हरिवंश पुराण - सर्ग 57: Difference between revisions
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Latest revision as of 10:58, 18 September 2023
अथानंतर देवों ने इंद्र की आज्ञा से क्षण-भर में तीन जगत् के जीवों के लिए शरणभूत समवशरण की रचना कर दी ॥1॥ बलदेव और कृष्ण को आदि ले यादव और भोजवंश के सागर स्वरूप समस्त द्वारिका निवासी बड़े वैभव के साथ गिरिनार पर्वतपर चढ़े और भीतर-बाहर जिनेंद्र भगवान का समवशरण देखकर वह जनता का अपार सागर परम आश्चर्य को प्राप्त हुवा ॥2-3॥ तीर्थंकरों की समवसरण भूमि जैसी होती है उसका यहाँ संक्षेप से श्रोताओं के लिए वर्णन किया जाता है ॥4॥ समवसरण की दिव्य भूमि स्वाभाविक भूमि से एक हाथ ऊँची रहती है और उससे एक हाथ ऊपर कल्पभूमि होती है ॥ 5॥ यह भूमि अपनी शोभा से स्वर्ग लक्ष्मी को जीतने वाली, चौकोर, सुखदायी और देशकाल के अनुसार बारह योजन से लेकर एक योजन तक विस्तार वाली होती है । भावार्थ-समवसरण भूमि का उत्कृष्ट विस्तार बारह योजन और कम से कम विस्तार एक योजन प्रमाण होता है ॥ 6 ॥ यह भूमि कमल के आकार की होती है इसमें गंधकुटी तो कणिका के समान ऊंची उठी होती है और बाह्य भूमि कमलदल के समान विस्तृत है ॥ 7 ॥ यह इंद्रनीलमणि से निर्मित होती है, इसका बाह्य भाग दर्पणतल के समान निर्मल होता है और प्रवेश करने वाले बहुत से जीवों को एक साथ स्थान देने वाली रहती है ॥8॥ जिसमें मान के योग्य इंद्र आदि देव त्रिलोकीनाथ-भगवान् की दूर से ही पूजा करते हैं वह मानांगण नाम की भूमि है ॥ 9॥ इस भूमि की चारों महादिशाओं में दो-दो कोस विस्तृत चार महावीथियाँ हैं । ये वीथियां अपने मध्य में स्थित चार मानस्तंभों के पीठ धारण करती हैं ॥ 10 ॥ ये पीठ अपनी ऊँचाई से तिगुने चौड़े एवं सुवर्ण और रत्नमयी मूर्तियों के धारक होते हैं तथा मनुष्य, सुर, असुर सभी आकर इन्हें नमस्कार करते हैं ॥11॥ जहाँ स्थित होकर मनुष्य और देव, मानस्तंभों की पूजा करते हैं वह आस्थानांगण नाम की भूमि देदीप्यमान लाल मणियों को कांति को धारण करती है ॥12॥ वीथियों के मध्य में तीन कटनीदार चार सुवर्णमयी पीठिकाएँ हैं जो छाती बराबर ऊंची हैं और आधा कोस चौड़ी हैं ॥13॥ उन पीठिकाओं पर चार मानस्तंभ सुशोभित हैं जो पीठिकाओं की चौड़ाई से एक धनुष कम चौड़े हैं और एक योजन से कुछ अधिक ऊंचे हैं ॥14॥ वे मानस्तंभ बारह योजन की दूरी से दिखाई देते हैं । पालिका के अग्रभाग पर जो कमल हैं उन्हीं पर स्थित हैं, उनका मूलभाग हीरा का, मध्यभाग स्फटिक का और अग्रभाग वैडूर्यमणि का बना हुआ है ॥15 ॥ हर एक मानस्तंभ दो-दो हजार कोणों से सहित हैं― दो-दो हजार पहल के हैं, नाना रत्नों की किरणों से मिले हुए हैं, उनकी चारों दिशाओं में ऊपर सिद्धों की प्रतिमाएं विराजमान हैं तथा उनकी रत्नमयी बड़ी-बड़ी पालिकाएँ हैं ॥16॥ पालिकाओं के अग्रभाग पर जो कमल हैं उन पर सुवर्ण के देदीप्यमान घट हैं, उन घटों के अग्रभाग से लगी हुई सीढ़ियां हैं तथा उन सीढ़ियों पर लक्ष्मी देवी के अभिषेक की शोभा दिखलायी गयी है ॥17॥ वे मानस्तंभ लक्ष्मी देवी के चूड़ा रत्न के समान अपनी कांति के समूह से बीस योजन तक का क्षेत्र प्रकाशमान करते रहते हैं तथा जिनका मन अहंकार से युक्त है ऐसे देव और मनुष्यों को वहीं रोक देने वाले हैं ॥18॥ उन मानस्तंभों की चारों दिशाएं हंस, सारस और चकवों के शब्दों से अत्यंत सुंदर हैं तथा उनमें खिले हुए कमलों से युक्त चार सरोवर हैं ॥19॥
सरोवरों के आगे एक वज्रमय कोट है जो छाती बराबर ऊँचा है, अत्यंत कांति से युक्त है, ऊंचाई से दूना चौड़ा है और चारों ओर से घेरे हुए हैं ॥20॥ इस कोट को चारों ओर से घेरकर एक परिखा स्थित है जिसकी भूमि जल के समान कांति वाले मणियों से निर्मित है, उसमें घुटनों प्रमाण गहरा पानी भरा है तथा वह पृथिवीरूपी स्त्री की नीली साड़ी के समान जान पड़ती है ॥21॥ वह परिखा अत्यंत स्वच्छ है तथा उसका जल स्वर्णमय कमलों की पराग के समूह से पीला-पीला हो रहा है अतएव उसमें प्रतिबिंबित दिशारूप स्त्रियों के मुख अंग राग से सहित के समान जान पड़ते हैं ॥22॥ उसके आगे चारों ओर से घेरकर स्थित लताओं का वन सुशोभित है जो फूलों के द्वारा दिशाओं के अंतभाग को सुगंधित कर रहा है तथा पक्षियों और भ्रमरों के समूह से व्याप्त है ॥23॥ उसके आगे देदीप्यमान सुवर्ण के समान चमकीला एवं विजय आदि चांदी के बड़े-बड़े चार गोपुरों से सुशोभित कोट, चारों ओर से घेरे हुए हैं ॥24॥ उन गोपुरों पर व्यंतर जाति के देव द्वारपाल हैं जो कटक आदि आभूषणों से सुशोभित हैं, अपने प्रभाव से अयोग्य व्यक्तियों को दूर हटाते रहते हैं तथा जिनके हाथ मुद्गरों से उद्धत होते हैं ॥25॥ देदीप्यमान कांति से युक्त उन गोपुरों के मणिमय तोरणों की दोनों ओर छत्र, चमर तथा शृंगार आदि अष्टमंगल द्रव्य एक सौ आठ-एक सौ आठ संख्या में सदा सुशोभित रहते हैं ॥26॥ उन गोपुरों के आगे वीथियों की दोनों ओर तीन-तीन खंड की दो-दो नाट्यशालाएँ हैं जिन में बत्तीस-बत्तीस देव-कन्याएं नृत्य करती हैं ॥27॥ तदनंतर पूर्वदिशा में अशोक वन, दक्षिण में सप्तपर्ण वन, पश्चिम में चंपक वन और उत्तर में आम्रवन सुशोभित है ॥ 28॥ इन चारों वनों में अशोक वन का अशोक वृक्ष, सप्तपर्ण वन का सप्तपर्ण वृक्ष, चंपक वन का चंपक वृक्ष और आम्रवन का आम्र वृक्ष स्वामी हैं । ये स्वामी वृक्ष सिद्ध की प्रतिमाओं से सहित हैं अर्थात् इनके नीचे सिद्धों की प्रतिमाएं विराजमान रहती हैं ॥ 29 ॥ उन वनों में तिकोनी, चौकोनी और गोलाकार अनेक वापिकाएं हैं । उन वापिकाओं के तट रत्ननिर्मित हैं तथा उनकी भूमि शुद्ध स्फटिक से निर्मित है । ये सभी वापिकाएं तोरणों से युक्त हैं, दर्शनीय हैं, सीढ़ियों से युक्त हैं, ऊँचे-ऊंचे बरंडों से सुशोभित हैं, प्रवेश करने में गहरी हैं और दो कोस चौड़ी हैं ॥30-31॥ नंदा, नंदोत्तरा, आनंदा, नंदवती, अभिनंदिनी, और नंदघोषा ये छह वापिकाएं अशोक वन में स्थित हैं ॥32॥ विजया, अभिजया, जैत्री, वैजयंती, अपराजिता और ज्योत्तरा ये छह वापिकाएं सप्तपर्ण वन में स्थित हैं ॥ 33 ॥ कुमुदा, नलिनी, पद्मा, पुष्करा, विश्वोत्पला और कमला ये छह वापियाँ चंपक वन में मानी गयी हैं ॥ 34 ॥ और प्रभासा, भास्वती, भासा, सुप्रभा, भानुमालिनी और स्वयंप्रभा ये छह वापियाँ आम्रवन में कही गयी हैं ॥35 ॥ पूर्व आदि दिशाओं की वापिकाएं क्रम से उदय, विजय, प्रीति और ख्याति नामक फूल देती हैं तथा इन फूलों के इच्छुक मनुष्य इन वापिकाओं की पूजा करते हैं ॥36 ॥ क्रम के जानने वाले भक्तजन उन वापिकाओं से यथोक्त फूलों का समूह प्राप्त कर स्तूपों तक क्रम-क्रम से जिनेंद्र प्रतिमाओं की पूजा करते हुए आगे प्रवेश करते हैं ॥37॥ उदय और प्रीतिरूप फल को देने वाली वापिकाओं के बीच के मार्ग के दोनों ओर तीन खंड की सुवर्णमय देदीप्यमान बत्तीस नाट्यशालाएं है ॥38॥ ये नाट्यशालाएँ डेढ़ कोस चौड़ी हैं, नाना प्रकार के बेलबूटों से सुशोभित हैं और उनकी भूमियां रत्नों की बनी हैं तथा उनकी दीवालें स्वच्छ स्फटिक से निर्मित हैं ॥39॥ उनमें ज्योतिषी देवों की बत्तीस-बत्तीस देवांगनाएँ नृत्य करती हैं जो हाव, भाव और विलास से युक्त तथा शृंगार आदि रसों की पुष्टि से सुपुष्ट होती हैं ॥ 40॥ उसके आगे चार गोपुरों से युक्त अत्यंत सुंदर वज्रमयी वनवेदी है जो पूर्वोक्त वनों को चारों ओर से घेरे हुए है । चार गोपुरों के आगे चार वीथियाँ हैं और उनके दोनों पखवाड़ों में ध्वजाओं की पंक्तियां फहराती रहती हैं ॥41॥ प्रत्येक विभाग में उन ध्वजाओं की पृथक्-पृथक् पीठिकाएं हैं जो तीन धनुष चौड़ी हैं, चित्र-विचित्र हैं तथा उन पर आधा योजन ऊंचे रत्नमयी बांस लगे हुए हैं ॥42॥ उन बांसों के अग्रभाग पर जो पटिया लगे हैं उनमें दस प्रकार की रंग-बिरंगी, छोटी-छोटी घंटियों और चित्रपट्टकों से युक्त बड़ी ध्वजाएं फहराती रहती हैं ॥43॥ वे दस प्रकार को ध्वजाएँ क्रम से मयूर, हंस, गरुड़, माला, सिंह, हाथी, मकर, कमल, बैल और चक्र के चिह्न से चिह्नित होती हैं ॥44॥ एक दिशा में एक जाति की ध्वजाएँ एक सौ आठ होती हैं और चारों दिशाओं की मिल कर एक जाति को चार सौ बत्तीस होती हैं । यह इनकी सामान्य रूप से संक्षेप में संख्या बतलायी है ॥45॥ विशेष रीति से एक दिशा में एक करोड़ सोलह लाख चौंसठ हजार हैं और चारों दिशाओं में चार करोड़ अड़सठ लाख छत्तीस हजार कुछ अधिक हैं ॥46-47॥
प्रीति और कल्याणरूप फल देने वाली वापिकाओं के बीच के मार्ग में दोनों ओर पांच खंड की नृत्यशालाएं हैं जिन में भवनवासी देवों की देवांगनाएँ नृत्य करती हैं ॥48॥ नृत्यशालाओं के आगे पांच-पांच खंड के रत्नमयी चार गोपुरों से विभूषित स्वर्ण निर्मित दूसरा कोट है ॥ 49 ॥ गोपुरों के दोनों पखवाड़ों में देदीप्यमान सुवर्ण के पीठों पर स्थित, शंख के समान सुंदर कंठों में पड़ी मालाओं से सुशोभित मुखों पर कमल धारण करने वाले एवं जल से भरे स्वर्ण निर्मित मंगलकलश दो-दो की संख्या में सुशोभित हैं । इस दूसरे कोट के द्वारों पर भवनवासी देवों के इंद्र द्वारपाल हैं जो बेंत की छड़ी धारण किये हुए पहरा देते हैं ॥50-51॥ गोपुरों के आगे दो-दो नाट्यशालाएं हैं और उनके आगे स्वर्ण निर्मित दो-दो धूपघट रखे हुए हैं ॥52॥ उससे आगे चारों दिशाओं में सिद्धों की प्रतिमाओं से युक्त, दो-दो सिद्धार्थ वृक्षों से सहित कल्पवृक्षों का वन वीथियों के अंत में यथारीति स्थित हैं ॥53॥ तदनंतर चार गोपुरों से सहित, वन की रक्षा करने वाली अंतर्वेदिका है और मार्गों में तोरणों से युक्त, सबका भला करने वाले नौ-नौ स्तूप हैं ॥54॥ वे स्तूप पद्मराग मणियों से निर्मित होते हैं तथा उनके समीप स्वर्ण और रत्नों के बने, मुनियों और देवों के योग्य नाना प्रकार के सभागृह रहते हैं ॥55॥ सभागृहों के आगे आकाशस्फटिक मणि से बना, नाना प्रकार के महा रत्नों से निर्मित सात खंड वाले चार गोपुरों से सुशोभित तीसरा कोट है ॥56॥ इस कोट के पूर्व द्वार के विजय, विश्रुत, कीर्ति, विमल, उदय, विश्वधुक्, वासवीर्य और वर ये आठ नाम प्रसिद्ध हैं॥57॥ दक्षिण द्वार के वैजयंत, शिव, ज्येष्ठ, वरिष्ठ, अनघ, धारण, याम्य और अप्रतिघ ये आठ नाम कहे गये हैं ॥50॥ पश्चिम द्वार के जयंत, अमितसार, सुधाम, अक्षोभ्य, सुप्रभ, वरुण और वरद ये आठ नाम स्मरण किये गये हैं ॥59॥ और उत्तर द्वार के अपराजित, अर्थ, अतुलार्थ, उदक, अमोघक, उदय, अक्षय और पूर्णकामक ये आठ नाम हैं ॥60॥ उन द्वारों के पखवाड़ों में उत्तम रत्नमय आसनों के मध्य में स्थित मंगलरूप दर्पण सुशोभित हैं जो देखने वालों के पूर्व भव दिखलाते हैं ॥61॥ ये दर्पण गाढ़ अंधकार को नष्ट करने वाले कांति के समूह से सदा देदीप्यमान रहते हैं और उनसे गोपुर सूर्य को प्रभा को तिरस्कृत कर अतिशय शोभायमान होते हैं ॥62॥ विजयादिक गोपुरों में यथायोग्य जय हो कल्याण हो इन शब्दों का उच्चारण करने वाले एवं देदीप्यमान आभूषणों से युक्त कल्पवासी देव द्वारपाल रहते हैं ॥63॥ ये तीनों कोट एक कोस दो कोस और तीन कोस ऊँचे होते हैं तथा मूल, मध्य और ऊपरी भाग में इनकी चौड़ाई ऊँचाई से आधी होती है ॥64॥ इन कोटों के जगती तलों का प्रमाण अपनी ऊंचाई से तीन हाथ कम कहा गया है और उनके ऊपर बने हुए बंदर के सिर के आकार के कंगूरे एक हाथ तथा एक वितस्ति चौड़े और आधा वेगा ऊँचे कहे गये हैं ॥65॥ उसके आगे नाना वृक्षों और लतागृहों से व्याप्त, मंच, प्रेखागिरि और प्रेक्षागृहों से सुशोभित अंतर्वण है ॥66॥ वेदिकाओं से बद्ध वीथियों के बीच में कल्याण जय नाम का आंगन है और उसमें शाल्मली वृक्ष के समान ऊंचे एवं अंतर से स्थित केला के वृक्ष प्रकाशमान हो रहे हैं ॥67॥ तदनंतर उन्हीं के भीतर नाटक शाला है जिसमें सुवर्ण के समान कांति की धारक लोकपाल देवों की देवांगनाएं निरंतर नृत्य करती रहती हैं ॥68॥ उनके मध्य में श्रेष्ठ गुणों का स्थान तथा ऊंची उठने वाली किरणों से सुशोभित रत्नावली से अंधकार के समूह को नष्ट करने वाला दूसरा पीठ है ॥69॥ उसके आगे सिद्धार्थ वृक्ष हैं जो सिद्धों की प्रतिमाओं से सुशोभित शाखाओं से इच्छापूर्वक ही मानो दिशाओं को व्याप्त कर स्थित हैं ॥70॥ उसके आगे एक मंदिर है जिसे पृथ्वी के आभरण स्वरूप बारह स्तूप उस तरह सुशोभित करते रहते हैं जिस तरह कि सुवर्णमय चार मेरुपर्वत जंबूद्वीप के महामेरु को सुशोभित करते रहते हैं ॥71॥ इनके आगे चारों दिशाओं में शुभ वापिकाएं हैं जो चारों दिशाओं में बने हुए गोपुर-द्वारों और वेदिका से अलंकृत हैं ॥72॥ नंदा, भद्रा, जया और पूर्णा ये चार उनके नाम हैं । उन वापिकाओं के जल में स्नान करने वाले जीव अपना पूर्व-भव जान जाते हैं ॥73॥ वे वापिकाएं पवित्र जल से भरी एवं समस्त पापरूपी रोगों को हरने वाली हैं । इनमें देखने वाले जीवों को अपने आगे-पीछे के सात भव दिखने लगते हैं ॥74॥ वापिकाओं के आगे एक जयांगण सुशोभित है जो एक कोस ऊँचा है, एक योजन से कुछ अधिक चौड़ा है, कटि बराबर ऊंचे बरंडों पर स्थित कदली-ध्वजाओं से व्याप्त है, जिनमें मनुष्य निरंतर प्रवेश करते और निकलते रहते हैं ऐसे द्वारों और उच्च तोरणों से युक्त है, तीन लोक को विजय का आधार है, उसमें बीच-बीच में मूंगाओं की लाल-लाल बालू का अंतर देकर मोतियों की सफेद बालू बिछी हुई है, उत्तम रत्नमय पुष्पों और रखे हुए सुवर्ण कमलों से चित्र-विचित्र है । उस जयांगण के भूभाग, जहां-तहाँ सुवर्ण रस से लिप्त अतएव पृथिवी पर आये हुए सूर्यों के समान दिखने वाले विशाल वर्तुलाकार मंडलों से सुशोभित हैं । जहां-तहाँ नाना प्रकार के चित्रों से चित्रित वह जयांगण, देव, असुर और मनुष्यों से परिपूर्ण भवनों, मंडपों तथा अन्य सुखकर निवास स्थानों से सुशोभित है ॥ 75-79 ॥ कहीं चित्रों से सुंदर और कहीं पुराणों में प्रतिपादित आश्चर्यकारी विभूति से युक्त तथा नाना प्रकार के कथानकों से सहित भवन बने हैं ॥80॥ वे भवन कहीं पुण्य के फल की प्राप्ति से देखने वाले लोगों को धर्म का साक्षात् फल दिखलाते हैं तो कहीं पाप का परिपाक दिखाकर अधर्म का साक्षात् फल दिखलाते हैं ॥ 81 ॥ वे भवन, उन दर्शक जनों को दान, शील, तप और पूजा के प्रारंभ तथा उनके फलों की एवं उनके अभाव में होने वाली विपत्तियों की श्रद्धा कराते हैं ॥82॥ उस जयांगण के मध्य में सुवर्णमय पीठ को अलंकृत करता हुआ इंद्रध्वज सुशोभित होता है जो ऐसा जान पड़ता है मानो भगवान् की विजयलक्ष्मी का मूर्तिधारी शरीर ही हो । उस इंद्रध्वज में देदीप्यमान गोले, लटकती हुई मोतियों की माला और जगमगाते हुए मणियों से युक्त एक पताका लगी रहती है । वह पताका वायु से कंपित होने के कारण घंटियों के शब्द से अत्यंत रमणीय जान पड़ती है । ऊपर उठती हुई किरणों से युक्त रत्नों की माला से सुशोभित वह पताका जब आकाश में फहराती है तब ऐसी जान पड़ती है मानो समुद्र से लहर ही उठ रही हो । इंद्रादिक देव उसे बड़े कौतुक से देखते हैं ॥83-85॥
उसके आगे एक हजार खंभों पर खड़ा हुआ महोदय नाम का मंडप है जिसमें मूर्तिमती श्रुत देवता विद्यमान रहती है ॥ 86 ॥ उस श्रुत देवता को दाहिने भाग में करके, बहुश्रुत के धारक अनेक धीर-वीर मुनियों से घिरे श्रुतकेवली कल्याणकारी श्रुत का व्याख्यान करते हैं ॥87॥ महोदय मंडप से आधे विस्तार वाले चार परिवार मंडप और हैं जिनमें कथा कहने वाले पुरुष आक्षेपिणी आदि कथाएं कहते रहते हैं ॥88॥ इन मंडपों के समीप में नाना प्रकार के फुटकर स्थान भी बने रहते हैं जिनमें बैठकर केवलज्ञान आदि महाऋद्धियों के धारक ऋषि इच्छुक जनों के लिए उनकी इष्ट वस्तुओं का निरूपण करते हैं ॥89॥
उसके आगे नाना प्रकार की लताओं से व्याप्त एक सुवर्णमय पीठ रहता है जिसकी भव्यजीव नाना प्रकार को समयानुसार पूजा करते हैं ॥90॥ उस पीठ का श्रीपद नाम का द्वार है जो रत्नों और फूलों के समूह से युक्त है तथा जो मार्ग के बीच में बने हुए सूर्य और चंद्रमा के समान देदीप्यमान मंडलों से परिपूर्ण है ॥91॥ उस द्वार के दोनों ओर प्रभासक नाम के दो मंडप हैं जिन में मार्ग के सम्मुख, इच्छानुसार फल देने वाले निधियों के स्वामी दो देव सुशोभित रहते हैं ॥92॥ उनके आगे प्रमदा नाम की दो विशाल नाट्यशालाएं हैं जिनमें कल्पवासिनी अप्सराएं सदा नृत्य करती रहती हैं ॥ 93 ॥ विजयांगण के कोनों में चार लोकस्तूप होते हैं जिन पर पताकाओं की पंक्तियाँ फहराती रहती हैं, तथा जो एक योजन ऊँचे रहते हैं ॥94॥ ये लोक स्तूप, नीचे वेत्रासन के समान, मध्य में झालर के समान, ऊपर मृदंग के समान और अंत में तालवृक्ष के समान लंबी नालिका से सहित हैं ॥95॥ इनका स्वच्छ स्फटिक के समान रूप होता है, अतः इनके भीतर की रचना अत्यंत स्पष्ट रहती है । इन स्तूपों में लोक की रचना दर्पण तल के समान स्पष्ट दिखाई देती है ॥96॥ इन स्तूपों के आगे मध्यलोक नाम से प्रसिद्ध स्तूप हैं जिनके भीतर मध्यलोक की रचना स्पष्ट दिखती है ॥97॥ आगे मंदराचल के समान देदीप्यमान मंदर नाम के स्तूप हैं जिन पर चारों दिशाओं में भगवान् की प्रतिमाएं सुशोभित हैं ॥98॥ उनके आगे कल्पवासियों की रचना से युक्त कल्पवास नामक स्तूप हैं जो देखने वालों को कल्पवासी देवों की विभूति साक्षात् दिखाते हैं ॥ 99 ॥ उनके आगे अवेयकों के समान आकार वाले अवेयक स्तूप हैं जो मनुष्यों को मानो ग्रैवेयकों की शोभा ही दिखाते रहते हैं ॥100 ॥ उनके आगे अनुदिश नाम के नौ स्तूप सुशोभित हैं जिनमें प्राणी नौ अनु दिशों को प्रत्यक्ष देखते हैं ॥101 ॥ आगे चलकर जो चारों दिशाओं में विजय आदि विमानों से सुशोभित हैं ऐसे समस्त प्रयोजनों को सिद्ध करने वाले सर्वार्थसिद्धि नाम के स्तूप हैं ॥102 ॥ वन के आगे स्फटिक के समान निर्मल सिद्धस्तूप प्रकाशमान हैं जिन में सिद्धों के स्वरूप को प्रकट करने वाली दर्पणों की छाया दिखाई देती है ॥103॥ उनके आगे देदीप्यमान शिखरों से युक्त भव्यकूट नाम के स्तूप रहते हैं जिन्हें अभव्य जीव नहीं देख पाते क्योंकि उनके प्रभाव से उनके नेत्र अंधे हो जाते हैं ॥104॥ उनके आगे प्रमोह नाम के स्तूप हैं जिन्हें देखकर लोग अत्यधिक विभ्रम में पड़ जाते हैं और चिरकाल से अभ्यस्त गृहीत वस्तु को भी भूल जाते हैं ॥105 ॥ आगे चलकर प्रबोध नाम के अन्य स्तूप हैं जिन्हें देखकर लोग प्रबोध को प्राप्त हो जाते हैं और तत्त्व को प्राप्त कर साधु हो निश्चित हो संसार से छूट जाते हैं ॥ 106 ॥ इस प्रकार जिनकी वेदिकाएं एक दूसरे से सटी हुई हैं तथा जो तोरणों से समुद्भासित हैं ऐसे अत्यंत ऊँचे दस स्तूप क्रम-क्रम से परिधि तक सुशोभित हैं ॥107॥ इसके आगे एक कोट रहता है जो एक कोस चौड़ा तथा एक धनुष ऊंचा होता है और उसके मंडल की भूमि को बचाकर मनुष्य तथा देव प्रदक्षिणा देते रहते हैं ॥108॥ इस परिधि में बाहर की ओर सत्रह कणिकाएं हैं जो एक-एक कोस विस्तृत हैं और भीतर की ओर एक कर्णिका है जो साढ़े तीन योजन विस्तार वाली है ॥109॥ जिस प्रकार परिवेश सूर्य को घेरता है उसी प्रकार चित्र-विचित्र रत्नों से निर्मित यह परिधि भीतर के देदीप्यमान मंडल को घेरे रहती है ॥110॥ वहाँ गणधर देव की इच्छा करते ही एक दिव्य पुर बन जाता है सो ठीक ही है क्योंकि मनःपर्यय ज्ञान के धारक जीवों का प्रभाव महान् होता है ॥111॥ वह पुर कल्प के ज्ञाता मनुष्य के द्वारा त्रिलोकसार, श्रीकांत, श्रीप्रभु, शिवमंदिर, त्रिलोकीश्री, लोक कांतिश्री, श्रीपुर, त्रिदसप्रिय, लोकालोकप्रकाशाद्यौ, उदय, अभ्युदयावह, क्षेम, क्षेमपुर, पुण्य, पुण्याह, पुष्पकास्पद, भुवःस्वर्भूः, तपःसत्य, लोकालोकोत्तम, रुचि, रुचावह, उदारद्धि, दानधर्म पुर, श्रेय, श्रेयस्कर, तीर्थ, तीर्थावह, उदग्रह, विशाल, चित्रकूट, धीश्रीधर, त्रिविष्टप, मंगलपुर, उत्तमपुर, कल्याणपुर, शरणपुर, जयपुरी, अपराजितापुरी, आदित्यपुरी, जयंतीपुरी, अचल संपुर, विजयंत, विमल, विमलप्रभ, कामभू, गगनाभोग, कल्याण, कलिनाशन, पवित्र, पंच कल्याण, पद्मावर्त, प्रभोदय, परार्ध्य, मंडितावास, महेंद्र, महिमालय, स्वायंभुव, सुधाधात्री, शुद्धावास, सुखावती, विरजा, वीतशोका, अर्थविमला, विनयावनि, भूतधात्री, पुराकल्प, पुराण, पुण्यसंचय, ऋषीवती, यमवती, रत्नवती, अजरामरा, प्रतिष्ठा, ब्रह्मनिष्ठोर्वी, केतुमालिनी, अरिंदम, मनोरम, तमःपार, अरत्नी, रत्नसंचय, अयोध्या, अमृतधानी, ब्रह्मपुर, जाताहय और उदात्तार्थ नाम से कहा जाता है ॥112-122॥ भगवान् के प्रभाव से उत्पन्न वह नगर, तीन लोक के समस्त श्रेष्ठ पदार्थों के समूह से युक्त, आश्चर्यस्वरूप एवं बहुत भारी आश्चर्य उत्पन्न करता हुआ सुशोभित होता है ॥123॥ उसका बनाने वाला कुबेर भी एकाग्रचित्त हो उसके बनाने का पुनः विचार करे तो वह भी नियम से भूलकर जायेगा फिर अन्य मनुष्य की बात ही क्या है ? ॥124॥ उस नगर का निर्माण यथा स्थान छब्बीस प्रकार के सुवर्ण और मणियों से चित्र-विचित्र है अतः अत्यधिक सुशोभित होता है ॥125॥ उसके तलभाग में तीन जगती रहती हैं जो आधा-आधा कोस चौड़ी होती हैं और ऊपर-ऊपर उन जगतियों में उतनी ही हानि होती जाती है ॥126॥ उन जगतियों की रचना वज्रमयी एवं चित्र-विचित्र रत्नों से उज्ज्वल है और उनकी श्रेष्ठ कांति चारों और इंद्र धनुषों को विस्तृत करती रहती है ॥ 127॥ छाती प्रमाण ऊँचे तथा देदीप्यमान प्रभा के धारक बरंडे उन जगतियों को सुशोभित करते रहते हैं तथा उन पर एक धनुष के अंतर से स्थित सुशोभित पताकाएं हैं ॥ 128॥ उन जगतियों में तीस-तीस वितस्तियों के कूट और उनसे द्विगुण आयाम वाले दस-दस धनुषों के अंतर से स्थित कोष्ठक रहते हैं ॥129॥ उन जगतियों के समीप दोनों ओर द्वारपालों के दो-दो आवास स्थान हैं जिनमें प्रत्येक द्वार पर कुबेर की अपूर्व धनराशि प्रकाशमान है ॥130॥ प्रत्येक जगती के कूटों की संख्या सात सौ बहत्तर है तथा कोष्ठकों की संख्या अड़तालीस है ॥131॥ संक्षेप से तीनों जगतियों की कूट संख्या बाईस सौ बीस है और कोष्ठों की संख्या उसी प्रमाण से है ॥132॥ प्रथम जगती में बत्तीस हजार तीन सौ इक्यासी, दूसरी में चौबीस हजार दो सौ उन्नीस और तीसरी में इकतीस हजार छप्पन ध्वजाएं रहती हैं ॥ 133 ॥ पूर्व कूटों में दो लाख बत्तीस हजार चार सौ सत्तर, मध्यम कूटों में सात लाख इकसठ हजार एक सौ, और अंतिम कूटों में दो लाख चौवन हजार आठ सौ अस्सी और कोष्ठकों में दूनी-दूनी हैं ॥134-135॥ इस प्रकार समस्त ध्वजाओं की संख्या छब्बीस लाख बीस हजार दो सौ छप्पन है ॥136॥ वहाँ सस्वेद― जलसिक्त प्रदेशों में रत्नों से मंडित अनेक मंडप हैं जो दो कोस चौड़े और एक कोस ऊँचे हैं ॥137॥ जिनकी रचना मंडपों से आधी चौड़ी है, ऐसे शिखरों के मध्य भाग में विराजमान जिनेंद्र भगवान् की प्रतिमाएं हैं जो उत्तम मंगल द्रव्यों से सुशोभित हैं ॥138॥ यद्यपि ये प्रतिमाएं अपने-अपने स्थान पर स्थित हैं तथापि सामने खड़े होकर देखने वालों को ऐसी दिखाई देती हैं मानो उन स्थानों से निकल कर आकाश में ही विद्यमान हों ॥ 139 ॥
वहाँ चारों दिशाओं में देदीप्यमान तीन पीठ होते हैं उनमें पहले पीठ पर चार हजार धर्म चक्र सुशोभित हैं ॥ 140॥ दूसरी पीठ पर मयूर और हंसों को ध्वजाओं से भिन्न आठ प्रकार को महाध्वजाएँ दिशाओं को सुशोभित करती हुई विद्यमान हैं ॥141॥ तीसरी पीठ पर श्रीमंडप को सुशोभित करने वाला अनेक मंगलद्रव्यों से सहित गंधकुटी नाम का प्रासाद है उसमें भगवान् का सिंहासन रहता है ॥142॥ उस सिंहासन पर विराजमान जिनेंद्रदेव की संतुष्ट चित्त के धारक मनुष्य, सुर और असुरों के झुंड के झुंड मुकुटों पर हाथ लगाकर स्तुति करते थे ॥143 ॥ वे कह रहे थे कि हे महादेव ! आपकी जय हो । हे महेश्वर ! आप जयवंत हों, हे महाबाहो ! आप विजयी हों, हे विशालनेत्र ! जयवंत हों ॥144॥ इत्यादि करोड़ों स्तवनों के बाद वरदत्त ने तत्काल दीक्षा ले लो और गणों के स्वामी प्रथम गणधर हो गये ॥145॥ उसी समय छह हजार रानियों के साथ दीक्षा लेकर राजीमती आर्यिकाओं के समूह की प्रधान बन गयी ॥146 ॥ मुनि समूह को आदि लेकर बारह गण भगवान् नेमिनाथ को प्रणाम कर यथास्थान उनकी उपासना करते थे ॥147 ॥
मार्ग के चारों ओर घेरकर बारह सभाएं उनकी पूर्व, दक्षिण आदि दिशाओं में मुनि समूह को आदि लेकर बारह गण विराजमान थे ॥148॥ वहाँ उत्कृष्ट वर को प्रदान करने वाले भगवान नेमिनाथ के आगे वरदत्त को आदि लेकर अनेक मुनि सुशोभित थे जो धर्म के स्वरूप को प्रत्यक्ष करने वाले एवं अत्यंत निर्मल धर्मेश्वर के अंश के समान जान पड़ते थे ॥149॥ उनके आगे कल्पवासिनी देवियां सुशोभित थीं जो ऐसी जान पड़ती थीं मानो भगवान् की बाह्याभ्यंतर विभूतियाँ हो उनका रूप रखकर स्थित हों ॥150॥ उनके बाद तीसरी सभा में लज्जा, दया, क्षमा, शांति आदि गुणरूपी संपत्ति से सुशोभित आर्यिकाएं विराजमान थीं जो समीचीन धर्म की पुत्रियों के समान जान पड़ती थीं ॥151॥ चौथी सभा में प्रशंसनीय एवं अपने-आप से निकलने वाली प्रभा से सुशोभित ज्योतिषी देवों की स्त्रियाँ बैठी थीं जो भगवान् की कांति के समान जान पड़ती थीं ॥152॥ पांचवीं सभा में मूर्तिधारिणी वन की लक्ष्मी के समान सुंदर वनवासी व्यंतर देवों की स्त्रियां स्थित थीं तथा वे वन की पुष्पलताओं के समान नम्रीभूत हो भगवान् के चरणों को नमस्कार कर रही थीं ॥153 ॥ छठी सभा में भगवान् की अत्यधिक भक्ति से युक्त भवनवासी देवों की अंगनाएं स्थित थी जो ऐसी जान पड़ती थीं मानो स्वर्ग, भूमि और अधोलोक की लक्ष्मियां ही भगवान् के समीप आकर बैठी हैं ॥154॥ सातवीं सभा में फणा के समान देदीप्यमान रत्नों को कांति से लाल-लाल दिखने वाले भवनवासी देव, अपने संसार से भयभीत होते हुए, पापबंध का छेदन करने वाले भगवान् के समीप विद्यमान थे ॥155॥ आठवीं सभा में सुंदर आकार के धारक व्यंतर देव बैठे थे । वे भगवान् के आभूषण स्वरूप थे तथा फूलों की मालाओं को धारण करने वाले मंदरगिरि के समान जान पड़ते थे ॥156॥ नवमी सभा में जिनकी अपनी प्रभा भगवान् की प्रभा में निमग्न हो गयी थी ऐसे सूर्य आदि ज्योतिषी देवों के समूह नम्रीभूत हो भगवान से अपनी प्रभा वृद्धि की प्रार्थना कर रहे थे ॥157॥ दसवीं सभा में सौंदर्य के स्वामी, सुखी एवं ऊपर उठे हुए भगवान् के अंशों के समान इंद्र आदि कल्पवासी देव सुशोभित हो रहे थे ॥158॥ ग्यारहवीं सभा में चक्रवर्ती आदि राजा भगवान् की उपासना करते थे और वे ऐसे जान पड़ते थे मानो शरीरधारी दान-पूजा आदि धर्मों के निर्मल अंश ही हो ॥159 ॥ तथा बारहवीं सभा में, जिन्हें अविद्या, वैर, माया आदि दोषों के नष्ट हो जाने से विद्या, क्षमा आदि तत्त्वगुण प्राप्त हुए थे ऐसे सिंह, हाथी आदि तिर्यंच विद्यमान थे और वे ऐसे जान पड़ते थे मानो उन्हीं के समान दूसरे तिर्यंच हों । भावार्थ― तिर्यंच अपनी स्वाभाविक कुटिलता को छोड़कर तदाकार होने पर भी ऐसे लगते थे जैसे ये वे न हों दूसरे ही हों ॥160॥ इस प्रकार द्वादशांग के गुणों के समान बारह सभाओं-संबंधी बारह गण, प्रदक्षिणा रूप से भगवान् की उपासना करते थे ॥161॥
भगवान् नेमिनाथ, अपने सिंहासन की शोभा से दूसरों में न पाये जाने वाले परमेष्ठीपना को ख्यापित कर रहे थे । क्रमपूर्वक ढोरे जाने पर देवोपनीत चमरों से महेशिता को, तीन चंद्रमा के समान कांति को धारण करने वाले छत्रत्रय से तीन लोक के स्वामित्व को, संसार के आंतरिक अंधकार को नष्ट करने वाले भामंडल से कांति की अधिकता को, सब ऋतुओं के फूलों से युक्त अशोक वृक्ष के द्वारा अन्य समस्त जीवों के शोक दूर करने की सामर्थ्य को, पुष्पवृष्टिरूप पूजा के द्वारा पूज्यता को, अभयोत्पत्ति की घोषणा करने वाली दिव्यध्वनि से जयलक्ष्मी को सर्वहितकारिता को और आनंददायी मंगलमय वादित्रों के नाद से साधुजनों के चित्त को आनंदित करने की सामर्थ्य को प्रकट कर रहे थे ॥162-165॥ जो आत्मा के अधीन हो उन्हें प्रतीहार कहते हैं । इस प्रकार आत्माधीन गुणों से उत्पन्न अष्ट महाप्रातिहार्यों से भगवान् नेमिनाथ सुशोभित हो रहे थे ॥166 ॥ आत्मोत्थ समस्त विभूति को धारण करने वाले भगवान् सर्वलोकातिवर्ती दीप्ति से लोगों का कल्याण करने के लिए समवसरण में विराजमान हुए ॥167॥ उस समय देव लोग घोषणा के साथ यह कहकर जीवों का आह्वान कर रहे थे कि हे आत्महित के इच्छुक भव्यजनो ! संपूर्ण विकसित आत्मा को धारण करने वाले केवली भगवान् यह विराजमान हैं, शीघ्रता से यहाँ आओ-आओ और इन्हें नमस्कार करो ॥168॥ इस प्रकार जब देवों ने आह्वान किया तब शीघ्र ही मनुष्य, देव और असुर वैभव के साथ सब ओर से समवसरण में आने लगे ॥169॥
समवसरण के दृष्टि गोचर होते ही वे मानांगण में खड़े हो सबसे पहले हाथ जोड़ मस्तक से लगाकर वाहनों से नीचे उतरते हैं ॥170॥ तदनंतर वाहन आदि परिग्रह को बाहर छोड़कर विशिष्ट राज्य चिह्नों से युक्त हो मान पीठ की प्रदक्षिणा देते हैं ॥171॥ प्रदक्षिणा के बाद सबसे पहले मानस्तंभ को नमस्कार करते हैं तदनंतर हृदय में उत्तम भक्ति को धारण करते हुए उत्तम पुरुष भीतर प्रवेश करते हैं ॥172॥ और पापी, विरुद्ध कार्य करने वाले, शूद्र, पाखंडी, नपुंसक, विकलांग, विकलेंद्रिय तथा भ्रांत चित्त के धारक मनुष्य बाहर ही प्रदक्षिणा देते रहते हैं ॥173॥ सुरेंद्र, असुरेंद्र तथा नरेंद्र आदि उत्तम पुरुष छत्र, चमर और शृंगार आदि को जयांगण में छोड़ आप्त जनों के साथ हाथ जोड़कर भीतर प्रवेश करते हैं ॥174॥ मणिमय मुकुटों को धारण करने वाले वे सब भीतर प्रवेश कर विधिपूर्वक प्रणाम करते हैं और चक्र पीठ पर आरूढ़ होकर भगवान् जिनेंद्र की तीन बार प्रदक्षिणा देते हैं ॥175॥ इच्छानुसार अपनी शक्ति और विभव के अनुकूल सामग्री से पूजा करते हुए अपने नाम का उल्लेख कर नमस्कार करते हैं ॥176॥ तदनंतर जिन्होंने अपनी अंजलियाँ मस्तक से लगा रखी हैं और रोमांचों से जिनका हर्ष प्रकट हो रहा है ऐसे वे सब अपनी-अपनी सीढ़ियों से नीचे उतरकर सभाओं में यथास्थान बैठते हैं ॥177॥ जिस प्रकार सूर्य के सम्मुख खिला हुआ कमलों का समूह सुशोभित होता है उसी प्रकार जिनेंद्र भगवानरूपी सूर्य के सम्मुख वह गुणरूपी― द्वादस सभारूपी कमलों का समूह सुशोभित हो रहा था ॥ 178 ॥ जिस प्रकार नदी समुद्र को भरने में समर्थ नहीं है उसी प्रकार सब ओर से समवसरण में प्रवेश करती हुई वह सेना उसे भरने में समर्थ नहीं थी ॥179॥ वहाँ बाहर निकलता, आता, प्रवेश करता, दर्शन करता, प्रदक्षिणा देता, संतुष्ट होता, भगवान् को प्रणाम करता और उनकी स्तुति करता हुआ सज्जनों का समूह सदा विद्यमान रहता है ॥180॥ समवसरण के भीतर भगवान् के प्रभाव से न मोह रहता है, न राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं, न उत्कंठा, रति एवं मात्सर्य भाव रहता हैं, न अँगड़ाई और जमुहाई आती है, न नींद आती है, न तंद्रा सताती है, न क्लेश होता है, न भूख लगती है, न प्यास का दुःख होता है और न सदा समस्त दिन कभी अन्य समस्त प्रकार का अमंगल ही होता है ॥ 181-182 ॥ बाह्य विभूति के अद्वितीय स्थान समवसरण भूमि में जब अंतरंग आत्मा की पवित्रता से युक्त भगवान् विराजमान होते हैं तब बारह सभाओं का समूह अपने तृषित नेत्रों से उनके अमृतरूप सौंदर्य सागर का पान करता है ॥183 ॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराण में समवशरण का वर्णन करने वाला सत्तावनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥57 ॥