तदनंतर चतुरंग सेनाओं से सहित और पांचों प्रकार के शस्त्र चलाने में निपुण यादव राजा<strong>, </strong>युद्ध के लिए तैयार हो नगरी से बाहर निकले ॥129॥<span id="130" /> प्रद्युम्न विद्याबल से यादवों की सब सेना को मोहित कर आकाश में स्थित कृष्ण के साथ चिरकाल तक युद्ध करता रहा ॥130॥<span id="131" /> अंत में प्रद्युम्न ने जब कृष्ण के अस्त्र-कौशल को निष्फल कर दिया तब प्रौढ़ दृष्टि को धारण करने वाले दोनों वीर अपनी बड़ी-बड़ी भुजाओं से युद्ध करने के लिए उद्यत हुए ॥131 ॥<span id="132" /> उसी समय रुक्मिणी के द्वारा प्रेरित नारद ने आकाश में शीघ्र ही आकर पिता-पुत्र का संबंध बतला दोनों वीरों को युद्ध करने से रोका ॥ 132 ॥<span id="133" /></p> | ||
<p> तदनंतर नम्रीभूत पुत्र का आलिंगन कर श्रीकृष्ण परम हर्ष को प्राप्त हुए और हर्ष के आँसुओं से नेत्रों को व्याप्त करते हुए उसे आशीर्वाद देने लगे | <p> तदनंतर नम्रीभूत पुत्र का आलिंगन कर श्रीकृष्ण परम हर्ष को प्राप्त हुए और हर्ष के आँसुओं से नेत्रों को व्याप्त करते हुए उसे आशीर्वाद देने लगे ॥133॥<span id="134" /> तत्पश्चात् माया से सुलायी हुई सेना को विद्या से उठाकर प्रद्युम्न ने संतुष्ट हो बंधुजनों के साथ<strong>-</strong>साथ नगरी में प्रवेश किया ॥134॥<span id="135" /> जिन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई थी ऐसी पुत्र वत्सला रानी रुक्मिणी और जांबवती ने उस समय हर्ष से बहुत उत्सव कराया ॥135॥<span id="136" /> तदनंतर मान्य प्रद्युम्नकुमार अन्य स्त्रियों को लज्जा उत्पन्न करने वाली उत्तमोत्तम मान्य कन्याओं के साथ उत्तम विवाह-मंगल को प्राप्त हआ ॥136 ॥<span id="137" /> गौतम स्वामी कहते हैं कि स्वर्ण की देदीप्यमान माला से युक्त रानी कनकमाला ने अपने पति कालसंवर विद्याधर के साथ विवाह के समय आकर जिसके विवाहरूप कल्याण को देखा था एवं जिनेंद्र भगवान् के उत्कृष्ट शासन के प्रभाव से जिसे बहुत भारी सुख की प्राप्ति हुई थी ऐसा प्रद्युम्नकुमार उदधिकुमारी आदि कन्याओं को विधिपूर्वक विवाहकर उनका उपभोग करने लगा ॥137॥<span id="47" /></p> | ||
<p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराण में कुरुवंश</strong> <strong>तथा प्रद्युम्न का माता</strong>-<strong>पिता के साथ समागम का वर्णन करने वाला सैंतालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥47॥</strong></p> | <p><strong>इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त</strong>, <strong>जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराण में कुरुवंश</strong> <strong>तथा प्रद्युम्न का माता</strong>-<strong>पिता के साथ समागम का वर्णन करने वाला सैंतालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥47॥</strong></p> | ||
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर कीचक के छोटे भाइयों का वृत्तांत और उसके बाद जिसमें भीम तथा अर्जुन की कोपाग्नि से शत्रुरूपी वन का अंतराल भस्म हो गया था ऐसा गायों का पकड़ना आदि घटनाएं हो चुकी तब अपनी मर्यादा को खंडित न करने वाले होकर भी दुःशासन (खोटा शासन अथवा दुःशासन नामक कौरव) के अंतर को विदीर्ण करने वाले पांडव समीचीन नयों के समान एक-दूसरे के अनुकूल रहते हुए अपने पिता पांडु के भवन में एकत्रित हुए ॥1-2॥ अबतक उनकी अज्ञात निवास की अवधि पूर्ण हो चुकी थी इसलिए धर्मराज-युधिष्ठिर की आज्ञा से वे भीमसेन आदि, युद्ध में दुर्योधन के साथ जा खडे हुए और जिस प्रकार मुनि सबको सम्मत-इष्ट होते हैं उसी प्रकार वे पांडव भी सबको सम्मत-इष्ट थे ॥3॥ तदनंतर जिस प्रकार समस्त दिशाओं को पूर्ण कर के और सर्वहितकारी जल की वर्षा करने वाले वर्षा कालिक मेघ अत्यंत उन्नत उत्तम पद को प्राप्त कर लेते हैं उसी प्रकार सबके मनोरथों को पूर्ण करने वाले एवं समस्त अर्थरूपी अमृत की वर्षा करने वाले वे पांडव भी अत्यंत उच्च पद को प्राप्त हुए । भावार्थ― पांडव हस्तिनापुर आकर रहने लगे और सबकी दृष्टि में उच्च माने जाने लगे ॥4॥
तदनंतर दुर्योधनादिक सौ भाई ऊपर से उन्हें प्रसन्न रखकर हृदय में पुनः क्षोभ को प्राप्त होने लगे― भीतर-ही-भीतर उन्हें परास्त करने के उपाय करने लगे सो ठीक ही है क्योंकि इधर उधर बहने वाले जल में स्वच्छता कितने समय तक रह सकती है ? ॥5॥ दुर्योधनादिक ने पहले के समान फिर से संधि में दोष उत्पन्न करना शुरू कर दिया और उससे भीम, अर्जुन आदि छोटे भाई फिर से उत्तेजित होने लगे परंतु युधिष्ठिर उन्हें शांत करते रहे ॥6॥ स्वच्छ बुद्धि के धारक, धीर-वीर एवं दयालु युधिष्ठिर कौरवों का कभी अहित नहीं विचारते थे इसलिए वे माता तथा भाई आदि परिवार के साथ पुनः दक्षिण दिशा की ओर चले गये ॥ 7॥ चलते-चलते युधिष्ठिर विंध्यवन में पहुंचे । वहाँ अपने आश्रम में रहकर तपस्या करने वाले विदुर को देखकर उन्होंने अपने सब भाइयों के साथ उन्हें नमस्कार किया और उनकी इस प्रकार स्तुति की हे पूज्य ! आपका ही जन्म सफल है जो आप संपदाओं का परित्याग कर जिनेंद्रोक्त मोक्षमार्ग में महातप करते हुए निर्भय स्थित हैं ॥9॥ जिस मार्ग में तत्त्वश्रद्धानरूप निर्मल सम्यग्दर्शन, समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाला ज्ञान और निर्दोष चारित्र प्रतिपादित है एवं व्रत, गुप्ति, समिति तथा इंद्रिय और कषाय को जीतने वाले संयम का निरूपण किया गया है उस मार्ग में स्थित हो आप जैसे महानुभाव शीघ्र ही सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं ॥10-11 ॥ इस प्रकार जिनेंद्रोक्त मार्ग तथा महामुनि विदुर को स्तुति कर युधिष्ठिर द्वारिका पहुंचे । यादवों को पांडवों के आगमन का जब पता चला तो उन्होंने इनका बड़ा स्वागत किया और छोटे भाइयों के साथ युधिष्ठिर ने द्वारिका में प्रवेश किया ॥12॥ समुद्रविजय आदि दशों भाइयों ने बहन तथा अपने भानजों को बहुत समय के बाद देखा था इसलिए इन सबके समागम से उन्हें परम हर्ष हुआ ॥13॥ भगवान् नेमिनाथ, कृष्ण, बलदेव आदि समस्त यादव कुमार, समस्त अंतःपुर और प्रजा के सब लोग उस समय बहुत ही संतुष्ट हुए ॥14॥ नेत्रों को आनंद देने वाला पांडवों तथा समस्त स्वजनों का वह दर्शन--परस्पर का मिलना सबके लिए सुखदायी हुआ ॥ 15 ॥ यादव और पांडव परस्पर मिलकर हर्ष से ऐसा मानने लगे कि शत्रुओं ने हमारा अपकार नहीं उपकार ही किया है । भावार्थ-यदि दुर्योधनादिक अपकार न करते तो हम लोग इस तरह परस्पर मिलकर आनंद का अनुभव नहीं कर सकते थे, अतः उनका किया अपकार अपकार नहीं प्रत्युत उपकार है ऐसा सब लोग मानने लगे ॥16॥
तदनंतर श्रीकृष्ण के द्वारा दिखलाये हुए भोगोपभोग की सब सामग्री से युक्त पाँच उत्तमोत्तम महलों में पांचों पांडव पृथक्-पृथक् रहने लगे ॥17॥ युधिष्ठिर ने लक्ष्मीमती, भीम ने शेषवती, अर्जुन ने सुभद्रा, सहदेव ने विजया और नकुल ने रति नामक कन्या को प्राप्त किया ॥18॥ यथा-क्रम से पूर्वोक्त यादव-कन्याओं को विवाहकर देवों की उपमा को धारण करने वाले पांडव उन इष्ट स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करने लगे ॥19॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इस प्रकार मैंने तेरे लिए संक्षेप से कुरुवीर की कथा कही । अब मैं प्रद्युम्न की चेष्टाएं कहता हूँ सो सुन ॥20॥
अत्यंत रमणीय विजयार्ध पर्वत पर कलारूपी गुणों के द्वारा बंधु-जनों के हर्षरूपी सागर को बढ़ाता हुआ प्रद्युम्न चंद्रमा के समान बढ़ने लगा ॥21॥ विद्याधर पुत्र प्रद्युम्न ने बड़े उद्यम के साथ बाल्यकाल में ही आकाशगामिनी आदि विद्याधरों के योग्य विद्याओं को शीघ्र ही सीख लिया था ॥22॥ वह बाल्य अवस्था से ही लेकर अस्त्र के समान अपने लावण्य, रूप, सौभाग्य और पौरुष के द्वारा शत्रु-मित्र पुरुष तथा स्त्रियों के मन को हरण करता था ॥ 23 ॥ यौवन को प्राप्त होते ही प्रद्युम्न समस्त अस्त्र-शस्त्रों में कुशल हो गया । अपने सौंदर्य के कारण तरुण प्रद्युम्न यद्यपि अन्य युवाओं के हृदय पर प्रहार करता था― उनमें मात्सर्य उत्पन्न करता था तथापि वह सबको प्रिय था ॥24॥ मन्मथ, मदन, काम, कामदेव और मनोभव इत्यादि सार्थक नामों से वह युक्त था । यद्यपि वह अनंग-शरीर से रहित नहीं था तथापि लोग उसे अनंग कहते थे । भावार्थ― प्रद्युम्न कामदेव पद का धारक था । साहित्य में काम का एक नाम अनंग है इसलिए प्रद्युम्न भी अनंग कहलाता था ॥25॥ अतिशय कुशल प्रद्युम्न ने, पांच-सौ पुत्रों को जीतने वाले सिंहरथ को युद्ध में जीतकर कालसंवर को दिखा दिया । भावार्थ― उस समय एक सिंहरथ नाम का विद्याधर कालसंवर के विरुद्ध था उसे जीतने के लिए उसने अपने पाँच-सौ पुत्र भेजे थे परंतु सिंहरथ ने उन सबको पराजित कर दिया था । प्रद्युम्न ऐसा कुशल शूरवीर था कि उसने उसे युद्ध में जीतकर कालसंवर के आगे डाल दिया ॥26॥ ऐसे वीर पुत्र को देखकर कालसंवर बड़ा संतुष्ट हुआ और विजया की दोनों श्रेणियों को अपने वशीभूत मानने लगा ॥27॥ इसी से प्रभावित हो राजा ने प्रद्युम्न के लिए विधि-विधानपूर्वक युवराज पद का वह महापट्ट बांध दिया जो महाराज्यपदरूपी उत्कृष्ट फल के लिए पुष्प के समान था ॥28॥ इस घटना से राजा काल संवर के जो पाँच-सौ पुत्र थे वे सब ओर से प्रद्युम्न के नाश का उपाय सोचने लगे ॥ 29 ꠰꠰ वे निरंतर छल के खोजने में तत्पर रहने लगे । परंतु बैठने, सोने, वस्त्र, पान तथा भोजन, पानी आदि के समय वे उसे छलने के लिए समर्थ नहीं हो सके ॥30॥
किसी एक समय नीति के अनुकूल आचरण करने वाले कुमारों के समूह, विनीत प्रद्युम्न कुमार को सिद्धायतन के गोपुर के समीप ले गये और इस प्रकार की प्रेरणा करने लगे कि जो इस गोपुर के अग्रभाग पर चढ़ेगा वह उस पर रहने वाले देव से विद्याओं का खजाना तथा मुकुट प्राप्त करेगा । साथियों से इस प्रकार प्रेरित हो कुमार वेग से गोपुर के अग्रभाग पर चढ़ गया और वहाँ के निवासी देव से विद्याओं का खजाना तथा मुकुट ले आया ॥31-32॥ तदनंतर भाइयों से प्रेरित हो वेग से महाकाल नामक गुहा में घुस गया और वहाँ से तलवार, ढाल, छत्र तथा चमर ले आया ॥33॥ वहाँ से निकलकर नाग गुहा में गया और वहाँ के निवासी देव से उत्तम पादपीठ, नागशय्या, आसन, वीणा तथा भवन बना देने वाली विद्या ले आया ॥34॥ वहाँ से आकर किसी वापिका में गया और युद्ध में जीते हुए देव से मकर के चिह्न से चिह्नित ऊंची ध्वजा प्राप्त कर निकला । तदनंतर अग्निकुंड में प्रविष्ट हुआ सो वहाँ से अग्नि से शुद्ध किये दो वस्त्र ले आया ॥35॥ तत्पश्चात् मेषा कृति पर्वत में प्रवेश कर कानों के दो कुंडल ले आया । उसके बाद पांडुक नामक वन में प्रवेश कर वहाँ के निवासी मर्कट नामक देव से मुकुट और अमृतमयी माला लेकर लौटा ॥36॥ कपित्थ नामक वन में गया तो वहाँ के निवासी देव से विद्यामय हाथी ले आया । वल्मीक वन में प्रवेश कर वहाँ के निवासी देव से छुरी, कवच तथा मुद्रिका आदि ले आया ॥37॥ शराव नामक पर्वत में वहाँ के निवासी देव से कटिसूत्र, कवच, कड़ा, बाजूबंद और कंठाभरण आदि प्राप्त किये ॥38॥ शूकर नामक वन में शूकरदेव से शंख और सुंदर धनुष प्राप्त किया तथा वहीं पर कीले हुए मनोवेग नामक विद्याधर से हार और इंद्रजाल प्राप्त किया ॥39॥ मनोवेग का वैरी वसंत विद्याधर था, कुमार ने उन दोनों की मित्रता करा दी इसलिए उससे एक कन्या तथा नरेंद्रजाल प्राप्त किया ॥40॥ आगे चलकर एक भवन में प्रवेश कर उसके अधिपति देव से पुष्पमय धनुष और उन्माद, मोह, संताप, मद तथा शोक उत्पन्न करने वाले बाण प्राप्त किये ॥41 ॥ तदनंतर एक दूसरी नागगुहा में गया तो वहाँ के स्वामी देव से चंदन तथा अगुरु की मालाएँ, फूलों का छत्र और फूलों की शय्या प्राप्त की ॥ 42 ॥ तदनंतर जयंतगिरि पर वर्तमान दुर्जय नामक वन में गया और वहाँ से विद्याधर वायु तथा उसकी सरस्वती नामक स्त्री से उत्पन्न रति नामक पुत्री लेकर लौटा ॥43॥ इस प्रकार इन सोलहों लाभ के स्थानों में जिसे अनेक महा लाभों को प्राप्ति हुई थी ऐसे प्रद्युम्न कुमार को देखकर संवर आदि कुमारों के चित्त आश्चर्य से चकित हो गये । तदनंतर पुण्य का माहात्म्य समझ शांति धारण कर वे प्रद्युम्न के साथ अपने नगर वापस आ गये ॥44-45॥ जो प्राप्त हुए सफेद बैलों से जुते दिव्य रथ पर आरूढ़ था, धनुष, पांच बाण, छत्र, ध्वजा और दिव्य आभूषणों से आभूषित था तथा काम के बाणों से पुरुष और स्त्रियों के मन को हर रहा था ऐसे प्रद्युम्न ने सैकड़ों कुमारों से परिवृत हो मेघकूट नामक नगर में प्रवेश किया ॥46-47॥
पहुंचते ही उसने नमस्कार कर कालसंवर के दर्शन किये और उसके बाद उसी भांति रथ पर बैठा हुआ कनकमाला के घर की ओर प्रस्थान किया ॥48॥ उस प्रकार की वेषभूषा युक्त तथा नेत्रों के लिए आनंददायी प्रद्युम्न को समीप आया देख कनकमाला किसी दूसरे ही भाव को प्राप्त हो गयी ॥49॥ रथ से नीचे उतरकर नम्रीभूत हुए प्रद्युम्न की कनकमाला ने बहुत प्रशंसा की, उसका मस्तक सूंघा, उसे पास में बैठाया और कोमल हाथ से उसका स्पर्श किया ॥50॥ तदनंतर मोह का तीव्र उदय होने से उसको आत्मा विवश हो गयी और हृदयरूपी भूमि को खोदते हुए अनेक खोटे विचार उसके मन में उठने लगे ॥51॥ वह विचारने लगी कि जो स्त्री शय्या पर अपने अंगों से इसके अंगों के स्पर्श को एक बार भी प्राप्त कर लेती है संसार में वही एक स्त्री है अन्य स्त्रियाँ तो स्त्री की आकृति मात्र हैं ॥52॥ यदि मुझे प्रद्युम्न का आलिंगन प्राप्त होता है तो मेरा रूप, लावण्य, सौभाग्य तथा चातुर्य सफल है और दुर्लभ रहता है तो यह सब मेरे लिए तृण के समान तुच्छ है ॥53॥ जिसके मन में कनकमाला के ऐसे विचारों की कल्पना भी नहीं थी ऐसा प्रद्युम्न, पूर्वोक्त संकल्प-विकल्प करने वाली कनकमाला को प्रणाम कर तथा आशीर्वाद प्राप्त कर अपने घर चला गया ॥54॥
उधर प्रद्युम्न के आलिंगन जन्य सुख को प्राप्त करने की जिसको लालसा लग रही थी ऐसी विद्याधरी कनकमाला प्रबल दुःख से दुःखी हो सब काम-काज भूल गयी ॥55॥ दूसरे दिन उसके अस्वस्थ होने का समाचार पा प्रद्युम्न उसे देखने गया तो क्या देखता है कि कनकमाला कमलिनी के पत्तों की शय्या पर पड़ी हुई बहुत व्याकुल हो रही है ॥ 56॥ प्रद्युम्न ने उससे शरीर की अस्वस्थता का कारण पूछा तो उसने शरीर और वचन संबंधी चेष्टाओं से अपना अभिप्राय प्रकट किया ॥57॥ तदनंतर इस विपरीत बात को जानकर और कर्म की चेष्टाओं की निंदा कर प्रद्युम्न उसे माता और पुत्र का संबंध बतलाने में तत्पर हुआ ॥58 ꠰। इसके उत्तर में कनकमाला ने भी उसे आदि, मध्य और अंत तक जैसा वृत्तांत हुआ था वह सब बतलाते हुए कहा कि तू मुझे अटवी में किस प्रकार मिला, किस प्रकार तेरा लालन-पालन हुआ और किस प्रकार मुझे विद्याओं का लाभ हुआ ॥59॥ कनक माला से अपना संबंध सुन प्रद्युम्न के मन में संशय उत्पन्न हआ जिससे वह स्पष्ट पूछने के लिए जिन-मंदिर में विद्यमान सागरचंद्र मुनिराज के पास गया और हर्षपूर्वक उन्हें नमस्कार कर उसने उनसे अपने सब पूर्वभव पूछे । पूर्वभव ज्ञात कर उसे यह भी मालूम हो गया कि यह कनकमाला पूर्वभव में चंद्राभा थी॥60-61॥ शुद्ध सम्यग्दर्शन के धारक प्रद्युम्न को मुनिराज से यह भी विदित हुआ कि तुझे कनकमाला से प्रज्ञप्ति विद्या का लाभ होने वाला है । तदनंतर शीलरूपी धन को धारण करने वाले प्रद्युम्न ने जाकर काम से पीड़ित कनकमाला से प्रज्ञप्ति विद्या के विषय में पूछा ॥62॥
प्रद्युम्न को आया देख कनकमाला ने उससे कहा कि हे काम ! मैं एक बात कहती हूँ सुन, यदि तू मुझे चाहता है तो मैं तुझे गौरी और प्रज्ञप्ति नामक विद्याएं कहती हूँ― बतलाती हूँ― तू ग्रहण कर ॥63 ॥ तदनंतर यह आपकी प्रसन्नता है, मैं आपको चाहता हूँ, विद्याएं मुझे दीजिए इस प्रकार कहने वाले प्रद्युम्न के लिए कनकमाला ने विद्याधरों को दुष्प्राप्य दोनों विद्याएं विधिपूर्वक दे दी ॥64॥ हाथ फैलाकर दोनों विद्याओं को ग्रहण करता हुआ प्रद्युम्न बड़ा प्रसन्न हुआ । जब वह विद्याएं ले चुका तब इस प्रकार के उत्तम वचन बोला कि पहले अटवी से लाकर आपने मेरी रक्षा की अतः प्राणदान दिया और अभी विद्यादान दिया― इस तरह प्राणदान और विद्यादान देने से आप मेरी गुरु हैं । इस प्रकार के उत्तम वचन कह तीन प्रदक्षिणाएँ दे वह हाथ जोड़ सिर से लगा कर सामने खड़ा हो गया और पुत्र के उचित जो भी आज्ञा मेरे योग्य हो सो दीजिए, इस प्रकार याचना करने लगा । कनकमाला चुप रह गयी और प्रद्युम्न थोड़ी देर वहाँ रुककर चला गया ॥65-66॥ मैं इस तरह इसके द्वारा छली गयी हूँ यह जान कनकमाला ने तीव्र क्रोधवश अपने कक्ष, वक्षःस्थल तथा स्तनों को स्वयं ही नखों के आघात से युक्त कर लिया ॥67॥ और पति के लिए अपना शरीर दिखाते हुए कहा कि हे नाथ ! अपत्यजनों के योग्य (?) यह प्रद्युम्न की करतूत देखो । पति ने भी स्त्री के इस प्रपंच पर विश्वास कर लिया ॥68॥ राजा कालसंवर इस घटना से बहुत ही क्रुद्ध हुआ । उसने एकांत में बुलाकर अपने पाँच सौ पुत्रों से कहा कि जिस तरह किसी अन्य को पता न चल सके उस तरह इस प्रद्युम्न को मार डाला जाये ॥69॥
तदनंतर पिता की आज्ञा पा हर्ष से फूले हुए वे पापी कुमार बड़े आदर से दूसरे दिन प्रद्युम्न को साथ लेकर कालांबु नामक वापि का पर गये ॥70 ॥ और एक साथ सब प्रद्युम्न पर कूदकर उसके घात की इच्छा रखते हुए उसे बार-बार प्रेरित करने लगे कि चलो वापी में जलक्रीड़ा करें ॥71॥ उसी समय प्रज्ञप्ति विद्या ने प्रद्युम्न के कान में सब बात ज्यों की-त्यों कह दी । सुनकर प्रद्युम्न को बहुत क्रोध आया और वह उसी क्षण माया से अपना मूल शरीर कहीं छिपा कृत्रिम शरीर से वापिका में कूद पड़ा । उसके कूदते ही वज्र के समान निर्दय एवं मारने के इच्छुक सब कुमार एक साथ उसके ऊपर कूद पड़े ॥72-73॥ प्रद्युम्न ने एक को शेष बचा सभी कुमारों को ऊपर पैर और नीचे मुख कर कील दिया और एक भाई को पांच चोटियों का धारक बना खबर देने के लिए कालसंवर के पास भेज दिया ॥ 74 ॥
तदनंतर पुत्रों का समाचार सुन द्विगुणित क्रोध से देदीप्यमान होता हुआ कालसंवर युद्ध को तैयारी कर सब सेना के साथ वहाँ पहुंचा ॥75 ॥ उधर प्रद्युम्न ने भी विद्या के प्रभाव से एक सेना बना ली सो उसके साथ चिर काल तक युद्ध कर कालसंवर हार गया और जीवन को आशा छोड़ जाकर कनकमाला से बोला कि तू मुझे शीघ्र ही प्रज्ञप्ति नामक विद्या दे । कनकमाला ने कहा कि मैं तो बाल्य अवस्था में दूध के साथ वह विद्या प्रद्युम्न के लिए दे चुकी हूँ ॥76-77॥ तदनंतर स्त्री की मायापूर्ण दुश्चेष्टा को जानकर मानी कालसंवर पुनः युद्ध के मैदान में आकर युद्ध करने लगा और प्रद्युम्न ने उसे बांधकर एक शिलातल पर रख दिया ॥78 । उसी समय अत्यंत निपुण नारदजी वहाँ आ पहुंचे । प्रद्युम्न ने उनका सम्मान किया । तदनंतर नारद ने सब संबंध कहा ॥ 72 ॥ तदनंतर राजा कालसंवर को बंधन से मुक्त कर प्रद्युम्न ने क्षमा मांगते हुए उनसे कहा कि माता कनकमाला ने जो भी किया है वह पूर्व कर्म के वशीभूत होकर ही किया है अतः उसे क्षमा कीजिए ॥80॥ उपाय के ज्ञाता प्रद्युम्न ने जिनका कुछ भी उपाय नहीं चल रहा था ऐसे पाँच सौ कुमारों को भी छोड़ दिया और भ्रातृ स्नेह के प्रकट करने में तत्पर हो उनसे बार-बार क्षमा मांगी ॥ 81॥
तदनंतर रुक्मिणी और कृष्ण के दर्शन के लिए जिसका मन अत्यंत उत्सुक हो रहा था ऐसे प्रद्युम्न ने जाने के लिए राजा कालसंवर से आज्ञा मांगी और उसने भी संतुष्ट होकर उसे विदा कर दिया ॥ 82॥ तत्पश्चात् स्नेह पूर्वक पिता को प्रणाम कर प्रद्युम्न, द्वारिका जाने के लिए नारद के साथ-साथ विमान द्वारा आकाश में आरूढ़ हुआ ॥83॥ नाना प्रकार की कथाओं के द्वारा आकाश में आते हुए दोनों जब हस्तिनापुर को पार कर कुछ आगे निकल आये तब एक सेना उनके दृष्टि पथ में आयी-एक सेना उन्हें दिखाई दी ॥84॥ सेना को देख प्रद्युम्न ने नारद से पूछा कि हे पूज्य ! यह अटवी के बीच नीचे किसकी बड़ी भारी सेना विद्यमान है ? इस सेना का मुख पश्चिम दिशा को ओर है । यह बड़ी तेजी से कहां और किसलिए जा रही है ? इस प्रकार प्रद्युम्न के पूछने पर नारद ने कहा कि हे प्रद्युम्न ! सुनो, मैं इस समय तुझ से एक कथा का कुछ अंश कहता हूँ ॥ 85-86 ॥
कुरुवंश का अलंकार भूत एक दुर्योधन नाम का राजा है जो युद्ध में शत्रुओं के लिए सचमुच ही दुर्योधन है (जिसके साथ युद्ध करना कठिन है) और वह हस्तिनापुर नाम के उत्तम नगर में रहता है ॥87॥ एक बार पहले प्रसन्न होकर उसने कृष्ण से प्रतिज्ञा की थी कि यदि मेरे कन्या हुई और आपकी रुक्मिणी तथा सत्यभामा रानियों के पुत्र हुए तो जो पुत्र पहले होगा उसके लिए मैं अपनी कन्या दूंगा ॥88॥ तदनंतर रुक्मिणी के तुम और सत्यभामा के भानु साथ ही साथ उत्पन्न हुए परंतु रुक्मिणी के सेवकों ने कृष्ण महाराज के लिए पहले तुम्हारी खबर दी इसलिए तुम अग्रज घोषित किये गये और सत्यभामा के स्वजनों ने पीछे खबर दी इसलिए उसका पुत्र भानु अनुज घोषित किया गया ॥89॥ तदनंतर अकस्मात् कहीं जाता हुआ धूमकेतु नाम का असुर तुम्हें हर ले गया इसलिए तुम्हारी माता रुक्मिणी बहुत दुःखी हुई और सत्यभामा संतुष्ट हुई ॥90॥ जब आपका कुछ समाचार नहीं मिला तब यशरूपी धन को धारण करने वाले दुर्योधन ने अपनी उदधिकुमारी नाम की कन्या सत्यभामा के पुत्र भानु के लिए भेज दी ॥91॥ हे स्वामिन् ! नाना भावों को धारण करने वाली यह वही कन्या बड़ी भारी सेना से सुरक्षित हो द्वारिका को जा रही है तथा सत्यभामा के पुत्र भानु को स्त्री होने वाली है ॥ 92 ॥
यह सुन प्रद्युम्न ने नारद को तो वहीं आकाश में खडा रखा और आप उसी क्षण नीचे उतर कर भील का वेष रख सेना के सामने खड़ा हो गया ॥13॥ वह कहने लगा कि कृष्ण महाराज ने मेरे लिए जो शुल्क देना निश्चित किया है वह देकर जाइए । भील के इस प्रकार कहने पर कुछ लोगों ने कहा कि मांग क्या चाहता है? ॥94॥ भील ने उत्तर दिया कि इस समस्त सेना में जो वस्तु सारभूत हो वही चाहता हूँ । उसके इस प्रकार कहने पर लोगों ने क्रोध दिखाते हुए कहा कि सेना में सारभूत तो कन्या है । भील ने फिर कहा कि यदि ऐसा है तो वही कन्या मुझे दी जाये । यह सुन लोगों ने कहा कि तू विष्णु-कृष्ण से उत्पन्न नहीं हुआ है― कन्या उसे दी जायेगी जो विष्णु से उत्पन्न होगा । भील ने जोर देकर कहा कि मैं विष्णु से उत्पन्न हुआ हूँ । इस असंबद्ध बकने वाले की धृष्टता तो देखो यह कह उसे धनुष की कोटी से अलग हटाकर लोग ज्योंही आगे जाने के लिए उद्यत हुए त्योंही वह विद्या के द्वारा निर्मित भीलों की सेना से दुर्योधन की सेना को जीत कर तथा कन्या लेकर आकाश में जा पहुंचा ॥95-98॥ विमान में पहुंचकर प्रद्युम्न ने अपना असली रूप रख लिया अतः सुंदर रूप को धारण करने वाले उसको देखकर कन्या निर्भय हो गयो और नारद के कहने से यथार्थ बात को जान हर्षित हो सुख को सांस लेने लगी ॥99॥
अथानंतर कन्या उदधिकुमारी और नारद मुनि के साथ, इच्छानुकूल गमन करने वाले विमान पर आरूढ़ होकर प्रद्युम्न, द्वारों से सुंदर द्वारिका नगरी जा पहुँचा ॥100॥ दूर से ही उसने विशाल सागर और कोट से सुरक्षित एवं गोपुर और अट्टालिकाओं से व्याप्त द्वारिका को देखा ॥101 ॥ उसी समय सत्यभामा का पुत्र भानुकुमार, घोड़े को व्यायाम कराने के लिए नगरी के बाह्य मैदान में आया था उसे प्रद्युम्न ने देखा । देखते ही वह विमान को आकाश में खड़ा रख पृथिवी पर आया और वृद्ध का रूप रख सुंदर घोड़ा लेकर भानुकुमार के पास पहुंचा । बोला कि मैं यह घोड़ा भानुकुमार के लिए लाया हूँ । देखते ही भानुकुमार उस सुंदर घोड़ा पर सवार हो गया ॥102-103 ॥ इच्छानुकूल रूप को धारण करने वाले उस घोड़े ने भानुकुमार को बहुत देर तक तंग किया और बाद में वह भानुकुमार को साथ ले अपनी इच्छानुसार उस वृद्ध के पास ले आया । भानुकुमार घोड़ा से नीचे उतर आया और वृद्ध ने अट्टहास कर तथा हाथ से घोड़ा का आस्फालन कर व्यंग्यपूर्ण भाषा में हंसी उड़ाते हुए भानुकुमार से कहा कि अहो ! घोड़ा के चलाने में आपकी बड़ी चतुराई है ? ॥104-105 ॥ साथ ही वृद्ध ने यह भी कहा कि मैं बहुत बूढ़ा हो गया हूँ स्वयं मुझ से घोड़ा पर बैठते नहीं बनता । यदि कोई मुझे बैठा दे तो मैं अपना कौशल दिखाऊँ । साथ ही भानुकुमार के लोग उसे घोड़ा पर चढ़ाने के लिए उद्यम करने लगे परंतु प्रद्युम्न ने अपना शरीर इतना भारी कर लिया कि उन अनेक लोगों को उसका उठाना दुर्भर हो गया । इस प्रकार अपनी माया से उन सब लोगों को तंग कर वह वृद्ध रूपधारी प्रद्युम्न उस घोड़े पर स्वयं चढ़ गया और अपना कौशल दिखाता हुआ चला गया ॥ 106 ॥ तदनंतर उसने मायामयी वानरों और मायामयी घोड़ों से सत्यभामा का उपवन उजाड़ डाला तथा माया से उसकी बड़ी भारी वापि का सुखा दी ॥107॥ नगर के द्वार पर राजा श्रीकृष्ण आ रहे थे उन्हें देख उसने मायामयी मक्खियों और डांस-मच्छरों को इतनी अधिक संख्या में छोड़ा कि उनका आगे बढ़ना कठिन हो गया और हाथ हिलाते हुए उनसे लौटते ही बना । तदनंतर वह गधे और मेढ़े के रथ पर सवार हो नगर में चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा ॥108॥ इस प्रकार नाना तरह की क्रीड़ाओं से नगरवासियों को मोहित कर उसने बड़ी प्रसन्नता से अपने बाबा वसुदेव के साथ मेष युद्ध से क्रीड़ा की ॥ 109 ॥
तदनंतर सत्यभामा के महल में पहुँचा । वहाँ ब्राह्मणों का भोज होने वाला था सो प्रद्युम्न एक ब्राह्मण का रूप रख सबसे आगे के आसन पर जा बैठा । एक अपरिचित ब्राह्मण को आगे बैठा देख सब ब्राह्मण कुपित हो गये तब लगे हुए आसनों से उसने उन ब्राह्मणों को खूब तंग किया । तत्पश्चात् उस विप्र भोज में जितना भोजन बना था वह सब प्रद्युम्न ने खा लिया । जब कुछ भी न बचा तो सत्यभामा को कृपण बता खाये हुए भोजन को वमन द्वारा वहीं उगल वह वहाँ से बाहर चला गया ॥110॥ अब वह क्षुल्लक का वेष रख माता रुक्मिणी के महल में गया, वहाँ उसने माता रुक्मिणी के द्वारा दिये हुए लड्डू खाये । उसी समय सत्यभामा का आज्ञाकारी नाई रुक्मिणी के सिर के बाल लेने के लिए उसके घर आया सो प्रद्युम्न ने सब समाचार जान उसका खुब तिरस्कार किया ॥111 ॥ सत्यभामा की शिकायत सुन बलदेव रुक्मिणी के महल पर आने को उद्यत हुए तो प्रद्युम्न एक ब्राह्मण का रूप रख द्वार पर पैर फैलाकर पड़ रहा । बलदेव ने उसे दूर हटने के लिए कहा पर वह टस से मस नहीं हुआ और कहने लगा कि आज सत्यभामा के घर बहुत भोजन कर आया हूँ हम से उठते नहीं बनता । कुपित हो बलदेव ने उसको टांग पकड़कर खींचना चाहा पर उसने विद्याबल से टांग को इतना मजबूत कर लिया कि वे खींचते-खींचते तंग आ गये । इस प्रकार नाना विद्याओं में कुशल प्रद्युम्न अपनी इच्छानुसार लोगों को आश्चर्य उत्पन्न करता हुआ चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा ॥112 ॥
उसी समय, प्रद्युम्न के आने के जो चिह्न पहले नारद ने कहे थे वे माता रुक्मिणी को प्रत्यक्ष दिखने लगे और उसके स्तनरूपी कलशों से अत्यधिक दूध झरने लगा ॥113॥ अत्यंत आश्चर्य में पड़कर वह विचार करने लगी कि कहीं सोलह वर्ष व्यतीत होने के बाद मेरा पुत्र ही तो रूप बदलकर नहीं आ गया है ? ॥114॥ उसी क्षण प्रद्युम्न ने भी अपने असली रूप में प्रकट हो पुत्र का स्नेह प्रकट कर माता को प्रणाम किया ॥115 ॥ पुत्र को देखते ही रुक्मिणी आनंद से भर गयी, उसके नेत्र हर्ष के आँसुओं से व्याप्त हो गये और वह नम्रीभूत पुत्र का आलिंगन कर चिरसंचित दुःख को आंसुओं के द्वारा तत्काल छोड़ने लगी ॥116॥ पुत्र के दर्शनरूपी अमृत से सींची हुई रुक्मिणी के शरीर में प्रत्येक रोम-कूप से रोमांच निकल आये थे उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो पुत्र का स्नेह ही फट-फट कर प्रकट हो रहा हो ॥117॥ तदनंतर जब माता और पुत्र परस्पर कुशल समाचार पूछ चुके तब माता ने चित्त के लिए अत्यधिक संतोष प्रदान करने वाले पुत्र से कहा कि हे पुत्र ! वह कनकमाला धन्य है जिसने तेरी बाल्य अवस्था को बाल-क्रीड़ाओं के देखने रूप पुत्र जन्म के फल का उपभोग किया ॥118-119॥ माता के इतना कहते ही नेत्रों को आनंद प्रदान करने वाले प्रद्युम्न ने नमस्कार कर कहा कि हे मातः ! मैं यहाँ ही अपनी बाल-चेष्टाएँ दिखलाता हूँ, देख ॥120॥ तदनंतर वह उसी क्षण एक दिन का बालक बन गया और नेत्ररूपी नीलकमल को फुला-फुलाकर हाथ का अंगूठा चूसने लगा ॥121 ॥ कुछ देर बाद वह माता के स्तन का चूसक मुँह में दाबकर दूध पीने लगा तथा चित्त लेटकर माता के कर-पल्लवों को सुख उपजाने लगा ॥ 122॥ फिर छाती के बल सरकने लगा । पुनः उठने का प्रयत्न करता परंतु फिर नीचे गिर पड़ता । तदनंतर माता की हाथ की अंगुली पकड़ मणिमय फर्श पर चलने लगा ॥123 ॥ तदनंतर धूलि में खेलता-खेलता आकर माता के कंठ से लिपटकर उसे सुख उपजाने लगा और कभी माता के मुख की ओर नेत्र लगा मुसकराता हुआ तोतली बोली बोलने लगा ॥124 ॥ इस प्रकार मनोहर बाल क्रीड़ाओं से माता का मनोरथ पूर्ण कर वह अपने असली रूप में आ गया और नमस्कार कर बोला कि मैं तुझे आकाश में लिये चलता हूँ ॥125॥
तदनंतर वह दोनों भुजाओं से शीघ्र ही रुक्मिणी को ऊपर उठा आकाश में खड़ा हो कहने लगा कि समस्त यादव राजा सुनें । मैं तुम लोगों के देखते-देखते लक्ष्मी की भाँति सुंदर श्रीकृष्ण की प्रिया रुक्मिणी को हरकर ले जा रहा हूँ । हे यादवो ! शक्ति हो तो उसकी रक्षा करो ॥126-127॥ इस प्रकार कहकर तथा शंख फूंककर उसने रुक्मिणी को तो विमान में नारद और उदधि कुमारों के पास बैठा दिया और स्वयं युद्ध के लिए आकाश में आ खड़ा हुआ ॥128॥ तदनंतर चतुरंग सेनाओं से सहित और पांचों प्रकार के शस्त्र चलाने में निपुण यादव राजा, युद्ध के लिए तैयार हो नगरी से बाहर निकले ॥129॥ प्रद्युम्न विद्याबल से यादवों की सब सेना को मोहित कर आकाश में स्थित कृष्ण के साथ चिरकाल तक युद्ध करता रहा ॥130॥ अंत में प्रद्युम्न ने जब कृष्ण के अस्त्र-कौशल को निष्फल कर दिया तब प्रौढ़ दृष्टि को धारण करने वाले दोनों वीर अपनी बड़ी-बड़ी भुजाओं से युद्ध करने के लिए उद्यत हुए ॥131 ॥ उसी समय रुक्मिणी के द्वारा प्रेरित नारद ने आकाश में शीघ्र ही आकर पिता-पुत्र का संबंध बतला दोनों वीरों को युद्ध करने से रोका ॥ 132 ॥
तदनंतर नम्रीभूत पुत्र का आलिंगन कर श्रीकृष्ण परम हर्ष को प्राप्त हुए और हर्ष के आँसुओं से नेत्रों को व्याप्त करते हुए उसे आशीर्वाद देने लगे ॥133॥ तत्पश्चात् माया से सुलायी हुई सेना को विद्या से उठाकर प्रद्युम्न ने संतुष्ट हो बंधुजनों के साथ-साथ नगरी में प्रवेश किया ॥134॥ जिन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई थी ऐसी पुत्र वत्सला रानी रुक्मिणी और जांबवती ने उस समय हर्ष से बहुत उत्सव कराया ॥135॥ तदनंतर मान्य प्रद्युम्नकुमार अन्य स्त्रियों को लज्जा उत्पन्न करने वाली उत्तमोत्तम मान्य कन्याओं के साथ उत्तम विवाह-मंगल को प्राप्त हआ ॥136 ॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि स्वर्ण की देदीप्यमान माला से युक्त रानी कनकमाला ने अपने पति कालसंवर विद्याधर के साथ विवाह के समय आकर जिसके विवाहरूप कल्याण को देखा था एवं जिनेंद्र भगवान् के उत्कृष्ट शासन के प्रभाव से जिसे बहुत भारी सुख की प्राप्ति हुई थी ऐसा प्रद्युम्नकुमार उदधिकुमारी आदि कन्याओं को विधिपूर्वक विवाहकर उनका उपभोग करने लगा ॥137॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्यरचित हरिवंशपुराण में कुरुवंश तथा प्रद्युम्न का माता-पिता के साथ समागम का वर्णन करने वाला सैंतालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥47॥